कविता का नया चेहरा

                                             विवरण भी, विजन भी 
                                                         
                                                           श्‍यामबिहारी श्‍यामल

                  भारतभूषण अग्रवाल पुरस्‍कार की तीन अगस्‍त ( 2011 ) को घोषणा से पहले ही अनुज लुगुन की पदचाप सुनाई पड़ने लगी थी। उनके काव्‍य-प्रयास ने जिस तेजी से लोगों का ध्‍यान खींचना शुरू किया, यह लगभग नयी तरह की घटना देखी गयी। न किसी ज्ञात ' तुर्रम खां ' ने फरमान फेंका, न कोई जुबानी  ' तीस मार खां ' यह श्रेय लूट-झपट सका कि ' इसे भी तो ' उन्‍होंने ही पहचाना और पहचान दी... और देखते ही देखते झारखंड के सिमडेगा जैसी छोटी जगह से आने वाला एक भोला-भाला आदिवासी युवक रातोंरात सर्वज्ञात हो गया...। यश:लिप्‍सु अफसरों और खाये-पिये-अघाये-मोटायों का धुंआधार साहित्‍योपवीत करने में जुटे तमाम ' मठ ' और मठाधीश ताकते रह  गये, अपनी चर्बीदार खुमारी में लिपटे और भारी पलकें लपकाते-झपकाते या हाथ मलते हुए। निश्‍चय ही यह स्थिति संभव की है आभासी कही जाने वाली इसी घनघोर प्रभावी-प्रभाषी वेब-दुनिया ने। यहां कुछेक ऐसी रचनाकार इकाइयां सक्रिय हैं जिनका सुबह से लेकर देर रात तक का क्षण-क्षण दर्ज़ होता समय रचनात्‍मकता का नया भूगोल-इतिहास गढ़ने में व्‍यतीत हो रहा है। वेब के इस शब्‍द-संसार ने ही शब्‍दों के हमारे संसार को ' संपादक ' नामक स्‍वेच्‍छाचारी-बिगड़ैल दरोगा से आजाद कराया है। यहां कबीर के ललकारे कुछ ऐसे दीवाने मोर्चे पर डटे हुए हैं जिनके हाथ में 'लुआठी' और सनसनाते मुंड में कुछ नया और सार्थक करते चलने का जुनून धधक रहा है। ऐसे ही लोगों के अनायास अलक्षित प्रयास ने अनुज लुगुन को अचानक सामने लाकर खड़ा कर दिया है। हाल ही दिल्‍ली में हुए ' कवि के साथ ' आयोजन में वरिष्‍ठतम कवि कुंवर नारायण और अरुण देव के साथ काव्‍य-पाठ करने के बाद तो हिन्‍दी के इस सबसे युवा रचनाकार को एक ठोस पहचान ही मिल गयी। यह भी सुखद संयोग रहा कि भारतभूषण अग्रवाल पुरस्‍कार का निर्णय इस बार उदय प्रकाश जैसे व्‍यापक और बेबाक सोच के शख्‍स ने लिया। ऐसे में तो कुछ न कुछ अपूर्व, अपारंपरिक किंतु असंदिग्‍ध ही होना था, जो बाकायदा सामने भी आया।
                  अनुज लुगुन की कविताएं अपने विवरण में जितनी तथ्‍यसजग और गझिन हैं, उनका विजन उतना ही साफ और संशयमुक्‍त। उन्‍हें पढ़ते हुए लगता है कि झारखंड के घायल पहाड़ लंगड़ाते हुए आकर सामने खड़े हो गये हैं और दु:ख की अपनी महागाथा सुना रहे हैं... रौंदी हुई रुंआसी-रुंधी नदियां सामने बिछीं आंसू-गीत विलाप रही हैं... कटा हुआ विकलांग जंगल कभी रो रहा है तो कभी आंखों से जल पोंछ उनमें लाली जला रहा है...। संभावनाएं झलकाने वाली बात यह कि यह कवि अपने स्‍वभाव से ही अकृत्रिम और अति-उत्‍साह के प्रति निर्णित उदासीनता से भरा महसूस हो रहा है। यहां उनकी कविताएं...  

                                      अनुज लुगुन की पांच कविताएं    




                                               अघोषित उलगुलान

अल सुबह दान्डू का काफ़िला
रुख़ करता है शहर की ओर
और साँझ ढले वापस आता है
परिन्दों के झुण्ड-सा,

अजनबीयत लिए शुरू होता है दिन
और कटती है रात
अधूरे सनसनीखेज क़िस्सों के साथ
कंक्रीट से दबी पगडंडी की तरह
दबी रह जाती है
जीवन की पदचाप
बिल्कुल मौन !

वे जो शिकार खेला करते थे निश्चिंत
ज़हर-बुझे तीर से
या खेलते थे
रक्त-रंजित होली
अपने स्वत्व की आँच से
खेलते हैं शहर के
कंक्रीटीय जंगल में
जीवन बचाने का खेल

शिकारी शिकार बने फिर रहे हैं
शहर में
अघोषित उलगुलान में
लड़ रहे हैं जंगल

लड़ रहे हैं ये
नक्शे में घटते अपने घनत्व के खिलाफ़
जनगणना में घटती संख्या के खिलाफ़
गुफ़ाओं की तरह टूटती
अपनी ही जिजीविषा के खिलाफ़

इनमें भी वही आक्रोशित हैं
जो या तो अभावग्रस्त हैं
या तनावग्रस्त हैं
बाकी तटस्थ हैं
या लूट में शामिल हैं
मंत्री जी की तरह
जो आदिवासीयत का राग भूल गए
रेमण्ड का सूट पहनने के बाद ।

कोई नहीं बोलता इनके हालात पर
कोई नहीं बोलता जंगलों के कटने पर
पहाड़ों के टूटने पर
नदियों के सूखने पर
ट्रेन की पटरी पर पड़ी
तुरिया की लवारिस लाश पर
कोई कुछ नहीं बोलता

बोलते हैं बोलने वाले
केवल सियासत की गलियों में
आरक्षण के नाम पर
बोलते हैं लोग केवल
उनके धर्मांतरण पर
चिंता है उन्हें
उनके 'हिन्दू’ या 'ईसाई’ हो जाने की

यह चिंता नहीं कि
रोज कंक्रीट के ओखल में
पिसते हैं उनके तलबे
और लोहे की ढेंकी में
कूटती है उनकी आत्मा

बोलते हैं लोग केवल बोलने के लिए।

लड़ रहे हैं आदिवासी
अघोषित उलगुलान में
कट रहे हैं वृक्ष
माफियाओं की कुल्हाड़ी से और
बढ़ रहे हैं कंक्रीटों के जंगल ।

दान्डू जाए तो कहाँ जाए
कटते जंगल में
या बढ़ते जंगल में ।


   

आदिवासी 

वे जो सुविधाभोगी हैं
या मौक़ा परस्त हैं
या जिन्हें आरक्षण चाहिए
कहते हैं हम आदिवासी हैं,
वे जो वोट चाहते हैं
कहते हैं तुम आदिवासी हो,
वे जो धर्म प्रचारक हैं
कहते हैं
तुम आदिवासी जंगली हो ।
वे जिनकी मानसिकता यह है
कि हम ही आदि निवासी हैं
कहते हैं तुम वनवासी हो,

और वे जो नंगे पैर
चुपचाप चले जाते हैं जंगली पगडंडियों में
कभी नहीं कहते कि
हम आदिवासी हैं
वे जानते हैं जंगली जड़ी-बूटियों से
अपना इलाज करना
वे जानते हैं जंतुओं की हरकतों से
मौसम का मिजाज समझना
सारे पेड़-पौधे, पर्वत-पहाड़
नदी-झरने जानते हैं कि वे कौन हैं



लालगढ़ 


ऐसा तो नहीं है, साहब !
कोई ईंट फेंके
और आप चुप रहें
ऐसा तो नहीं है, साहब !
कोई आपके जमीर को चुनौती दे
और आप कुछ न कहें

ऐसा तो नहीं है, साहब !
कोई दख़लअंदाज़ी करे
और आप उसकी आरती उतारें
ऐसा तो नहीं है, साहब !
धुआँ उठे और आग न रहे
ऐसा तो नहीं है
है न, साहब !

कुछ तो है ज़रूर, साहब !
जो वातानुकूलित कमरे में
रहते हुए आप महसूसते नहीं
कुछ तो है ज़रूर, साहब !
जो रोबड़ा सोरेन
पिछले कई सालों से
नाम बदल कर फिरता है

कुछ तो है ज़रूर, साहब !
जो आदिम जनों की
आदिम वृत्ति को जगाता है
कुछ तो है
कुछ तो है ज़रूर, साहब !

आप ही के गिरेबान में
वरना कोई भी ’गढ़’
यूँ ही ’लाल’
नहीं होता

और आप हैं कि
बड़ी बेशर्मी से कह देते हैं कि
बद‍अमनी के जिम्मेवार
रोबड़ा सोरेन को ज़िंदा या मुर्दागिरफ़्तार किया जाए 
                                                 महुवाई गंध
             कामगारों एवं मज़दूरों की ओर से उनकी पत्नियों के नाम भेजा गया प्रेम-संदेश

ओ मेरी सुरमई पत्नी !
तुम्हारे बालों से झरते हैं महुए ।

तुम्हारे बालों की महुवाई गंध
मुझे ले आती है
अपने गाँव में, और
शहर की धूल-गर्दों के बीच
मेरे बदन से पसीने का टपटपाना
तुम्हे ले जाता है
महुए के छाँव में
ओ मेरी सुरमई पत्नी !

तुम्हारी सखियाँ तुमसे झगड़ती हैं कि
महुवाई गंध महुए में है ।

मुझे तुम्हारे बालों में
आती है महुवाई गंध
और तुम्हें
मेरे पसीनों में
ओ मेरी महुवाई पत्नी !

सखियों का बुरा न मानना
वे सब जानती हैं कि
महुवाई गंध हमारे प्रेम में है ।


                                                             ग्‍लोब
मेरे हाथ में क़लम थी
और सामने विश्व का मानचित्र
मैं उसमें महान दार्शनिकों
और लेखकों की पंक्तियाँ ढूँढ़ने लगा
जिन्हें मैं गा सकूँ
लेकिन मुझे दिखाई दी
क्रूर शासकों द्वारा खींची गई लकीरें
उस पार के इंसानी ख़ून से
इस पार की लकीर, और
इस पार के इंसानी ख़ून से
उस पार की लकीर ।

मानचित्र की तमाम टेढ़ी-मेंढ़ी
रेखाओं को मिलाकर भी
मैं ढूँढ़ नही पाया
एक आदमी का चेहरा उभारने वाली रेखा
मेरी गर्दन ग्लोब की तरह ही झुक गई
और मैं रोने लगा ।

तमाम सुने-सुनाए, बताए
तर्कों को दरकिनार करते हुए
आज मैंने जाना
ग्लोब झुका हुआ क्यों है ।     00
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About Shyam Bihari Shyamal

Chief Sub-Editor at Dainik Jagaran, Poet, the writer of Agnipurush and Dhapel.
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2 comments:

  1. अनुज की कविता यत्र तत्र पढ़ा हूं... चूँकि झारखण्ड से हूँ सो सभी कविता अपनी सी लग रही हैं... कभी मेरे ब्लॉग पर आइये...

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