वे दिन जो कभी ढले नही


  वे दिन जो कभी ढले नहीं :::: कृष्णानंद जी भोजपुरी के अग्रणी रचनाकारों में हैं. उन्होंने 80 के दशक में लघुपत्रिका 'पुनः' के माध्यम से हिंदी में भी सार्थक हस्तक्षेप किया था. इस पत्रिका के 'लघुकथा विशेषांक' ने नवें दशक के प्रारंभ में फुनगती हुई नई कथा-विधा को यादगार संरक्षण व खाद-पानी दिया था. यह वह दौर था जब हमलोग पलामू (पहले बिहार, अब झारखंड) में साथ-साथ थे.

कृष्णानंद जी पेशे से अभियंता थे. उनका कार्यालय डालटनगंज में रेलवे स्टेशन के निकट पानी टंकी परिसर में था. वह पहले मेरे अग्रज कृष्ण बिहारी सिंह के परिचित थे. घर में उनकी चर्चा 'इंजीनियर साहब' या 'पाठक जी' के रूपों में अक्सर होती रहती. 

मैं पत्रकार के रूप में सक्रिय हो चुका था. इस बीच अचानक एक अप्रत्याशित घटना-क्रम हुआ.  मैं स्थानीय प्रमुख हिंदी साप्ताहिक पत्र 'पलामू दर्शन' का संपादक नियुक्त कर लिया गया! वहां के शब्द-जगत में स्वाभाविक रूप से हलचल-सी हुई. दैनिक अखबारों की कम व्याप्ति का वह दौर वस्तुतः साप्ताहिक पत्रों के ही हवाले था. बाहर से आने वाले दैनिक अखबारों में गिनती के समाचार होते. हॉकर साइकिल से उनके साथ 'लोकल' के ग्लैमर के साथ स्थानीय साप्ताहिक पत्र बांटते.  डालटनगंज से निकलने वाले ऐसे पत्रों में 'पलामू टाइम्स' सबसे पुराना था, 'पलामू दर्शन' और 'छोटानागपुर भूमि' बाद में निकले लेकिन छा चुके थे. एक 'पलामू दर्पण' भी था, जो कुछ कम दिखता था. 

बहरहाल, 'पलामू दर्शन' की प्रिंटलाइन में बतौर 'संपादक' जब 'श्याम बिहारी सिंह श्यामल' छपना शुरू हुआ तो जो स्थानीय सीनियर लेखक मेरी ओर खिंचे, कृष्णानंद जी उनमें सर्वप्रमुख थे. 'पलामू दर्शन' के मेरे संपादित प्रथम अंक से ही पहले पन्ने की कवर स्टोरी और भीतर के साहित्य पृष्ठ का कलेवर सबसे अलग और पुष्ट होना शुरू हो गया. 

मुझे याद है, उसी दौरान एक दिन सुबह-सुबह घर पर 'पाठक जी' पधारे. उन्होंने बड़े भाई साहब की जगह मुझे खोजा तो घर के लोग चौंके. 

मैं बाहर आया तो वह मुझसे ऐसे मिले जैसे किसी नए और खास व्यक्ति से मिल रहे हों! 

उन्होंने मेरे अखबार का अंक सामने रखकर साहित्य पेज़ खोला और लेआउट से लेकर सामग्री तक की उन्मुक्त तारीफ़ की. 

उन्होंने बार-बार आश्चर्य जताया कि मैं साहित्य का अनुरागी हूं, यह उन्हें अब तक पता क्यों नहीं चल सका! उसके बाद तो फिर घर पर उनके आने और साथ-साथ निकलने-घूमने का जो क्रम आगे बढ़ा सो क्रमशः सघन ही होता चला गया.

★ कथाकार कृष्णानंद कृष्ण की याद : वे दिन जो कभी ढले नहीं 02 :::: भोजपुरी के साथ कृष्णानंद कृष्ण का संबंध शरबत और मिठास की तरह था! एक-दूसरे में लीन-विलीन. पूरी तरह तरल और विरल.

यह अस्सी के दशक का डालटनगंज था. समाजवादी धुरंधर पूरनचंद पलामू की राजनीति में 'भूतपूर्व' हो प्रतीकात्मक रह गए थे. चुनावों में उनके धुर विरोधी बनकर पेश होने वाले इंदर सिंह नामधारी 'वर्तमान'. (लगभग दो दशक बाद जब झारखंड अलग राज्य बना तो इंदर जी प्रथम विधानसभाध्यक्ष बने.)

जेलहाता रोड पर अजंता प्रेस.  यहीं से 'छोटानागपुर भूमि' साप्ताहिक शुरू हुआ था. बाबू शिवशंकर सिंह इसके सर्वेसर्वा थे. अख़बार में संरक्षक के रूप में अवधेश कुमार सिंह का नाम छपता था जो तत्कालीन कांग्रेस में बागी तेवर के नेता थे. प्रधान संपादक शिवशंकर बाबू थे और संपादक गोकुल वसंत जी.  

नगर के पुराने बाशिंदों में शामिल शिवशंकर बाबू मूलतः उत्तर प्रदेश के गाजीपुर ज़िले के थे. उनकी ससुराल पलामू के चैनपुर इलाके में थी. यहां अब उनकी अच्छी-खासी खेती-बारी भी थी. 

शिवशंकर बाबू की आवाज़ बहुत महीन थी किंतु आंच या चाकू-धार जैसी तेज. स्पर्श के साथ ही झुलसा या काट-खरोंच कर रख देने वाली. वह हमेशा व्यंग्य-शैली में बोलते और नेताओं से लेकर लेखक-पत्रकारों तक को अपने निशाने पर लेते रहते. एक-एक व्यक्ति के हाव-भाव-स्वभाव और गतिविधि पर उनकी बारीक निगाह रहती. वह नए-से-नए व्यक्ति के बारे में ऐसा कमेंट कर देते कि हर कोई अचंभित रह जाता. उसी तरह पुराने से पुराने व्यक्ति के बारे में कभी ऐसा भी नया कमेंट उड़ा देते जो स्वयं संबंधित इकाई के लिए पर्दाफाश कोटि तक का भी निकल आता.

उनके कमेंट पर नाराज़गी दर्ज कराने वालों के नाम या उनसे संबंधित प्रसंग तो सीमित ही हैं लेकिन कुछेक अपवादों को छोड़कर शायद ही कोई व्यक्ति होता जिसे स्वयं पर उनके कमेंट का इंतज़ार न रहता. साहित्यिक बिरादरी में तो वह अभिभावक के रूप में निर्विवादत: सर्वस्वीकृत थे ही, प्रायः सभी दलों के विधायक-पूर्व विधायक से लेकर युवा नेता तक उनके प्रति श्रद्धालु और स्वयं से संबंधित उनके नज़रिये को लेकर जिज्ञासु बने रहते. 

तो, उन्हीं शिवशंकर बाबू का कृष्णानंद   को लेकर एक अद्भुत दावा सर्वविदित था, '..पठकवा, कितना भी जोर लगा ले, लगातार तीन वाक्य भी हिंदी नहीं बोल सकता.. दूसरा वाक्य आते-आते भोजपुरी का भूत उसे दबोच ही लेता है..'

यह कमेंट और इसका ऐसा अंदाज़ तो अपनी जगह, ज़मीनी सच भी कुछ अलग न था. 

कृष्णानंद जी कहीं किसी से कभी जब भी मुख़ातिब होते, सामने का व्यक्ति चाहे खड़ी बोली बोल रहा हो या अंग्रेज़ी, वह अपनी असली बोली-बानी में ही बतियाते चले जाते. क्या घर-दुआर, क्या शहर-बाज़ार और क्या ऑफ़िस या कहीं कोई मीटिंग-गोष्ठी ही! उनके मुख से आरा-बक्सर की मौलिक टोन वाली खांटी भोजपुरी अबाध झरझराती रहती. मौलिक ठनक के साथ. 

शिवशंकर बाबू विचार से समाजवादी थे और मिज़ाज़ से साहित्यिक. उन्होंने पंचमुहान पर पूरनचंद के राजनीतिक अखाड़े में अपनी कितनी ही शामें कुर्बान की थी. 

पलामू में सन उन्नीस सौ सड़सठ के भीषण अकाल पड़ा था. 'दिनमान' की टीम अकाल के कवरेज को यहां आई थी. इसमें फणीश्वरनाथ रेणु के साथ स्वयं अज्ञेय भी शामिल थे. कहा जाता है कि अत्यंत गुरु गंभीर माने जाने वाले अज्ञेय जी ने पलामू के जिन कुछेक लोगों से वार्ता की उनमें शिवशंकर बाबू प्रमुख थे. 

अज्ञेय जी को शिवशंकर बाबू ने ही पलामू के भूगोल, इतिहास से लेकर साहित्य और समाज तक के बारे में विस्तार से जानकारी दी थी. 

शिवशंकर बाबू की लंबी-चौड़ी ऊंची काया पर हमेशा शुद्ध मोटी खादी सजी रहती. सड़क पर ही खपड़े का किंतु बंगलानुमा, बड़े खुले बरामदे वाला मक़ान. दर्जनाधिक पांवों वाली बड़ी-सी चौकी पर वह अकेले विराजमान होते तब भी बरामदा भरा-पूरा दिखता. धोती को लुंगी की तरह खुंटे वह पेट पर ज़ेब वाली गंजी डाले पड़े रहते. बगल के कमरे में ट्रेडिल मशीन शोर मचाती चलती रहती और छपाई का कार्य होता रहता. 

वह हैंड कंपोजिंग का दौर था. बरामदे से लगा सामने का कमरा बड़ा था.  उसमें ग्राहक को डेलिवरी देने के लिए  बांध कर रखी तैयार मुद्रित सामग्री से लेकर लोहा-लक्कड़ व तेल-ग्रीस के भीगे-अधभीगे डब्बे आदि भी रखे होते. इसी में कंपोजिंग की कई मेज़ें थीं, जहां बैठे कंपोजिटर अपना काम करते रहते. 

इस बीच सामने से कोई आता दिख जाता तो शिवशंकर बाबू बहुत गहरे लगाव किंतु चुने हुए सीमित विशेष शब्दों के साथ उसका स्वागत करते. आने वाला व्यक्ति अगर लेखक-पत्रकार हुआ तो शब्दावली अलग होती और नेता-समाजसेवी रहा तो कुछ भिन्न, किंतु उनका कोई वाक्य कभी सीधा-सपाट या निर्व्यंग्य नहीं होता.  


 ★ शिवशंकर बाबू के वैचारिक अखाड़े पर   अलग-अलग समय में भिन्न-भिन्न रंग और नज़ारे खिलते. पैदल टहलते पूर्व विधायक मोहन सिंह और  व्रजराज मिश्र सरीख़े लोग भुनभुनाते हुए आ जाते तो समाजवादी चिन्तन जाग उठता जबकि अर्थपूर्ण मंद मुस्कान खिलाए हृदयानंद  मिश्र, शंकर पांड़े और रामाशीष पांडेय आदि पहुंचते तो कांग्रेस के दिन बहुरने लगते.  स्कूटर पर कृष्णानंद जी के साथ चंद्रेश्वर कर्ण आ जाते तो बात साहित्य और प्रगतिशीलता पर केंद्रित हो जाती. 

मैं घूमता-घामता सुबह या शाम कभी भी पहुंच जाता. मेरे साथ अक्सर विषय-संदर्भ का बंधन नहीं होता था. यह शुद्ध रूप से उनके मूड से तय होता कि वह क्या कह या पूछकर कौन-सा संदर्भ-विषय चुनने जा रहे हैं! कभी साहित्य, कभी पत्रकारिता तो कभी राजनीति, वह कभी भी किसी भी विषय पर बतकही शुरू कर देते. विशिष्ट शैली में किसी न किसी पर निशाना साधना वह शुरू करते और अपने अंदाज में विरोध करना मैं! इस बीच यदि नियत समय हुआ तो भीतर से कपों में चाय आ चुकी होती या इशारा पाकर केतली लेकर बाहर गया प्रेस-वर्कर चुक्कड़ सहित सामने हाज़िर रहता. 

बहस-विवाद का सारा नाद-निनाद चाय सामने आ चुकने के बाद एक झटके के साथ एक तरफ! वह हंस कर कहते, '..चाय पी लेते हैं, फ़िर आगे बात होगी!..'

कृष्णानंद जी जब 'पुनः' का 'लघुकथा' केंद्रित अंक निकाल रहे थे तो कर्ण जी उनके साथ स्कूटर पर अक्सर दिख जाते. प्रिंटिंग प्रेस इंजीनियरिंग रोड पर था, कृष्णानंद जी का दफ़्तर रेलवे स्टेशन के पास और जीएलए कॉलेज बारालोटा में. कर्ण जी को स्कूटर पर बिठाए वह कॉलेज से प्रेस की ओर बढ़ते या उधर से इधर लौटते तो बीच में शिवशंकर बाबू बतौर जंक्शन पड़ते ही पड़ते. क्या-क्या सामग्री आज कंपोजिंग में गई या कल ज़ाने वाली है, कैसी रचनाएं आई हैं या आ रही हैं, रचनाओं पर कितना काम करना पड़ रहा है, आदि सरीख़े संदर्भों पर बातें होतीं. 

शिवशंकर बाबू हमारे पहुंचने पर जानकारी देते, ''..आज दोपहर में 'कृष्णानंद जी' आए थे..''

वह जब किसी नाम में 'जी' लगा देते तो चर्चा के आगामी गरम रुख का अंदाज़ा लगाना कठिन नहीं रह जाता.  इसके अलावा वह जब भोजपुरी अंदाज़ में नाम को तानते हुए अंत में 'वा' जोड़ते तो यह थोड़ी राहत का संकेतक अवश्य होता. 

वह कहते, ''..कृष्णानंद जी आए थे और उन पर सवार होकर करण जी!..'' बीच में कुछ स्वाभाविक हां-हुं को अनदेखा करते हुए अगले ही क्षण वह भाषा-भंगिमा बदल देते, ''..करनवा को तो एक ढोने वाला चाहिए ..लद कर वह कहां बारालोटा से रेड़मा और जेलहाता रौंदते हुए बाज़ार तक की सैर कर रहा है.."

दोनों ने पत्रिका के बारे में क्या बताया, क्या कर रहे, क्या छाप रहे, कितने फर्मे छप चुके, अंक कब तक आ जाएगा आदि जैसे सवाल पूछने पर शिवशंकर बाबू हंसते, "..अरे, दुनों क्या कहते हैं, क्या सुनते हैं, यह सब कोई और समझ ही नहीं सकता..  दोनों की बातें ही निराली हैं! ..उनमें से एक जब बात शुरू करेगा तो आधा बोलकर ही रुक जाएगा ..तब तक मौका देखकर दूसरा नई बात बोलने लगेगा ..इस बीच पहला कुछ समझे तब तक दूसरा लगे हाथ तीसरी बात छेड़ देता है! ..सुनने वाला अगर ज़्यादा ध्यान गड़ा रहा हो तो उसका पागल हो जाना तय है!  ..क्या बताएं हम! ..दुनों खुद कहते-सुनते हैं और खुद ही समझते भी होंगे.."

★ कहां तो कमलेश्वर कालीन 'सारिका' से ही 'कहानी' के समानांतर 'लघुकथा को बतौर विधा खड़ा करने का उद्यम चल रहा था और कहां इसी बीच 'लघु कहानी' का अलग टंटा खड़ा हो गया!  उधर रांची के बालेंदु शेखर तिवारी ने 'लघु व्यंग्य' के नाम पर बगावत का एक और झंडा उठा रखा था. 

'लघु कहानी' की बांग जिस सम्मेलन में दी गई थी वह हुआ था होशंगाबाद में लेकिन उसकी प्रतिक्रिया सामने आई पलामू में. डालटनगंज में डॉ. चंद्रेश्वर कर्ण की अगुआई में लघुकथा लिखने वालों की एक पूरी टीम सक्रिय थी. सत्य नारायण नाटे से लेकर कृष्णानंद कृष्ण, विनय रंजन वीनू, दधिबल सिंह, इंदुभूषण, हरिवंश प्रभात और इन पंक्तियों के लेखक तक पुराने-नयों रचनाकारों की एक समूची श्रृंखला. 

बहरहाल, चंद्रेश्वर कर्ण व कृष्णानंद जी की पहलकदमी पर धमाकेदार संगोष्ठी व्रजराज मिश्र के आवास पर आयोजित हुई. बहुत तैयारी के साथ. कर्ण जी के साथ डॉ व्रजकिशोर पाठक, सुभाषचंद्र मिश्र, नगेन्द्रनाथ शरण समेत कुल आधे दर्जन लोगों ने इसी अवसर के लिए तैयार अपने पर्चे प्रस्तुत किए.

'लघु कहानी' वाले अभियोग के आलोक में कथाकार बलराम के नाम खासा लानत-मलामत भेजी गई. मुझे याद है कर्ण जी ने 'लघु कहानी' पर बलराम के समर्थन की तुलना 'डाकुओं के आत्मसमर्पण' से की थी. कुछ इस अंदाज में कि संगोष्ठी में एक वैचारिक सनसनी-सी उत्पन्न हो गई. प्रहार बालेंदु शेखर तिवारी के इरादों पर भी खूब हुआ. 'लघु व्यंग्य' के उनके नारे को एक स्वर से खारिज़ कर दिया गया. 

डॉ व्रजकिशोर पाठक ने अपने आलेख में लघुकथा का शास्त्रीय आधार तलाशने-तराशने की उल्लेखनीय पहल की थी. उनके पर्चे का शीर्षक मुझे आज भी उनके मुख से उच्चारित होता हुआ ध्वनि-दृश्यपूर्वक याद है 'लघुकथा  का शरीर-विज्ञान और उसकी प्रसव-गाथा'! 

दिन भर का पूरा समय गरमागरम बहस और छिटकती चिंगारियों के बीच विचार-संघर्षण में सरका. अंत में हम कुछ लोगों ने रचना-पाठ प्रस्तुत किया था. 

इसी के बाद 'पुनः' के 'लघुकथा विशेषांक' की योजना बनी. 

वह लघु पत्रिकाओं का भी तो स्वर्णिम दौर था! घोषणा के बाद देश भर से रचनाएं आने लगीं.  कर्ण-कृष्णानंद की जोड़ी ने आगे भी क़माल ज़ारी रखा. संगोष्ठी में पढ़े गए पर्चे ले लिए गए. इन सभी को 'विशेषांक' में स्थान दिया गया.  

देश भर से आई कथाओं में से बेहतर लघुकथाएं निकाली गईं. कर्ण जी खुद ही भाषा के गहरे जौहरी! कॉमा-बिंदी तक पर घंटों तर्क-तक़रार ठानने वाले. कहा जाता है, 'विशेषांक' में शामिल लघुकथाओं में से ज़्यादातर को उन्होंने  कुछ इस तरह री-राइट कर डाला कि लेखकों के लिए अपनी रचना को पहचानना भी आसान नहीं रह गया था.  वैसे, मैं इसमें शामिल अपनी लघुकथा 'हराम का खाना' के बारे में आज तक स्मरण नहीं कर सका कि मैंने मूल क्या लिखी थी और इसमें यदि कुछ बदलाव किया गया तो क्या! 

रफूगरी कहते भी तो इसी को हैं! रंग से रंग, धागे से धागा और बुनावट से नई बनावट को ऐसा मिला देना कि कुछ भी ताड़ना मुमकिन न रह जाए. चंद्रेश्वर कर्ण भाषा के ऐसे ही रफूगर थे.

बहरहाल, मेरी यह लघुकथा  'हराम का खाना' काफ़ी पसंद की गई. कुछ इस तरह भी कि इसे बाद में 'भारतीय लघुकथा कोश' और 'विश्व लघुकथा कोश' तक में स्थान मिला. दशकों बाद हाल में 'गूगल' पर इसे लेकर एक आलोचकीय टिप्पणी दिखी. इसे फॉलो करते हुए संबंधित ब्लॉग पर जाकर समीक्षक से अंततः फोन पर संवाद हुआ तो वह निहायत मेरे लिए अपरिचित विद्वान लेखक निकले जिन्हें इस रचना ने समालोचना लिखने को विवश बनाया! 

लघुकथा के वरिष्ठ हस्ताक्षर अशोक भाटिया ने भी अपनी समीक्षा-कृति में इसी रचना को महत्वपूर्ण मानकर विश्लेषित किया है. 

बहरहाल 'पुनः' प्रसंग. इतने गहरे उद्यम, पैनी सम्पादकीय तराश और बहुकोणीय दृष्टि-दौड़ के साथ जो 'अंक' तैयार होगा, उसे तो विशिष्ट होना ही होगा! और, यह ऐसा ही हुआ भी.

सो, निकलते के साथ ही 'पुनः' के 'लघुकथा विशेषांक' ने चर्चा बटोरनी शुरू कर दी. इसे अलग से 'लघुकथा : सर्जना और मूल्यांकन' नाम से पुस्तक-रूप में भी जारी किया गया. इसका साढ़े तीन दशक बाद आज भी जीवंत महत्व बना हुआ है.

 ★ अस्सी के दशक के शुरुआती साल, संभवतः 1981 में डालटनगंज में  सम्पन्न प्रगतिशील लेखक संघ, बिहार के  राज्य सम्मेलन को कई कारणों से याद रखा जाना चाहिए! 

यथा,  पहली बार यहां भीष्म साहनी जैसे  मूर्धन्य साहित्यकार का आगमन हुआ था, साहित्य-संस्कृति के मोर्चे पर पलामू नए सिरे से राज्य व देश के स्तरों पर चर्चे में छा सका और देश-दुनिया के सभी संदर्भ और जीवन-समाज के ज्वलंत सवालों पर लगातार तीन दिनों तक ऐसा विमर्श चला कि अवसर-वंचित इस इलाके के बौद्धिकों को बड़े फलक़ से जुड़कर सोचने-समझने-बोलने का मौका मिल सका! 

..लेकिन, क़रीब चार दशक बाद मेरे दिमाग में यह आयोजन अब भी जब स्मारित होता है तो भीष्म साहनी नाम के साथ या एक बड़े साहित्यिक समागम में हिस्सा लेने के अपने किसी सुखद रोमांच-अनुभव के कारण कदापि नहीं! 

मन-मस्तिष्क में यह कौंधता है तो एक विशिष्ट कमेंट के साथ! 

एक ऐसी असाधारण यादगार टिप्पणी, जिससे हिंदी के विख्यात आलोचक डॉ नंद किशोर नवल का नाम जुड़ा हुआ है! इतने वर्षों बाद अभी जबकि वह संदर्भ शब्दबद्ध करने बैठा हूं, मेरी आंखों के सामने 80 के दशक के वह गोरे-छरहरे लंबे युवा नवल झिलमिला रहे हैं, जिन्होंने गिरिवर स्कूल के पास सम्मेलन-स्थल 'महात्मा गांधी टाऊन हॉल' के परिसर में खड़े होकर सामने बह रही नदी की ओर इशारा करते हुए कहा था, ''..गज़ब है यह नदी! ..ज़रा भी इसका गला नहीं दुखा! ..पूरी रात कूकती रही! ..कोयल नाम इसका एकदम सटीक है ..ऐसी नदी दुनिया में शायद ही कहीं दूसरी हो!..''

प्रलेस के इस राज्य सम्मेलन में आना तो नागार्जुन और डॉ नामवर सिंह को भी था लेकिन दोनों का कार्यक्रम आखिरी समय में रद होने की सूचना आ गई थी! जो लोग पलामू पहुंचे थे उनमें भीष्म जी के अलावा उर्दू के वरिष्ठ शायर ग़ुलाम रब्बानी ताबां के साथ कथाकार योगेश कुमार प्रमुख रहे. 

तत्कालीन अविभाजित बिहार के रचनाकारों में नवल जी के साथ ही कवियों में कन्हैया जी, अरुण क़मल, खीरु राम विद्रोही, आलोचक सुरेंद्र चौधरी, खगेन्द्र ठाकुर, कथाकार प्रेम कुमार मणि आदि पहुंचे थे. हज़ारीबाग से भारत यायावर भी आए थे. 

सम्भवतः दूसरे दिन रात का सत्र बतौर कवि-सम्मेलन सम्पन्न हुआ था. अध्यक्षता ताबां साहब ने की थी जबकि मंच-संचालन का दायित्व डॉ चंद्रेश्वर कर्ण ने निभाया था. कर्ण जी ने हिंदी और उर्दू कविता की ऐतिहासिक कड़ियों को जोहते-जोड़ते हुए बीच-बीच में जो टिप्पणियां कीं, वह दुर्लभ थीं. यदि वह सब रिकार्ड न हो सकी हों, तो यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है.

इसी मंच पर मैंने भारत यायावर को पहली बार देखा था. फ्रेंचकट दाढ़ी, ईन की हुई शर्ट, टाइट पैंट और इनमें सजा -कसा एक पतला-दुबला, लंबा-सा युवक, हमसे कोई दस साल बड़ा! 

उन्होंने अपनी जो ग़ज़ल प्रस्तुत की 'शब्द बिखरे पड़े हैं, जोड़िए ..सन्नाटा बहुत है, तोड़िए', उसे गोकुल वसंत ने ही यहीं से प्रकाशित अपनी पत्रिका 'सार्व' में छापा था. 

पलामू में तेज-तर्रार पत्रकार की छवि वाले गोकुल जी मूलतः कवि हैं, यह तो उन्हें जानने वाले आज भी समझते हैं लेकिन जो लोग इससे अवगत नहीं, वह उस समय भी मानने को सहज तैयार नहीं हो पाते थे. कारण, गोकुल इसे प्रकट नहीं होने देते थे. हालांकि 'हलधर निवास' में राजू भाई के यहां रात की रोजाना बैठकी में वह तरन्नुम में आ जाने पर कभी-कभार अपनी कविताएं सुना दिया करते थे. 

गोकुल जी ने अपने कैरियर के प्रारंभ में 1978-79 के दौरान साप्ताहिक हिंदुस्तान वाले आकार या उससे कुछ ही उन्नीस साइज़ में 'सार्व' पत्रिका शुरू की थी,अपने गांव सिंगरा से. पत्रिका के कुछ ही अंक निकल सके, बाद में 1981 में साप्ताहिक पत्र 'छोटानागपुर भूमि' शुरू होते ही वह उसके संपादक हो गए. 

बहरहाल, प्रलेस के आयोजको में बीपी वाजपेयी, सुरेंद्र सिंह और लल्लू सिंह के साथ ही नंदलाल सिंह, कर्ण जी, रामेश्वरम जी, गोकुल जी और दधिबल जी आदि भी शामिल थे. सरकारी मुलाज़िम होने के नाते सत्यनारायण नाटे व कृष्णानंद कृष्ण बतौर आयोजक इसमें शामिल नहीं थे लेकिन चूंकि यहां कर्ण जी थे इसलिए स्वाभाविक रूप से कोई अलग कैसे रह सकता था! डॉ वृजकिशोर पाठक, दामोदर सिंह, कृष्णदेव झा, विनय रंजन वीनू आदि सभी सक्रिय थे. शिवशंकर बाबू सबके अभिभावक की भूमिका में थे ही. 

अतिथियों को थाना रोड पर पंजाब होटल के कमरों में ठहराया गया था. वहीं भीष्म साहनी से मिलने मैं सुबह-सुबह कृष्णानंद जी के साथ गया था, स्कूटर से. कर्ण जी, लल्लू सिंह व दधिबल आदि वहां पहले से मौजूद थे. 

भीष्म साहनी से डॉ कर्ण ने हमें बहुत संजीदगी से मिलवाया था! संभावनाशील प्रतिभाशाली युवा रचनाकार बताकर, प्रभावी शब्दों में हमारा परिचय देते हुए. 

भीष्म जी की सहजता और तरलता साधारण नहीं थीं. शांत, बहती हुई नदी की तरह व्यक्तित्व. जल जैसे दूध से धोया हुआ हो! स्वच्छ और निर्बाध. अपने पास जो भी है, सबकुछ दे देने को सहज उत्सुक. 

मैंने अपनी एक पाण्डुलिपिनुमा कॉपी पर उनके हस्ताक्षर लिए थे. उन्होंने शुभकामनाओं के शब्द भी लिखे थे. 

सम्मेलन का एक सत्र खास उल्लेखनीय है. साम्यवादी चिंतक नंदलाल सिंह प्रारंभ में ही माइक के सामने आए. बोलना शुरू किया और कुछ ही देर में जैसे उन्होंने तूफान खड़ा कर दिया. उन्होंने बैठे-बिठाए किए जाने वाले ऐसे बहस-विमर्शों पर गंभीर सवाल खड़ा किया और इन्हें निरा बतकुच्चन करार दे दिया.

उनके तर्क सबको हिला गए. ऐसी बहसों की निरर्थकता को उजागर करते हुए अपने चिर परिचित अंदाज़ में वह आगे बोले, "..आज का जो साहित्य दिल्ली-पटना या अन्य नगर-महानगरों में बैठकर लिखा जा रहा है इसीलिए बेअसर और संदिग्ध है क्योंकि उसमें वह जीवन चित्रित नहीं हो पा रहा जो सुदूर अभावग्रस्त इलाकों में भीषण रूपों में जिया जा रहा है!साहित्य का मूल कार्य सच का अहसास कराना है, सूचना देने और सवाल उठाने का कार्य तो अख़बार करते हैं जो अपनी तरह से कर भी रहे हैं ..लेकिन यहां हमलोग बैठकर सिर्फ बतकुच्चन कर रहे और इसी स्थल से कुछ ही दूरी पर नदी पार शाहपुर जाकर सेमरा इलाके का वह जीवन-संदर्भ देखने की ज़रूरत महसूस नहीं कर रहे जो हाल ही बन्धुआ मजदूरी के लिए मीडिया में भी उजागर तक हो चुका है ! सेमरा के पास करों टोला में बंधुआ मजदूरी से मुक्त कराए गए मुग़ल भुइंया समेत नौ मजदूरों का जीवन आज कैसा है.. प्रशासन ने प्रतिगामी ताकतों पर क्या कार्रवाई की या क्या नहीं.. यह सब लेखकों को क्यों नहीं देखना-समझना चाहिए? ..''

उनकी बातों ने पल भर में माहौल पलट कर रख दिया. त्वरित असर सामने आ गया. भीष्म साहनी, योगेश कुमार, सुरेंद्र चौधरी, नवल जी, मणि जी समेत ज़्यादातर अतिथि लेखक उठ खड़े हुए, नदी उस पार जाने के लिए, ताकि कठिनतर जीवन-संदर्भ से तुरंत रू-ब-रू हुआ जा सके. यानि कि देखते ही देखते शुरू होने के साथ ही अमुक सत्र समाप्त! 

प्रलेस सम्मेलन ने पलामू के विचार-मानस को दूरगामिता के साथ प्रभावित किया, इसमें दो राय नहीं.  साथ ही यह भी कठोर सत्य है कि ऐसे अन्य बौद्धिक कुम्भ यहां नहीं के बराबर हुए. इससे पहले तो शायद एक भी नहीं. बांग्ला की महाश्वेता देवी ने पलामू पर कहानी-उपन्यास लिखे तो इसके साथ यह भी एक तथ्य है कि इसके लिए वह इस कठिन इलाके में पहुंचती भी रहीं. उन्होंने बाकायदा पलामू के उन भीतरी सुदूर इलाकों का पहले दौरा किया जिन्हें बाद में अपनी कथा-भूमि बनाई. हिंदी के किसी रचनाकार ने लेखन के उद्देश्य से कभी आकर पलामू के सुदूर इलाकों का पर्यवेक्षण किया हो, इसकी कोई जानकारी कम से कम मुझे तो अब तक नहीं. 

दूसरी ओर, देश के सर्वाधिक पिछड़े इलाकों में शुमार पलामू की इस धरती की राजनीतिक उपयोगिता समझने का नेताओं का इतिहास बहुत पुराना है. आधुनिक काल में यह महात्मा गांधी से ही शुरू हो जाता है. वह पिछली शताब्दी में 20 के दशक में यहां आए थे. 

गांधी जी को लेने जो लोग डालटनगंज रेलवे स्टेशन पहुंचे थे, कहा जाता है कि सभी फूल-माला उठाए हुए इधर से उधर उन्हें खोजते भटकते रह गए. उनके निराश लौटने से पहले गांधी जी तीन किलोमीटर से ज़्यादा पैदल चलकर पुराना गढ़वा रोड  स्थित अपने आतिथेय के यहां पहुंच चुके थे. यहीं के सागरमल के लाह-भट्ठे में वह रुके थे. डालटनगंज में उनका प्रवास दो दिन एक रात का रहा. पास ही स्थित कन्नी राम चौक स्थित मारवाड़ी हिंदी सार्वजनिक पुस्तकालय की विजिटर पुस्तिका में गांधी जी ने 11 जनवरी 1927 दिन मंगलवार को अपनी राय दर्ज की है. कहा जाता है कि बाज़ार इलाके के पंचकौड़ी साव पहले से उनके संपर्क में थे! इन पांक्तियों के लेखक को बचपन में वयोवृद्ध पंचकौड़ी साव को उनकी दुकान में बैठे देखने का स्मरण है!

 ★ अगर अपने आप में यह सवाल है, ''..रामेश्वरम क्या थे?.. "

तो, इसका एकमात्र सटीक उत्तर है, "..रामेश्वरम क्या न थे!.."  

उसी तरह, हठात यह पूछे जाने पर कि रामेश्वरम ने क्या किया, छूटते ही यह कहा जा सकता है, "..रामेश्वरम ने क्या नहीं किया!.." 

हाड़-मांस के साढ़े तीन हाथ के किसी पुतले में इतने-इतने सपने, ऐसे-ऐसे संकल्प और इस कदर विषय-वैविध्य भी हो सकते हैं, इसका अहसास उस व्यक्ति को तो हो ही नहीं सकता जिसने कभी रामेश्वरम से भेंट-बात न की हो. ख़ास बात तो यह कि उनमें गज़ब की बेसब्री भी थी! किसी भी हद को नकारती हुई हर सरहद के धुर्रे उड़ा देने वाली! अफ़सोस केवल यह कि वह उस वाज़िब बेचैनी से वंचित रहे जो अपनी रगड़ से चिन्गारी पैदा करती है. यही वह आग है जो सजग-सटीक प्रयोग होने पर सर्जनात्मक मनोभूमि या परिस्थितियां निर्मित करती चलती है ! 

बंधुआ मजदूरों के सवाल से जुड़ी जिस लड़ाई को लड़ने वाले कैलाश सत्यार्थी आज इसके लिए नोवेल पुरस्कार-प्राप्त समाजसेवी हैं, वह सवाल सबसे पहले रामेश्वरम ने पलामू में उठाया था, यह एक तथ्य है. उन्होंने ही वह राष्ट्रीय 'बंधुआ चौपाल' आयोजित कराया था जिसने तत्कालीन देशी-विदेशी मीडिया का ध्यानाकर्षित किया. 

इसके बाद तो राष्ट्रीय स्तर पर बंधुआ मुक्ति आंदोलन खड़ा हो गया जो स्वामी अग्निवेश व कैलाश सत्यार्थी के नेतृत्व में फ्लैश हुआ. डालटनगंज में शिवाजी मैदान के निकट स्थित रामेश्वरम का 'क्रांति कुटीर' कोई दशक भर तक देशी-विदेशी बड़े पत्रकार-संपादकों का अड्डा बना रहा. बांग्ला की लेखिका महाश्वेता देवी कई बार 'क्रांति कुटीर' पहुंची. उन्होंने रामेश्वरम पर न केवल साप्ताहिक 'रविवार' जैसी तत्कालीन प्रमुख राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में आर्टिकल लिखे बल्कि 'रामाश्रय' पात्र बनाकर मुक़म्मल उपन्यास भी रच डाला जो हिंदी में अनूदित होने के बाद 'भूख' नाम से राधाकृष्ण प्रकाशन से 1998 में प्रकाशित हुआ. 

रामेश्वरम ने पास आने वाले हर व्यक्ति को कुछ न कुछ दिया ही दिया! देश भर से पत्रकार और समाजसेवी उनके यहां पहुंचते. उन्हें वहां टिकने-खाने की सुविधा से लेकर बंधुआ-मुक्ति के संदर्भ की हर ज़मीनी जानकारी उपलब्ध कराई जाती. उन्हें उनकी इच्छा पर संबंधित सुदूर दुर्गम इलाकों में पहुंचाया या घुमाया जाता. 

सहयोग पाने वाले पत्रकार कभी किसी रिपोर्ट तो कभी चिट्ठी में आभार जता देते, रामेश्वरम जी इसी से अघा जाते. 

साठ के दशक में पलामू के तत्कालीन उदीयमान रचनाकारों के दो संकलन प्रकाशित हैं. कविता का 'मोर के पंख, मोर के पांव" और गद्य का 'आकृतियां उभरती हुई'. दोनों किताबों से पता चलता है कि पलामू की उस समय की रचनाशीलता बहुमुखी संभावनाओं से समृद्ध थी. इनमें युवा रामेश्वरम की छवि भी एक संभावनाशील रचनाकार की ही दर्ज है.

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शिवशंकर बाबू सोच-विचार से राजनीतिक थे, भाव-स्वभाव से साहित्यिक और हाव-भाव से पत्रकार या प्रेस-मालिक. संगत या रिश्ते सभी क्षेत्र के प्रमुख लोगों के साथ, एकदम जीवंत. एक-एक व्यक्ति का जैसे उन्होंने गहन अध्ययन कर रखा हो. बोल-व्यवहार, अंदाज़-आवाज़ और  जीवन-स्थिति से लेकर व्यक्ति-विशेष से संबंधित घटनाओं तक की हर जानकारी वह कैसे जुटा लेते थे, यह सोचकर आज भी चकित रह जाना पड़ता है! 

वह जब किसी संपर्कित व्यक्ति के किस्सों का पिटारा खोलते तो उनके पास से उठने को मन नहीं होता था. उनके पास अपनी विशिष्ट अतिरंजना शैली थी और किस्सा-बयानी का अपना अलग ही अंदाज़! शुरुआत से लेकर उपसंहार तक ऐसा व्यंग्य-पथ कि जिसके दोनों ओर संवेदनाओं के बड़े-बूढ़े दरख़्त शीतल छायाएं लटकाए खड़े मिलते जाते. श्रवण-यात्रा को सहनीय और किसी हद तक आनंदप्रद बनाते हुए.

उनसे पलामू के जन-जीवन के अहम किरदारों के एक से एक किस्से हाथ लगते. कभी-कभी तो लगता कि उनसे सुने को बस लिपिबद्ध कर लिया जाए, तो बिना कोई एक वाक्य खिसकाए कहानी तैयार! उन्होंने एक दिन डालटनगंज के धर्मशाला रोड के एक लोकप्रिय दर्ज़ी माधो चाचा के किस्से सुनाए थे! एक ऐसा कलाकार जो बैठा तो बाज़ार में था और अपना श्रम बेचने को विवश था लेकिन न उसे पहचानने या उसकी कला का संस्पर्श चाहने वाले कभी कम हुए न स्वयं वह अपने मनमौजीपन से ही कभी डिगा!  मैंने जैसा और जितना उनसे सुना, पूरा भरसक हू-ब-हू लिख डाला. उनकी कहन का असर ऐसा कि चाहकर भी माधो चाचा का नाम तक बदल पाना संभव न हो सका. एक शब्द हिलाने से भी लगता जैसे पूरी कहानी किसी मचान की तरह आंधी से टकराने लगी हो. बहरहाल, 'माधो चाचा' कहानी भेजे जाने के कुछ ही महीनों बाद 'आजकल' में छपकर आ गई! 

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एक बार शिवशंकर बाबू ने रमेश से रामेश्वरम बनने का किस्सा शुरू किया!  बोले, कोई माने या न माने रमेश एक शख़्सियत है, अपनी ही तरह का नायक. अलग सोच, मौलिक अंदाज़. 

एक बार तो उसे अपने रमेश कुमार गुप्त नाम में ही आकर्षण की कमी महसूस होने लगी! 

उसे हर चीज़ में हर बार नयापन जो चाहिए! एक दिन अचानक आया और कहने लगा कि आज से वह रामेश्वरम हो गया है. सुनने वाले को पलामू में यह दक्षिण भारतीय नाम मौजूद होना मेरे ही नहीं पूरे इलाके के बारे में अधिक जिज्ञासु बनाएगा. 

वह आगे कहते चले गए, उस पर नयापन का यह भूत बहुत पुराना है. अच्छी-भली सरकारी नौकरी में था, एक दिन अचानक उसे लगा कि इतने सारे क्लर्क, अफसर, चपरासी आदि सब के सब तो सरकारी नौकरी पा ही चुके हैं, इसमें नया क्या है! और, ज़नाब अफ़सर के सामने जाकर उसने  अपना इस्तीफ़ा पटक दिया और घर लौट आया!

ब्राह्मण विद्यालय में शिक्षक था. ज्ञान और पढ़ाने की शैली में ज़ाहिरन उसके सामने कोई नहीं! 

छात्रों का पसंदीदा शिक्षक! ..लेकिन, एक दिन वहां भी ऊब गया. बोला- यह भी कोई जीवन है! गिनती के दस पाठ हैं इन्हें ही हर सत्र में दोहराते रहो. छात्र तो कक्षा बदल कर मुक्त होता जा रहा, टीचर वही-वही पाठ मथने को अभिशप्त! ऐसा नहीं चलेगा.. ..और एक दिन वहां भी त्याग-पत्र! 

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कालांतर में वह पत्रकारिता के क्षेत्र में आए. अपने यहां पत्रकारिता के अनुभवों ने कई रचनाकार भी संभव किए हैं, लेकिन ऐसा उनके मामले में नहीं हो सका. 

साहित्य-लेखन के लिए हमारे जैसे अनुजों के कोंचने-टोकने पर वह आश्वस्त अवश्य करते. बताते कि वह 'संपादक' नाम से एक बड़ा उपन्यास लिखेंगे. इसमें पलामू से लेकर पूरा देश और राजनीति, प्रशासन, समाज, आंदोलन, भ्रष्टाचार, एनजीओ, साहित्य व पत्रकारिता आदि तक एक साथ समाहित होंगे. सबके रेशे उधेड़े जाएंगे! 

 ★ देश में ज्ञानपीठ से बड़ा कौन पुरस्कार है? ..और दुनिया में नोबेल से? 

रामेश्वरम ने स्वयं कहानी-उपन्यास नहीं रचे लेकिन महाश्वेता देवी को पलामू में  ऐसी भाव-भूमि तो उन्होंने ही दिखाई जिन पर लिखी उनकी रचनाएं यादगार बनीं. ऐसी रचनाएं जिन्होंने उन्हें बांग्ला की ही क्यों, इस देश या महाद्वीप का सिरमौर रचनाकार बनाया, उनमें से अधिसंख्य तो जीवन-संघर्ष की ऐसी ही उबड़-खाबड़ भाव-भूमि पर लिखी गईं! ...महाश्वेता  देवी को आगे चलकर ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला. भारत में साहित्य का सबसे बड़ा सम्मान! 

पलामू में बंधुआ मजदूरी और बंधुआ-मुक्ति के मुद्दे शुद्ध रूप से रामेश्वरम के सवाल थे. उन्होंने इन सवालों को आंदोलन में बदल दिया और लड़ाई को व्यापक बनाने के लिए दिल्ली से स्वामी अग्निवेश और कैलाश सत्यार्थी को निमंत्रित किया. लड़ाई शुरू हुई, लंबी चली. आगे चलकर कैलाश सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार मिला! दुनिया का सबसे बड़ा पुरस्कार.

गंगोत्री को गंगा से उन्नीस कौन कहे? चांद कब किस चांदनी के आगे कभी मद्धम दिखा है ?

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रामेश्वरम को बंधुआ मुक्ति के सवाल राह चलते बटेर की तरह हाथ नहीं लगे थे, ऐसे लग भी नहीं सकते थे. 

यह रामेश्वरम ही थे जो सुदूर उन दुर्गम इलाकों में घुस जाते जो महाजन-सामंतों का अभ्यारण्य था.  ऐसी जगहें जो प्रशासनिक उपेक्षा के कारण देश-दुनिया से लगभग कटी होतीं. प्रशासन भी जहां एकदम गैरहाज़िर या नाकारा! जहां आदमी आदमी को ग़ुलाम बनाकर बेख़ौफ उसका लहू सोख रहा होता. 

एक ऐसा आदिम समाज जहां महज़ कुछेक रुप्पली के क़र्ज़ का पहाड़ फंसे परिवार पीढ़ियों से छाती पर ढो रहे हों.  पीढियां गुलामी में ऐंड़ रगड़ती मिटती चली जा रही हैं लेकिन क़र्ज़ है कि खत्म होने का नाम नहीं लेता. जहां ग़ुलामी से इन्कार का मतलब अमानवीय उत्पीड़न को न्योतना होता था! पीढ़ियों से ग़ुलाम अशिक्षित लोग इतने वंचित-दमित कि किसी शुभचिंतक के सामने भी अपनी ज़ुबान तक नहीं खोल पाते थे. साहस भी नहीं, जैसे बोलना भी भूल चुके हों! 

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शिवाजी मैदान के पास रामेश्वरम के पड़ोस में ही हमलोगों का पुराना घर था. इसे हमारे पिताश्री द्वारिकानाथ सिंह और उनके चाचाश्री बलराम सिंह ने उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में बनवाया था. 

इससे पहले बाबाश्री दारोगा होकर पलामू में सबसे पहले लेस्लीगंज आए थे तो उनके साथ में  पिताश्री ही थे. बलराम सिंह मतलब अंग्रेजों के ज़माने का एक नियमबद्ध कड़क दारोगा! गलत पकड़ लेने पर किसी की एक न सुनने और अपने अधिकारियों के सामने पानी की तरह धाराप्रवाह अंग्रेज़ी बोलने वाला पुलिस अफ़सर.

चाचा-भतीजे में आयु का अंतर ज़्यादा न था और वे आपस में सगे साढू थे. साझा परिवार यहीं रहता था. उस समय पिताश्री को एक ही पुत्र मोहन जी थे, जिनकी किसी तरह युवा काल में ही उसी घर में मृत्यु हो गई! 

पिताश्री को इस घटना ने विचलित कर दिया. अब उस घर में वह असहज महसूस करने लगे. वह अपना परिवार लेकर गांव सिताबदियारा चले गए. खेती शुरू कर उन्होंने कम समय में ही गांव में अच्छी स्थिति बना ली लेकिन मन वहां रम न सका. 

शायद कुछ दुखद अनुभव भी  स्थान-विशेष के साथ दिल को वैसे ही जोड़ देते हैं जैसे सुखद. 

पिताश्री जल्द ही डालटनगंज लौटे लेकिन शिवाजी मैदान वाले अपने घर नहीं गए. वह नावाटोली में आए सागर सिंह के यहां. सागर सिंह यहां डालमिया कंपनी में काम करते थे. रिश्ते में पिताश्री के चाचा थे, अपनी ही पट्टीदारी के. मिट्टी का यह घर एक आदिवासी चेरो परिवार का था, जिसके कई किरायेदारों में एक सागर सिंह भी थे. 

इसके सामने ही लंबी-सी बंजर भूमि का विस्तार था. इस पर चकवड़-पुटुश की झाड़ियां भरी हुई थीं. भूमि के आखिरी कोने पर गुजरते रास्ते के पास एक लंबा-सा घर निर्माणाधीन था, पक्के का. इतना लंबा कि देखने में रेल जैसा लगता था. इसीलिए इसे आसपास के लोग डीज़ल (इंजन या ट्रेन के अर्थ में) कहते. 

जल्दी ही पिताश्री को पता चला कि मक़ान का मालिक इसे किराए पर देना चाहता है. पिताश्री ने सीधा संपर्क किया और घर किराए पर मिल गया. घर तो निर्माणाधीन था लेकिन ढलाई व भीतर से प्लास्टर का काम लगभग पूरा हो चुकने के कारण रहने लायक हो चुका था. 

पिताश्री परिवार लेकर इसी में आ गए. बाद में इसी घर में मेरा जन्म हुआ. कालांतर में इसी में मेरे दोनों छोटे भाइयों विनोद और प्रमोद का भी जन्म हुआ और दो बहनों बिंदु और चंदा का भी. (चंदा का बचपन में ही निधन हो गया था. )  हमलोगों का इसमें जन्म हुआ इसलिए पिताश्री का इस घर से विशेष लगाव था. उसी दौरान उन्हें जब पता चला कि मकान-मालिक इसे बेचने के लिए ग्राहक खोज रहा है तो वह घबरा गए. उन्होंने मकान-मालिक को बताया कि घर से उन्हें प्रेम है लेकिन उनके पास अभी ज़रूरत भर रुपये नहीं हैं. मक़ान-मालिक कस्तूरी सिंह अवश्य सहृदय व्यक्ति रहे होंगे. उन्होंने कुछ महीने का समय दे दिया.
पिताश्री ने गांव जाकर इंतज़ाम शुरू किया. बहुत प्रयास से एक-एक पैसा जोड़कर किसी तरह राशि पूरी की और इसे खरीद लिया. 

प्रसंगवश, मेरे से बड़े भाई कृष्ण बिहारी और बहन इंदुमती का जन्म सिताबदियारा में हुआ है. 

घर को लेकर बहुत बाद में एक अलग जानकारी सामने आई.

हमलोग बचपन से सुनते आए थे कि पिताश्री को किराए पर यह जो घर मिला था वह बिल्कुल नया था! लेकिन अस्सी के दशक की बात है. बतौर पत्रकार एक बार विश्रामपुर के पूर्व विधायक चंद्रशेखर दुबे से बात हो रही थी तो एक जानकारी ऐसी मिली जिसने व्यक्तिगत रूप से मुझे कुछ ज़्यादा ही चौंका दिया!

दुबे जी की पलामू कांग्रेस के भीतर उस समय एक कड़क मजदूर नेता की छवि रही जिसके बूते ही बाद में उनका प्रभाव पलामू से धनबाद तक फैला और वह देश की इस कोयला-राजधानी से सांसद भी चुने गए. बहरहाल, उनके निकट पहली बार मैं अग्रज-तुल्य तत्कालीन युवा कांग्रेस नेता हृदयानंद  मिश्र के साथ गया था. हृदयानंद जी साहित्य-संस्कृति की बारीक समझ रखते और लिखने-पढ़ने वालों के साथ चलते. नंदलाल सिंह के यहां वैचारिक अड्डे पर भी वह डटे रहते और अपनी बातें संजीदगी से रखते थे. 

जहां तक दुबे जी से अंतरंगता की बात है, यह मित्रवर रामाशीष पांडेय के कारण हुई थी. ऐसा इसलिए क्योंकि रामाशीष उनसे गांव-घर की बातें भी शुरू कर देते. एक दिन दुबे जी ने मेरे घर के बारे में पूछा. बाबा बलराम सिंह और शिवाजी मैदान के घर के बारे में सुनकर वह थोड़ा चौंके लेकिन दूसरे ही पल हमारे एक स्मृति-शेष चाचाश्री निरसु नारायण सिंह को मित्र बता कर भावुक हो गए और उन्हें याद करने लगे.  

कुछ देर बाद जब उन्होंने मेरे नवाटोली वाले घर के बारे में सुना तो डिटेल लोकेशन पूछने लगे. दूसरे ही पल बोले, "..अरे भाई! कस्तूरी सिंह का घर है वह ...उनका लड़का जिसका नाम अभी मैं भूल रहा हूं, मेरा दोस्त था और हमलोग उसी अधूरे घर में बहुत दिन साथ रहे जहां रुक-रुक कर निर्माण-कार्य करवाते थे!.." 
  
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लेखन और पत्रकारिता ने स्वाभाविक रूप से मुझे बहुत सारे दुविधा-बंधनों से उबारा. परिवार के स्तर पर नावाटोली और शिवाजी मैदान के दो छोर भीतर से तो नहीं कटे थे लेकिन एक दूरी थी. घर के बहाने 'क्रांति कुटीर' या 'क्रांति कुटीर' के बहाने घर, पता नहीं क्या सच था लेकिन मैं शिवाजी मैदान पहुंचकर दोनों दरवाज़े छू आता.

अपने पुराने घर में शतायु बाबा से भेंट करता, आजी से आशीष लेता और 'क्रांति कुटीर' में अग्रज रामेश्वरम जी से मुलाक़ात करता. 

हर बार रामेश्वरम जी के यहां कुछ नए आदिवासी चेहरे मिलते. झेली हुई तबाहहाली के चिह्न से भरे युवक और ऐसी ही युवतियां. कभी अधेड़ तो कभी बूढ़े भी.  अपरिचित की तरह आंखें नचाकर ताकते और सामने के व्यक्ति में भरोसा तलाशते-से. रामेश्वरम जी एक-एक से मिलवाते. विवरण देते को किसे किस गांव के किस सूदखोर या महाजन से कैसे बन्धुआगिरी से मुक्त कराया गया है! वह उन पात्रों के बारे में  बताते कि कैसे मुंह ही नहीं खोलता था लेकिन यहां तीन दिन बाद अब बोल भी रहा और हंस भी रहा...

 ★ जो व्यक्ति किसी को 'नोबेल' तो किसी को 'ज्ञानपीठ' के योग्य बनाने की मनोभूमि-पृष्ठभूमि रच सकता है, उसने स्वयं कोई बड़ी भूमिका क्यों नहीं अदा की? प्रतिभा के स्तर पर वह कोई बड़ा 'अचीव' करने के लायक ही नहीं था या उसे इसका अवसर-अवकाश ही नहीं मिल सका?

'मोर के पंख, मोर के पांव' और 'आकृतियां उभरती हुईं' में स्पष्ट संकेत दर्ज हैं कि रमेश अर्थात रामेश्वरम का युवा-काल तो  रचनात्मक प्रतिभा से लबरेज़ रहा. उन्हें उन आचार्य नलिन विलोचन शर्मा से आशीष व प्रोत्साहन मिला, हिंदी साहित्य का इतिहास साक्षी है जिनकी आंखों ने 'मैला आंचल' उपन्यास के महत्व को पहली बार चिह्नित किया और फणीश्वरनाथ रेणु की प्रतिभा पहचानी थी! 

ऐसे आचार्य के शिष्य रामेश्वरम ने  अपने भीतर के रचनाकार को क्यों पूरी तरह निष्प्रभ कर दिया? वह ख़ुद को समझ न सके या अपने ही व्यक्तित्वगत किसी विचलन से पराजित हो गए? 

रामेश्वरम को लेकर ऐसे कई सवाल हैं जिन्हें अपने कंधों पर सलीब की तरह उठाए ख़ुद पलामू कब से इतिहास के बियाबान में भटक रहा है!

इसका ज़वाब सीधे-सीधे 'हां' या 'ना' या एक-दो सपाट वाक्यों में मुमकिन नहीं. ऐसा बेशक़ वाज़िब भी नहीं होगा. इसके लिए चाहते-न चाहते भी उनकी मानसिक वृति और वैचारिक निर्मिति को खंगालना होगा. 

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कौन जाने यह निरी दंत कथा ही हो लेकिन शिवशंकर बाबू इसे बहुत डूब कर सुनाया करते. ऐसे अवसरों पर उनका कथा-वाचक रूप देखते ही बनता. लगता जैसे 'गरुड़' या 'भारद्वाज' हूं और अपने समय के किसी 'काकभुसुण्डी' अथवा ' याज्ञवल्य' के पास आकर बैठ गया हूं. कथा-प्रवाह शुरू होता सो थमने का नाम न लेता.. ..  

'मनोहर बाल पोथी' वाले बाबू राम लोचन शरन को उस दौर में कौन नहीं जानता था?  बिहार के लहेरियासराय में उनके द्वारा 1915 में स्थापित पुस्तक-भंडार की प्रकाशन की दुनिया में तूती बोलती थी. कहा जाता है, पुस्तक भंडार को सेवाएं देने वालों में हिंदी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ आचार्य बाबू शिवपूजन सहाय और शैली-सम्राट रामवृक्ष बेनीपुरी से लेकर नागार्जुन तक जैसे पुरोधाओं के नाम शामिल थे. पुस्तक भंडार से ही शिवपूजन बाबू के संरक्षण व रामवृक्ष बेनीपुरी के सम्पादकत्व में 'बालक' पत्रिका निकली थी जिसमें उस समय के सभी  प्रमुख साहित्यकारों ने योगदान किया था. 

इस पुस्तक-भंडार परिवार में रामेश्वरम की निकट की पारिवारिक रिश्तेदारी थी. एक बार लहेरिया सराय वाले गाड़ी में भरकर पलामू आए. पता नहीं उस समय घर का नाम 'क्रांति कुटीर' हुआ था या नहीं. यहां आगंतुको का स्वाभाविक रूप से बहुत सत्कार चल रहा था. इसी बीच किसी दिन उनमें से एक का ध्यान रमेश (रामेश्वरम) जी की ओर खिंच गया. उन्होंने यहां के लोगों से बड़े आदर-भाव के साथ पूछा, "..ई लइका काs काम करता है? "

इधर से ज़वाब गया,"...पत्रकार हो चुका है!.." 

चर्चा में क्रम में आगे विस्तार से बताया गया कि कैसे उसने अच्छी-भली सरकारी नौकरी छोड़ दी है और अब दिन भर शहर- बाज़ार के चक्कर काटता रहता है.

उन लोगों ने इसे गम्भीरता पूर्वक लिया.  तत्काल तो अपने कार्यक्रम के अनुरूप सभी लहेरियासराय लौट गए लेकिन बाद में जल्दी ही वापस पलामू आए.

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डालटनगंज के मुख्य बाज़ार क्षेत्र पंचमुहान में एक बड़ी-सी दुकान ली गई. इसे अत्यंत सुसज्जित कर पुस्तकों के विशाल शो-रूम का रूप दे दिया गया. पलामू में ऐसा आधुनिक शो-रूम कोई दूसरा न था! एक साथ इतनी सारी किताबें यहां के किसी पुस्तक-प्रेमी ने अन्यत्र शायद ही कहीं देखी हो.

शो-रूम का ग्रैंड ओपनिंग कार्यक्रम सम्पन्न हुआ, लहेरियासराय वाले शिवाजी मैदान की ओर गए. इधर बिना देर किए  'ज़नाब' एक नौकर को शो-रूम सौंप और दूसरे को साथ लेकर तत्काल बाज़ार के भीतरी इलाके में. 

थोड़ी देर में लौटे तो दोनों के हाथ सामान से भरे हुए. नया स्टोव, डब्बे में किरासन तेल, सोंधे स्वाद उड़ाते ठोंगों में भुने चना-चबेने, बनाने के लायक तैयार मछली-मीट-मुर्गे की पोटलियां और बोतल! 

कथा-वाचक का विस्तार समेटने का अंदाज़ भी कम रोचक नहीं. कैसे असीम कथाकाश को झपका कर पलक सरीख़े नन्हे-कोमल वाक्य में बंद किया जा सकता है, यह सीखने लायक होता. उन्होंने आगे कहा : सुबह दुकान खुलने के बाद सीधे भीतरी बाज़ार जाना, सारा जुगाड़ लाना और मछली-मीट-मुर्गा और सोंधाई क साथ बोतल.. ..यह क्रम एक दिन भी नागा किए बिना चलता रहा, तब तक जब तक दुकान सलामत रही! 

.. ..यही कोई डेढ़-दो साल लगे होंगे 'स्टोव' पर पूरी दुकान को भूनकर भोग लगाने में! 

★ काम मैं 'गद्य' में भले करता रहा हूं किंतु मन का उन्मुक्त विचरण हमेशा 'पद्य' में चला है! अबाध. चतुर्दिक. अनवरत. 

'कविता' से मेरा रिश्ता न तो 'औचक- अचानक किसी तरह यूं ही संभव' कोटि का है न इसे मैंने बहुत ऐंड़ी-चोटी एक करके किसी तरह बस अर्जित कर लिया है! यह एक नाति तीव्र कौंध के साथ असाधारण ढंग से मुझमें प्रविष्ट हुई एक ऐसी चेतना-उपलब्धि है जिसे द्वितीय प्राण-तत्व माना जाना चाहिए! मजबूत और अटूट संबंध इसलिए क्योंकि इसे जोड़ा स्वयं रामधारी सिंह दिनकर ने है. पौरुष और सौंदर्य के सबके बड़े महाकवि! उस समय, जब उनसे मेरी पहली भेंट कक्षा छह या सात की पाठ्य-पुस्तक में हुई! 

नावाटोली मिडिल स्कूल! बहुत पुराना विद्यालय. इंदर सिंह नामधारी भी जिसके छात्र रहे, जो आगे चलकर पलामू के अग्रणी राजनीतिज्ञ निकले और झारखंड अलग राज्य बना तो प्रथम विधानसभाध्यक्ष बने. 

नामधारी जी के दौर में स्कूल की कक्षाएं कैसे चलती थीं यह तो पता नहीं लेकिन हमारे समय में दो स्थानों पर. कुछ कक्षाएं नवकेतन सिनेमा हॉल के पास सरकारी भवन में चलतीं और कुछ, थोड़ी दूरी पर रामपवन राम के मकान के कमरों में. 

अर्जुन सिंह हेड मास्टर. बहुत सख्त मिज़ाज़.  पाजामे-कुर्ते में ऊपर उनके शरीर का कसरतीपन छलकता दिखता. आंखें लाल! कक्षा में आकर कभी-कभी किसी शिक्षक के विकल्प के तौर पर पढ़ाते भी. किसी छात्र के जवाब पर यदि खुश हो जाते तो उनकी मुस्कान लाल आंखों के  ख़िलाफ़ जाती हुई महसूस होती. सुना जाता कि वह नगर-पिता (नगरपालिकाध्यक्ष) नर्वदेश्वर सिंह के भतीजे हैं! शिक्षकों में शंकर तिवारी, मार्कण्डेय पंडिज्जी और एक शिक्षक जिनका मूल नाम कुछ और था लेकिन जिन्हें हमलोग चिलर पंडिज्जी कहते और पूर्वडीहा के अम्बिका दुबे के चेहरे मुझे अब भी याद हैं. 

साथियों में मनोज कुमार ठाकुर शुरू से अंतिम सातवीं कक्षा तक प्रतिद्वंद्वी रहा जो अब भी संपर्क में है और यहां फेसबुक-फ्रेंड भी! अन्य सहाध्यायियों में एक-डेढ़ किलोमीटर दूर रेलवे कॉलोनी से आने वाले दो भाई शैलजानंद भट्टाचार्य व शारदानंद भट्टाचार्य, नईं मोहल्ले के विनय अग्रवाल, सतीश कुमार, कान्दू मोहल्ले के सुशील, अनिल शर्मा, अपने नावाटोली के भगवान सिंह नामधारी और निकटस्थ नामधारी गुरुद्वारे के संत बलवंत सिंह नामधारी के दो पुत्र निर्मल सिंह नामधारी व हरजिंदर सिंह नामधारी अब भी ज़ेहन में बने हुए हैं. 

शारदानंद भट्टाचार्य कुछ ही महीने पहले करीब 45 साल बाद संपर्क में आया तो जो खुशी हुई, उसे मैं किन शब्दों में व्यक्त करूं, यह सचमुच अभी सोच-समझ नहीं पा रहा! वह कोलकाता में रेलवे में है और फेसबुक पर मौजूद भी. हालांकि शारदानंद से यह दुखद सूचना भी मिली कि उसके अग्रज और हमारे बचपन के साथी शैलजानंद अब इस दुनिया में नहीं हैं! 

बहरहाल,  दिनकर-संदर्भ में बात जिस कक्षा की चल रही है यह रामपवन बाबू के मकान में ही, बरामदे के सामने वाले कमरे में चल रही थी. 

बलराम तिवारी छोटी ही क़द-काठी के व्यक्ति रहे किंतु चेहरे पर हमेशा जैसे नागफनी उगाए रहते. सबसे पहले उनके धोती-कुर्ते अपनी लघुता का आभास कराते, इसके तुरंत बाद उनका बौनापन नज़र में आ जाता. वह डाल से तोड़कर ताज़ा हरी छड़ी लिए हुए स्कूल आते. ग़लती पकड़ में आ जाने पर छोड़ते कदापि न थे. हथेली पर छड़ी से सज़ा दर्ज़ करते. 

...तो यह घटना उस समय हुई जब बलराम तिवारी ने किताब से देखकर कविता के अंश का वाचन शुरू किया, "..क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो ..उसको क्या जो दंतहीन विषरहित विनीत सरल हो.." 

अब यह याद नहीं कि इससे पहले इस कविता को किताब के पृष्ठ पर देखने का क्या अनुभव रहा था लेकिन शिक्षक-मुख से निकलता हुआ एक-एक शब्द तो जैसे आत्मा के तरल तल पर गिरता और फैलता-घुलता चला गया. मस्तिष्क-मंडल में अपूर्व प्रकाश-ध्वनि और रंगों की बौछार के साथ! मन ताज़ा घुली मिठास में जैसे विलीन होने लगा हो! ऐसा आकर्षण कि जिसने अकूत प्यास और बेचैन तलाश जगा दी! 

बहरहाल, उसके बाद कुछ अंतराल रहा. गिरिवर हाई स्कूल में पहुंचे तो विद्यालय-पत्रिका 'रसवंती' में एक कविता देने का अवसर मिला. शिक्षक व कवि नरेश प्रसाद नाहर इसके संपादक थे जो बाद में हमारे पड़ोसी भी बन गए. कविता 'रसवंती' में छप गई " देखो यह विशाल गुरुकुल  ..यही है गिरिवर हाई स्कूल " 

संयोग यह भी मेरी पहली कविता को स्थान देने वाली इस पत्रिका का नाम भी वस्तुतः दिनकर के एक संग्रह  (रसवंती) की ही संज्ञा है जो 1939 में छपा था! 

दिनकर ने कॉलेज के शुरुआती दिनों में फिर अपनी ओर खींचा. नाम याद नहीं आ रहा, रेड़मा में सीपीआई ऑफिस और देवी मंदिर के बीच आरा मिल के सामने, कॉलेज में नए बने एक मित्र के घर जाना हुआ. बाहर से ही वह कम ऊंचाई वाली दुछत्ती के सामने से खुले बरामदे पर  दिख गया. फर्श पर संभवतः बिछी हुई टाट पर बैठा वह कंबल ओढ़े हिलता हुआ बोल-बोलकर 'रश्मिरथी' का वाचन कर रहा था, " ..हरि ने भीषण हुंकार किया ..अपना स्वरूप विस्तार किया ..डगमग डगमग दिग्गज डोले ..भगवाम कुपित होकर बोले ..जंजीर बढ़ाकर साध मुझे ..हां हां दुर्योधन बांध मुझे .."  

लगा कि एक-एक शब्द दुछत्ती से उड़कर सीधे मेरी आत्मा तक पहुंच रहा और अपने प्रभाव में बांधता चला जा रहा है! एक ऐसा जुड़ाव जो लगातार मुक्त करता चला जा रहा, न जाने किन-किन कैसी-कैसी जकड़नों से! कविता की इस बार की पकड़ ऐसी अचूक कि तब से लेकर अब तक कोई साढ़े चार दशक बाद यह अक्षत है! ढीली पड़ने का कोई सवाल नहीं, अधिकतम प्रबल ही होती चली जा रही. 

उन्हीं दिनकर से महज 03 साल छोटे महाकवि आरसी प्रसाद सिंह से मुझे  पटने में मिलने का अवसर कई बार मिला है! उनसे वर्षों पत्राचार का आनंद भी मिला लेकिन अफ़सोस कि दिनकर को मैं प्रत्यक्ष देख भी न सका! 

आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री से भी मुजफ्फरपुर में जाकर कई बार मैंने मुलाक़ात की है जो उनसे छोटे तो 08 साल थे किंतु उनके प्रतिद्वंद्वियों में सर्वप्रमुख रहे. उनके यहां जब मैं पहली बार गया तो कई दिन टिक कर लंबी वार्ता रिकार्ड की थी जिसे लेकर मुजफ्फरपुर से सीधे मैं पटना आया. यहां बटुकेश्वरदत्त लेन में अग्रजतुल्य मित्रवर भगवती प्रसाद द्विवेदी के घर  ठहरना हुआ था. कैसेट को लेकर इसे सुनने के लिए भगवती जी के साथ उनके एक विभागीय मित्र के यहां जाना पड़ा. मुझे वह शाम कभी नहीं बिसरती जब हमलोगों ने शास्त्रीजी का लंबा इंटरव्यू उनके टेपरिकॉर्डर पर सुना था. पकौड़ी के साथ ही कई राउंड चाय के आस्वाद के साथ. 

 ★ डालटनगंज में गणेशलाल अग्रवाल कॉलेज का पुस्तकालय-भवन बड़ा है लेकिन मूल परिसर से बाहर. एडमिशन लेने के दूसरे ही दिन मैं वहां जा पहुंचा था. 

गेट के सामने ऊंचा काउंटर बना था जिसके भीतर बैठे पतले-दुबले व्यक्ति ने मुझ पर सवालिया निगाह डाली. मेरा ध्यान उनके पिचके गाल-मुंह और खादी के कुर्ते-धोती की दबी-दबी-सी सफ़ेदी के बीच संगति के सूत्र टटोलता रहा. कपड़े घर के ही धोए और लोहा किए हुए लगे. अर्थात आय-वृत मध्य लेकिन व्यक्ति सुरुचिपूर्ण और अनुशासन का प्रेमी!  मुझे ग़ौर से ताकते-सोचते देख उन्होंने क्या सोचा होगा, यह मैंने समझने की कोशिश नहीं की लेकिन ध्यान गया कि इस बार उन्होंने कुछ मीठे व अपनापन के स्वर में पूछा, "...अपना आई-कार्ड दीजिए और बोलिए..  आपको क्या चाहिए ? .." 

मैंने संभलते हुए, पूछने में हुए कुछ क्षणों के चिह्नित विलम्ब के लिए मुस्कुराकर सिर झटकाया और अफ़सोस के भाव जताए.  

मुस्काकर उन्होंने भी बिना शब्द के 'कोई बात नहीं ' के ज़वाबी भाव जता दिए. अब मैंने खिड़की में हाथ डाल दिया और आई-कार्ड देते हुए कुछ किताबों की जिज्ञासा की. यथा प्रेमचंद की कहानियों के विशाल संग्रह 'मानसरोवर', जयशंकर प्रसाद की पूरी रचनावली, दिनकर की सभी किताबों की यदि कोई रचनावली हो तो वह भी आदि-आदि. 

काउंटर के भीतर उन्हें जैसे करंट लग गया हो. विस्मय के शब्द छिटकाते वह कुर्सी से गतिपूर्वक उठे और पीछे जाकर कोने में खुलते दरवाज़े से निकलकर बाहर आ गए. मेरे साथ कोई गया तो नहीं था लेकिन काउंटर पर दो-तीन अन्य छात्र मौजूद अवश्य थे. सब मूकदर्शक बने रहे.

अपने ही काउंटर के बाहर मेरे पास आकर उन्होंने कुछ आश्चर्य और कुछ परिहास जैसे भावों के साथ मुझे नीचे से ऊपर तक देखना शुरू कर दिया. दूसरे ही पल वह थोड़ा मुड़े और मुख्य द्वार से सटे खुले एक अन्य दरवाज़े की ओर ताकते हुए हंकाना शुरू कर दिया, "...ए कवि जी! ..  अरे, ज़रा यह देखिए!.. आइए ...आइए!  .. यहां आइए!... यह देखिए!" 

मेरी नज़र दरवाज़े पर काउंटर की तरह रखे कपड़े से ढंके टेबुल पर पहले गई. उसके बाद उसके पीछे कुर्सी पर बैठे शख्स पर. 

वह तुरंत उठ चुके थे. बिना कुछ  समझे-बुझे खड़े-खड़े हंसने लगे. झरझराती हुई शीतल-सी हंसी, धूप में डले हिलते धुले निर्गाँठ धागों जैसी! 

दरवाज़ा छेंकते टेबुल को टेढ़ा कर उन्होंने निकलने की जगह बनाई और बाहर आ गए. जैसा चिकना चमकता भरा-पूरा गोल उनका चेहरा, वैसा ही बल्कि उसी रंग-चमक का ताम्बई आभा वाला कुर्ता, ठेहुने तक मद्धिम-से पाज़ामे को ढंकता हुआ.

वह यों हंस रहे थे जैसे गले से फंसी-फंसी-सी हंसी को निकालने का उद्यम कर रहे हों. 

कुछ ही क़दम बढ़ा कर वह पास आ गए लेकिन इसी अंतराल में वह ऐसा-इतना हंस चुके थे कि लगा जैसे उनकी ख़ुश्क हंसी आसपास हवा पर रूई के उड़ते फाहों जैसी भर गई और मीठे-मीठे मंडरा रही हो. 

ज़ुबान खोली तो उनकी आवाज़ भी खरास से भरी-भरी हुई-सी लगी, "...क्या है हो शंभू बाबू? क्या हो गया? "

"...देखिए, ई बाबू को! न्यू एडमिशन  है... और ई बच्चा प्रेमचंद, प्रसाद और दिनकर जी का सम्पूर्ण साहित्य खोज रहा है.."

अब मुझे ऊपर से नीचे तक देखने की बारी 'कवि जी' की थी. उन्होंने बहुत आत्मीयता के साथ परिचय पूछा. जब उन्हें पता चला कि मैं साइंस का छात्र हूं तो उन्हें और भी आश्चर्य हुआ. 

शंभू सिंह जी लाइब्रेरियन थे, पलामू के ही हरिहरगंज के मूल-निवासी, उन्होंने शांत भाव से बहुत मीठे अंदाज़ में अपना यह परिचय दिया और 'कवि जी' की ओर इशारा कर पूछा, "...यह यहीं लाइब्रेरी में हमारे साथ हैं ...आपने कवि सिद्धेश्वरनाथ ओंकार का नाम सुना है?  "

मैंने अचकचाकर उन्हें देखते हुए अपनी स्मृति पर ज़ोर डाली. घर में बड़े भाई और दीदी को समय-समय पर मिली स्कूल-कॉलेज की पत्रिकाओं में से ही किसी एक में छपी एक छंदोबद्ध बड़ी-सी कविता कभी ध्यान में आई थी! उसमें व्यक्त विचार कुछ आग्नेय थे जो पल्ले तो कुछ कम ही पड़े किंतु उसके आस्वाद ने रचना का कई बार वाचन करा लिया और कवि-नाम पर ध्यान भी केंद्रित कर दिया था. डालटनगंज का पता देख खुशी हुई और कभी उनसे मिलने की इच्छा भी लेकिन बाद में बात दिमाग से उतर गई!

आज जब यह नाम सामने गूंजा तो बात अचानक स्मृति-पटल पर फिर कौंध गई. मैं सुखद आश्चर्य से भर गया. लगभग चहक उठा "..आप तो क्रांतिकारी कविता भी लिखते हैं, बहुत पहले किसी स्कूल-कॉलेज की पत्रिका में जब से आपकी रचना पढ़ी है तभी से मैं आपको..." 

शंभू जी ने अपनी हंसी पर खुद लगाम कसते हुए स्वर को संजीदा कर लिया और मेरी बात को बीच में ही रोक कर बोलने लगे "...क्रांतिकारी 'भी' नहीं, क्रांतिकारी 'ही' ! ..कवि जी खुद क्रांतिकारी हैं लेकिन रोटी तो आदमी को लाचार कर देती है न! बस वही बात है... यह भी मुंह बंद किए सिर झुकाकर बैठे नौकरी कर रहे हैं ... ठोकर खाते-खाते ही लेकिन यहां हमलोगों के बीच में आ गए हैं, यह हमारा सौभाग्य है, वरना यह पटने में दिनकर जी और राजा साहब यानी राधिका रमण प्रसाद सिंह के साथ भी रह चुके हैं! .." 

मैट्रिक में राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह की कहानी 'दरिद्र नारायण' ने  मुझ पर जादू किया था. दिनकर का तो दीवाना मैं था ही. लगा कि मुझे वह बड़ा खज़ाना हाथ लग चुका है, मैं जिसकी तलाश में था! 

शंभू जी अब ओंकार जी को कह रहे थे, "..हम आपको यही दिखाने के लिए बुलाए हैं कि देखिए साहित्य के प्रति नई पीढ़ी में प्रेम और आकर्षण ज़रा भी कम नहीं हुआ है! ..कॉलेज में क़दम रखते ही एक बच्चा ऐसा यहां आया है जो प्रेमचंद, प्रसाद और दिनकर का सारा साहित्य डिमांड कर रहा  है! " 

ओंकार जी अपने अंदाज में हंसते चले जा रहे थे, जिसे देख ऐसा कुछ स्पष्ट नहीं हो पा रहा था कि पूरा मामला क्या है. शंभू जी ने मेरे कंधे पर हाथ रख दिया, "...ए जी! कुछ ही देर पहिले कवि जी मेरे पास बैठ के यह दावा कर रहे थे कि नई पीढ़ी में साहित्य-प्रेम खत्म हो चुका है...छात्र केवल कोर्स से जुड़ी किताबें ही खोजते हैं ..बेनीपुरी के कई नाटक और दिनकर के कई कविता-संग्रह इनके पास आलमारी में यहां पड़े हैं जिन्हें वर्षों से किसी ने नहीं खोजा और इन किताबों में अब दीमक लग रही है ..!" 

 ★ भक्त कण-कण में देव-दर्शन कर ले रहा है, ईश्वर सशरीर होता तो किसी एक ही स्थान तो दिख पाता! यह चमत्कार से कहां कम है कि कुछ अनुपस्थितियां उपस्थिति से भी बड़ी हैं! 

पटना के बंदर बगीचा में पता नहीं अब वह बाग़ है भी कि नहीं या फिलहाल किस हाल में है, जिसमें पुराने-पुराने बड़े-बड़े दरख़्त और बंदर भरे पड़े थे! कथा के अनुसार एक दिन निकट के मंदिर के वयोवृद्ध पुजारी ने दरवाज़े से ही कुछ दूरी पर एक विचित्र दृश्य देखा. 

पूजा के बाद मंदिर-परिसर से निकलीं चार श्रद्धालु महिलाएं पेड़ों की घनेरी छाया में बंदरों के आगे फल-प्रसाद रख रही थी. बंदर उस समय वहां दो-तीन ही रहे जो बच्चे लगे. इसके बावजूद महिलाओं ने केले, पेड़े, पुड़ी-खीर आदि पर्याप्त डाले और सिर पर आंचल चढ़ा बंदरों को प्रणाम कर आगे बढ़ गईं. 

कुछ कदम आगे जाकर रास्ते पर ज्योंही वह बाएं मुडकर ओझल हुईं, हाथ में छड़ी पकड़े एक बालक कहीं से अचानक आ प्रकट हुआ, आंधी-तूफान की तरह. आते ही वह आक्रामकता दिखाते हुए छड़ी लपलपाने लगा. बंदर आवाज़ करते हुए कुछ फल-प्रसाद पकड़े भागकर पास के पेड़ों पर चढ़ गए. ज़्यादातर खाद्य सामग्री नीचे ही रह गई. 

बालक ने हुलसते हुए अपने गले से गमछा निकाला और फल-प्रसाद समेटने लगा. वह गमछे में गांठ लगाता इससे पहले आसपास के पेड़ों से शोर करते हुए दर्जन भर से अधिक बंदर पूंछ पटकते उतर आए. उन्होंने बालक को घेर लिया और घुड़की देते हुए खी-खी करने और उस पर झपट्टा मारने का प्रयास करने लगे. आश्चर्य कि इतने पर भी बालक न भयभीत हुआ न असहज. पोटली संभालता वह उठ गया और छड़ी भांजने और एक-एक क़दम आगे बढ़ाने लगा. हालात तब और गंभीर हो गए जब पता नहीं किधर से एक और बंदर-दल उतर आया. उछल-उछल कर बंदर क्रोध जताते हुए बालक की घेरेबंदी को मजबूत करने लगे. उनकी घुड़की, खी-खी की आवाज़ और कूद-फांद क्रमशः बढ़ने लगी.

पुजारी जी को अब तक यह समझ में आ गया कि अगर न बचाया गया तो बंदरों की यह क्रुद्ध टोली बच्चे को नोच डालेगी! 

उन्होंने खड़े-खड़े वहीं से हांक लगाई, "...श्रीनिवास! ...हरि! ...रघु!...गणेश! ...दौड़ो !...दौड़ो! ...सभी शीघ्र दौड़ो! ...बंदरों को भगाओ, एक बालक फंस गया है ...उसकी जान के पीछे पड़े हैं सारे !.."

मंदिर के पीछे के कमरे से तीन लोग दौड़े. सबके हाथ में छड़ी. उन्होंने कुछ दूरी से फटकारना शुरू किया. बंदर उछल-उछल कर केवल इधर-उधर हो रहे थे, भागने या बच्चे को बख्शने को तैयार न थे. पुजारी जी ने अपने लोगों को कहा, ''...मारना मत! ...सिर्फ़ डराओ इन्हें! ..बाल्टी से लाकर पानी फेंको ...भाग जाएंगे !..." 

काफ़ी देर की कसरत के बाद बंदरों के व्यूह से निकालकर बच्चे को मंदिर-परिसर में लाया गया. उसने बताया कि वह बहुत भूखा है और अपने गांव उत्तरनावां (पहले पटना ज़िले लेकिन अब नालंदा का हिस्सा) से यहां आया है. वह शहर में रहकर कमाएगा और साथ-साथ आगे की पढ़ाई करेगा! उसने खुद ही बताया कि उसे 'राम चरित मानस' बहुत पसंद है ओर ढेरों चौपाई-दोहे याद भी हैं! 

पूछताछ करने वाले उससे जिज्ञासाएं कर और उसके उत्तर सुन रहे थे जबकि पास खड़े पुजारी मूर्तिवत करुणा-विकल. उनकी आंखों से धाराएं बहती रहीं. इस बीच उन्होंने सबको चुप रहने का संकेत दिया और बच्चे को पास बुलाया, "...बेटा, कब से शहर में भटक रहे हो? .." 

"...तीन दिन से!..." 

"...तीन दिन से कुछ नहीं खाया तुमने? ..." 

"...परसों टीसन के पास होटल वाले ने काम करवाके खाने को दिया था ...लेकिन वह अच्छा आदमी नहीं है .. बात-बात में बहुत गारी बक रहा था ...हम उसको बोल दिए कि होटल में काम नहीं करेंगे, हमको पढ़ना है ..ई सुन के हाथ ऐंठकर उसने थप्पड़ मारा और धक्का दे दिया! .." 

पुजारी जी ने दुलार कर पास बिठा लिया और सहयोगियों से बोले, "... बाबू साहब के घर से आया हुआ भोग कमरे में कठौती में ढंका हुआ है, सबमें से निकाल-निकाल कर थाली में इसके लिए खाने को लाओ ...यह 'मानस' का पाठ करता है, प्रभु का भक्त है! ..पहले इसकी क्षुधा शांत करो, तब इसकी आगे की बात जानी जाएगी!.."

बच्चे को पूछ-पूछ कर खिलाया और तृप्त किया गया. पुजारी जी बोले आज बच्चे की पूरी रामकहानी जान लेने के बाद ही वह कुछ भोग लेंगे. सभी सहयोगी भी भाव-विह्वल. बरामदे में चटाई पर सभी सामने बैठ गए. 

पुजारी जी ने उसके सिर पर स्नेहिल स्पर्श रखा, "...बेटा, तुमने अपना नाम भी तो  अब तक नहीं बताया!..."

 "...माई-बाबू ने रखा है सिद्धेश्वरनाथ और कविता लिखने के लिए हमने ओंकार!..."

"...अब आगे बात बताओ .. " 

"...हमारे गांव के एगो मास्टर साहब पटने में हैं, हम उन्हीं को खोज रहे हैं ...पहले हमारे गांव में थे वही हमको स्कूल का मुंह दिखाए थे! ...हम बहुत गरीब हैं ...माई-बाबू के साथ काम करना पड़ता है! ...स्कूल कइसे जाते? ..सांझी खानी गांव के लइकन से किताब ले-लेके हम खुदे क-ख-ग सीखने लगे!... हमारे मन में कविता बहुत बनने लगी तो हमको किसी तरह लिखना सीखना था! ...आख़िर लइकन से पूछ-पूछकर हम इहो सीख लिए और कविता लिखने लगे. ...एक दिन खेत के पास से हेड मास्टर साहब गुजर रहे थे ..हम उनको जोर से बोल के परनाम किए ...ऊ ताके तो हम कहे कि हमको दुनों हाथ से एक साथ कविता लिखने आता है ..आप देखिएगा? .. हेड मास्टर साहब सुनला के बाद रुक गए और बोले_ आएं दुनों हाथ से एक साथ! ...हम फिर बोले कि हां उहो दुनों  विषय आप दीजिए, दुगो कागज दीजिए और दुगो कलम भी आप ही दीजिए ..हमरा पास कुछो नहीं है! ..आपको विश्वास नहीं है तो अभी जांच लीजिए! ...हेड मास्टर साहब तुरंते पास आ गए.. हमारे बाबूजी को लगा कि हम कौनो गलत बात बोल दिए हैं और हेड मास्टर साहब इसी के चलते गुस्सा के सड़क से उतरकर खेत के भीतर आ गए हैं. वह उनके सामने हाथ जोड़कर गिर गए. हेडमास्टर जेब से कागज निकालकर सीधा कर रहे थे, बाबूजी को गिरा देखे तो बोले, अरे गलती नहीं ई कह रहा है कि कविता लिखता है, उहो दुनों हाथ से एक साथ! बाबूजी बोले कि बच्चा है, बदमाशी में बोल गया होगा, इसको माफ कर दीजिए, एकरा में आपन समय बर्बाद मत कीजिए, आप जाइए अपना काम खराब मत कीजिए! हेड मास्टर साहब बोले कि उनके जेब से  दुगो कागज़ भी मिल गया और दुगो कलम भी... तनी देखिए लें कि बच्चा कैसे करता है! हमको मेढ़ पर बुलाकर  दुनों कागज और दुनों कलम देकर बैठाए और वह पूछे- बेटा, दुगो विषय दें न? तो हम बोले- जी, गुरुजी, जरूर दीजिए! ...मेढवे पर दुगो धोअल थरिया ( धोई हुई थाली) रखल था, दुनों के लाके उलट दिए और दुनों हाथ के सामने एक-एक रखकर कागज़ पसार लिए.. दुनों पर कलम टिका दिए और ताकने लगे... हेडमास्टर साहब ने एक विषय दिया 'किसान' और दूसरा 'मंदिर' ...हम दनदना लिखना शुरू कर दिए .. दुनों कलम से दुनों कागज पर एके साथ.. ..दुगो कविता... तनिके देरी (थोड़ी ही देर) बाद उनकर मुंह बवा गया ...ऊ चिल्लाए लगलन कि अरे बाप रे अइसन त हम; आजतक जिनगी में ना देखली ...कइसे ई एके संगे दुनों हाथ से दुगो कविता लिखइत हे, और बाप रे बाप दुनों कविता एकदमे छंदोबद्ध हई ! ...ऊ चिल्लाते रह गए लेकिन हम बीच में नहीं रुके, अच्छर बनाकर दुनों पेज पूरा-पूरा कविता से भर दिए!..."

ठाड़ा (खड़ा) होके दुनों कविता उनका देवे लगली त गोदी में उठा लेलन ...बाबूजी से कहलन कि लइका सोना हवs, भगवान के बड़का वरदान! ...एकरा हम बर्बाद ना होवे देब... सब खाना-खर्चा हम देब, एकरा पढ़ावs! ..अभी तुरंत एकरा स्कूल भेजs!..." 

★ "...फिर क्या हुआ ? .."  यह भीगा हुआ स्वर है तो श्रीनिवास का, लेकिन आंखें निर्जल किसी की नहीं हैं. वृद्ध पुजारी जी तो बीच-बीच में साफ़-साफ़ सुबक रहे हैं.

"...हेड मास्टर साहब खेत से ही हमको अपने साथ लेके स्कूल पहुंच गए. सबको हमरा परिचय दिए. यह विस्तार से बताए कि कैसे हम उनका रास्ता रोकके आपन बात कहे और अपना बारे में बताए और कैसे ऊ आपन आंखिन से हमरा देखे, दुनों हाथ से एके साथ दुगो कलम चलाते व दुगो कविता लिखते हुए!... " 

बच्चे का कहने का अंदाज़ सधा हुआ. सबके सामने आगे का दृश्य जैसे सजीव चलने लगा हो : ... देखते ही देखते स्कूल में जैसे तमाशा खड़ा हो गया. एक-एक करके सब मास्टर पास आ गए. सबकी आंखों में बच्चे के प्रति आश्चर्य, स्वागत, प्रोत्साहन और स्नेह के भाव और ऐसी प्रतिभा को राह चलते पहचान लेने और उसे संबल देने के लिए हेडमास्टर साहब के लिए प्रशंसा और आभार के झिलमिल संकेत. 

बात फैली तो स्कूल के बच्चे जहां थे वहीं अचरज से आंखें फैलाने और मुंह गोल करने लगे. अब छात्र भी टूट पड़े. मज़मा लग गया. शिक्षकों की मौजूदगी का भी किसी को खौफ़ नहीं रहा, धक्कामुक्की होने लगी. हर छात्र किसी तरह बालक ओंकार को देख लेने को बेताब! हेड मास्टर साहब का ध्यान इस ओर खिंच गया. उन्हें स्कूल के भीतर मछली बाज़ार जैसा यह माहौल बनना अच्छा नहीं लगा. यह भी महसूस हुआ कि बच्चों को अब न रोका गया तो स्थिति बेकाबू भी हो सकती है! उन्होंने तुरंत अपने तेवर कड़े कर लिए. कड़क कर बोले और सभी छात्रों को क्लास में जाने को कहा. भीड़ भरभराकर बिखरी और बिला गई.

मास्टर से लेकर छात्र तक, हर आदमी ने उस दिन बालक ओंकार को बहुत सम्मान से देखा. सबकी ओर से उसे व्यक्त-अव्यक्त इतनी प्रशंसा और शुभकामनाएं मिलीं कि स्कूल में उसका यह पहला दिन यादगार बन गया था!

दूसरे दिन सबेरे एक आदमी दो भरे हुए झोले उठाए घर पर आया. दरवाज़े पर ओंकार ही खड़ा था, उसने ग़ौर किया आगंतुक का चेहरा एकदम हेड मास्टर साहब जैसा ही है! उम्र काफ़ी कम न रहती तो भ्रम ही हो जाता कि वही आ गए हैं. 

उसने आते ही भारी झोलों को सावधानी पूर्वक दीवार से सटाकर रखा. सीधा खड़ा हुआ और हाथ हिला-डुलाकर जैसे नसें दुरुस्त करने लगा हो. ओंकार पर रेंगती उसकी दृष्टि में हर्ष, कोमलता, उत्फुल्लता और शुभकामनाएं जैसे अनेक मनोभाव चमक रहे थे. वह ऐसे ताकता रहा जैसे उसे पहले से जानता हो और ख़ूब प्यार भी करता हो!

दूसरे ही पल उसने  झुककर गालों को स्नेह से छू लिया, "...ओ!.. तो तुम्हीं हो वह प्रतिभाशाली बालक! ...बहुत अच्छे! ख़ूब आशीर्वाद है तुम्हें ! .. ख़ूब पढ़ो-लिखो और दुनिया में देश और अपने माता-पिता के नाम ऊंचे करो ...समाज को कर्मठ और सुंदर बनाने में बड़ा योगदान करो!.."

बाहर किसी की आवाज़ सुनकर भीतर से ओंकार के बाबूजी भी निकल आए.  आगंतुक ने झोलों की तरफ़ हाथ से इशारा करते हुए बताया, "...इनमें दस-दस किलो आटा-चावल हैं और मैं हेडमास्टर साहब के भाई हूं!.." बाबूजी सारी बात समझ चुके थे, हाथ जोड़कर आभार जताने लगे.

ज़वाब में आगंतुक बोले, "...भैया ने इस बच्चे के बारे में जैसा बताया, सुनकर घर के सभी लोग चकित हैं. एक साथ दोनों हाथ से कलम चलाना और कोई भी दो विषय मिलने पर तत्काल उन्हीं पर एक ही साथ दो लंबी छंदोबद्ध कविताएं लिख देना! बाप रे बाप... गज़ब!  हमारी भाभी डॉक्टर हैं, यहीं ब्लॉक के अस्पताल में हैं और हम दिल्ली से कल ही आए हैं, वहां वकालत करते हैं ...हमलोग आज तक ऐसा न देखे हैं, न सुने हैं न दुनिया के किसी आदमी में ऐसा गुण होने के बारे में कभी किसी किताब में ही पढ़े हैं!.."

उन्होंने बाबूजी को हाथ जोड़कर कहा, "... भाई साहब, आपको भगवान ने इस बच्चे के रूप में ऐसा उपहार दिया है जो एकदम अनोखा और अनमोल है... आप किसी तरह इसे पढ़ा-लिखा लीजिए, फ़िर आगे देखिएगा कि यह बच्चा दुनिया में क्या तहलका मचाता है! .." 

बाबूजी कुछ नहीं बोले, सिर्फ हाथ जोड़े रहे. वक़ील साहब आगे बोले- "...भैया ने कहा है, यह गेहूं-चावल आपको हर महीने पहुंचेगा ... कोई न कोई पहुंचा जाएगा !.."

II  2  II  

पुजारी जी, रघु, श्रीनिवास और गणेश तो जैसे बालक ओंकार से कथा को सुन नहीं बल्कि प्रसंग-दृश्य एकदम समक्ष देख रहे हों. 

बोलता हुआ वह कुछ अधिक पल रुका तो पुजारी जी की जिज्ञासा वेगवती हो उठी, "...फिर ?..." 

...हेड मास्टर साहब उस साल उतरनावाँ गांव के ही स्कूल में ही रहे लेकिन अगले साल उनका पटना तबादला हो गया.  इधर ओंकार के पिता बीमार पड़े और दो-तीन दिनों की बीमारी के बाद ही चल बसे. उसका स्कूल छूट गया. घर चलाने के लिए उसे काम शुरू करना पड़ा. साल भर बाद मां भी नही रहीं.  गांव में अपना कोई खेत न खलिहान, ले-देकर एक अदद झोपड़ी! अब जैसे यहां दूसरे के खेत में काम करके कमाना-खाना, वैसे ही कहीं और भी तो संभव है! 

ओंकार ने सोचा, झोपड़ी को कौन लेकर भाग जाएगा!  चार बर्तन और खटिया-बिस्तरा हैं, ताले में बंद रहेंगे!

दुख का मारा बालक खाली पांव जाके बिना टिकट पटना की ट्रेन में बैठ गया. पहला दिन स्टेशन पर होटल में गाली सुन-सुनकर काम करते बीता लेकिन स्वाभिमान ने बहुत धिक्कारा. मेहनताने में मिली हुई रोटी को उसने किसी तरह उदर में जाने दिया लेकिन यह तय कर लिया कि वह ज़िंदगी में गाली किसी की नहीं सुनेगा. 

उसके बाद दो दिन भटकते बीते, रातें फुटपाथ पर कटीं. आज सबेरे उसने पेड़ों की डाल पर बंदरों को उछलकूद करते देखा तो पहले बगीचे की विशालता पर ध्यान गया, उसके बाद मंदिर और उससे निकलकर बंदरों को प्रसाद डालते भक्तों पर! 

क्या पुरुष और क्या स्त्री, जो भी भक्त मंदिर से निकला, उसने बंदरों के आगे इतना-इतना प्रसाद डाला कि देखकर ओंकार के भीतर भूख मचल उठी. उसमें यह भरोसा भी जाग गया कि थोड़ी-सी हिम्मत करके वह बहुत स्वादिष्ट भोजन पा सकता है! बस, क्या था! बगीचे में घुस आया. वह जिस गति के साथ भीतर आया उसे एकदम उसी तरह तत्काल सटीक छड़ी भी पगडंडी किनारे पेड़ के पास गिरी मिल गई! 

बालक ओंकार दो बात सोचकर पटना के लिए निकला था. अगर हेडमास्टर साहब मिल जाएंगे तब उसका जीवन उनके हाथ में सुरक्षित रहेगा, वह चाहे जो बना दें, जहां जिस मुकाम पर पहुंचा दें! इसके विपरीत वह यदि खोजने के बाद भी नहीं मिल सके तो वह कर ही क्या सकता है, ज़िंदगी की यह टूटी हुई नाव खुद ही मंझधार के हवाले कर देगा. जो होना है, वही होगा.

II  3  II  
पुजारी जी जब सुबह उठकर सबसे पहले भगवान का नाम उच्चरित करते थे, तो वह सटीक चार बजे का समय होता था. बाकी अर्चक उनके बाद ही बारी-बारी से उठते और सक्रिय होते चले जाते. 

मंदिर की यह प्रातःचर्या बालक ओंकार के आने के बाद पहले ही दिन बदल गई. पुजारी जी की आंखें मधुर बाल-स्वर में गूंजते उनके परमप्रिय उस भजन से खुली जिसकी पहली ही पंक्ति से भगवान की अलौकिक बाल-लीला की सम्पूर्ण छवि दृश्यमान हो उठती है : "...ठुमुक चलत राम चन्द्र बाजत पैजनिया!.." 

उन्होंने सुखद आश्चर्य से चारों ओर दृष्टि दौड़ाई, चमत्कृत रह गए! लगा कि उन्हें आज जीवन का एक अभूतपूर्व मूल्यवान अनुभव अप्रत्याशित हाथ लग रहा है! ऐसा जिसकी उन्होंने कभी कल्पना तक न की थी.  उनकी आंखें खुलने से पहले धूप-अगरबत्ती की यह सुगंध हवा पर कैसे प्रबल हो रही है! फर्श सारे धुल चुके और सूख चले हैं, ऐसा आज से पहले अपने जीवन में उन्होंने कहां कभी पहले देखा था!

 ★ पुजारी जी ने उत्फुल्लतापूर्वक चौकी से पांव नीचे खड़ाऊं पर रखे. उतरकर आगे बढ़ने लगे तो लगा कि अंग-अंग में लहरें भर आई हैं, गति कई गुना बढ़ गई है और स्वयं को नियंत्रण में न रखा तो कहीं सचमुच यह शरीर उड़ान न भरने लगे. उन्हें पहली बार अब यह लग रहा है कि प्रसन्नता की अप्रत्याशित और अतिशय उपलब्धि भी कम चिंता की बात नहीं. अब अगर कमरों के भीतर डग हवा पर पड़ने शुरू हो जाएं और तन उड़ने को हो आये तो डर के सिवा और क्या लगेगा! क्या पता ऊपर चढ़ता हुआ तन पलक झपकते छान्ही- छप्पर से जा टकराए! ऐसा हुआ तो शीश के चकनाचूर होने में कितने पल लगेंगे! फिर कहां क्या है, क्या हुआ, कैसे हुआ या अब आगे क्या हो रहा, कहां कुछ समझ में आ सकेगा! 

मोटा पाया (स्तंभ) पार होते ही दाहिने गर्भ-गृह का खुला किवाड़ पहले दिखा और दूसरे ही पल पीठ की ओर से बालक ओंकार, मूर्तियों के समक्ष पाल्थी जमाए, हाथ लहराता सिर हिला-हिला कर भजन गाने में निमग्न, "..ठुमुक ठुमुक चलत धाए ...गिरत भूमि लटपटाए ...धाए मात गोद लेत ...दशरथ की रनिया ..."

"..अहा ...अहा ..अहा!.." हर्ष-पुलकित पुजारी जी का मुखमंडल भावों से भर गया है.  आंखें दोनों बंद. उन्होंने दोनों हाथ हवा में उठाकर लहराने शुरू कर दिए हैं. स्वर में अनियंत्रित होती प्रसन्नता के छिटकते चमकीले कण, "...अद्भुत दृश्य ..अद्भुत ..सम्पूर्ण अद्भुत ... बालक श्रीराम ठुमुक-ठुमुक दौड़ते हुए भाग रहे ..लो, लटपटाकर भूमि पर गिर पड़े प्रभु ...दौड़ कर आईं माता जी और उन्हें गोद में भर लिया!.. अद्भुत दृश्य के दर्शन! प्रातः होते ही अलौकिक उपलब्धि! "

पुजारी जी की निकट उपस्थिति की आहट बालक ओंकार को उनके बोल फूटने से पहले ही खड़ाऊं से मिल चुकी थी लेकिन उसने न मुड़कर देखने का प्रयास किया न अपना गायन बाधित होने दिया. 

पुजारी जी ने अब मौन ओढ लिया क्योंकि उन्हें भजनामृत को अधिकतम पी लेना ज़्यादा जरूरी लगा. कुछ ही देर में  भजन के सम्पूर्ण हो जाने के बाद बालक ने उठकर प्रतिमाओं के आगे शीश झुकाया और मुड़कर पीछे आने लगा. 

पुजारी जी का ध्यान गया, नन्हा-सा बच्चा और कमर में भीगी गमछी, पूरा तन उघार! 

उसने आते ही झुककर चरण-स्पर्श किया. पुजारी जी का स्नेह सांद्र हो उठा, "...बेटा! यह भीगा कपड़ा तुमने क्यों लपेट रखा है? शरीर भी उघार! ...धोती एक मांग ली होती, आधी से तन भी ढंका रहता! " 

वह कुछ न बोला. उसके अधभीगे बाल  ललाट पर कुछ रेखा-चित्र गढ़ते रहे. अगले ही पल पुजारी जी के स्वर में दूसरे भाव छलकने शुरू हो गए, "...चार अभी बजे हैं, तू अपने पूजा-भजन से भी  निवृत हो चुका.. कब उठ गया? क्या रात ठीक से सो नहीं सका? "

"...बाबा, मैं साढ़े तीन बजे उठ जाता हूं... साफ-सफ़ाई, नहाना-धोना सब फटाफट ...चार-सवा चार बजे तक तो मैं पूजा करके उठ जाता हूं. "

पुजारी जी ने प्रसन्नता छलकाते हुए शीश पर हाथ रख आशीष दिया, "...और इधर हमारे सहयोगी अर्चक हैं, न जगाया जाए तो नौ बजे के पहले बिस्तर से हिलेंगे नहीं! ...लेकिन यह भी है कि सभी श्रद्धालु जन हैं और बहुत श्रमशील हैं... कभी उकताते या खीझते नहीं, चाहे कभी कितना ही काम बढ़ जाए ..
कोई भी कैसा भी कार्य हो, कभी न हाथ खींचते हैं न ना-नुकुर करते हैं! गौवों की सेवा भी पूजा-भाव से करते हैं, गोबर उठाने, शालाएं लीपने और उन्हें प्रतिदिन नहलाने से लेकर मठ की रसोई तक, हर कार्य निपुणता से! ...रिक्त समय में  मानस-पाठ और धर्म-चर्चा भी सम्पूर्ण भक्ति-भाव से! " 

II  2  II

बालक ओंकार दिन में आसपास के इलाकों में जाता. स्कूलों के बारे में पूछता. हेड मास्टर साहब से मिलने की उसकी बेचैनी घटने का तो प्रश्न ही नहीं, उल्टे बढ़ती ही जा रही थी.

दोपहर का समय. मठ के भीतर वाले कक्ष में सबके साथ बालक ओंकार भी.  पुजारी जी ने उसकी आंखों की चिंता को ताड़ते हुए पूछा, "..हेडमास्टर साहब का तुम्हें कुछ पता चला? "

"...जी, नहीं! .."

 "..उनका नाम क्या है? "

"..ईहे त हमरा याद नहीं..."

"...तो बिना नाम के कैसे खोजोगे? ..ई तोहार उतरनावाँ गांव नहीं, पटना शहर है, यहां केतना स्कूल हैं, इसका कोई हिसाब नहीं है और तुमको न स्कूल का नाम मालूम है न उनका!.." 

"..नाम उनका क्या था.. रोज़ इहे इआद करे के कोशिश करते हैं लेकिन फायदा नहीं.."

"...हां हां ..कोशिश करो ...उनका नाम याद आ जायेगा ...स्कूल में कभी कोई तो उनका नाम लिया होगा! ...कुछ लोग होंगे जो सर से अलग कुछ और कहके कभी बोलते होंगे ...जैसे सिंह साहेब, मिसिर जी, चौधरी जी आदि-आदि...!" 

★ "...लोग तो उन्हें हेडमास्टर साहेब ही कहते थे ...लेकिन मुझे अब यह याद आ रहा है कि जिनके घर में वह किरायेदार थे, वह मकान-मालिक उन्हें कभी हेडमास्टर साहेब नहीं कहता था!..." 

"...तो वह क्या कहता था उन्हें?...याद करो! ...याद करो!!.." 

"... वह उन्हें ..वह उन्हें... " मन के अंदर चल रहे तीव्र स्मृति-उत्खनन के चिह्न बालक के ललाट समेत पूरे मुखमंडल की भिंचती त्वचा पर उभरने लगे. सबकी नज़र उसी पर. अचानक उसने तपाक से कहा, "...ओहो! आया याद! वह तो उन्हें बाबू साहेब कहता था! ...कभी-कभी सिंह साहेब भी! " बालक ने स्मृति को खंगालते हुए एक-एक शब्द जैसे जांचते-सहलाते हुए निकाला.

पुजारी जी का मुख-मंडल दमक उठा, "...बाबू साहब, सिंह साहब! इसका मतलब तो यही कि वह प्रभु श्रीराम और भगवान बुद्ध के ही वंश-अंश हैं! यह तो सिद्ध तथ्य है, जो चट्टान कठोर और असाध्य दिखती है, अंततः सबसे मीठा जल भी वही देती है, हृदय से निकालकर ! ...बिहार में बाभन-क्षत्रिय को आजकल दबंगई का ही पर्याय माना जाने लगा है लेकिन देखो कैसे उन्होंने अपना पेट काटकर तुम्हें खाना-खर्चा दे-देकर दलदल से निकालने का प्रयास किया! "

"...गुरु जी! मुझे यहां एक निवेदन करना है " स्वर के बलाघात से यह व्यक्त हुए बगैर न रह सका कि श्रीनिवास को कोई बात बहुत नागवार गुजरी है और उन्होंने बहुत बलपूर्वक अपने आवेग को संयम की लगाम पहनाई है. 

"...क्या? ...अवश्य कहो अपनी बात..." पुजारी जी ने जिज्ञासा से ताका. 

"...मानवीयता के तत्व कभी किसी भी व्यक्ति में दिख सकते हैं ...ऐसे गुण आते ही तब हैं जब व्यक्ति हर छोटी सीमा को अस्वीकृत कर स्वयं को देश-समाज-मानवता के बड़े हितों-दायित्वों से जोड़ने की कोशिश शुरू करता है! इसलिए ऐसे व्यक्ति-विशेष के भी जाति-वंश को  चिह्नित करना न केवल उचित नहीं बल्कि मेरी दृष्टि में जघन्य कृत्य है! " 

"...मैंने कोई बहुत सोच-विचार के किसी लक्ष्यपूर्वक ऐसा नहीं कहा, वत्स! " पुजारी जी ने सिर को झटकारते हुए हाथ इन्कारी मुद्रा में हिलाने ज़ारी रखे, "...दरअसल हमारे समाज की व्यवहार-दृष्टि ही आज बिगड़ गई है! लाख नारे लगे लेकिन समाज में जाति-व्यवस्था टूटने के बजाय उल्टे अधिक मजबूत होती गई. सरकारी तंत्र से लेकर राजनीति के समूचे महकमे में जातिगत पहचानें दर्ज़ और मजबूत की जा रही हैं! कहां सबको केवल भारतीय मानकर चलने पर कोई तैयार है? नेता को वोट चाहिए, इसके लिए जातिगत व्यूहबन्दी सबसे अचूक तरीका है! इधर, यह दुनिया का सबसे बूढ़ा समाज है, अपनी ही खूबी-खामियों में अटका-लटका हुआ! इसमें तो अपेक्षित बदलाव तभी संभव है जब इसके लिए बड़े प्रयास संभव और शुरू किए जाएं! आप देख रहे हैं कि आज जिन्हें सुधारक की भूमिका निभानी चाहिए वही इस समाज को अपने निहित राजनीतिक स्वार्थ के लिए विकृतियों के हवाले करते चले जा रहे! ..." 

पुजारी जी बोलते-बोलते जैसे रूपांतरित हो गए हों. समाज- राजनीति की मीमांसा करते हुए आज अलग ही दृढ़ता, कथा या धर्म-चर्चा में झलकने वाली कोमलता से सर्वथा भिन्न ! सबकी नजर उनके चेहरे के ऊपर.  श्रीनिवास, हरि, गणेश और रघु तो बात को ग्रहण करते हुए बीच-बीच में सिर हिला रहे जबकि बालक ओंकार पर यह विमर्श अब भारी पड़ रहा. 

उनका बोलना ज़ारी रहा, "...यह इसी वर्तमान माहौल का असर है कि किसी व्यक्ति की उपलब्धि देख पहले जिज्ञासा यही होती है कि वह किसकी संतान है, किस विरादरी-समाज से है, कैसी आर्थिक-सामाजिक पृष्ठभूमि से है आदि-आदि... लेकिन मैं बताऊं कि ऐसा सोचते हुए औरों का चाहे जो दृष्टिकोण रहता हो, मेरा एकमात्र अभिप्राय जिज्ञासा-मूलक होता है ..."

हरि ने ध्यान खींचा, "...मूल बात तो पीछे छूट गई! मौजूदा राजनीति- समाज की यही खासियत है, वे सबसे पहले असली सवाल से डिगा देते हैं, उसके बाद वहां ले जाते हैं जहां इधर से उधर और उधर से इधर भटकते रह जाने के अलावा दूसरा कोई विकल्प ही नहीं बचा है ...क्योंकि वहां सारे रास्ते बंद हैं! इसलिए बेकार की बातें छोड़ कर इस बच्चे की मदद की सोचिए! हेडमास्टर साहब नहीं मिलेंगे तो क्या करना है, हमें अब इस पर विचार करना चाहिए ..."

 ★ "...लेकिन मूल बात तो अब भी पीछे छूट रही है  .." गणेश का आवेग नियंत्रित नहीं हो पा रहा, इसका पता स्वयं उसके स्वर देने लगे. 

"...कौन-सी मूल बात छूट रही? ..", पुजारी जी की लंबी श्वेत दाढ़ी-मूंछों में पल भर के लिए कोमल-सी हलचल हुई, "....बताएं आप ...निःसंकोच कहें!..." 

"...कोई अगर भगवान श्रीराम व महात्मा बुद्ध के वंश का है तो इसका उल्लेख क्यों नहीं किया जाए? ऐसा करना अनावश्यक या अनुचित कैसे है?..." गणेश के स्वर में दृढ़ता. बात के आगे दीर्घ होने की संभावना का भी संकेत. सभी ताकते रहे. उन्होंने कहना ज़ारी रखा, "... मैं तो प्राणिशास्त्र का छात्र भी रहा, विज्ञान लता-गुल्म तक का भी ओरिजिन खोजते हुए उसकी फेमिली तलाशता और उसके सूत्र खंगालता है ...कुछ रोग-व्याधि तक ऐसे हैं, चिकित्सा विज्ञान जिनके अतीत-सूत्र व्यक्ति के खानदान में भी निर्धारित कर देता है ...ऐसे में हेड मास्टर साहब के  गुण-सूत्र के लिए उनके कुल-ख़ानदान की चर्चा मेरे विचार से उचित ही नहीं, अत्यावश्यक भी है! व्यक्ति के सद्गुण यदि उसके पूर्वजों की मर्यादा की श्रीवृद्धि कर रहे तो ऐसे में निश्चय ही इसका श्रेय देते हुए पूज्य पुरखों को स्मरण कर उन्हें प्रणाम किया जाना चाहिए ...किसी को क्या अधिकार या इसकी क्या आवश्यकता कि कोई इसे डंके की चोट पर अनावश्यक घोषित कर दे? "

"...मैंने उदात्त दृष्टि से और मानवता के दृष्टिकोण को सर्वोच्चता देने के मूलाग्रह से प्रेरित हो कर जाति-वंश की चर्चा के निषेध की बात कही है, महाशय!..." श्रीनिवास की प्रतिक्रिया मुखर लेकिन स्वर की मुद्रा बचाव वाली. 

"...यह कैसी मानवता-दृष्टि है जिसे श्रीराम-बुद्ध के नामोल्लेख से बाधा हो रही? कभी इतिहास से भी संपर्क करके वस्तुतथ्य जानने का प्रयास कर लेना चाहिए... मनुष्यता के इतिहास के पास श्रीराम और महात्मा बुद्ध से बड़ा तो असंभव, उनके जैसा भी कोई अन्य व्यक्तित्व-दृष्टांत उपलब्ध है क्या?..." गणेश के स्वर के तनाव में अब तक कोई ढिलाई नहीं. 

"...आप अगर मूल की बात ही तय कर लेना चाह रहे तो प्रस्थान-बिंदु से प्रारंभ कीजिए, महाशय! भगवान श्रीराम और बुद्ध किनके वंशज हैं? महाराज मनु के ही तो? मनु की जाति शास्त्रानुसार क्या है? " श्रीनिवास  संभवतः अपने तनाव के चरम को छू चुके हैं. मुख पर बहुत पतली-सी मुस्कान और वाणी में शीतलता के हल्के पूर्व-संकेत, "...कभी सोचिए तो वर्तमान समय में जाति-विवाद की सारी निरर्थकताएँ सामने आ जाएंगी!..."

पुजारी जी के मुख-मंडल पर मंद-मंद मीठी मुस्कान. सहयोगी अर्चकों का जो वाद-विवाद कुछ देर पहले चिंतित करने लगा था, वह अब वैचारिक मंथन और दर्शन का आह्लाद दे रहा है. 

"...आप कहना क्या चाह रहे हैं, पहले यही तो स्पष्ट हो! कहां अब से कुछ ही देर पहले आपको श्रीराम और महात्मा बुद्ध तक का नामोल्लेख अनावश्यक लग रहा था और कहां अब आप ही आदिपुरुष महाराज मनु के पास जा पहुंचे हैं! .." गणेश ने वाणी से व्यंग्य की तीव्र तलवार चला दी, "... विनम्र निवेदन है कि अपने मस्तिष्क पर एक बार और बल का प्रयोग करें, महाराज मनु तो आदिपुरुष भर हैं, शास्त्र स्पष्ट यह बताते हैं कि मूल प्रारंभ-बिंदु तो आदिसर्जक परमपिता ब्रह्मा हैं! "

हरि और रघु की ओर दृष्टि फिराते पुजारी जी ने मुस्कुराकर आंखें बंद कर ली. मीठे स्वर में बोले, "...बौद्धिक संसार में असहमतियों से भी वैचारिक अन्वेषण को गति मिलती है लेकिन बातें तार्किक और तथ्याधारित हों और ऐसी ही आगे भी बनी रहें, तभी! " उन्होंने आंखें खोल अपनी मधुर दृष्टि उन्हीं दोनों सहयोगी अर्चकों पर रखी जो अब तक चुप्पी ओढ़े तो बैठे रहे किंतु बीच-बीच में कसमसाने से बाज नहीं आते दिखे, "...श्रीनिवास और गणेश का यह विवाद बालक ओंकार के मानसिक स्तर से ऊपर का है इसलिए उसकी चुप्पी तो चुप्पी ही है लेकिन हरि और रघु का मौन वस्तुतः दुविधा है, घनघोर असमंजस!.."

बालक ओंकार चुप, चारों अर्चक मौन. सबकी दृष्टि पुजारी जी के मुखर मुखमंडल पर. उनका बोलना अबाध, "...यही इस वाद की निष्कलुषता है कि गणेश और श्रीनिवास वस्तुतः कोई विवाद नहीं बल्कि मिलकर एक साथ हमारे समय के सबसे बड़े प्रश्न से टकरा रहे हैं कि मनुष्य की जाति वस्तुतः क्या वस्तु है ? यह वस्तुतः वह ब्रह्मास्त्र है जो राजनेताओं के हाथ आ गया है! जिस तरह वह अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए इसे समय-समय विकृत कर समाज में टकराव की स्थिति भी सप्रयास उत्पन्न कर दे रहे, यह गंभीर चिंता का विषय है! इसलिए जन मानस में जाति की अवधारणा को स्पष्ट कर देना अनिवार्य और प्रत्येक बौद्धिक इकाई का युगकर्तव्य है!..." 

"...अगर यह अटपटा न लगे कि दो जनों के वैचारिक संघर्ष के बीच कोई तीसरा व्यक्ति अचानक घुस आए तो मैं प्रिय श्रीनिवास व प्यारे गणेश के इस वाद के बीच कुछ और हस्तक्षेप करना चाहूंगा ...ऐसा इसलिए ताकि इस वैचारिक अन्वेषण का तटस्थ आकलन किया जा सके ...और यदि संभव हो तो सामने आए तथ्य-सूत्रों और हाथ लगी विचार-उपलब्धियों से किसी निष्कर्ष का स्वरूप स्पष्ट किया जाए! ..." 

"...क्यों नहीं! ...क्यों नहीं! .. अवश्य! ..." से सबने लगभग एक साथ हाथ लहराए. अबके चेहरों पर मुस्कान देख बालक ओंकार को लगा कि अब हंसा जा सकता है! 

श्रीनिवास ने दोनों हाथ जोड़ लिए, "...गुरु जी आपने स्वयं को तीसरा व्यक्ति कैसे समझ लिया! ..आप गुरु हैं , आपमें तीनों एक साथ निहित हैं ब्रह्मा-विष्णु-महेश ...इसलिए आप प्रथम हैं, सर्वप्रथम! ...स्वाभाविक रूप से हमारे लिए आप स्वयम्भू भी! ...आप निष्पति का प्रतिपादन करें ...कृप्या अवश्य दें निष्कर्ष.. " 

"...देखो भाई! सीधी बात यदि आदि प्रस्थान-बिंदु का तर्क मानें तब तो हर कोई संतति परमपिता ब्रह्मा की है, पूरी तरह! इसलिए उनसे विकसित हर इकाई मूलतः ब्राह्मण है ...लेकिन ब्रह्मा चूंकि देव हैं तो यह देवलोक का संदर्भ हुआ ...इसलिए अब यदि पृथ्वी की बात करें तो यहां मनुष्य के आदिपिता महाराज मनु ही मान्य हैं! और बिना किसी किंतु-परंतु के मनु क्षत्रिय हैं ...इसलिए उनसे निःसृत पूरी मानव जाति-संतति वस्तुतः पूर्णतःजन्मना  क्षत्रिय साबित हुई! ..." चारों ने साश्चर्य पुजारी जी पर दृष्टि स्थिर कर दी. उनके चेहरे पर गंभीर अभिव्यक्ति-चिह्न और स्वर में दृढ़ता, "...मनु-संतान हर व्यक्ति क्षत्रिय! ..ब्राह्मण यानी नैतिकता, धार्मिकता और अनुशासन ...क्षत्रिय अर्थात सभी अर्थ-संदर्भों में पौरुष और समग्र उद्यमिता-संबल! सारा विवाद यहीं समाप्त! या तो कुछ अतीत-व्यतीत स्वीकार ही न करो ... या अगर इसके बिना काम ही नहीं चल पा रहा और इतिहास की राख माथे पर मलने का ही मन है तो, बीच में कहीं मत अटको, तर्क और तथ्य तो यही कह रहे कि मनु या ब्रह्मा तक तुम्हें जाना ही चाहिए!.." 

★ राजनीतिक फलक़ ही क्यों, भूगोल से भावना तक के परिदृश्य तक, विभाजन की प्रक्रिया कहां सहज ग्राह्य है! 

चिचरी (लकीर) खांच देने से कहीं कभी पृथ्वी के दो टुकड़े हुए हैं!नियम-कानून और दूसरे सांस्थानिक व्यवहार काटते-काटते लंबे अंतराल के बाद भावनाओं को भले ही थोड़ा-बहुत बिलगा पाते हों, दिल कभी नहीं बंटता. टूटने के दर्द से दूर बाद की पीढियों  के लिए 'मौजूदा' स्वाभाविक स्वीकार्य होता हो तो हुआ करे!   

मैं अपने यह ताज़ा मनोभाव दर्ज कर लूं कि झारखंड बनने के दो दशक बाद भी वृहत साहित्य-परिवार का स्मरण करते हुए आज न तो 'पटना' शब्द लिखते हुए कोई 'ग़ैरपन' महसूस हो रहा है, न अस्सी के दशक की यात्राओं के तत्कालीन पात्रों के प्रति कोई 'भिन्न-प्रांती' जैसी सूक्ष्म भावना ही कहीं उग या चुभ रही है! आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री से प्रदीर्घ इंटरव्यू लेकर मुज़फ्फरपुर से आने के बाद पटने में बंधुवर भगवती प्रसाद द्विवेदी के यहां तीन-चार दिनों टिकना हुआ था. 

आरसी बाबू (आरसी प्रसाद सिंह) से मेरा पत्र-व्यवहार था ही, उनका पता मेरे पास मौजूद रहा. कविवर केदारनाथ मिश्र 'प्रभात' के बारे में डालटनगंज में कुछ ही समय पहले चिकित्सक डॉ बीएन मिश्रा से चर्चा हुई थी. उन्होंने और उनकी श्रीमती जी वीणा मिश्रा ने बताया था कि पटने में उनका घर प्रभात जी के पड़ोस में ही है. इलाका उन्होंने मैला टंकी के पास कहा था. किताबों में कविवर का छपने वाला पता भी यही था, जिसके छापे के अक्षर मुझे स्मृति -पटल पर सुपाठ्य मुद्रित दिखने लगते थे. 

सुबह नहा-धोकर छोटा-सा हैंडबैग उठाए भगवती जी के साथ ही निकलना हुआ. कुछ ही कदमों के बाद सम्भवतः बटुकेश्वरदत्त लेन क्षेत्र में ही मोहल्ले का होटल. भरे हुए मगों से सजे साफ-सुथरे टेबुल और उनकी मौन संगत में लीन बेंचें. पास ही सामने मिट्टी के ऊंचे कोयला-चूल्हे पर ढंके भाप छोड़ते हंडे-पतीले. एक बड़ी तश्तरी में रखी ताज़ा तैयार सोंधाई छोड़ती आलू-परवल की पतली कटी भुजिया तो दूसरी में कटे प्याज, खीरा और हरी मिर्च का सलाद. 

होटल वाले ने भगवती जी का परिचित-पुरानी मुस्कान के साथ स्वागत किया और उनके साथ मुझे देख सहज जिज्ञासावश पल भर के लिए कुछ समझने का असफल प्रयास भी किया. 

हाथ-मुंह धोकर हम तुरंत अगल-बगल बैठ गए. भगवती जी आज़ादी की लड़ाई के दौरान पटना के इस इलाके की अहमियत बताने लगे. उन्होंने सामने इशारा कर बताया कि यहां से निकलकर उधर से हमलोग चलेंगे.  क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त जी का ऐतिहासिक आवास देखने का अवसर मिलेगा. मन में भाव आने लगे, एक वह भी समय होगा यहां भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त जैसे आज़ादी के दीवाने चलते-फिरते दिखाई देते होंगे.  

रांची से उन दिनों छप रही समाचार-विचार-पत्रिका 'युगश्री' में कुछ समय पहले प्रकाशित भगवती जी का इससे संबंधित एक लेख मुझे याद हो आया. उसमें बटुकेश्वर दत्त जी के ऐतिहासिक मक़ान की तस्वीर थी. ऐसा अहम स्थान देखने का रोमांच- मिश्रित हर्ष मन पर अबीर-गुलाल की तरह जैसे हल्के-हल्के झरने लगा हो! 

होटल वाला कुछ ही मिनटों में कटोरिदार दो सजी थालियां लिए पास आया तो भगवती जी ने उसे मेरा लेखक के रूप में परिचय दिया. उसने बहुत सम्मान व्यक्त करते हुए नमस्कार-स्वागत किया और दो गिलास ख़ूब धोकर सामने मग के पास रख गया. 

भोजन में ताज़गी, स्वाद और घरेलूपन भी. एकदम सामने भोजन करते उन्हें देख मन में कुछ अलग ही बातें उठने लगी. सामान्य पाठक पत्र-पत्रिकाओं में  'भगवती प्रसाद द्विवेदी' को नियमित पढ़ते हैं. जो कुछ ख़ास साहित्य-प्रेमी कोटि के अध्येयता होंगे, उनके मन में 'महावीर प्रसाद द्विवेदी', 'हज़ारी प्रसाद द्विवेदी' नामों के साथ पुराने आचार्यों की कैसी-कैसी छवियां भी उभरती होंगी- मूंछों, छड़ी और धोती-कुर्ते वाले गुरु-गंभीर और रौबदार व्यक्तित्व! ...किंतु उनके पाठकों को कहां यह पता होगा कि यह भगवती प्रसाद द्विवेदी एमएससी हैं और एक केंद्रीय संस्थान के सूट-बूट वाले आलाधिकारी भी! साथ ही यह भी सोलह आने सच कि आधुनिक शिक्षा व महानगरीय जीवन-प्रणाली उनके मन-मस्तिष्क को कहीं से छू भी नहीं सकी हैं. वह स्वयं में अपने पुराने आचार्यों की ही तरह वैसे ही कोमल हृदय हैं और उन्हीं शब्द-साधकों की तरह सतत सृजन-अध्ययनशील भी. 

II  2  II
 
भगवती जी का कार्यालय 'टेलीफोन भवन' हॉर्डिंग पार्क बस स्टैंड से आगे रेलवे क्रासिंग पार करके था. उनके साथ इस इलाके को पहली ही बार धांगने का अनुभव. भवनों के अतिरिक्त मिल रहीं मड़ईनुमा चाय-नाश्ता और चूड़ा-दही की दुकानों को देखकर लगा ही नहीं कि यहां पहले कभी आना नहीं हुआ है. लगातार एक पूर्वपरिचयपन जैसे मृदुल संगीत की तरह मन को छूता-सहलाता रहा. चौड़े न सही, अपेक्षाकृत लंबे भगवती जी के डग बड़े हैं जिन्हें उनका नियंत्रित करना भी समझ में आता रहा लेकिन मेरा चलते हुए आसपास को पढ़ते-समेटते चलने का एक और समय-सोखी स्वभाव. 

सीढ़ियां चढ़ शायद तीसरे तल्ले पर उनका कक्ष. कुछ देर वहां लोगों से मिलने-जुलने के बाद नीचे कैंटीन में आना हुआ. यहां टोकन लेने तक कई अन्य साहित्य-प्रेमी हाज़िर. भगवती जी सबका आत्मीय मुस्कान और चाय-निमकी से स्वागत करते रहे. जुड़वा वृहद टेबुल के दोनों ओर की बेंचें भर गईं. भोजपुरी से हिंदी तक के रचनाकार, पत्रकार-मित्र. नए से लेकर पुराने तक. कहां किस पत्र-पत्रिका में क्या छपा है, किसकी कौन-सी किताब आई है या आने वाली है और कौन क्या लिखने में मशगूल है! 


★ किसी अच्छे-भले संगोष्ठी-सम्मेलन में भी जो विमर्श या जितना मेल-मिलाप संभव नहीं, वह सब भगवती जी के ठीहे पर सहज मुमकिन था! 

बात से बात और मुद्दे से मुद्दा विकसित होते चले जाने का ऐसा निर्बंध-निस्सीम सिलसिला कि क्या कहने! समय के जैसे धुर्रे उड़ते चले जाते. पूर्वाह्न पलक झपकते मध्याह्न और मध्याह्न चुटकी बजाते अपराह्न में तब्दील! भगवती जी बीच-बीच में आते-जाते रहते, इसके बावजूद हर विमर्श में उनकी भागीदारी विचरती सुगंध और घुलती मिठास-सी अविच्छिन्न बनी रहती. उनके इन्कार और स्वीकार का तारत्व न्यून दिखता किंतु घनत्व अनिवार्यतः उच्चतम होता. 

बाद के दिनों की कई संगतों में वहां मिलने वाले रचनाकारों को याद करूं तो मधुकर सिंह का चेहरा सबसे पहले सामने आ रहा है! कमलेश्वर-काल की 'सारिका' के स्टार कथाकार. उनसे मुलाक़ात के साथ ही लंबे समय से मन में क़ायम छवि जैसे चरमरा कर टूट गई  हो! ऐसा सोच भी नहीं सका था कि आधुनिक समय का कोई चर्चित कथाकार भी ऐसा सहज-सरल और सामान्य हो सकता है। उनका निहायत अपने ही गांव-गिरांव के किसी मास्टर या गुरुजी की तरह होना कुछ पलों के लिए चौंकाने वाला तो अवश्य था किंतु बाद में यह तृप्तिकर लगने लगा था. बहरहाल बाद कि अन्य कई पटना-यात्राओं में भगवती जी के ठीहे पर ढेरों रचनाकारों से मिलना-जुलना हुआ. इनमें रामनिहाल गुंजन और नचिकेता जैसे वरिष्ठों से लेकर मुसाफ़िर बैठा तक जैसे युवा तेजस्वी साथी-रचनाकारों से तो पहली भेंट यहीं हुई. बाद के वर्षों में जब कृष्णानंद कृष्ण जी पटना आ गए तो मेरे पहुंचते ही फोन से उन्हें सूचना भेजी जाती. भगवती जी कभी स्वमेव तो कभी मेरे याद दिलाने पर तुरंत उनका नम्बर मिलाते, "...श्यामल जी आए हैं ...हमलोग आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं! " उन्हें डिफेंस कॉलोनी कंकड़बाग से निकलकर चिरैयाटांड़ पुल होते पटना जंक्शन रेलवे स्टेशन क्षेत्र और हार्डिंग पार्क बस स्टैंड लांघकर आते-आते समय तो काफ़ी लग जाता लेकिन उन्हीं से मिलकर आना सफ़ल महसूस होता. 

II 2 II

उस दिन आरसी बाबू या प्रभात जी, किसी से मिलने निकल पाना संभव न हुआ. चाय पर चाय, चर्चा पर चर्चा. इतने और इतनी तरह के शब्दकारों मिलना-बतियाना हुआ कि अभूतपूर्व तृप्ति-अनुभूति होने लगी. 

शाम होते-होते कोई अन्य रचनाकार वहां नहीं रह गया था. आरा-बक्सर के कई लोगों से मिलना-जुलना हुआ था. भगवती जी बताने लगे कि इनमें  से कुछ लोग प्रतिदिन यहां आते हैं और दिन ढलने से पहले स्टेशन पहुंच वापसी की ट्रेन पकड़ लेते हैं. कुछ लोग  हफ़्ते में एक-दो बार घूम जाते हैं. कुछ टीचर हैं, कुछ कर्मचारी यूनियन में तो कुछ को राजनीति का गहरा चस्का लगा हुआ है. कुछ ही घंटों में यहां कई जगह दस्तक दे जाते हैं, कई दरवाज़े छू लेते हैं! राजधानी पटना की यात्रा दिन-भर का मामिला है उनके लिए. पांव घर से बाहर सुबह निकालते हैं और अंधेरा होते-होते वापस चौखट के भीतर! 

दफ़्तर से भगवती जी और मैं, दोनों साथ निकले. वापस रेलवे क्रॉसिंग लांघते हुए. पोस्ट ऑफिस पहुंचकर भीतर जाना हुआ. देखा कि उन्होंने जेब से चाभी निकाल दीवार के अनेक में से एक बॉक्स खोला. उसमें छोटे-बड़े लिफ़ाफे भरे थे, चिट्ठी-पत्री जैसे भी और कई क़िताब- पत्रिकाओं से भरे भी. उन्होंने संभाल-संभाल कर कई बार हाथ डाल अपनी सारी डाक निकाली और कंधे से लटकते साइड झोले में रखी. बॉक्स को बाहर से लॉक कर दिया गया. पता चला वह सुबह-शाम दो बार यहां डाक लेने आते हैं! कहां कभी आठ-दस लिफ़ाफ़े-पोस्टकार्ड आ जाने पर ही हम अघा जाते रहे हैं और खुद को बहुत सक्रिय समझने या लोकप्रिय होता महसूस करने लगते हैं और कहां भगवती जी की यह भर-झोले की एक डाक-खेप! 

कंधे रगड़ती भीड़ से जूझते हुए हमलोगों ने महावीर मंदिर  के पास सड़क को लांघा. सामने गली के कोने पर ही भीड़भरी चाय दुकान पर पहुंचे. ऊंचे काउंटर पर टंगा चेहरा भगवती जी से मुख़ातिब हो गया. पहमे उस पर बारीक-सी मुस्कान दिखी फिर नमस्कारी कंपन. 

"...कैसे हैं? " सिर हिला ज़वाबी नमस्कार के साथ भगवती जी ने हाथ बढ़ा उसे रुपये थमाए और बिना देर किए उसने कैरम-गोटी साइज़ का प्लास्टिक का पतला टोकन! 

यहां की निमकी लंबी, बर्फी जैसी! मोटी और चौकोर. डालटनगंज याद आया. वकालतखाने के पिछवाड़े वाले होटल की निमकी भी और नंदलाल सिंह, सूर्यपत सिंह, केडी सिंह, प्रोफेसर विनोद नारायण दीक्षित, तारकेश्वर आज़ाद, बैजनाथ राम गोपी, गोकुल वसंत तो कभी दीनानाथ तिवारी, हृदयानंद मिश्र, कौशलेंद्र सिंह सदन, रामाशीष पांडेय, ओम प्रकाश अमन आदि के साथ की बैठकियां भी. अंतर यह कि वहां चाय-निमकी बैठकी में जान डालने का उपाय थी और यहां यह लंबी पैदल-यात्राओं के क्रम में अंतराल के बीच शरीर में ऊर्जा भरने की युक्ति. 

II 3 II

गंगा किनारे के इलाके पता नहीं क्यों अवचेतन को भोजपुरी क्षेत्र ही अनुभूत होते रहते हैं! इधर रिविलगंज या उधर मांझी घाट से बैरिया बाजार जैसे वातावरण का कुछ न कुछ हिस्सा समेटे हुए-जैसे. कभी धुले-धुले-से तो कुछ धूल-धूल भी. 

वह लाख चाहे पटना महानगर ही क्यों न हो, ऐन बड़े से बड़े अपार्टमेंट के साए में भी कोई न कोई मड़ई दिख ही जानी है! फूस-सरपत का सरियाकर डाला हुआ, गोला या चौरस लेकिन बरियार खोपा. यदि यह नया हुआ तो हरापनमिश्रित पीलापन लिये हुए! इसके विपरीत पुराना पड़ चुकने की स्थिति में धुआं पीकर करिआया हुआ, राख-कालिख झाड़ता-सा. 

यही सब देखते-आंकते हमारे क़दम बढ़ते चले जा रहे थे. रचना में अंत तक 'क्लाइमेक्स' का थ्रिल खींचने का स्वभाव तो लेखकों में आम है लेकिन देखा कि यही भगवती जी के नियमित व्यवहार में भी बहुत कलात्मक रूप में विन्यस्त है. "...आइए, एक जगह चलते हैं!.."कहकर उड़ाते हुए वह न जाने कहां लिए चले जा रहे थे! 

खैर, कुछ ही देर में हम वरिष्ठ रचनाकार रघुनाथ प्रसाद विकल जी के सामने थे. ज़मीन लेकर कुछ ही समय पहले का बनाया हुआ मकान. भगवती जी मेरा परिचय देते रहे, वह मेरी ओर ओर मुख़ातिब होने का नाम नहीं ले रहे थे.

चाय-नाश्ते पर चर्चा और उसका उत्साह तारी! संदर्भ एक आलेख का था जो विकल जी ने कविवर हरिवंशराय बच्चन के गीतों पर लिखा था. पत्रिका संभवतः 'आजकल' ही जिसमें यह छपा. अब सीधे पत्रिका में पढ़कर या भेजी कटिंग देखकर, कविवर बच्चन ने अपनी प्रतिक्रिया लिख भेजी थी!

'आजकल' का अंक सामने टेबुल पर था ही, विकल जी भीतर जाकर कविवर का हस्तलिखित पत्र भी ले आए. भगवती जी उन्हें इस उपलब्धि के लिए बधाई देने लगे. विकल जी भाव-विभोर! इसी क्रम में बोलते हुए उन्होंने आगे कहा, "...बच्चन जी अपने प्रशंसकों और पाठकों के पत्रों के उत्तर अवश्य देते हैं ...श्यामल जी को भी वह पत्र लिखते हैं ...इनका तो जानकी वल्लभ शास्त्री, आरसी प्रसाद सिंह, अमृत राय, विष्णु प्रभाकर आदि से लगातार पत्राचार होता है!"

विकल जी चौंक-से गए. बैठे तो पास ही थे, मेरी ओर ठीक से मुख़ातिब पहली बार हुए. अभी उनका मुखमंडल आश्चर्य की झंकार से मुक्त नहीं हुआ था और कुछ बोल भी नहीं फूटे थे कि भगवती जी ने आगे जोड़ दिया, "...श्यामल कल ही मुजफ्फरपुर से आए हैं ...वहां जानकी वल्लभ जी के यहां ही वह कई दिनों तक रहे... इन्होंने महाकवि का डेढ़ घंटे का लंबा इंटरव्यू भी रिकार्ड किया है ...कल एक मित्र के यहां हमलोगों ने यह पूरा इंटरव्यू सुना.. बेहतरीन है!.."

★ विकल जी पल भर के लिए झेंपे और दूसरे ही पल अत्यंत सहज हो गए. एकदम भिन्न भाव-मुद्रा. भगवती जी से मुस्कुराकर बोले, "... आपके साथ हैं तो ज़रूर कोई खास होंगे, मैंने देखते ही समझ लिया था! "

उन्होंने जानकी वल्लभ जी को लेकर कुछ वैचारिक और कतिपय व्यक्तिगत जिज्ञासाएं मुझसे की, जिन्हें मैंने अपने स्तर से भरसक शान्त करने का प्रयास किया. 

II  2  II

दुनिया को ऊंचाई और चमक ही दिखती हैं, यह तो सूरज जानता है कि लाखों साल से निर्जन आकाश में धधकते हुए दौड़ना कितना दारुण है! 

देश से लेकर विदेशों तक फैले चौथाई-हिंदुस्तान-भर के विराट भोजपुरी मानस में बसने वाले पूरबी-सम्राट महेन्दर मिसिर के भावप्रवण गीत के दीवानों की संख्या सोशल मीडिया के इस दौर में नए तरीके व तीव्र रफ़्तार से बढ़ रही है! यूट्यूब पर उनके गीत कई-कई स्वरों में छाए हुए हैं. उनके गीतों को स्वर देने वाले नामों में शारदा सिन्हा तो हैं ही, नई से नई पीढ़ी के गायक-गायिकाओं के नाम भी शामिल हैं. 

यह हाल तब है जबकि महेन्दर मिसिर को गए 74 साल (जन्म : 16 मार्च 1886, तिरोधान : 26 अक्टूबर 1946) होने को आए! पौन शताब्दी बाद भी इस कवि की कहानी में वही खिंचाव और आग है! 

भोजपुरी के शेक्सपीयर भिखारी ठाकुर के गुरु उन्हीं महेन्दर मिसिर के बारे में कहा जाता है कि अंग्रेज़ी हुकूमत के जासूस सुरेंद्र लाल घोष को उनका रहस्य डिकोड करने में तीन साल का समय लगा था. यह जासूस नौकर 'गोपीचंद' बनकर उनके साथ था. सबसे बड़ा विश्वासपात्र बन जाने के बाद उसने अंततः उनके साथ विश्वासघात किया! 

महेन्दर मिसिर गिरफ़्तार हुए तब जाकर दुनिया को यह पता चला कि बनारस से कलकत्ता तक की नर्तकियों के कंठ जिसके गीतों से गूंजा व जुड़ाया (तृप्त) करते हैं, उस कवि ने नोट छापने की मशीन छुपा रखी थी और वह इसी के बूते क्रांतिकारियों को खुले हाथ से मदद देकर स्वतंत्रता-संग्राम की आग में घी डाल रहा था! तभी तो पटना हाईकोर्ट में उनका मुकदमा लड़ने के लिए स्वयं बाबू चितरंजन दास उठ खड़े हुए! 

अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें खोखली करने में ज़रा भी नहीं डरकर महेन्दर मिसिर ने जहां स्वतंत्रता-संग्राम में अपनी दुर्धर्ष भागीदारी साबित की थी, वहीं कोर्ट में उन्होंने झूठ बोलना कुबूल नहीं कर एक कवि की सर्वोच्च व अडिग सत्य-निष्ठा भी प्रमाणित कर दी. न्यायालय में सच बोल देने के कारण उन्हें 10 साल की क़ैद से तो नहीं बचाया जा सका लेकिन इसके साथ ही शब्द-कर्म के माथे वह मर्यादा-मुकुट अवश्य सज गया, जिसकी आभा के आगे सारे तख्तोताज म्लान हैं! 

II  2  II

उन्हीं महेन्दर मिसिर के एक से एक घटनाओं से भरे महाकाव्यात्मक जीवन को भोजपुरी में औपन्यासिक आकार देने वाले रचनाकार पांडेय कपिल के सामने थे हम! उनके पटना स्थित आवास पर. यहां हमें लेकर आने वाले कृष्णानंद कृष्ण और भगवती प्रसाद द्विवेदी अगल-बगल विराजमान. 

महेन्दर मिसिर के जीवन पर लिखे पांडेय कपिल के उपन्यास 'फुलसुंघी' की झमक तब मन पर रही होगी क्योंकि उसे उन्हीं साल-दो साल के दौरान पढ़ा होगा. पुस्तक कृष्णानंद कृष्ण से ही मिली थी. मेरी प्रतिक्रिया मजबूत थी, लिहाज़ा पटने में मौक़ा मिलते ही उन्होंने लेखक तक पहुंचा दिया था. 

घर से बाहर चादर से ढंकी चारपाई और कुर्सियां. धोती को ही लुंगी की तरह लपेटे और सफेद मिरजई डाले पांडेय कपिल. उनके मुख पर ऐसी मुस्कान, जिसका जल-बिम्ब मानस-तरंगों पर कोई साढ़े तीन दशक बाद आज भी वैसे ही अनाहत डोल रहा है! कृष्णानंद कृष्ण मेरे बारे में स्नेहवश कुछ बढ़ा-चढ़ा भी बताते रहे कि कैसे मैं पलामू में पत्रकारों के बीच भी ख़ास ढंग से सक्रिय हूं और साहित्यकारों के बीच भी. उन्होंने संभवतः मेरा कुछ लिखा-पढ़ा देखा था, सिर हिलाते हुए स्वीकारात्मक संकेत देते रहे. 

भगवती जी ने मुझे इशारा किया कि कुछ पूछा जा सकता है. मैंने जिज्ञासा जताई, "...महेन्दर मिसिर जी के जीवन-संदर्भ पर आपने शोध-मंथन किया है, एक सवाल मेरे मन में है " 

वह विशेष ढंग से मेरी ओर मुख़ातिब हो गए, "...जी! जी! ...का ? "

"...महेंदर जी के जिनगी के कहानी में क्राइम के घटना-क्रम बा ..दोस्त जमीनदार के मन राखे खातिर नर्तकी के अपहरण और नोट के छपाई जइसन ...रउआ लिखे के पहिले तनिको ना बुझाइल कि एक कवि के कहानी में एकरा चित्रित कइल कौनो रस्सी प चलल जइसन होई ? " (महेंदर जी के जीवन की कहानी में क्राइम का घटना-क्रम है ..दोस्त जमींदार का मन रखने के लिए नर्तकी का अपहरण और नोट की छपाई जैसा... आपको लिखने के पहले ज़रा भी नहीं लगा कि एक कवि की कहानी में यह सब चित्रित करना किसी रस्सी पर चलने जैसा होगा ?) मैंने बहुत पहले से सोच रखा था, उनसे सामना हुआ तो तपाक से पूछ बैठा. 

★ पांडेय कपिल हिले तो चारपाई और उस पर बिछी चादर तक पर एक तरंग-सी रेंग गई. शब्दायित होने से पहले उनके मनोभाव जैसे हल्के छलक गए हों! स्वर में माधुर्य लेकिन दृढ़ता उससे ज़रा भी उन्नीस नहीं, "...देखीं! हमार नज़रिया जरिए से साफ़ रहे ...महिंदर मिसिर जी पहिले कवि रहीं, ओकरा बादे कुछुओ और! उहां के हरेक हरक़त में पोएटिक टच होखे ...हंसल, देखल, ताकल, मुसुकाइल, आ चाहे बोलले-बतिआवल नाहीं, उहां के जे सांस लीहीं, उहो काव्यात्मक होखे .." (देखिये! मेरा नज़रिया शुरू से साफ़ था... महिंदर मिसिर जी पहले कवि थे, उसके बाद ही कुछ और! उनकी हरेक हरक़त में पोएटिक टच होता था... हंसना, देखना, ताकना, मुस्कुराना या चाहे बोलना-बतियाना ही नहीं, वह जो सांस लेते थे वह भी  काव्यात्मक होती थी)

मैं ही क्यों, कृष्णानंद कृष्ण और भगवती प्रसाद द्विवेदी भी एकाग्र. आधा दर्जन टकटकी बांधे बेधती-सी आंखों से मुकाबिल पांडेय कपिल का सवाक चेहरा और लगातार कुछ न कुछ बुनते चले जा रहे उनके अतिसक्रिय नेत्र युगल! 

आकर किसी ने कुछ रख दिया तो लगा कि बगल में कोई स्टूल जैसा भी कुछ पहले से विद्यमान था! जब लौट चला तो व्यक्ति पर पीछे से नज़र पड़ी. ध्यान खिंचा कि अभी उसी ने आख़िर सामने मुंह करके अपना काम किया होगा लेकिन चेहरा पास से अनदेखा निकल गया. 

बहरहाल अब बगल में रखे भाप छोड़ते चाय के चार कप और प्लेटों के सोंधाई उलीचते भुने मटर या चने से नावाकिफ़ कोई न था लेकिन सारे नेत्र चेहरों पर चहलकदमी में मशगूल. कोई मुद्रा-परिवर्तन को तैयार नहीं. उनकी वाणी पल-भर के विराम-विश्राम के पश्चात आबाद गूंजती रही, "...महेन्दर मिसिर जी के हर अपराध-कर्म के पाछा जे कारक आवेग होखे ऊ खास होखे ...कइसनो निज के संकुचित सवारथ नाहीं, कौनो न कौनो बड़हन भावना आ चाहे बड़का उद्देश्य! " (महेन्दर मिसिर जी के हर अपराध-कर्म के पीछे जो कारक आवेग रहता वह खास होता था ...कोई निजी संकुचित स्वार्थ नहीं, कोई न कोई उदार भावना या चाहे बड़ा उद्देश्य).

आगे किसी प्रत्युत्पन्न या अनुपूरक प्रश्न की आवश्यकता नहीं पड़ी. बीच में कुछ कहने-पूछने की कोई गुंजाइश ही नहीं. तटबंध की कोई दरार जैसे कब से भरे पड़े किसी कसमस बंधे-बांध को धाराप्रवाह उमड़ने का प्रतीक्षित अवसर दे गई हो! अब पांडेय कपिल का कथा-स्वर और उसके ध्वन्यालोक में हमारे समक्ष दृश्यमान महेन्दर मिसिर का जीवन! वाचक-स्वर में घटनाओं के साथ ही उनका क्रमवार विश्लेषण भी : महेन्दर मिसिर कवि-हृदय और बाबू हलिवन्त सहाय जमींदार! दोनों में दोस्ती ऐसी कि सारण (छपरा) ज़िले में इसकी मिसाल नहीं. एक बार हलिवन्त ने अपनी कोई भावना प्रकट की जो कोमल हृदय  महेन्दर मिसिर के दिल को छू गई. मित्र की कोई उत्कट कामना अधूरी कैसे रह जाए! यहां काव्यात्मक इंद्रधनुष ही नहीं, भुजाओं में बलवती बिजलियां भी तो विद्यमान! अब महेन्दर मिसिर का पुरुषार्थ जाग उठा. वह आंधी- तूफान बन मुज़फ्फरपुर पहुंचे और वहां से एक कोठे की गायिका ढेलाबाई को उड़ा लाए सारण, अपने अज़ीज़ दोस्त हलिवन्त के पास. क्या यह अपहरण की इकहरी आपराधिक घटना भर है? 

हलिवन्त सहाय का देहांत हुआ तो उसके बाद का दृश्य देखिए. महेन्दर मिसिर की एक और भावनात्मक मुद्रा सामने आती है! उनका पश्चाताप तब छलक पड़ता है जब वह ढेलाबाई का अवलंब बनकर प्रस्तुत होते हैं. सम्मानजनक दूरी भी लेकिन सतत साथ भी! यह रिश्ता वह अपनी अंतिम सांस तक निभा ले जाते हैं. क्या गरिमामय प्रेम की ऐसी कोई दूसरी मिसाल है कहीं? भावनाओं की अतल गहराई और संवेगों के सर्वोच्च शिखर को छूने वाले किसी कवि के आलावा क्या ऐसा संयम समाज के किसी अन्य इकाई-प्रतीक से संभव है?

बीच में रुक कर उन्होंने आतिथेय-भाव से स्टूल की ओर आग्रहपूर्वक संकेत किया. 

सबके हाथ में कप और मुंह में भुने चूड़ा-मटर का स्वाद. बग़ैर किसी घोषणा के सबका अल्पाहार को यथाल्प अंतराल में समेट लेने का प्रयास प्रकट. पांडेय कपिल ने कप को सबसे पहले ख़ाली किया और हाथ स्टूल की ओर बढ़ाकर रख कथान्तराल को भरने लगे : 

महेन्दर मिसिर को नोट छापने की मशीन भी कहां से मिली? विवरण मिलता है कि वह कोई अंग्रेज अफ़सर ही था जिसने भोजपुरी और हिंदी सीख रखी थी. उसने महेंदर जी को कभी तलब किया और गीत सुनाने को कहा. जब वह गाने लगे तो अंग्रेज अफ़सर भाव-विभोर हो उठा और ख़ुद नाचने लगा. वह गीतों का ही नहीं, उनकी गवनई का भी मुरीद हो गया. उनसे उनके जीवन के बारे में पूछा. 

महेन्दर जी की कहानी में ढेलाबाई थी, एक कवि का प्यार था हाहाकार था, घर की खस्ताहाली थी और अपने देश के लिए कुछ बड़ा कर गुजरने की तड़प थी! अंग्रेज अफ़सर ने उनकी कोशिशों को ख़ूब सराहा और अफ़सोस जताया कि वह तो अब यहां से लंदन लौटने वाला है. कुछ सोचकर उसने उन्हें विश्वास में लिया और गोपनीय ढंग से नकली नोट छापने की मशीन देकर दो-चार दिन में छपाई सीख लेने को कहा. यह सन 1918-19 की बात है. 

इसके बाद साल-दो साल का समय ही उन्हें मिला. इस दौरान महेन्दर मिसिर का घर क्रांतिकारियों का अड्डा बन गया. सबको मुक्तहस्त आर्थिक मदद मिलने लगी. सारण में स्वतंत्रता संग्राम उग्र से उग्रतर हो उठा. अंग्रेज़ी हुकूमत के कान खड़े हो गए. वज़ह की तलाश शुरू हुई तो महेन्दर मिसिर का नाम सामने आया. पता चला कि उनके यहां क्रांतिकारियों का सबसे बड़ा अड्डा ही नहीं जम रहा, उन्हें आर्थिक मदद भी वहीं से मिल रही है! बस अब क्या था, वह अंग्रेजी शासन के निशाने पर आ गए. अब पड़ताल शुरू हुई कि अचानक उनके पास पैसा कैसे इतना आ गया कि जिले भर के क्रांतिकारियों को बांटने लगे! 

गंभीर संदेह उभरे तो सरकार ने उनके पीछे जासूस लगा दिए. जटाधारी प्रसाद और सुरेंद्रलाल घोष के नेतृत्व में सीआईडी का पूरा ज़ाल बिछ गया. घोष नौकर गोपीचंद बनकर महेन्दर मिसिर के साथ रहने और उनकी ट्रैकिंग करने लगा. तीन साल लगे गोपीचंद को महेन्दर मिसिर का हर भेद जानने में. उसने 16 अप्रैल 1924 को अंततः उन्हें भाइयों समेत गिरफ़्तार करवा दिया. 

महेन्दर मिसिर को बचाने के लिए अपने समय के दो मशहूर क्रांतिकारी व वकील पटना हाईकोर्ट में खड़े हुए, हेमचंद्र मिश्रा और चितरंजन दास. छह महीने की सुनवाई चली. संकेत मिल रहा था कि महेन्दर मिसिर बरी हो जाएंगे लेकिन आखिरी दौर में उन्होंने ज़ुर्म कुबूल कर लिया. 

पटना हाईकोर्ट ने महेन्दर मिसिर को 10 साल कैद की सज़ा सुनाई. वह बक्सर जेल भेजे गए. उनके कवि-व्यक्तित्व ने वहां भी क़माल किया. बंद चहारदीवारी के भीतर के तमाम भांति-भांति के जीव उनकी कविता के दीवाने हो गए. खुद जेलर भी उनमें शामिल. बाद में जेलर ने उन्हें बाहर अपने सरकारी आवास में साथ रख लिया जहां वह उनके बच्चों को पढ़ाने और बड़ों को एक से एक भजन और गीत सुनाने लगे. यहां महेन्दर मिसिर को अपना लेखन-कार्य आगे बढ़ाने का भी पर्याप्त अवसर मिला. यहीं उन्होंने "अपूर्व रामायण" की रचना की जो भोजपुरी का प्रथम महाकाव्य बना! 

छपरा के मिश्रवालिया में 1886 में जन्म और 1946 में ढेलाबाई के कोठे के सामने शिवमंदिर में उनका निधन! साठ साल छह महीने के जीवन की यह कथा अंततः एक महानायक की गाथा है! 

पांडेय कपिल अब चुप थे. कृष्णानंद कृष्ण और भगवती प्रसाद द्विवेदी भी. ऊपर से तो मैं भी, लेकिन मेरा मन मौन नहीं. आंखों के सामने दृश्यों में सम्पन्न छह दशक अब जैसे प्रतिरंग, प्रतिछाप और अपनी अक्षय प्रतिध्वनि में हमें  डुबोते चले जा रहे हों!

महेन्दर मिसिर के जीवन की अहम घटनाओं के साथ 6 अंक की विशेष संलग्नता पर मेरा ध्यान गया. उनका जन्म 16 मार्च 1886 को हुआ, दिनांक व साल दोनों में 6 उपस्थित है!  नोट छापने की मशीन के साथ गिरफ्तारी 16 अप्रैल को हुई, 6 यहां भी हाज़िर. गिरफ़्तारी का साल 1924 है, इसका जोड़ भी 16 हुआ. उनका निधन 26 अक्टूबर को हुआ और यह वर्ष 1946 था, तिथि-वर्ष दोनों में 6 उपस्थित. जीवन की अवधि 60 साल, 6 महीने, बाक़ायदा 6 ही 6! क्या इसे महज़ इत्तिफाक़ माना जाए? ( शीर्षक 'अंगुरी में डसले बिआ नगिनिया..' महेन्दर मिसिर के एक अत्यंत लोकप्रिय गीत की पंक्ति है.) 

★ पुष्ट पीले पोस्टकार्ड पर हर बार इंकपेन से एकदम साफ़-साफ़ और सुंदर हस्तलिपि में सबसे ऊपर लिखा रहने का ही यह क़माल था कि महाकवि आरसी प्रसाद सिंह का पता याद हो चुका था. आंखों और कंठ, दोनों को. ' द्वारा श्री रामबली सिंह, 13-बी, राजेन्द्रनगर, पटना 16'. हालांकि कभी-कभी पत्र पर इसकी मुहर भी लगी होती. 

रिक्शे वाले को रोड नम्बर शुरू में ही बता दिया था, इसलिए इत्मीनान से सड़क के दोनों ओर के भवनों पर यूं ही नज़र-भर फेंकता चल रहा था. इसी बीच किसी भवन के गेट के पास 'आर्य कुमार रोड' लिखा देखा तो अचानक लगा जैसे मन-प्राणों से बिजली-सी छू गई हो! लेकिन दूसरे ही पल उदास हो जाना पड़ा. 

सिद्धेश्वरनाथ ओंकार अक्सर छहमुहान (डालटनगंज) पर देररात संगत के दौरान रामधारी सिंह 'दिनकर' के संस्मरण सुनाते थे तो 'आर्य कुमार रोड' की चर्चा  बार-बार आती. यहीं उनका  (दिनकर) आवास था! मन में हुक-सी उठी, असमय निधन न हुआ होता तो आज दिनकर जी के दर्शन हो जाते! 

ध्यान न रहा, रिक्शा वाला चौड़ी सड़क से पतले रास्ते में घुस कर एक गली के मोड़ पर ब्रेक लगा चुका था. पैडिल पर पांव रखे-रखे वह दोनों ब्रेक दबाए बैठा पीछे मुड़ मेरे उतरने का मौन इंतज़ार कर रहा था. ग़ाफ़िल होने की अपनी लापरवाही के लिए मैं झेंपता हुआ कंधे का बैग संभालता उतरने लगा, "...राजेन्द्रनगर का 13 बी यही है? "

उसने फ़िर विचित्र ढंग से ताकते हुए रास्ते के कोने पर गड़े सीमेंटेड पट की ओर अपनी भौंहें उचका दीं. उस पर मोटे अक्षरों में "13-बी, राजेन्द्रनगर, पटना' खुदा हुआ दिखा. नीचे आकर मैंने जैसे अपनी ग़लती सुधारी, "...यार! मैं बेकार ही उतर गया ..मुझे रामबली सिंह का घर खोजना  है!" 

वह एक हाथ से हैंडिल पकड़े हल्के कूदा और सीट से नीचे आ गया, "...हम अनजान अदमी के झूठहिये एने-ओने घूमा के सौ रोपैया ठगे वाला रिक्सावान ना हियो! .. चल न जा जी, इहे दस-बीस गो त मकनवे हौ! मिल जइतो, खोज लेबा!" (मैं अनजान आदमी को झूठ-मूठ इधर-उधर भटका कर सौ रुपया ठगने वाला रिक्शावान नहीं हूं! .. खुद चले जाइए आप, यहां यही दस-बीस मकान हैं! मिल जाएगा, खोज लेंगे आप!)

उसे भाड़ा चुकाकर मैं हड़बड़ा कर आगे बढ़ा. बरछी जैसी धूप से टोपी सिर को ही तो बचा पा रही थी, ताप कपड़े को भेदकर शरीर को छूने लगा था. तय है, अधिक भटकना पड़ा तो दिक्कत होगी लेकिन अभी उसने तो यही बताया कि यह ज़्यादा बड़ा क्षेत्र नहीं है! 

गली सूनी थी, घरों के दरवाज़े बंद. मकानों के नम्बर दिख नहीं रहे थे.  कोई व्यक्ति दिखे तब तो पूछें! इधर-उधर ताकता आगे बढ़ने लगा, अचानक दाहिनी ओर एक गेट पर 'रामबली सिंह' लिखा दिख गया. पेंटर का लिखा कोई क़ायदे का नेमप्लेट नहीं, टीन के दबे-पिचके-टेढ़े चौकोर शीट पर अकुशल लिखावट में घर में ही तैयार किया हुआ-सा. पता भी लिखा हुआ.  

मैंने गेट की ओर हाथ बढ़ाने से पहले दुतल्ले मकान पर नज़र दौड़ाई. दशकों पहले का जैसे-तैसे खड़ा किया हुआ और वर्षों से देखभाल से वंचित ढीला पड़ता बदरंग ढांचा. बगल के छोटे हिस्से को खोला तो 'खट्ट' की आवाज़ हुई. पल्ला भीतर चला गया. सामने बरामदे पर परदे की तरह हिलते पुरानी-घिसी चादर सरीख़े कपड़े के पीछे कोई चेहरा झलका. 

झुककर घुसने के बाद मैं भीतर क़दम रख चुका था. परदा फिर उतना हिले तब तो बरामदे का व्यक्ति फ़िर दिखे, मन में अकुलाहट हुई. मैंने बिना देर किए आवाज़ लगा कर पूछ ही लिया, "...महाकवि आरसी प्रसाद सिंह यहीं रहते हैं ?" 

तत्क्षण वह कपड़ा चीरता बाहर आ गया. बग़ैर गंजी के, सिर्फ तौलिया लपेटे अधेड़. उल्टे उसी ने पूछा, "...कवि जी? " 

"..हां! जी, हां!" लग गया कि सही जगह ही पहुंचा हूं, आरसी बाबू से मिलने का उत्साह बेकाबू होने लगा. 

"...बगले से चल जा ...पाछु कोठलिया में हथुन!." (बगल से ही चले जाइए, पीछे कोठरी या कमरे में वह हैं) बोलकर वह पीछे लौट गया. 

दो कमरों की दो जोड़ी खिड़कियां गली में खुली थीं. सब पर वैसे ही पुरानी-घिसी चादर के टुकड़ों जैसे परदे, ढीली अर्द्धचंद्राकर रस्सी पर झूलते हुए. खिड़कियों से किचेन की हल्दी-मसाले और किसी सटे बाथरूम की भी मिली-जुली गंध-दुर्गंध. बाहर दीवारों पर नीचे की ओर जगह-जगह नोनियायी हुई सीलन और उसकी अलग ही असह्य दुर्गंध.

गली थोड़ी चौड़ी होती तभी तो खिड़कियों के बाहर फैले बदरंग पल्लों से कंधे छूने का खतरा न होता. ख़ैर, नाक ढंके कंधे बचाता पीछे पहुंचा. गली यहां दो हाथ और चौड़ी हो गई थी क्योंकि बगल का यह कमरा कुछ अधिक लंबा दिखा, यानी चौड़ाई पिछले दो कमरों से कम. खिड़की एकदम खुली. कोई झूलता परदा नहीं, खड़ी छड़ों के पार सामने दाहिनी ओर से दिखती आधी शक़्ल! खड़ी कोई वृद्ध काया! आ रही आवाज़ से लयबद्ध मृदुल पाठ जैसा अहसास.

कमरे की खत्म होती दीवार से सटे बाएं मुडकर भीतर गया. आंगन जैसा स्पेस था. बाएं पतला-सा शहरी बरामदा और इसी में खुलता दरवाज़ा. चौखट के पास खड़े होकर मैंने देखा, आरसी बाबू सामने की आलमारी की ओर मुंह किए ऊपर के हिस्से पर स्थापित वाग्देवी प्रतिमा के समक्ष थपड़ी बजाकर  प्रार्थना गा रहे हैं! 

व्यवधान करने का साहस नहीं हुआ. कोई दस मिनटों तक उनकी प्रार्थना चली. इसके बाद संभलते हुए वह धीरे-धीरे पास ही ऊंची चौकी पर बिस्तर की ओर उन्मुख होने लगे. मैंने अपने होने का आभास कराने के लिए खांसा तो उनके चेहरे पर प्रश्नवाचक बल पड़ गए. पलकें तेज-तेज झपकाते हुए उन्होंने दरवाजे की ओर ताका. मैं अपना नाम बताते हुए उनकी ओर बढ़ गया. उन्हें प्रणाम किया तो वह स्नेह से भर उठे.

डालटनगंज में शिवशंकर बाबू के मोहल्ले में ही आरसी बाबू की ससुराल थी, यह बात उन्होंने स्वयं एक चिट्ठी में लिखी थी. उन्होंने अपने साले साहब विपिन सिंह का नामोल्लेख भी किया था, जिनसे उन्हीं दिनों मैंने मुलाक़ात की थी. वह हाल-चाल लेने लगे.

★ कमरे की हालत बता रही थी कि जिस शख्स (आरसी प्रसाद सिंह) के लिए हम अब तक 'कविवर', 'महाकवि' व 'आधुनिक विद्यापति' जैसे विशेषण सुनकर बड़े हुए हैं, आयु के चौथेपन में आज वह अकेला पड़ गया है! वह व्यक्तित्व, जिस पर रामधारी सिंह 'दिनकर' की उस लेखनी ने कविता लिखी थी जिससे प्रशंसा के चंद शब्द पाने के लिए अंतरराष्ट्रीय मीडिया में चमकने वाले व प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे 'डिस्कवरी ऑफ इण्डिया' के अप्रतिम शब्दकार पंडित जवाहरलाल नेहरू भी ख्वाहिशमंद रहा करते थे! 

नहीं चाहते हुए भी चारों ओर ध्यान खिंचता चला जा रहा था. आलमारी की किताबें, चौकी पर बिस्तर, बगल में नीचे फैले स्टोव-पिन-डब्बे और टेढ़े-मेढ़े स्टूलों के टेबुल फैन व छोटा ब्लैक एंड व्हाइट टेलीविजन, ... कोई सामान सही ढंग से रखा-सा नहीं बल्कि सब जाने कब से जहां का तहां जैसे-तैसे छोड़ा हुआ जैसा. खस्ताहाल. सब पर धूल-गर्द और जाले की परतें. 

आरसी बाबू ने धोती जैसा एक टुकड़ा कमर और दूसरा छाती ढंकते हुए कंधों पर लपेट रखा था. दोनों कपड़े अपनी सफ़ेदी गंवा कर पीलिया चुके और ज़रा भी बल पड़ने पर कभी भी भसक जाने की हालत तक पहुंचे हुए. 

विशिष्ट लेखन-कार्य को अपने यहां  'साधना' का दर्जा प्राप्त है!  महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' को मूल्यांकित करते हुए मार्क्सवादी चिंतक-आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा ने भी ग्रंथ को 'निराला की साहित्य साधना' नाम दिया है. इस साधना का रूप इतना दुष्कर, विकट और कठिन भी हो सकता है, इसे सामने देखना हृदय-विदारक था. 

दग्ध अनुभूति जैसे अंतरतम में तूफान बन कर सब कुछ झकझोर रही थी! एक शीर्षस्थ शब्दकार की यह हालत उस बिहार में, जहां श्रीकृष्ण सिंह (श्रीबाबू )  समेत कोई आधा दर्जन मुख्यमंत्री ऐसे गुजरे हैं जो स्वयं आला शिक्षा- साहित्य-प्रेमी रहे! प्रथम  मुख्यमंत्री श्रीबाबू के बारे में तो कहा जाता है कि उनके तूफ़ान जैसे  क़ाफ़िले को रोकने का सहज उपाय ही था बीच राह में कोई नई किताब लेकर खड़ा हो जाना! 

कर्पूरी ठाकुर खुद ही महाकवि जानकी वल्लभ शास्त्री के उन्मुक्त प्रशंसक, डॉ जगन्नाथ मिश्र अर्थ शास्त्र के विद्वान व प्राध्यापक और राम सुंदर दास साहित्य के गंभीर पाठक! कहने की आवश्यकता नहीं कि भौगोलिक रूप से आरसी बाबू का समस्तीपुर श्रीबाबू के मुंगेर से अधिक अलग नहीं. जगन्नाथ जी और कर्पूरी जी भी उसी मिथिला प्रक्षेत्र के, जहां के मिथिला-भाषी जनमानस में आरसी बाबू की शुरू से 'आधुनिक विद्यापति' के रूप में सर्वोच्च प्रतिष्ठा रही. फ़िर इतनी अनदेखी क्यों? 

इसी बीच आरसी बाबू ने तलमलाते हुए उठने का उपक्रम किया तो मेरी विचार-तंद्रा टूटी. 

मैंने जल्दी-जल्दी उठकर उन्हें सहारा देना चाहा लेकिन मुस्कुराकर उन्होंने इन्कार में सिर हिलाया, "...उठ जाऊंगा, कोई दिक्कत नहीं! लड़का जितना रहता है उससे अधिक यहां नहीं रहता ..लेकिन यह तो समय है, कट ही जा रहा! "

यानी कि साथ में कोई लड़का रहता है, यह संकेत सुखकर लगा. हमेशा तो नहीं ही गायब रहता होगा. गांव का है, रहता होगा तो खाना वगैरह ठीक-ठाक बनाता होगा. अवश्य ही वह महाकवि की सेवा-सुश्रुषा भी बढ़िया करता होगा, अपने मन को दिलासा देते हुए मुझे स्वयं भी लग रहा था कि पता नहीं ऐसा कुछ सचमुच सच है भी या नहीं.

 "...गांव गया है, पोता लगेगा!.." उन्होंने उठते हुए आगे जोड़ा, "...असल में प्रार्थना के दौरान पांव दुख गए थे इसलिए मैं बिस्तर पर टिक रहा था , तब तक आप आ गए... मुझे गंजी पहननी थी, गर्मी में खाली देह रहने से लू लगने का ख़तरा ज़्यादा होता है! "

उन्होंने कंधों से कपड़ा हटाया तो शरीर की हालत देख मुझे जैसे औचक बिजली का झटका-सा लगा हो. ...बस सामने एक हिलता हुआ ढांचा था! डाल पर गिरकर चिपके सूखे पत्तों जैसी त्वचा! क्षणांश में मन में सिर्फ एक नाम गूंजा दधीचि! अस्थिदान की कथा कितनी ही बार सुनी होगी लेकिन न जाने किस विडंबना-योग से महर्षि की साकार छवि भी आज एकदम आंखों के सामने आनी थी! 

डालटनगंज में आरसी बाबू के बारे में सर्वप्रथम व्यक्तिगत चर्चा करने वाले शशि बाबू ने समस्तीपुर में उनके ऐरौत मुशहरी गांव, कवि-पुत्र और परिवार की ठीक-ठाक गृहस्थी आदि के बारे में विस्तार से बताया था. मुझे अभी यह महसूस होने लगा कि आरसी बाबू यदि आज गांव में रहते तो परिवार के साथ उम्र का यह पड़ाव ऐसा अकेलापन का शिकार नहीं होता और स्वाभाविक रूप से वहां उनकी बेहतर देखभाल भी हो रही होती, लेकिन उन्होंने तो मसिजीवी का जीवन चुन लिया था!

लेखन के बूते जीवन यापन तो आज  इक्कीसवीं सदी के इस दूसरे दशक के समापन और तीसरे के समारम्भ-काल में भी सहज संभव नहीं, वह दौर कहां अब से करीब साढ़े तीन दशक पूर्व का था!

पाठ्यक्रमों में लंबे समय से बिहार में दिनकर को टक्कर देने वाले आरसी बाबू अकेले कवि! विश्वविद्यालयों में 'रश्मिरथी' (दिनकर) को  'संजीवनी' (आरसी) से ही टक्कर मिलती रही. पाठ्य-पुस्तक होने के नाते उनकी कृतियों की निश्चित बिक्री भी सुनिश्चित,  फ़िर उनका यह हाल क्यों! यह सब आकलित करते हुए मन में सवाल उठ रहा था, क्या प्रकाशक उन्हें ठीक से रॉयल्टी नहीं दे रहे? 


★ आरसी बाबू गंजी डालकर चौकी से पहले टिके, फिर बैठ कर आहिस्ते पीछे खिसकते ऊपर चढ़ गए. अब वह पीछे दीवार से पीठ सटा कर इत्मीनान हो गए. उनके चेहरे पर बंद आंखों के साथ मुस्कान के रुके हुए भाव चित्रांकित होने का भाव जगा रहे थे! यह मुस्कान ही है या किसी असह्य को सह्य करने का अदृश्य कश्मकश भरा कोई अन्तरप्रयास! कहीं यह किन्हीं गहरी वेदना-संवेदनाओं को ढंकता हुआ उत्पन्न किया जा रहा पर्दादारी जैसा कोई भावात्मक उपक्रम ही तो नहीं! 

अचानक उन्हें जैसे कुछ स्मरण हो आया हो. हड़बड़ाए-से आगे की ओर उन्मुख हुए और हाथ बढ़ा बगल के स्टूल पर रखे टेबुलफैन का तार पकड़ लिया, "...पंखा तो है ही, फिर इतनी गर्मी सहने की क्या आवश्यकता!..." 

वह तार के छोर को पास ले आए और टोने लगे.  तार बहुत पुराना और पिन का प्लास्टिक वाला हिस्सा दरका हुआ-सा, जिस पर अब उन्होंने अंगुलियां जमा ली थी. पीछे दीवार पर उनके सिर से कुछ ही इंच ऊपर स्वीच बोर्ड! उस पर नज़र जाते ही मेरा कलेजा जैसे मुंह को आ गया हो! उसकी ऊपर की तख़्ती उखड़ी हुई! यह चार में से केवल निचली एक कांटी के दम पर ऊपर से मुंह बाए हवा में टिकी हुई. हालत यह कि स्वीच बोर्ड के भीतर के वायर कनेक्शन दिख रहे थे, काले धूल-गर्द और जाले में उलझे हुए-से. 

मैंने बिना देर किए उनके हाथ से इसे ले लेना चाहा. आरसी बाबू ने मेरा हाथ पीछे वापस कर दिया, "...आपसे यह काम नहीं होगा, ख़तरा हो जाएगा 
...दरअसल बोर्ड टूट गया है, इसे ठीक कराना है!.. मकान मालिक को कहलवाया है..." बोलते हुए बगैर पीछे मुड़े या ऊपर देखे उन्होंने अपना हाथ उठाया और बोर्ड की अधउखड़ी तख़्ती के स्वीच में पिन सटीक खोंस दी. 

मुझ पर आश्चर्य का भाव भारी हो रहा था या हालात से मुक़ाबिल उनकी दुर्द्धर्षता के प्रति सजल श्रद्धा का, मैं इसका आकलन तब भी नहीं कर सका था, कोई 35 साल बाद आज भी नहीं कर पा रहा! 

क्या जिजीविषा तीसरा नेत्र और असम्भव-सी शक्तियां-दक्षताएं भी दे देती है! 

मुज़फ्फरपुर में उस दिन जानकी वल्लभ शास्त्री से कैसे वार्तारम्भ ही सवालों से हुआ और यह क्रम कई बैठकों के बूते अंततः ठोस डेढ़ घंटे के इंटरव्यू के आकार में ढल गया था! यहां तो न कुछ सोचते बन रहा न कहते. 

मन ने खुद ही द्वितीय स्वर में प्रतिवाद किया : वह जानकीवल्लभ जी का निराला निकेतन है, कलरव भरे झूमते वृक्षों, फूले लता-गुल्मों से गमगमाता और रंभाती गौओं, छरकते बछड़ों का परिसर जहां विरल आश्रय पाने को कोमल कल्पनाएं स्वयं मंडराती फिरती हैं और यह एक अक्खड़-फक्कड़ कवि आरसी का ऐसा झोपड़ा जहां दिगम्बर होते समय का घायल यथार्थ खड़ा है अपने मौलिक ढांचे में! यहां आलाप और तान-गान कहां सरल! 

उनका उठंघा हुआ अंखमुंदा मौन पता नहीं किन मनोभावों से गुजर रहा था, मेरी पसीजती टुकुर-टुकुर चुप्पी को उधेड़बुन से अधिक आलोड़न झकझोरने लगा!

पहले बाहर बरामदे में पदचाप, फिर दरवाज़े पर एक लंबा-चौड़ा क़द! चेहरा चौड़ा, कुर्ते के ऊपर दिखती गर्दन मोटी. गमछा-धोती सब मद्धिम. कोई पचास को छूते या इस अंक को लांघती आयु के व्यक्ति. 

दरवाज़े पर उनके खांसते ही आरसी बाबू ने आंखें खोल दी. दीवार से टिके-टिके ही उन्होंने गर्दन उधर मोड़ी, "...कौन? ."

आगंतुक ने लपक कर आते हुए थोड़ी तेज आवाज़ में बताया, "..जी, हम्मे ..मुकुर छी!.." 

आश्चर्य कि दरवाजे पर खड़े रहने और वहां से चलकर यहां आने तक वह् मुझे एक बार भी अपनी ओर तकते न दिखे. अब वह आरसी बाबू के सामने खड़े थे। उसी चौकी पर हाथ-भर पर ही मैं लेकिन वह अब भी मुझसे एकदम ग़ाफ़िल. 

आरसी बाबू ने इस दौरान कई बार मेरी तरफ़ भी दृष्टि उठाई. उन्हें आगंतुक की मेरी ओर से यह ग़ाफ़िली शायद चुभ गई हो, "..कि हो मुकुर जी, हिनके ताकै नै छौ ? "

 मुकुर जी ने मुड़कर मुझे एक बार देख लिया और पूर्ववत हो गए. आरसी बाबू ने फिर पूछा, "...अहां हिनका नय जानै छिये? ..."

वह इन्कार में सिर हिलाते फ़िर मेरी ओर मुड़े. आरसी बाबू ने आगे जोड़ा, "...ई सेयामल जी छथिन  ...जानल-
मानल युवा लेखक! डाल्टेनगंज में अखबार 'पलामू दर्शन' के सम्पादक! .."

अब मुकुर जी मेरी ओर असल मुख़ातिब हुए! 

वह मेरी ओर कुछ यूं ताकने लगे जैसे 'सम्पादक' पद और मेरी तत्कालीन आयु के बीच कोई सरल रेखा खींचने या संगति-सूत्र टटोलने का बेसब्र प्रयास कर रहे हों. आरसी बाबू ने उन्हें आगे बताया, "...ई चिठियो कविते में लिखै छथिन  ...छंदोबद्ध! .."

बात खुद आरसी-कंठ से निकल रही थी, मुकुर जी इसका मर्म समझने में अब भूल करने को तैयार न थे, मेरी ओर बढ़ा उनका खिंचाव यही बता रहा था! वह मेरी ओर मुड़ गए. 

 आरसी बाबू ने अब मुझे संबोधित किया "...श्यामल जी, यह हैं लक्ष्मी नारायण शर्मा 'मुकुर' ..हिंदी और मैथिली के समालोचक व रचनाकार 
..बरौनी से चले ही आ रहे हैं ...इनके आने की पूर्वसूचना मुझे थी!..." 

मुकुर जी मुझसे बोले, "...आपका अख़बार यहीं आरसी बाबू के यहां हम कई बार देखे हैं, कई अंक! आपका लेख वग़ैरह बहुत श्रमसाध्य ढंग ले लिखा हुआ गंभीर होता है ...हम समझते थे आप हमलोग जैसे ही होंगे ...इसीलिए तो आपको अत्यंत युवा देखके हम चकरा गए! "

चमकीली बिजली में भले कौंध हो और तीव्र आकर्षण भी लेकिन वह अंततः  क्षणिक रैखीय के सिवा और क्या है! घहरना, उमड़ना और बरस पड़ना तो बिगड़ैल काले बादलों को ही सहज सुलभ है! 

मुकुर जी के आने के बाद आरसी बाबू का मौन पिघले अभी कितने मिनट हुए थे लेकिन विसंगतियों को यह लघु सुखद संलाप भी बर्दाश्त न हुआ! 

जब से आया था आंखें मूंदे आरसी बाबू होंठ भींचे, गले से सप्रयास कंठ-जल घोंटते-से कई बार दिखे थे. अब जाकर समझ आया यह दमा था, जिससे वह लड़ रहे थे! जितनी ही देर संभव हो भरसक उसे टालने में जुटे थे लेकिन अब यह अचानक उपट पड़ा और बेक़ाबू हो चला था!

भीतर से उठी यह आंधी कृशकाया को ऐसे झकझोर रही थी जैसे जड़ से अभी खींच लेगी और दूर उड़ा ले जाएगी! 

मैं तो जैसे काठ! काटो तो खून नहीं. 

महाकवि से आयु का अपेक्षाकृत कम अंतर, अनुभव, पुरानी अंतरंगता और प्रत्युत्पन्नमतित्व का त्वरित परिणाम उसी पल उपस्थित! मुकुर जी ने अविलंब महाकवि के पत्तों-से उधियाते तन को अपने दोनों पुष्ट हाथों से थाम लिया. खांसते हुए वह अलग रहने के संकेत देते रहे लेकिन उन्होंने एक हाथ से अब उनके व्यग्र दोलित शीश को ललाट के पास संबल प्रदान किया और दूसरे को पीठ की ओर ले जाकर गर्दन से नीचे की तरफ हल्के-हल्के चलाते हुए बाई उतारने लगे.

टीवी के स्टूल पर पहले से अधभरा पड़ा गिलास काम आया. दो-तीन बार कुछ बूंदें-घूंट और मुकुर जी की सेवा ने एक काली आंधी को टाल दिया था. पता नहीं कितनी दूर लेकिन फ़िलहाल तो वह तेजी से सामान्य हो रहे थे. 

मुकुर जी अलग हो गए. चौकी के कोने पर मैं अब भी किंकर्तव्यविमूढ़! 

तेज-तेज पलकें झपका राहत पाते  आरसी बाबू ने कंधे के गमछे के कोर से मुंह पोंछते हुए मुकुर जी को हाथ से इशारा करते हुए कहा, "...काहे खड़ा छो! बइठो न हो! " 

मुकुर जी ने सामने कागज़-पत्तर से अधभरी दिख रही कुर्सी पर जगह बनाई और बैठ गए. उन्होंने एक नज़र मुझ पर डाली और फ़िर उनसे बोले, "...पोता तो है नहीं, कुछ मुंह में गया है कि नहीं? " उन्होंने हाथ ऊपर कर कुर्ते की मोहरी पीछे की. कलाई की पुरानी चौकोर पीली घड़ी चमक उठी. बेसाख़्ता उनके मुंह से आगे निकला, "...डेढ़ बजे चुके हैं! .." 

आरसी बाबू बेफ़िक्री से मुस्कुराए, "...कोई बात नहीं! मैं तो अभी पूजा करके हटा ही था कि श्यामल जी प्रकट हो गए ...इनको लेकर दोबारा बाहर निकलता लेकिन आपके आने का भी समय हो रहा था ..यहीं बैठे न रहते तो क्या करते! "

"...दोबारा? ..." मुकुर जी चौंके. 

"...हां   ...सुबह तो चौराहे तक टहलने निकलते ही हैं न!..."  आरसी बाबू ने बोलते हुए दरवाज़े के पास रखे स्टोव की ओर हाथ से संकेत किया. 

मेरा तो अब तक ध्यान नहीं गया था. मुकुर जी उठकर गए और अख़बार से ढंकी गहरी-सी थाली उठा लाए. पेपर हटाया तो उसमें रखे दोने में दो सूख चले सिंघाड़े (समोसे) दिखे. पपड़ियाई हुई हरी  चटनी और अधसिक्के जैसे कटे मूली के चार-छह टुकड़े भी.

मुकुर जी ने इसे उसी पेपर से ढंक दिया, "...बाजारू सिंघाड़ा जब तक गरम, तभी तक तक हज़म! ...देखे नहीं ? एकदम सूख गए हैं दोनों और ऊपरी सतह पर तेल जम चुका है! " वह उठ खड़े हुए, "...मैं बाहर निकलता हूं... अभी खाना मिल जाएगा, लाता हूं!" थाली को पूर्ववत यथास्थान रख वह जाने लगे. आरसी बाबू ने उन्हें रोका, "...भाई ...गर्मी तीव्र है तो धूप भी तेज होगी! कहां परेशान होने जा रहे आप ..दो सिंघाड़े हैं, पानी पीकर काम चल सकता है! "

मुकुर जी कहां मानने वाले! निकल गए. 

आरसी बाबू पलामू और वहां के साहित्य, भूगोल, कृषि, राजनीति और पत्रकारिता आदि के बारे में सहज जिज्ञासाएं कर रहे थे. मैं ज़वाब भी दिए जा रहा था लेकिन मेरे मन में कई हाल और सवाल गूंज रहे थे. 

★ आरसी बाबू को डालटनगंज का छह रास्तों का अनोखा मिलन-स्थल याद है. यह जानकर मैं चकित रह गया और खुश हुआ. मन में गर्व के भाव उठने लगे कि हमारे शहर में यह विशिष्टता है और यह भी कि इसी कारण यह नगर ऐसे बड़े रचनाकार को  इस रूप में याद है! वह कहने लगे, "... आधा दर्जन रास्तों का ऐसा संगम मैंने कभी कहीं और नहीं देखा!.." 

मैंने जोड़ा, "...जी!  इसे छहमुहान  कहते भी हैं ...और यही शहर का हृदय-स्थल है! ..बाज़ार का मुख्य स्थान जो है वह भी पंचमुहान है!.." 

आरसी बाबू आंखें मूंदकर बीच-बीच में कंठ-जल निगलने जैसा प्रयास कर रहे थे. इसी क्रम में उनका चेहरा निचुड़ते कपड़ों जैसा अचानक कुछ अधिक भिंच गया तो लगा कि उन्हें हो रही पीड़ा दुस्सह्य है. 

उन्हें देखते हुए मेरे मन में जाने क्या-क्या उठने लगा : चालीस के दशक में आरसी बाबू जब जयपुर नरेश का राजकवि बनने का प्रस्ताव ठुकरा रहे होंगे या इलाहाबाद में पचास के दशक में आकाशवाणी के कार्यक्रम अधिकारी के पद से इस्तीफ़ा लिख रहे थे तो क्या अपनी आज की स्थिति का उन्हें ज़रा भी अनुमान रहा होगा?

राजकवि होने को उन्होंने चारण बनना करार दे दिया और सीधे नकार दिया था! तब मुल्क़ गुलाम था जब एक कवि ने राजकवि बनने से मना करते हुए कवि-कर्म के लिए स्वांतत्र्य-चेतना को चुना था, आज़ाद भारत में नज़ारे क्या उल्टे हुए नहीं हैं? कई 'स्वनामधन्य' आज सत्ता-सरकार के भीतर या निकट बैठकर क्या नहीं कर रहे? 

इलाहाबाद आकाशवाणी में आरसी बाबू को अपने किसी अधिकारी का स्वयं पर हावी होना सह्य नहीं हो सका और उन्होंने सरकारी नौकरी को लात मार दी, अब तो ऐन भ्रष्ट नौकरशाही में श्रेणीबद्ध जुते और सटीक रचे-बसे तत्त्व भी सकुशल 'कवि' घोषित हो रहे हैं। उनके पास 'विचार' भी कम गरम नहीं! सराहे भी कम नही जा रहे हैं।
           
              ||  2  || 

राजनीति या विमर्श साहित्य में जब तक इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र, धर्म, और दूसरे तमाम ऐसे विषय-संदर्भों की तरह उपजीव्य बनकर पेश हों तभी तक अच्छा! नाक तक पहुंचकर जब इससे ऊपर भी चढ़ने लगें तो 'संवेदना' को ऐलानिया ले डूबते हैं! इसे देखा तो सबने है लेकिन बात जब सार्वजनिक रूप से मान लेने की हो तो शायद ही कोई हाथ ऊपर उठे या कोई स्वीकार-स्वर गूंज सके! वरना, यह तथ्य किससे छुपा है कि हिंदी उपन्यास को 'गोदान' (प्रेमचंद) के बाद का दूसरा शिखर 'मैला आंचल'
(फणीश्वरनाथ रेणु)  सांगठनिक गोलबंदी करने वाले किसी कुनबे से नहीं मिला. दूसरी ओर जुगाड़ के उड़नखटोलों ने कइयों को उड़ा कर कहां से कहां पहुंचा तो दिया लेकिन इससे क्या! उड़ानों से टीले-कंगूरे पकड़े जा सकते हैं, तात्त्विक परिवर्तन कैसे संभव है! कई डंका-पिटे कवि  'प्रसिद्ध' तो कर दिए गए, उनकी रचनाएं कहां कभी 'सिद्ध' हो सकीं!
कोई लेखन अगर रचनान्वित संवेदना से वंचित है तो साहित्य में कैसे ढलेगा! बहस या विवरण उसे जितना भी विचारोत्तेजक, उपयोगी और सान्दर्भिक अनिवार्य बनाए रखें तो रखें.

सोना सोना है, भले ही नीचे पड़ा रहे और पीतल पीतल चाहे गुम्बद चढ़ जाए! डंका-पिटे वालों के नाम सबको पता हैं, उनकी रचनाएं किसे याद! दिनकर-आरसी की रचनाओं की पंक्तियां आज भी कई पीढ़ी की गृहिणियां भी सुना दे रहीं. 

        ||  3  || 

इतिहास को डूबकर पढ़ने वाले 'डिस्कवरी ऑफ इण्डिया' (पंडित जवाहरलाल नेहरू) से 'संस्कृति के चार अध्याय' (रामधारी सिंह दिनकर) को टकराए बगैर नहीं मानते. कारण दोनों ही कृतियां पारंपरिक तिथि-ईसवी विवरण आधारित तथ्य-परोसी ठस शैली से परे जाकर रची गईं हैं. इनमें अतीत सूचित नहीं, चित्रित और गुंजित हुआ है. बीता समय दर्ज़ भर नहीं, बल्कि कथांकित-फिल्मांकित!

इतिहास-लेखन में तो दिनकर के सामने नेहरू हैं लेकिन साहित्य में? आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री ने लिखा है,  '...बिहार के चार तारों में वियोगी के साथ प्रभात और दिनकर के साथ आरसी को याद किया जाता है। किंतु आरसी का काव्य मर्म-मूल से प्रलम्ब डालियों और पल्लव-पत्र-पुष्पों तक जैसा प्राण-रस संचारित करता रहा है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। किसी एक विषय, स्वर या कल्पना के कवि वह नहीं हैं। उनकी संवेदना जितनी विषयों से जुड़ी हुई है, उनकी अनुभूति जितनी वस्तुओं की छुअन से रोमांचित है, उनका स्वर जितने आरोहों, अवरोहों में अपना आलोक निखारता है, कम ही कवि उतने स्वरों से अपनी प्रतिभा के प्रसार के दावेदार हो सकते हैं!' 

आरसी बाबू चुप नहीं हैं, कुछ न कुछ कह-बोल रहे हैं. मैं भी बतकही में साथ दे रहा हूं लेकिन मेरे मन में उन्हें लेकर कहे कई प्रसिद्ध कथन गूंज रहे हैं. मनन-मंथन के साथ.

    डॉ. नामवर सिंह के शब्द जैसे छापे के अक्षरों से निकलकर  ध्वनि में ढल और कानों में पड़ रहे हों,  '...रोमांटिक कवियों में कुछ कवि आगे चलकर अध्यात्मवाद की ओर मुड़ गये और आरसी भी उनमें से एक हैं। निराला ने तुलसीदास की जीवन कथा के माध्यम से देशकाल के शर से विंधकर 'जागे हुए अशेष छविधर' छायावादी कवि की छवि दिखलाकर परम्परा का विकास किया तो कवि आरसी ने 'नन्ददास' के माध्यम से परम्परा का पुनरालेखन किया है।..' 

आरसी ने क्या परंपरा का पुनर्लेखन भर किया है? 

★ डालटनगंज में चिकित्सक डॉ. बी.एन. मिश्रा से प्राप्त पता हमने बता दिया था. रिक्शा वाला नाला रोड के लिए उड़ा चला जा रहा था. डॉक्टर साहब की श्रीमतीजी ने बताया था कि पटने में महाकवि केदारनाथ मिश्र 'प्रभात' जी का घर मैला टंकी के पास उन्हीं के पड़ोस में है. 

प्रभात जी की किताबों में पता 'रामकृष्ण एवेन्यू, मैला टंकी, पटना' होता, जो मेरे मस्तिष्क-पटल पर ख़ूब टहक रंग में छप गया था. आश्चर्य हो रहा, यह आज भी जस का तस मन में चमक रहा है! 

दो-तीन दिन पहले ही तो मुजफ्फरपुर में वार्ता रिकार्ड करने के दौरान एक प्रश्न के उत्तर-रूप में आए जानकी वल्लभ शास्त्री के इस कथन ने उदास कर दिया था, "...प्रभात जी में जब तक ऊर्जा रही, तब तक वह एक ईमानदार सरकारी नौकर बने रहे, खुलकर लिखा नहीं. रिटायर हो गए तो पाठ्यक्रमों के लिए जल्दी-जल्दी बहुत कुछ लिख दिया. यह सब स्तरीय नहीं है. मूल्यवान साहित्य का इस तरह निर्माण नहीं होता ' ( 80 के दशक में 'आजकल' के 'बिहार विशेषांक' में प्रकाशित इंटरव्यू में यह उत्तर शामिल है). 

मन ने मन से ही पूछा, क्या यह वही जानकी वल्लभ जी हैं, जिन्होंने 'बिहार के चार तारों में वियोगी के साथ प्रभात' का उच्चतम प्रकाशित युग्म गढ़ा और घोषित कर रखा है! (संदर्भ : जानकीवल्लभ शास्त्री का प्रसिद्ध कथन : 'बिहार के चार तारों में वियोगी के साथ प्रभात और दिनकर के साथ आरसी को याद किया जाता है।..') 

युवा कोमल मन की चोट को भीतर के ही किसी तपे-पके मन ने स्नेहिल छुअन से सहलाया, सामना होने पर चमकते तारे एकबारगी टकराते न भी दिखें, उनकी सीधी ज्योतियां तो आपस में गुत्थमगुत्था ही होती हैं... एक-दूसरे की रंग-पहचान निगल जाने की हद तक की आक्रामकता के साथ भी! 

दोनों पुरखा-पुरनिये, दोनों महाकवि! सूरज-चांद के बीच कौन पड़े, अपने हिसाब खुद संभालें! उनके विवाद, वे ज़ानें. 

||  2  ||

पटना के क़दम कुआं से 'क्रांति' के ताल्लुकात के सबूत अक्षर-काया में इतिहास-पृष्ठों के पास ही नहीं, क्रांति-गायक रामधारी सिंह 'दिनकर' की आह्लादक आदमक़द भव्य प्रतिमा और 'दिनकर चौराहा' संज्ञा के दिव्य रूपों में इलाके के पास भी सदा सुरक्षित हैं! रिक्शा मूर्ति के सामने से गुजरने लगा तो दृष्टि उठते ही लगा जैसे सचमुच राष्ट्रकवि सदेह मिल गए हों. रोमांच, अपूर्व सुखानुभूति. 

रिक्शा वाला कुछ ही देर में मैला टंकी के पास. ज्यादा पूछना न पड़ा. 

घर के बाहर हल्की दाढी के गौरांग छरहरे युवक ने मुझे ऊपर से नीचे तक ताका, "...बाबा से मिलना है?..."

"...हां! " कहकर मैं प्रभात जी के लिए कहे 'बाबा' शब्द की संगति-ध्वनि टटोलने लगा. 

युवक ने एकपलिया दरवाज़ा खोल दिया. आधुनिक ड्राइंग रूम. सोफे, बड़ी कुर्सियां और दीवारों पर महाकवि की पहले की कई तस्वीरें. एक युगल चित्र भी फ्रेम्ड. वह मुझे बिठाकर भीतर चला गया. 

कुछ ही देर में महाकवि केदारनाथ मिश्र 'प्रभात' सामने होंगे. खुशी गाढ़ी लेकिन असहज करती हुई. किस तरह सामना होगा, कैसे बात शुरू होगी, वह क्या कहेंगे, मैं क्या पूछूंगा! 

ऊहापोह का तनाव लंबा नहीं खिंचा. पर्दा हिला और भीतर से अत्यंत वृद्ध काया निकल आहिस्ता आने लगी. सहारा देकर लाता युवक वही. 

क़द झुककर ठिगना-सा. सिर पर सफ़ेद घर की बुनी-सी टोपी. कुर्ता लंबा नीचे घुटनों को भी पार कर झूलता हुआ, लुंगी की तरह धारण धोती के कोर को भी छूता-सा. कपड़े सफेद, मद्धिम. 

समझते देर नहीं लगी कि यह महाकवि ही हैं लेकिन इतने वृद्ध हो चुके हैं! पहले देखे उनके एकाधिक मुद्रित चित्र कौंध गए! कहां भोजपुरी माटी की शाहाबादी ओजस्विता-तेजस्विता से रंजित उनका वह जवांमर्द मुखमंडल और कहां झूलते होंठ और लरजती लार से भरा खुले मुंह वाला यह रूप! 

दुखद आश्चर्य को उमड़ पड़ी श्रद्धा ने पहले ही झोंके में जैसे तोप लिया हो. ऐन सामने वह लेकिन मैं कैसे दौड़ पड़ा! चरण-स्पर्श को शीश-संस्पर्श का अक्षय सुख मिला. 

महाकवि को सहारा दे बिठा कर युवक भीतर लौट गया. 

मैंने अपना परिचय दिया. एक ही सांस में मुजफ्फरपुर में हुई जानकीवल्लभ और एक दिन पूर्व यहीं (पटना)  आरसी बाबू से हुई मुलाकातों की जानकारी दे डाली. देखा कि वह शीश तो हिला रहे हैं लेकिन प्रयासपूर्वक भी कुछ बोल नहीं पा रहे. फुसफुसाते-से शब्द छिटक कर रह जा रहे. इस क्रम में उनका सिर व्यग्रता से डोलने लग जा रहा. ऐसे क्षण आवाज़ नहीं निकल पाने पर वह खुद ही बेचैन होने लग जा रहे. 

ओफ्फ, यह क्या! उन्हें यूं देख पीड़ा बढ़ने लगी. 

युवक दो प्लेटों में नाश्ता लेकर लौट आया. एक में पकौड़ी और दूसरे में सेब के मोटे-मोटे कटे भरपूर काला-नमक-छिड़के टुकड़े. वह प्लेट रखते हुए स्पष्टता से निवेदन करने लगा, "...बाबा को बोलने और सुनने में परेशानी है, लेकिन बात सब समझेंगे और संक्षेप में ज़वाब भी देंगे ...आप ध्यान रखिएगा, उन्हें अधिक बोलना न पड़े!..." वह फिर चला गया.

मुझे तो जैसे वज्र ने छू लिया हो. प्रिय  रचनाकार की अन्तरस्थापित व्यक्तित्व-छवि कहां हिल-डुल पाती है! वह तो पूर्वदृष्टित किसी मुद्रित चित्र-रूप में मन में जैसे अडोल ही रहना चाहती हो लेकिन एक ही लाठी से सृष्टि हांकती नियति को इससे क्या!  

जनभावनाएं और स्वसाधना कवि को कैसी भी आभा से रंग कर कोई भी गरिमा-छवि सौंप दें, व्यक्ति रूप में वह भी चराचर जगत की इकाई-मात्र ही तो है! यश:तन काल को कालांतर तक भले ठोंकरें ठोंकता रहे, मानुष देह को त्राण कहां! शीत-ताप और आयु-बतास, सबके नैसर्गिक प्रहार उसे भी अंगीकार करने ही हैं! 

मनुष्य तो मनुष्य, सोलह कलाओं से विभूषित होकर पृथ्वी पर अवतरित भगवान श्रीकृष्ण को भी वृद्धावस्था के वरण-वहन से कहां कोई छूट मिली!

मन की धधकती लपटों को जैसे मूसलधार ने छू लिया हो. महाकवि  बोलने का उद्यम करने लगे. कवि-मुख ने वाक्य गढ़  लिया, "...जानकीवल्लभ जी कैसे हैं?.. "


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About Shyam Bihari Shyamal

Chief Sub-Editor at Dainik Jagaran, Poet, the writer of Agnipurush and Dhapel.
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