गौरव का क्षण 
प्रश्‍न बरक़रार

पुरस्‍कृतों की सूची से अधिक गरिमामयी श्रृं खला पुरस्‍कार-वंचितों की 
इससे हमारी समूची पुरस्‍कार-पद्धति क्‍या संदिग्‍ध नहीं बन जाती ?

श्‍यामबिहारी श्‍यामल
          मरकान्‍त और श्रीलाल शुक्‍ल को ज्ञानपीठ पुरस्‍कार दिये जाने की घोषणा हि‍न्‍दी जगत के लि‍ए आह्लादकारी अवसर है। दोनों ही हमारे अग्रणी रचनाकार हैं। लाख किन्‍तु-परन्‍तुओं के बावजूद ज्ञानपीठ पुरस्‍कार भी देश का सर्वाधिक प्रतिष्ठित सम्‍मान। इस लिहाज से ज्ञानपीठ समिति का यह निर्णय सर्वथा उचित और स्‍वागतेय है। यह भी संयोग की ही बात है कि संयुक्‍त रूप से चयनित अमरकान्‍त जी ( जन्‍म : 01 जुलाई 1925 ) और श्रीलाल जी ( जन्‍म : 31 दि‍सम्‍बर 1925 ) में आयु का अन्‍तर महज छह माह है। 
          न्‍म-वर्ष समान, दोनों गद्यकार और दोनों का गद्य अपनी-अपनी विशिष्‍ट पहचान वाला। पहले ने हमारी भाषा को जो गद्य दिया है वह सहज-सरल, निष्‍कलुष और विस्‍तृत है जबक‍ि दूसरे का दिया धारदार, धाराप्रवाह और वैविध्‍यपूर्ण वि‍रल। संयोग यह भी कि दोनों रचनाकारों ने लगातार लिखा है और हमारे साहित्‍य-भंडार को अभूतपूर्व ढंग से समृद्ध कि‍या है किन्‍तु दोनों की मूल पहचान के साथ उनकी आरम्‍भि‍क रचनाधर्मिता विस्‍मयकारी ढंग से सम्‍बद्ध है। 
          मरकान्‍त को जहां आज भी उनकी आरम्भिक कहानियों यथा ' दोपहर का भोजन ' और ' डिप्‍टी कलक्‍टरी '  से जोड़कर स‍न्‍दर्भित किया जाता है वहीं श्रीलाल की मूल पहचान उनके साढ़े चार दशक पहले लिखे उपन्‍यास ' राग दरबारी ' से अन्‍योन्‍याश्रित है। इस मुद्दे पर निश्‍चय ही यह सवाल उठता है कि दोनों रचनाकारों की लगातार लेखन-सक्रियता के बावजूद उनके नाम के साथ आरम्भिक पहचान ही पथरायी-सी क्‍यों ठिठकी हुई है ? हिन्‍दी पाठक समाज की परम्‍परा-पीड़ि‍त मनोदशा के कारण अथवा दशकों से हतचेत पड़ी हिन्‍दी आलोचना है इसके लिए दोषी ?  
          ह मामूली विडम्‍बना नहीं कि हमारे यहां लिखे जा रहे साहि‍त्‍य का एक बड़ा भाग तो सबसे पहले समुचित प्रकाशन के अभाव में अंधेरे में पड़ा रह जा रहा जबकि शेष का वृहद अंश पुस्‍तक-रूप पा सकने के बावजूद ऊंची क़ीमतों के कारण आम जिज्ञासुओं तक नहीं पहुंच पाता। यह तो हुआ रचना-पाठक के बीच की प्रवाह-बाधा का मूल सन्‍दर्भ। साहित्‍य के शास्‍त्रीय व्‍यवहार धरातल की रामकहानी तो और दर्दनाक है।  कति‍पय व्‍यावसायि‍क या सांस्‍थानिक पत्रिकाओं में कुछ आमदनी की नीयत से फर्जी समीक्षाएं लिखने वालों के शोर-शराबे चाहे जो भ्रम पैदा करें हक़ीकत सिर्फ और सिर्फ यही है कि हिन्‍दी आलोचना मुर्दा हो चुकी है। 
          तिपय बेरोजगार-रियाजदार पुस्‍तक-समीक्षु हैं जो फ्लैप या ब्‍लर्व की प्रचार-पैरे टो-टोकर निर्धारित फ्रेम में टिप्‍पणियां ढाले और डाले जा रहे हैं। कुछ ख्‍यात-प्रख्‍यात अवकाश-ग्रहणी या कामचलाऊ नामी-गिरामी किन्‍तु सर्वग्रासी प्रोफेसर-आचार्य हैं जो अब वायु-मार्ग के भौतिक यात्री ही नहीं, समकालीन सृजन से जुड़ाव के मामले में बौद्धिक धरातल पर भी पूर्णत: वायवीय हो चुके हैं। उनके अपने कुछ सिद्ध-प्रसिद्ध मुखड़े-मुहावरे हैं जिन्‍हें अब वे किसी भी प्रायोजक-आयोजक के नाम धड़ाधड़ टांकने में जुटे हुए हैं। 
           सके लि‍ए उनकी अपेक्षा-अर्हता भी किसी से छुपी नहीं रही। यानी कि बुलावा, इसके एवज में चढ़ावा लेकिन साथ में अनिवार्यत: वायु-सेवा या इसके समानान्‍तर द्रव्‍य-दान। इतना सब जो पूरा करे, वह सुन ले अपने लिए कैसी भी मनमुताबि‍क प्रशंसा। ऐसे में वही स्थिति स्‍वाभाविक है जो हमारे सामने उपस्थित है। ' रागदरबारी ' के बाद लिखी श्रीलाल शुक्‍ल की तमाम रचनाएं और ' डिप्‍टी कलक्‍टरी ' या ' दोपहर का भोजन ' सरीखी आरम्‍भि‍क रचनाओं के बाद का अमरकान्‍त का लगभग सारा सृजन-अवदान अब तक अव्‍याख्‍यायित है।    
         ह यों ही नहीं है कि अमरकान्‍त या श्रीलाल शुक्‍ल ही नहीं, हमारे दर्जनों महान रचनाकारों का लेखन-कार्य समुचित पहचान-प्रतिष्‍ठा से वंचित है। विचित्र बात तो यह कि‍ आज की तारीख में अपने यहां जहां पुरस्‍कारों की भरमार है, वहीं इन्‍हें लेकर उत्‍पन्‍न विवादों का पोथा भी उतना ही भारी। साहित्‍य अकादेमी और ज्ञानपीठ जैसे सर्वमान्‍य महत्‍वपूर्ण पुरस्‍कारों की वास्‍तविक वस्‍तुस्थिति तो यह कि इन्‍हें प्राप्‍त करने वालों की तुलना में इनसे वंचित रहे रचनाकारों की सूची अधिक समृद्ध और गरिमामयी है। क्‍या यह स्थिति मौजूदा पुरस्‍कार-व्‍यवस्‍था और उसकी समूची नी‍ति-नीयत को ही सवालों के घेरे में नहीं लपेट लेती ? 

ज्ञानपीठ पुरस्‍कार का प्रतीक-चिह्न : देश का सर्वोच्‍च साहित्‍य-सम्‍मान
 :
अमरकान्‍त : गरिमामयी उपस्थिति

अमरकान्‍त :  महान सृजन-कार्य

इन्‍हीं हथियारों से : महत्‍वपूर्ण कृत‍ि
                                        
                                ज्ञानपीठ पुरस्‍कार विजेताओं की आरम्‍भ से 2006 तक की सूची 

वर्षनामकृतिभाषा
इ.स. १९६५जी. शंकर कुरुपओदाक्कुजलमल्याळम
इ.स. १९६६ताराशंकर बंधोपाध्यायगणदेवताबंगाली
इ.स. १९६७के.वी. पुट्टप्पाश्री रामायण दर्शनम्कन्नड
इ.स. १९६७उमाशंकर जोशीनिशिथगुजराती
इ.स. १९६८सुमित्रानंदन पंतचिदंबराहिंदी
इ.स. १९६९फिराक गोरखपुरीगुल-ए-नगमाउर्दू
इ.स. १९७०विश्वनाथ सत्यनारायणरामायण कल्पवरिक्षमुतेलुगू
इ.स. १९७१विष्णु डेस्मति से टा भविष्यतबंगाली
इ.स. १९७२रामधारीसिंह दिनकरउर्वशीहिंदी
इ.स. १९७३दत्तात्रेय रामचंद्र बेंद्रेनकुतंतिकन्नड
इ.स. १९७३गोपीनाथ मोहंतीमत्तिमातालउडिया
इ.स. १९७४विष्णू सखाराम खांडेकरययातिमराठी
इ.स. १९७५पी.वी. अकिलानंदमचित्रपवईतमिळ
इ.स. १९७६आशापूर्णा देवीप्रथम प्रतिश्रुतिबंगाली
इ.स. १९७७के. शिवराम कारंतमुक्कजिया कनसुगालुकन्नड
इ.स. १९७८अज्ञेयकितनी नावों में कितनी बारहिंदी
इ.स. १९७९बिरेंद्रकुमार भट्टाचार्यमृत्युंजयआसामी
इ.स. १९८०एस. के. पोत्ताकटओरु देसात्तिन्ते कथामल्याळम
इ.स. १९८१अमृता प्रीतमकागज के कैनवसपंजाबी
इ.स. १९८२महादेवी वर्मायामाहिंदी
इ.स. १९८३मस्ती वेंकटेश अयंगारचिक्कवीर राजेंद्रकन्नड
इ.स. १९८४तकाजी शिवशंकरा पिल्लैकयरमल्याळम
इ.स. १९८५पन्नालाल पटेलमानविनी भवाईगुजराती
इ.स. १९८६सच्चिदानंद राउतराय-उडिया
इ.स. १९८७विष्णू वामन शिरवाडकर(कुसुमाग्रज)-मराठी
इ.स. १९८८सी. नारायण रेड्डीविश्वंभरतेलुगू
इ.स. १९८९कुर्तुल हैदरआखिर-ए-शब के हमसफरउर्दू
इ.स. १९९०वी. के. गोकाकभारत सिंधू रश्मीकन्नड
इ.स. १९९१सुभाष मुखोपाध्याय-बंगाली
इ.स. १९९२नीरेश मेहता-हिंदी
इ.स. १९९३सीताकांत महापात्र-उडिया
इ.स. १९९४यू. आर. अनंतमूर्ति-कन्नड
इ.स. १९९५एम. टी. वासुदेव नायर-मल्याळम
इ.स. १९९६महाश्वेता देवी-बंगाली
इ.स. १९९७अली सरदार जाफरी-उर्दू
इ.स. १९९८गिरीश कर्नाडसाहित्यातील योगदानासाठीकन्नड
इ.स. १९९९निर्मल वर्मा-हिंदी
इ.स. १९९९गुरदयालसिंह-पंजाबी
इ.स. २०००इंदिरा गोस्वामी-आसामी
इ.स. २००१राजेंद्र केशवलाल शाह-गुजराती
इ.स. २००२दंडपाणी जयकांतन-तमिळ
इ.स. २००३विंदा करंदीकरअष्टदर्शनेमराठी
इ.स. २००४
इ.स. २००५
इ.स. २००६रवींद्र केळेकर-कोकणी


श्रीलाल शुक्‍ल : अनोखे रचनाकार 

श्रीलाल शुक्‍ल : बेमिसाल 
राग दरबारी : महानतम कृति

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About Shyam Bihari Shyamal

Chief Sub-Editor at Dainik Jagaran, Poet, the writer of Agnipurush and Dhapel.
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10 comments:

  1. आपने बहुत ही सारगर्भित लेख हमें पढ़ने को दिया। आपने साहित्‍य की स्थ्‍िति पर बहुत ही अच्‍छी और वैचारिक टिप्‍पणी की है। बधाई..

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  2. मैं आपसे सहमत हूं श्यामल जी! आपने बहुत ही महत्त्वपूर्ण और विचारणीय पहलुओं को छुआ है। घोषणा पर प्रभात रंजन की पोस्ट पर मेरी पहली प्रतिक्रिया यही थी..देर आयद,दुरस्त इन दोनों को पुरस्कृत कर ज्ञानपीठ खुद पुरस्कृत हुआ है। यह विडम्बना ही साहित्यिक पुरस्कार घरानों और संस्थाओं की कि सच्चे और हकदार बहुत कम और बहुत देर और कभी-कभी तो स्मरण ही नहीं आते जबकि चापलूस और तिकड़मी तुरंत बटोर ले जाते है

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  3. आभार नवनीत पाण्‍डे जी और सविता सिंह जी...

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  4. बन्‍धुवर नवनीत जी, आपने सही कहा... यह सचमुच गंभीर चिन्‍ता का विषय है... पुरस्‍कारों को विश्‍वसनीय व कारगर बनाने तथा कुछ लोगों के हाथ का खिलौना बनने से बचाने के लिए सभी स्‍तरों से विचार और प्रयास जरूरी है... विचार-सम्‍बल देने के लिए आभार मित्र...

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  5. बुलावा, इसके एवज में चढ़ावा ..ek saargarbhit lekh ke liye badhai.. aapke lekh padhna vastav me gyaanvardhan karta hai aur drishti ko vyaapak banaata hai.. abhaar.

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  6. सद्भावनाओं के लिए आभार लीना जी...

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  7. अद्भुत पोस्ट बहुत -बहुत बधाई और शुभकामनाएं |आपका ब्लॉग अपने यहाँ लिंक कर रहा हूँ |

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  8. सटीक आलेख , और उससे भी सटीक आपका विश्लेषण । आज हिंदी साहित्य को इन्हीं तेवरों की जरूरत है । सच है कि पुरस्कार खुद पुरस्कृत हुए हैं

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  9. बढ़िया लिखा है आपने भाई... इस पर बहस होनी चाहिए।

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  10. आभार बन्‍धुवर विमलेश जी ( अनहद ), अजय जी और तुषार जी...

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