श्रीलाल शुक्‍ल-स्‍मृति


कालजयी कलाजयी कथाकार श्रीलाल शुक्‍ल  

                                       श्‍यामबिहारी श्‍यामल  

       'लोकप्रियता' दुनिया भर में स्‍वीकार्यता, कामयाबी और श्रेष्‍ठता का पैमाना है लेकिन हिन्‍दी साहित्‍य संसार में यह एक खालिस नकारात्‍मक मूल्‍य। किसी कृति को यदि लोकप्रिय कह दिया जाये तो इसे उसके विरुद्ध एक  क्रूर टिप्‍पणी मान लिया जाता  है। इसके विपरीत पश्चिम क्‍या, अब तो अपने यहां भी कोई सर्वेक्षण-परिणाम यदि 'गिरता ग्राफ' घोषित कर दे तो लक्षित नेता या कम्‍पनी के माथे पर बल पड़ जाते हैं जबकि इसके उलट का रिजल्‍ट मान या महत्‍व बढ़ा देता है। इसी के आधार पर अमेरिका या यूरोप की सत्‍ताओं की साख तक हिल-उखड़ या उधिया तक जाती है।  
नलिनविलोचन शर्मा की नजर में 'लोकप्रिय' यानि ' अधम'  
       चार्य नलिन विलोचन शर्मा को याद करते हुए साठ के दशक में उनके छात्र रहे लोग बताते हैं कि कैसे कक्षाओं में वह सविस्‍तार बोलते  हुए रामधारी सिंह दिनकर को लोकप्रिय बताकर इसी कारण उनके काव्‍य को 'अधम' तक घोषित कर डालते थे। लेकिन, अब इसे क्‍या कहा जाये क‍ि 'रागदरबारी' ( 1968 ) को हिन्‍दी के अलावा अंग्रेजी समेत पचास भाषाओं के पाठकों से जो स्‍वीकार्यता मिली या अब तक लगातार प्राप्‍त हो रही है, वह वस्‍तुत: उसकी लोकप्रियता ही तो है। 
        विगत लगातार करीब चार दशक से इसके संस्‍करण पर संस्‍करण छपते चले आ रहे हैं। इन पंक्तियों को लिखते वक्‍त फिलहाल 'रागदरबारी' के कई कवर पृष्‍ठ घूम रहे हैं। 'गबन', 'गोदान' ( प्रेमचन्‍द) और 'चित्रलेखा' ( भगवती चरण वर्मा ) आदि जैसी कुछ महान कृतियों को छोड़ दें, तो किसी भी एक कृति के इतने अलग-अलग आमुख शायद ही देखे गये हों। तो, इतनी व्‍यापक लोकप्रियता के बावजूद इस कृति को कोई समझदार व्‍यक्ति 'अधम' कहने की हिमाकत तो कदापि नहीं दिखा सकता। 
    ह एक तथ्‍य है कि 'रागदरबारी' उपन्‍यास अपने भाषा-शिल्‍प, विन्‍यास और कथानक समेत सभी स्‍तरों पर विशिष्‍ट है। भाषा में व्‍यंजना और व्‍यंग्‍य का ऐसा दीर्घजीवी प्रयोग इससे पहले शायद ही कभी सम्‍भव हुआ हो  लेकिन सर्वथा संयमित और सधे अंदाज में। कहना चाहिए कि इसी कृति ने व्‍यंग्‍य को पहली व्‍यापक स्‍वीकार्यता दिलायी। निस्‍संदेह  यह उपन्‍यस क्‍लासिकी का एक नायाब नमूना।
अपना आरम्भिक शिखर ही बना रहा अलंघ्‍य
    श्रीलाल शुक्‍ल का देहांत भर हुआ है, अवसान तो कदापि नहीं। दुनिया भर में जिसे प्रतिदिन हजारों लोगों द्वारा स्‍मरण किया जाता या पढ़ा जाता हो, उसका अवसान आखिर कैसे हो सकता है। वह वस्‍तुत: उस अक्षर संसार के शब्‍द नागरिक हैं जहां यश:शरीर सदा सांस लेता रहता है। वाल्‍मीकि, विद्यापति से लेकर कबीर, तुलसी  और प्रेमचन्‍द-प्रसाद-निराला आदि की तरह। 

        न्‍होंने छह दशक से भी अधिक लम्‍बे अपने प्रदीर्घ लेखकीय-जीवन में 'सूनी घाटी का सूरज' ( 1957 ) से लेकर 'राग विराग' तक दो दर्जन से ज्‍यादा कृतियां रची लेकिन आरम्भिक कृति 'रागदरबारी' ही जैसे उनकी स्‍थायी पहचान बनी रही। ठीक फणीश्‍वरनाथ रेणु की तरह, जो अपनी आरम्भिक औपन्‍यासिक रचना 'मैला आंचल' की परिधि कभी नहीं तोड़ पाये।  
अचानक भेंट, परिचय और कुछ घंटे साथ दिल्‍ली में
           बात  करीब डेढ़  दशक पहले ऐन उसी दिन की है जब कुछ ही देर बाद श्रीलाल शुक्‍ल को 'व्‍यास सम्‍मान' दिया जाने वाला था। मैं दिल्‍ली में।  'रेणु रचनावली' के सम्‍पादक भारत यायावर  के साथ इण्डिया गेट क्षेत्र में घास पर टहलते हुए धूप लेने का उपक्रम। अचानक पीछे आकर कार रुकी। भारत जी का नाम लेकर पुकार आने लगी। मुड़ने पर मारुति कार में श्रीलाल जी। ड्राइविंग सीट के बगल में। नमस्‍ते-बंदगी के साथ ही गेट खोलकर वह बाहर। भारत जी से मेरा परिचय पाकर वह ऐसे उमड़कर मिले जैसे चिरपरिचित हों। 
         कुछ औपचारिक बातों के बाद उन्‍होंने स्‍पष्‍ट शब्‍दों  में कहा कि वह जहां जा रहे हैं वहां पता नहीं फिलहाल कुछ साहित्यिक जन जुटे भी हों या नहीं, लिहाजा हमदोनों उनके संग चलें। गेट खोलकर पीछे हमदोनों। भारतीय पुरातत्‍व संग्रहालय में आयोजन था। केन्‍द्रीय मानव संसाधन मंत्री का कार्यक्रम होने के कारण गेट पर काफी जांच-पड़ताल। श्रीलाल जी के साथ होने का लाभ हमें गेट पर ही नहीं, हॉल में भी मिला। भीतर पहुंचते  ही हमें जहां बिठाया गया उसके ऐन पीछे कवि अशोक वाजपेयी और राजकमल प्रकाशन के सर्वेसर्वा अशोक महेश्‍वरी विराजमान थे। समारोह के बाद भी काफी देरतक उनका संग-साथ। ...उनकी सहजता, विनम्रता किंतु बात-बात में पैनी टिप्‍पणी... वह दृश्‍य आज जैसे आखों में नवीकृत हो उठा है...  
।। उन्‍हें श्रद्धांजलि।।
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About Shyam Bihari Shyamal

Chief Sub-Editor at Dainik Jagaran, Poet, the writer of Agnipurush and Dhapel.
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3 comments:

  1. आभार शेयर करने के लिए.. ऐसी महान विभूति के सानिध्य का आपको सुअवसर मिला और आपने हमारे साथ साँझा किया .. मैं आपकी इस बात से अक्षरश: सहमत हूँ की "'लोकप्रियता' दुनिया भर में स्‍वीकार्यता, कामयाबी और श्रेष्‍ठता का पैमाना है लेकिन हिन्‍दी साहित्‍य संसार में यह एक खालिस नकारात्‍मक मूल्‍य" लेकिन ऐसे में मुझे मोहन राकेश जी की पंक्ति याद आती है .. "योग्यता केवल एक चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है उसकी शेष पूर्ती प्रतिष्ठा से होती है..कृपया मात्रा की गलती क्षमा करें.. यह हिंदी फॉण्ट की सीमायें हैं..

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  2. सद्भावनाओं के लिए आभार लीना जी और बन्‍धुवर गिरीश पंकज जी...

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