चाहे जितने-जैसे सवाल, पर मिसाल बेमिसाल
नामवर सिंह
श्यामबिहारी श्यामल
नामवर जी हमारे साहित्य समाज में ऐसे पहले व्यक्तित्व हैं जिसका विरोध-प्रतिरोध बेशुमार हुआ या होता रहा है तो इसके समानांतर ही उनका बहुआयामी सर्व-स्वीकार भी बेमिसाल। उनके प्रति गहरी जिज्ञासा रखने वालों
में साहित्येतर अनुशासनों के बुद्धिजीवियों की संख्या कहीं अधिक है। बेशक ऐसा
इसीलिए नामवर के पास गतिवान विचार-धारा है जिसमें प्रवहमान चिंतन की
गुनगन गत्यात्मकता है तो बेबाकी का आंका-बांका तेग-तेज भी। उनके विचार समय-समय पर किसी को सहमत या असहमत तो कर सकते हैं किंतु ठहरे हुए जल की सड़ांध से कभी परेशान कदापि नहीं। आज जबकि उनके 87 वें जन्मदिन पर यह टिप्पणी लिखी जा रही है, इन पंक्तियों के लेखक की आंखों के सामने वह ऐसे अकेले शख्स के रूप में चमक रहे हैं जो अपनी भाषा और इसके साहित्य की पताका लेकर लगातार धरती धांग रहा हो, जिसके वैचारिक परवाज से हवा का रेशा-रेशा जगमगा-जाग रहा हो। आयु अपना खेल करती चली जा रही। वृषभ कंधे कमजोर दिखने लगे हैं। आवाज में बांकपन तो अब भी अनाहत लेकिन तारत्व का गति-क्रम यह संकेत देने लगा है कि अब वो बात नहीं लेकिन एक विचारक-साधक का अभियानी प्रयास सब पर भारी। डग छोटे हुए हैं लेकिन कदम रुकने का नाम नहीं लेते। नामवर एक दिन भी कहीं कहां रुकने वाले! चलते चले जा रहे, यहां से वहां, वहां से वहां.. यहां-वहां। वह चल रहे हैं तो लग रहा है हमारी भाषा बड़ी-बड़ी दूरियां तय कर रही है, हमारा साहित्य आगे बढ़ रहा है, हम कहीं किसी खड्ड में फंसे हुए नहीं हैं .. आगे ही आगे बढ़ते उनके कदमों के साथ हमारी शब्दों की दुनिया गतिमान है। ऐसा भी लगता है कि वह हैं तभी समय-समय पर कुछ वैचारिक स्फूरण है अन्यथा लेखन के कॅरियर की एक चकमक विधा बन जाने और बड़े-बड़े नामी-गिरामियों के भी खुलेआम दोमुंहा हो जाने के इस विचित्र शीतोष्ण दौर में कहां-कौन किसी ऐसे संदर्भ-विषय पर मुंह खोलने को तैयार है जिससे नौकरी-पेशे में कोई फायदा न दिखे या इसके विपरीत कहीं कोई जरा भी खतरा महसूस हो जाता हो। स्थिति बल्कि यह कि बुद्धिजीवी होने का तगमा खोंसे फिरने वाले लोग भी निर्णयपूर्वक बहुरुपिया बन रहे हैं और विचार के सभी तहखानों में वेश बदल-बदलकर हाजिरी बजाते चल रहे। ऐसे लोग हर तरफ अपनी गोटी फिट कर लेने में कामयाबी भी कब्जियाते मिल रहे हैं। इसीलिए लगता है कि नामवर के होने से ही कुछ लोगों को मार्क्सवाद के इतने प्रखर समर्थक के रूप में देखना संभव हो पा रहा है जबकि उनके चलते ही कुछ इतने दम के साथ कठोर निंदक या विरोधी के रूप में सामने आने को विवश।
विचार-जगत के इतिहास में अस्सी पार का ऐसा अत्यंत सक्रिय तूफानी व्यक्तित्व भला दूसरा कहां है ! यह सुखद संयोग ही है कि महज पखवारा भर पहले ही नामवर जी मऊ आए तो अनेक लोगों के साथ ही कवि-आलोचक रविभूषण पाठक ने भी उनसे मुलाकात की। लोग उनसे भेंट की यादें लेकर लौट गए किंतु रविभूषण जी ने इस अवसर को काव्य का उपजीव्य बनाकर साक्षात्कार को सच्चे अर्थों में अमिट बना दिया.. नामवर जी और उनके प्रशंसकों के लिए उपहार-स्वरुप यह विशेष प्रस्तुति...
नामवर की नाक
रवि भूषण पाठक
नामवर तुमसे तो अस्सीपार में मिले
पर वह बीसविषायी हुई थी
वैसे भी वह बस एक कोस की दूरी पर थी
पर तुझसे मिलने तो मैं चौदह कोस टाप गया
बिना पारासिटामाल
बिना पानीपट्टी
बस ओठों को भिंगोते हुए जीभ से
पसीना से नहाते गंधाते हुए
पहुंचा देखने नामवर की नाक
जो हिंदी की भी नाक थी
2
और नामवर जी आए
तो प्रायोजक ने पड़ोस दिया बिस्लेरी की बोतल
मुझे लगा कि जल्दी ही नामवर जी उस पर बोतल दे मारेंगे
या फिर बोतल की मूड़ी पकड़ दूर कहीं फेकेंगे
और नामवर जी ने थरथराते हुए खोल ही दिया बोतल को
अब वो सबके सामने पानी गिराऐंगे
और गिरते हुए पानी की फोटू दिखेगी कल के अखबार में
और नामवर जी ने लगा दिया बोतल मुंह में
जैसे कि कोई नौसिखिया बच्चा पीता है
और वामवर चूसते रहे धीरे-धीरे
जल्दबाजी में होता तो कहता
बाजार या प्यास में से कोई एक बड़ा है
पर खाली बोतल को नामवर जी ने पिचका दिया
लात से नहीं बस हाथ से ही
पिचका बोतल ऐसे दिख रहा था
जैसे बैल का अंडकोष पिचका दिया जाता है
ताकि वह सांड़ न बन सके
3
उस दिन तो नामवर मूड में थे
माफी के मूड में तो कतई नहीं
नामवरी के मूड में भी नहीं
सो बोलना कम सुनना ज्यादा चाह रहे थे
वामवरी के मूड में भी नहीं
सो बकौल राहुल ये भी कबूला
कि ‘राहुल स्टालिनोत्तर रूस से आश्वस्त नहीं थे
तालों ,चाकूओं ,कैमरों से देश नहीं चलता’
तभी एक नवसिखुए कामरेड ने चर्चा कर डाली
आलोचना में मठाधीशी की
नामवर आज मूड में थे
उन्होंने कुछ नहीं बोला
बस संतरा के छिलकों को अलग कर दिया
दस-बारह ‘पोट’ अलग अलग अच्छा दिख रहे थे
नामवर ने अंगूर को भी नहीं खाया
बस अच्छे ,मोटे-ताजे और मीठे जैसों को एक जगह
और सूखे,खट्टे ,पीलपीले को एक जगह कर दिया
आज वे मूड में थे.....
4
एक दिन मैं सुनाऊंगा कहानी नामवर जी को
कि दिनदहाड़े बनारस में किसी ने तोड़ दिया
या गोबर ही लगा दिया
और दिखने लगी टूटी जैसी
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के श्वेतप्रतिमा की नाक
पता नहीं काफिर जानता था या नहीं कि
किन्हीं दिनों शुक्ल की नाक हिंदी की नाक मानी जाती थी
और अब तो आपकी नाक भी हिंदी की नाक होने लगी गुरू
सो गुरू अपनी नाक खूब ऊंची होने दीजिए गुरू
लेकिन उस दिन क्या होगा गुरू
मेरे अंदर का उचक्का बार-बार तलाशता मौका
आप पर हँसने का
और जब केवल आपकी नाक ही बढ़ती रहेगी
अन्य अंगांग पूर्ववत रहेंगे
तो कैसे लगेंगे आप ?
सो गुरूवर सबकी नाक बढ़ने दीजिए
औरों की भी नाक----
हिंदी की नाक बनने दीजिए
5
बनारस की एक शाम
जब देवतागण इंतजार कर रहे थे
पूजा और भोग की
और सारे सन्यासी ,सांड़ ,रांड़ थक चुके थे
आचार्य व्योमकेश ने नामवर से कहा
सुनो धरती पर पैर रखकर भी
केवल ज्ञानेंद्रियों से मत चलना
उसको भी देखना सुनना
जो सहजगम्य न हो
केवल फूलों के सौरभ को ही नहीं
सुखे बीजों को भी यदि थोड़ा भी जान दिख जाए
और बस हंस के हीं चोंच से
गिद्ध के चोंच से नहीं
और नाक तो बस सांस लेने के लिए ही है
कभी-कभी सूंघने के लिए भी
चिपटा ,ऊंचा ,सूतवां,मरोड़बा
क्या सौंदर्यशास्त्र की समस्या है ?
और यदि निउनिया में मैंने यही देखा हो
तो मुझको भी न छोड़ना
6
और जब नामवर अपनी औजार गढ़ते हुए
घुसे थे कविता के कानन में
धर्म ,राजनीति,राष्ट्रवाद,दर्शन के नाम पर सैकड़ो घुसपैठिए थे आसन जमाए
और नामवर ने कविता को धर्म और मठों की अंधेरगर्दी
विज्ञान और गणित की फार्मूलेबाजी से बचाने
प्रतिमानों की बात करने से पहले
सबसे पहले अपभ्रंश की ओर देखा
आखिर उन्होंने सबसे पहले अपभ्रंश की ओर ही क्यों देखा ?
रवि भूषण पाठक
मो0 -09208490261
नामवर जी के उत्तम स्वास्थ्य एवं दीर्घायुष्य की हम मंगलकामना करते हैं।
जवाब देंहटाएंवाह ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
साझा करने के लिए आभार।
डॉ.नामवर सिंह को जन्मदिन की बधाई हो।