'
हंस' का बत्तख-विवेक
बनाम हिन्दी की राजेंद्र लीला
राजेंद्र यादव के ढाई दशक पहले के रचनात्मक अवदान पर उनका बाद का बौद्धिक प्रयास भारी रहा। भविष्य का कोई इतिहासकार जब इस मुल्क के बीसवीं सदी के आखिरी और इक्कीसवीं के आरंभिक दशकों के समूचे परिदृश्य की तलाश में निकलेगा तो उसके पास 'हंस' की संपादकीय टिप्पणियों के मुकाबले दूसरा ऐसा विकल्प स्रोत शायद ही उपस्थित हो सके। वह ऐसे विरले लेखकों में शुमार किए जाएंगे जिसने विचार के स्तर पर एक साथ कई पीढि़यों को आंदोलित और प्रेरित-प्रभावित किया।
यह यों ही नहीं हुआ कि 'नई कहानी' आंदोलन के प्रवर्तक माने जाने वाले राजेंद्र यादव जो अपनी मौलिक संवेदना के स्तर पर प्रथमत: वस्तुत: और अंतत: कथाकार थे, ने जब-जब देश-समाज के बारे में आगे बढ़कर कुछ सोचने-करने की सोची, उन्हें विधा के किन्हीं विधान-वितान या शास्त्र-स्थापत्य का कोई महीन किताबी उलझा मुदृा कभी स्वीकार्य नहीं हुआ। हिंदी की दूसरी किसी पत्रिका में इतने लंबे समय तक ऐसे संजीदा संपादकीय आलेख अबाध छपते कहां देखे गए हैं !
उनके सामने साहित्य का जो समूचा रूप-स्वरूप था वह कोई त्रिपुंडधारी शास्त्रीय कद-काठी तो कदापि नहीं रहा। वह हर समय समाज के वंचित वर्गों और स्त्रियों के हक में सोचते-बोलते और लिखते रहे। अपनी सारी ताकत वह सृजन-मार्ग को जद्दोजहद झेलती जिंदगियों के संघर्ष की ओर ले जाने में ही झोंकते रहे। यही वह नजरिया रहा जिसने एक कथाकार संपादक को पूरी पत्रिका कोरी कथा-कहानियों से ठसाठस भर देने के आदिम उद्दाम व्यामोह से मुक्त बनाए रखा।
'हंस' में कथा-कहानियों की तुलना में देश, समाज, राजनीति और जीवन के दूसरे तमाम मोड़-मुहानों की चिंता और प्रश्नाकुलताएं अधिक जगह और सर्वोच्च प्राथमिकता पाती रहीं तो इसकी वजह मौलिक रचनाओं का कोई अकाल कदापि नहीं। रचनाओं के उत्पादन की दर अपने यहां कोई कम तो है नहीं। हाल के वर्षों में भ्रष्ट अफसरों के एक बुद्धि-विलासी वर्ग और लखटकिया पगारू कॉलेजी-विश्वविद्दालयी मास्टर माइंडों के टिड्डी दलों ने ऐसा धावा बोला है कि हमारे साहित्य का कोना-कोना कृत्रिमता और नकलीपन से अवक्रमित होकर रह गया है। वे कविता-कहानी गढ़ने बैठ रहे हैं तो गजब शातिर तैयारी के साथ। तमाम आयातित दक्षताएं समेटे और कोरे बुने मूल्यों से लैस होकर। मूल्य बघारना शुरू कर रहे तो उनके आगे जैसे गीता का गुरू ज्ञान और बुद्ध की उपदेश-शिक्षाएं भी पनाह मांगते नजर आने लग रहे। ऐसा जाहिरन सिर्फ इसलिए क्योंकि उनके लिए लिखना जीने की कोई कसौटी नहीं बल्कि अपना भदेस ढंकने का एक मनचाहा चेहरा-भर है। इसीलिए वे पत्रिका के दफ्तर से लेकर प्रकाशक की देहरी तक जहां भी धमक रहे, अपने साथ चमकती गाड़ी और खनकती गठरी की हनक बिखेरते हुए धावा बोल रहे।
ऐसे गांठ के पूरे तत्वों ने साधना का पर्याय-क्षेत्र माने जाने वाले सृजन के हमारे इस संसार को कितना संक्रमित-प्रदूषित कर डाला है, इसका अंदाजा तब लगता है जब कभी किसी मित्र संपादक या प्रकाशक से अंतरंग चर्चा का मौका मिल जा रहा। बताते हैं कि किताब छपाने के एवज में ऐसे तत्व खुद अपनी ओर से पांच से छह अंकों तक में धनराशि दे डालते हैं। ऐसे में हिन्दी के बडृे से बडृे प्रकाशनगृह तक आज उनकी चपेेट में आकर वास्तविक लेखक से विमुख हो चुके हैं। जेनुइन लेखक की स्वीकृत पांडुलिपियां जहां वर्षों से धूल फांकने को विवश हैं वहीं भ्रष्ट नौकरशाह वर्ग या कॉलेजी-विश्वविद्यालयी मास्टर माइंड संवर्गों के नकली लेकिन कृत्रिम दक्षता से लैस तत्वों की अंड-बंड किताबों के थाक
रों ने बल्कि यहां एक खास तरह के आकर्षण काेे भांपते हुए साधन-संपन्न वर्ग के कुछ पद और डिग्रीधारियों ने तो एेसा धावा बोल रखा है कि जरा-सा मौका मिल जाने पर एक-एक भ्रष्ट नोक की
उन्होंने रचना के शास्त्रीय के लिए ने स्वयं ऐसा जिस तरह मुमकिन हुआ है इससे यह सवाल तक उठना लाजिम है कि आज जैसा साहित्य लिखा जाना हमारे यह संभव हो रहा है, शब्द की दुनिया की आम नागरिकता के लिए उसके मुकाबले सीधे-सीधे विचार-विनिमय या विमर्श-संघर्षण ही अधिक ग्राह्य-स्वीकार्य या सुविधाजनक हैं।
ढाई दशक पहले के उनके कथाकार कद के मुकाबले बाद का संपादक व्यकितत्व कई गुणा बड़ा है जो अभूतपूर्व ढंग सेे लोकप्रिय बनकर छाया हुआ है। नामवर सिंह के रूप में हिन्दी समाज ने यदि पहला ऐसा जनप्रिय आलोचक देखा जिसे जानने-सुनने की लालसा साहित्येेत्तर तो बेशक राजेद्र यादव के तौर पर प्रथम
हंस' का बत्तख-विवेक
बनाम हिन्दी की राजेंद्र लीला
राजेंद्र यादव के ढाई दशक पहले के रचनात्मक अवदान पर उनका बाद का बौद्धिक प्रयास भारी रहा। भविष्य का कोई इतिहासकार जब इस मुल्क के बीसवीं सदी के आखिरी और इक्कीसवीं के आरंभिक दशकों के समूचे परिदृश्य की तलाश में निकलेगा तो उसके पास 'हंस' की संपादकीय टिप्पणियों के मुकाबले दूसरा ऐसा विकल्प स्रोत शायद ही उपस्थित हो सके। वह ऐसे विरले लेखकों में शुमार किए जाएंगे जिसने विचार के स्तर पर एक साथ कई पीढि़यों को आंदोलित और प्रेरित-प्रभावित किया।
यह यों ही नहीं हुआ कि 'नई कहानी' आंदोलन के प्रवर्तक माने जाने वाले राजेंद्र यादव जो अपनी मौलिक संवेदना के स्तर पर प्रथमत: वस्तुत: और अंतत: कथाकार थे, ने जब-जब देश-समाज के बारे में आगे बढ़कर कुछ सोचने-करने की सोची, उन्हें विधा के किन्हीं विधान-वितान या शास्त्र-स्थापत्य का कोई महीन किताबी उलझा मुदृा कभी स्वीकार्य नहीं हुआ। हिंदी की दूसरी किसी पत्रिका में इतने लंबे समय तक ऐसे संजीदा संपादकीय आलेख अबाध छपते कहां देखे गए हैं !
उनके सामने साहित्य का जो समूचा रूप-स्वरूप था वह कोई त्रिपुंडधारी शास्त्रीय कद-काठी तो कदापि नहीं रहा। वह हर समय समाज के वंचित वर्गों और स्त्रियों के हक में सोचते-बोलते और लिखते रहे। अपनी सारी ताकत वह सृजन-मार्ग को जद्दोजहद झेलती जिंदगियों के संघर्ष की ओर ले जाने में ही झोंकते रहे। यही वह नजरिया रहा जिसने एक कथाकार संपादक को पूरी पत्रिका कोरी कथा-कहानियों से ठसाठस भर देने के आदिम उद्दाम व्यामोह से मुक्त बनाए रखा।
'हंस' में कथा-कहानियों की तुलना में देश, समाज, राजनीति और जीवन के दूसरे तमाम मोड़-मुहानों की चिंता और प्रश्नाकुलताएं अधिक जगह और सर्वोच्च प्राथमिकता पाती रहीं तो इसकी वजह मौलिक रचनाओं का कोई अकाल कदापि नहीं। रचनाओं के उत्पादन की दर अपने यहां कोई कम तो है नहीं। हाल के वर्षों में भ्रष्ट अफसरों के एक बुद्धि-विलासी वर्ग और लखटकिया पगारू कॉलेजी-विश्वविद्दालयी मास्टर माइंडों के टिड्डी दलों ने ऐसा धावा बोला है कि हमारे साहित्य का कोना-कोना कृत्रिमता और नकलीपन से अवक्रमित होकर रह गया है। वे कविता-कहानी गढ़ने बैठ रहे हैं तो गजब शातिर तैयारी के साथ। तमाम आयातित दक्षताएं समेटे और कोरे बुने मूल्यों से लैस होकर। मूल्य बघारना शुरू कर रहे तो उनके आगे जैसे गीता का गुरू ज्ञान और बुद्ध की उपदेश-शिक्षाएं भी पनाह मांगते नजर आने लग रहे। ऐसा जाहिरन सिर्फ इसलिए क्योंकि उनके लिए लिखना जीने की कोई कसौटी नहीं बल्कि अपना भदेस ढंकने का एक मनचाहा चेहरा-भर है। इसीलिए वे पत्रिका के दफ्तर से लेकर प्रकाशक की देहरी तक जहां भी धमक रहे, अपने साथ चमकती गाड़ी और खनकती गठरी की हनक बिखेरते हुए धावा बोल रहे।
ऐसे गांठ के पूरे तत्वों ने साधना का पर्याय-क्षेत्र माने जाने वाले सृजन के हमारे इस संसार को कितना संक्रमित-प्रदूषित कर डाला है, इसका अंदाजा तब लगता है जब कभी किसी मित्र संपादक या प्रकाशक से अंतरंग चर्चा का मौका मिल जा रहा। बताते हैं कि किताब छपाने के एवज में ऐसे तत्व खुद अपनी ओर से पांच से छह अंकों तक में धनराशि दे डालते हैं। ऐसे में हिन्दी के बडृे से बडृे प्रकाशनगृह तक आज उनकी चपेेट में आकर वास्तविक लेखक से विमुख हो चुके हैं। जेनुइन लेखक की स्वीकृत पांडुलिपियां जहां वर्षों से धूल फांकने को विवश हैं वहीं भ्रष्ट नौकरशाह वर्ग या कॉलेजी-विश्वविद्यालयी मास्टर माइंड संवर्गों के नकली लेकिन कृत्रिम दक्षता से लैस तत्वों की अंड-बंड किताबों के थाक
रों ने बल्कि यहां एक खास तरह के आकर्षण काेे भांपते हुए साधन-संपन्न वर्ग के कुछ पद और डिग्रीधारियों ने तो एेसा धावा बोल रखा है कि जरा-सा मौका मिल जाने पर एक-एक भ्रष्ट नोक की
उन्होंने रचना के शास्त्रीय के लिए ने स्वयं ऐसा जिस तरह मुमकिन हुआ है इससे यह सवाल तक उठना लाजिम है कि आज जैसा साहित्य लिखा जाना हमारे यह संभव हो रहा है, शब्द की दुनिया की आम नागरिकता के लिए उसके मुकाबले सीधे-सीधे विचार-विनिमय या विमर्श-संघर्षण ही अधिक ग्राह्य-स्वीकार्य या सुविधाजनक हैं।
ढाई दशक पहले के उनके कथाकार कद के मुकाबले बाद का संपादक व्यकितत्व कई गुणा बड़ा है जो अभूतपूर्व ढंग सेे लोकप्रिय बनकर छाया हुआ है। नामवर सिंह के रूप में हिन्दी समाज ने यदि पहला ऐसा जनप्रिय आलोचक देखा जिसे जानने-सुनने की लालसा साहित्येेत्तर तो बेशक राजेद्र यादव के तौर पर प्रथम
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