चंद्रेश्‍वर कर्ण की याद

1967 के भीषण अकाल के दौर में संपादक अज्ञेय के नेतृत्‍व में फणीश्‍वरनाथ रेणु समेत 'दिनमान' की जो टीम पलामू आई थी, उसके मुख्‍य संपर्क-सूत्र के रूप में कर्ण जी की ही भूमिका रही। किसी समय 'गीतों के राजकुमार' के रूप में पुकारे जाने वाले कविवर गोपाल सिंह नेपाली भी उन्‍हीं के संपर्क से पलामू पहुंचे और कविता-प्रेमियों के बीच खूब धूम मचा दी थी
स्‍मृति-अनंत चंद्रेश्‍वर कर्ण
     डा.चंद्रेश्‍वर कर्ण का जाना ( 19 जून 2014 ) घिसे-पिटे पारंपरिक अर्थों में साहित्‍य की क्षति नहीं बल्कि वास्‍तविक अर्थों में हिन्‍दी भाषा को पहुंचा बड़ा धक्‍का है.. वह हमारी भाषा के मौन किंतु धुनी-अनुरागी सेवक रहे..। एक ऐसी शख्शियत जिसने अपने जीवन का बड़ा हिस्‍सा पीढि़यों को संवारने में लगा दिया। इसलिए उनका जाना किसी लेखक इकाई-मात्र के न रहने के मुकाबले अधिक बड़ा नुकसान है। 
     शिक्षक होने के नाते उनके पढ़ाए विद्यार्थी बेशक असंख्‍य होंगे किंतु साठ से अस्‍सी के दशकों के दौर में एक छोटी-सी जगह पलामू में उनके गढ़े रचनाकारों की संख्‍या भी कोई कम नहीं.. यह अलग बात है कि छोटी जगह के उस लेखक के लिए हमारे साहित्‍य की मुख्‍य धारा में जगह बना पाना शुरू से टेढ़ी खीर रहा है जिसके लिए रोटी की लड़ाई किसी महाभारत से कम कभी नहीं रही.. और जो अपना अधिकांश समय इसी में लिथड़ते हुए बिताने को बाध्‍य है.. 
     1993 में हजारीबाग में विनोबा भावे विश्‍वविद्यालय खुलने और वहां स्‍वयं के स्‍थानांतरित होने से पहले कर्ण जी पलामू में ही रहे और इस दरम्यिान उन्‍होंने हमउम्र से लेकर अपेक्षाकृत अत्‍यंत कमउम्र तक के किसी भी रचनाकार को सक्रिय बनाने और उसे भरसक अपडेट करते चलने का जैसे व्रत ले रखा था। उनका अधिकांश समय ऐसे ही अभियानों में बीतता.. वह साहित्‍य की दुनिया में होने वाली हर छोटी-बड़ी हलचल पर नजर रखते और उसमें वहीं से सार्थक हस्‍तक्षेप कर स्‍थानीय रचनाकारों को भरसक जोड़ते चलते.. 
     कहा जाता है कि 1967 के भीषण अकाल के दौर में संपादक अज्ञेय के नेतृत्‍व में फणीश्‍वरनाथ रेणु समेत 'दिनमान' की जो टीम पलामू आई थी, उसके मुख्‍य संपर्क-सूत्र के रूप में कर्ण जी की ही भूमिका रही। किसी समय 'गीतों के राजकुमार' के रूप में पुकारे जाने वाले कविवर गोपाल सिंह नेपाली भी उन्‍हीं के संपर्क से पलामू पहुंचे और कविता-प्रेमियों के बीच खूब धूम मचा दी थी..   हिन्‍दी में लघुकथा आंदोलन के आखिरी हंगामेदार दौर में जब 'लघु कहानी' का नया विवाद उठाया जाने लगा तो कर्ण जी ने इसका यादगार प्रतिकार किया था। 
     उनकी ही पहल पर 'पुन:' के संपादक कृष्‍णानंद कृष्‍ण ने एक विशिष्‍ट अंक निकाला जिसमें इस संदर्भ के बहाने लघुकथा पर पहली बार शास्‍त्रीय शब्‍दावली में बातचीत शुरू हुई और अंजाम तक पहुंची..। पलामू में प्रगतिशील लेखक संघ को उन्‍होंने ही खड़ा किया और अस्‍सी के दशक के शुरुआती वर्षों में राज्‍य सम्‍मेलन करवाया जिसमें प्रयात कथाकार भ्‍ाीष्‍म साहनी व डा. नंदकिशोर नवल समेत अनेक रचनाकार पलामू पहुंचे थे। 
     कर्ण जी की भाषा में नवीनता और विचार-धारा में ताजगी होती। उनके लिखे छोटे-से-छोटे पोस्‍टकार्डी पत्र में भी एक न एक नए मिजाज का शब्‍द-प्रयोग मिल ही जाता.. विडंबना यह कि ऐसा प्रतिभावान रचनाकार भी हमारी मुख्‍य धारा से दूर ही छिटका रग गया.. विगत कई वर्षों से वह स्‍मृति-लोप के शिकार होकर एक बीमार की जिंदगी काटने को विवश रहे.. 
     अब जबकि उनके निधन का  समाचार आ चुका है, यह मन उन्‍हें 'स्‍मृति-शेष' स्‍व्‍ाीकारने को तैयार ही नहीं हो पा रहा.. उनकी स्‍मृतियां  तो अनंत हैं.. वह हमारे दिलों में सदा बने रहेंगे.. उनकी यादों को नमन.. 

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About Shyam Bihari Shyamal

Chief Sub-Editor at Dainik Jagaran, Poet, the writer of Agnipurush and Dhapel.
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