दैनिक जागरण में 27 अप्रैल 2007 को प्रकाशित रिपोर्ट
शोध / श्यामबिहारी श्यामल
मैकू
कथा सम्राट प्रेमचंद का जीवित पात्र
बनारस के पाण्डेयपुर चौराहे के पास कुम्हार बस्ती में एक शतायु वृद्ध की झाग जैसी निस्तेज आंखों में आज भी कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद और उनका युग झिलमिलाते देखे जा सकते हैं। यह वयोवृद्ध व्यक्ति है मैकू प्रजापति। कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘ मैकू ’ का नायक। उम्र 95 साल से भी ज्यादा। कई वर्षों से आंखों की रोशनी गायब। लम्बा, पतला-दुबला किंतु ठोस कसा हुआ शरीर। हाथ में आदमकद पुष्ट डंडे का सहारा, लेकिन आवाज कड़क। कमर में धोती और बाकी शरीर यों ही उघार। ‘ मैकू ’ कहानी से वाकिफ व्यक्ति के लिए उसका पूरा डील-डौल देख यह अंदाजा लगाना कठिन नहीं कि यह शख्स किसी जमाने में सचमुच कसरती जवान रहा होगा। मैकू के बारे में लोगों को पिछले ही साल अचानक तब नये सिरे से पता चला जब प्रेमचंद का सवा सौवां जयंती-वर्ष का सारा आयोजन संपन्न हो जाने के बाद वाराणसी के दैनिक जागरण में ही उसके बारे में एक सूचनात्मक खबर छपी। खबर में उसने बताया कि उसके अपने पाण्डेयपुर चौराहे से लेकर लमही गांव तक प्रेमचंद की स्मृतियां संजोये जाने की सूचना से वह बहुत खुश है किंतु अफसोस कि दोनों आंखों की रोशनी गायब होने के कारण वह कुछ भी देख पाने में असमर्थ है! मैकू अपने चार बेटों के भरे-पूरे परिवार के साथ रहता है। पूरा परिवार मिट्टी के कुल्हड़ और अन्य पात्र बनाने का काम करता है। इस पंक्तियों के लेखक नेपिछले दिनों मैकू से टुकड़ों-टुकड़ों में कई मुलाकातें की और अमर कथाकार के इस कथानायक से प्रेमचंद युग की चश्मदीद जानकारी अर्जित की, जिसका संक्षिप्त विवरण यहां प्रस्तुत है
अमर कथाकार का अकेला उपलब्ध कथानायक
प्रेमचंद के निधन के सात दशक बाद ‘ मैकू ’ आज संभवतः ऐसा अकेला शख्सियत उपलब्ध है जिसे कभी कथा सम्राट का नायक बनने का सौभाग्य हासिल हुआ था। यों लमही गांव के आसपास व वाराणसी क्षेत्र में प्रेमचंद साहित्य के ज्यादातर पात्रों की दूसरी-तीसरी पीढ़ी के लोग अक्सर मिल जाया करते हैं, किंतु ऐसे अब तक तीन ही लोग ज्ञात व उपलब्ध हैं जिन्होंने प्रेमचंद के समय उनके छापेखाने में काम किया था। इनमें मैकू के अलावा दो अन्य बुजुर्ग राममूरत और रामसूरत हैं जो लमही गांव में रहते हैं। इन दोनों को प्रेमचंद के साथ काम करने का मौका भर मिला था, अहम पात्र बनकर उनकी कलम से चित्रित होने का अवसर नहीं। प्रेमचंद के सवा सौवें जयंती-वर्ष पर सारनाथ में डा नामवर सिंह की तीन दिनी उपस्थिति में एनसीआरटी के सेमिनार में राममूरत और रामसूरत बुलाये भी गये थे किंतु तब तक मैकू की जानकारी लोगों को नहीं थी। यदि मैकू को उस सेमिनार में बुलाया गया होता तो निश्चय ही देश भर से आये लेखकों के लिए अमर कथाकार के कथानायक से मिलने का यह यादगार मौका बनता। समकालीन लेखकों के लिए मैकू से मिलकर यह जानना भी जीवंत अनुभव होता कि मुंशी जी ने उसे कैसे अपनी कहानी का नायक चुना था, कैसे उस पर कहानी बुनी थी और यह भी कि कथासम्राट की रचना प्रक्रिया क्या थी!
मैकू बातचीत में अपने तरीके से मुंशी जी की रचनाप्रक्रिया, उनके बोल-व्यवहार, स्वभाव-आचरण और पूरे व्यक्तित्व के अनेक शेड्स बयान करता है। कुछ इस तरह जैसे वह अभी-अभी उनसे मिलकर आया हो! वह महान उपन्यास ‘ गोदान ’ और अमर कहानी ‘ कफन ’ समेत अनेक प्रमुख रचनाओं के लिखे जाने का संदर्भ और रचना-प्रक्रिया से लेकर प्रेमचंद की उस समय की मानसिकता आदि का जब आंखों देखा हाल उपस्थित करता है तो यह सुनना एक दुर्लभ अनुभव बन जाता है। किस तरह मुंशी जी मुफलिसी के बावजूद किताबों का प्रकाशन संभव बनाते थे, कैसे पैसा-पैसा जोड़कर कागज-स्याही का जुगाड़ करते थे, कैसे आर्थिक खस्ताहाली के बावजूद ‘ हंस ’ की गाड़ी खिंचती चल रही थी आदि-आदि जैसे प्रसंगों का साक्षी-बयान सुनना भी रोमांचकारी है। मैकू के पास मुंशीजी के निधन का प्रसंग, बाद में उनके पुत्र अमृतराय के साथ करीब तीन दशक तक इलाहाबाद में काम करने व ‘ कहानी ’ पत्रिका से जुड़े ढेरों संस्मरण हैं।
कैसे मिला मुंशीजी का साथ
यह 1934 की बात है। मैकू लमही में अपनी बहन के यहां गया था। उस समय वह युवक था और बेकार भी। रिश्तेदार उसे मुंशी जी के पास ले गये और उनसे उसे किसी काम पर लगा देने का आग्रह किया। मुंशी जी ने उसे अपने वाराणसी के रामकटोरा स्थित छापेखाने में काम पर आने को कह दिया। मैकू तभी से जुड़ा सो मुंशीजी के निधन के करीब तीन दशक बाद तक उनके परिवार से जुड़ा रहा। मुंशी जी के साथ उसे करीब दो साल ही रहने का मौका मिला, इसी दौरान वह उनका कथा नायक बन गया।
कैसे थे प्रेमचंद
मैकू की आंखों की पुतलियां उजली हो गयी हैं। एकदम जमी हुई राख जैसी। इनमें रोशनी चाहे एक कतरा भी न हो, पर पूरा प्रेमचंद युग झिममिलाता देखा जा सकता है। चर्चा करने पर वह भावुक हो उठता है और ठेठ बनारसी बोली में बताता है कि कैसे मुंशी जी उम्दा लेखक ही नहीं, बल्कि आदमी भी आला दर्जे के थे। रहमदिल व छोटे लोगों के लिए मददगार। मैकू के शब्द हैं- मुंशी जी एकदम सीधा-सादा शांत गउ रहलन। बहुत कम बोले वाला। टायर के चप्पल, मारकीन के धोती अउर आधा बांही के कुर्ता पेन्हले लमही से बनारस पैदले चल आवत रहलन!
कुल जमा छह तक पढे मैकू से आज भी कोई लगभग पूरे प्रेमचंद साहित्य पर चर्चा कर सकता है। कैसे? मैकू बताता है कि वह सरस्वती प्रेस में काम से बीच-बीच में समय निकलता रहता। इसी दौरान कभी ‘ हंस ’ पत्रिका तो कभी मुंशी जी की कोई किताब लेकर पढ़ने बैठ जाता। एक बार ऐसे ही पढ़ने के क्रम में जब मुंशी जी की लिखी कहानी ‘ मैकू ’ दिखी तो वह चौक गया।
कैसे लिखी गयी ‘ मैकू ’ कहानी
मैकू पाण्डेयपुर से वाराणसी के राम कटोरा स्थित सरस्वती प्रेस में ड्यूटी करने आता तो रास्ते में चौका घाट पर एक ताड़ीखाना था। एक बार पान खाने के लिए ताड़ीखाने के पास गुमटी पर वह रूका तो वहां एक नशेड़ी से भिड़ंत हो गयी। नशेड़ी ने मैकू पर मुक्का चलाया। जवाब में मैकू ने उस पर ऐसा जोरदार घूसा चलाया कि उसने वहीं जमीन पकड़ ली। प्रेस पहुंचकर उन्होंने मुंशी जी को पूरा प्रसंग बताया था, बस। बात आयी-गयी खत्म हो गयी। इसके काफी समय बाद ‘ मैकू ’ को अपने नाम के ही शीर्षक वाली यह कहानी पढ़ने को मिली। अचानक अपने पर लिखी कहानी पढ़ने को मिली तो कैसा लगा था? इस सवाल पर मुंशीजी का यह कथानायक सकुचाता है और वही पहली कच्ची-कुवांरी खुशी आज भी उसके चेहरे पर सरसराकर रेंगने लगती है।
क्या है इस कहानी में
प्रेमचंद की करीब तीन सौ कहानियों में एक ‘ मैकू ’ एक दुर्लभ कथा रचना है। तीन पेज व 2331 शब्दों की इस कहानी में पिछली शताब्दी के आरंभिक दशकों के समय-समाज का अद्भुत चित्रण है। ताड़ीखाने पर एक पार्टी के वालंटियर सत्याग्रह कर नशेडि़यों को भीतर जाने से रोक रहे हैं। ठेका मालिक ने सत्याग्रहियों को मार-पीटकर खदेड़ने के लिए मैकू और कादिर को बतौर लठैत बुलाया है। मैकू ताड़ीखाने के बाहर सत्याग्रहियों की भीड़ और पुलिस वालों की उपस्थिति देखकर पहले सहमता है लेकिन उसका साथी उसे आवस्त करता है-- '' पुलिस तो शह दे रही है...ठेकेदार से साल में सैकड़ों रुपये मिलते हैं... पुलिस इस वक्त उसकी मदद न करेगी तो कब करेगी...'' उसी तरह कांग्रेसियों के बारे में कादिर उसे बताता है-- '' कांग्रेस वाले किसी पर हाथ नहीं उठाते, चाहे कोई उन्हें मार ही डाले... नहीं तो उस दिन जुलूस में दस-बारह चौकीदारों की मजाल थी कि दस हजार आदमियों को पीटकर रख देते... चार तो वहां ठंडे हो गये थे मगर एक ने हाथ नहीं उठाया... इनके जो महात्मा हैं, वह बड़े भारी फकीर हैं... उनका हुक्म है कि चुपके से मार खा लो, लड़ाई मत करो....'' इसी क्रम में कादिर के साथ जैसे ही ताड़ीखाने की ओर बढ़ता है, एक सत्याग्रही हाथ जोड़कर सामने आ जाता है और भीतर न जाने का आग्रह करता है। मैकू ने उस पर हाथ चला दिया। सत्याग्रही की आंखों में खून आ गया और ' पांचों उंगलियों के रक्तमय प्रतिबिम्ब ' झलकने लगे। इसके बाद भी सत्याग्रही वहीं खड़ा रहा और जब मैकू ने उसे डांटकर हट जाने को कहा तो वह वहीं राह रोककर बैठते हुए बोला, '' जितना चाहिए मार लीजिये मगर अंदर न जाइये...''
मैकू सत्याग्रही को यह वादा करके अंदर जाता है कि वह ताड़ी नहीं पियेगा, क्योंकि यहां वह एक दूसरे काम से आया है। सत्याग्रही रास्ता छोड़ देता है और वादा निभाने का आग्रह करता है। भीतर पहुंचने पर ताड़ीखाना के ठकेदार ने
यह देख उसका गुस्सा सातवें आसमान पर। मैकू सामने पड़े एक सत्याग्रही पर ऐसा घूसा चलाता है कि वह जमीन पकड़ लेता है। दूसरे ही पल घायल सत्याग्रही उठ खड़ा होता है और अपने मुंह से बहते खून की परवाह किये बगैर फिर हाथ जोड़कर विनयी मुद्रा में आगे आ जाता है। वह मैकू से नषाखोरी से बचने व भीतर नहीं जाने का आग्रह जारी रखता है। मैकू उसे धसोरता हुआ अपने साथी के साथ भीतर चला जाता है। वह ठेका मालिक से अपना काम समझते हुए एक मजबूत लाठी की मांग करता है। इतने सारे कांग्रेसी सत्याग्रहियों को हमेषा के लिए सबक सिखाते हुए खदेड़ना है, लिहाजा ठेका मालिक मोटा लाठी लाकर उसे थमाता है। लाठी हाथ में आते ही मैकू अचानक ठेका मालिक पर ही टूट पड़ता है और उसकी जमकर ठुकाई करने लगता है। यह एक लठैत या बिगड़ैल व्यक्ति के हृदय परिवर्तन की कहानी तो है ही, इसमें गांधीजी के नषाविरोधी आंदोलन की ताकत और सार्थकता का भी दुर्लभ संदेष निहित है। ऽऽ
-- ऽष्याम बिहारी ष्यामल, संपर्क सी 27/ 156, जगतगंज, वाराणसी, उप्र मोबाइल नंबर
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