दिल्ली के बाद बिहार में मिली शिकस्त यह बताने के लिए काफी है कि भाजपा खेमे का खेल अब आगे चलने से रहा। हमारा जनमानस और हमारी राजनीति एकबारगी वैसे मैनेजेबुल कदापि नहीं हैं जैसाकि उन्हें समझ लिया गया है। दिवास्वप्न दिखाने या काेमल भावनाएं छेड़ने वाले फार्मूले धोखे से कभी एकाध बार भले चल जाएं लेकिन बार-बार यह भला कैसे मुमकिन है कि कोई भी अमित शाह आए और कुछ हफ्ते-महीने कैंप करके कहीं के भी जनमानस की संपूर्ण आत्मा काे गा-बजाकर उड़ा ले जाए।
यह इतिहास की बिगड़ैल धारा को बदल देने
वाला बिहार है, कोई बिकाऊ माल नहीं
नरेंद्र
मोदी ने जिस आंधी-तूफान की-सी गति से केंद्र की सत्ता पर कब्जा किया था,
उससे उनकी राजनीतिक क्षमता का दुनिया भ्ार में डंका बजा लेकिन बिहार के
ताजा संपन्न चुनाव में मिली दूरगामी पराजय ने यह भी स्पष्ट कर दिया है
कि लोकतंत्र की इस जन्मभूमि को समझने में उनसे ऐतिहासिक भूल हुई है।
चुनावी अभियान के शुरुआती दौर में ही जिस तरह उन्होंने भारी-भरकम पैेकेज
का तिलिस्म लहराया और मान बैठे कि एक ही बोली में बिहार उनकी झोली में आ
जाएगा, यह सारा दांव न केवल खाली चला गया बल्कि यही उनके लिए राजनीतिक रूप
से आत्मघाती साबित हुआ। वह शायद यह नहीं समझ सके कि यह बिहार कोई मामूली भूखंड या बिकाऊ माल नहीं बल्कि प्राचीन काल से ही ज्ञान की भूमि और दिल्ली को बार-बार नकेल लगाकर इतिहास की बिगड़ैल धारा को मोड़कर रख देने वाली क्रांति की धरती है।
बिहार के बारे में यह नहीं भूलना चाहिए कि यहां की वैशाली में यों ही
दुनिया का पहला लोकतंत्र नहीं जन्मा था। प्राचीन काल से यह धरा बुद्ध की ज्ञानार्जन-भूमि ही नहीं, अशोक-काल से देश की सर्वाधिक
राजनीतिक जागरुकता की धरती है। यहां के हवा-पानी में बाकायदा ऐसी राजनीतिक
सलाहियत मौजूद है जो आदमी में गैरत से लेकर जरुरत पर बगावत तक की ताकत भरती
रहती है। इतिहास गवाह है, जब-जब दिल्ली बेकाबू हुई है, कभी शेरशाह तो कभी
जयप्रकाश नारायण के रूप में उसे बिहार ने ही लगाम पहनाई है। यह सब कुछ यों
घटित होता रहा है कि ऐसे प्रसंग आज भी सनसनी के साथ समाज में बतौर मिसाल
याद किए जाते हैं। मोदी का रास्ता रोककर बिहार ने अपनी वही ऐतिहासिक
भूमिका एक बार फिर दुहराई है।
दिल्ली के बाद बिहार में मिली शिकस्त यह बताने के लिए काफी है कि भाजपा
खेमे का खेल अब आगे चलने से रहा। हमारा जनमानस और हमारी राजनीति एकबारगी
वैसे मैनेजेबुल कदापि नहीं हैं जैसाकि उन्हें समझ लिया गया है।
दिवास्वप्न दिखाने या काेमल भावनाएं छेड़ने वाले फार्मूले धोखे से कभी
एकाध बार भले चल जाएं लेकिन बार-बार यह भला कैसे मुमकिन है कि कोई भी अमित
शाह आए और कुछ हफ्ते-महीने कैंप करके कहीं के भी जनमानस की संपूर्ण आत्मा
काे गा-बजाकर उड़ा ले जाए। लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद अमित शाह ने बड़े
आत्मविश्वास के साथ यह ऐलान किया था कि माहौल होता नहीं बनाया जाता है।
उन्होंने स्पष्ट करते हुए इसकी मिसाल दी थी कि कुछ ही समय पहले गुजरात
तक सिमटे मोदी के साथ आज पूरा देश आ चुका है। बिहार चुनाव में जी-जान से
जुटने के बावजूद चारों खाने चित हो चुके शाह के ताजा हश्र ने उनके उक्त
नजरिये को गलत साबित करके रख दिया है।
लोकसभा चुनाव के दौरान भारतीय जनमानस के सामने भ्रष्टाचार में आंकठ डूबी
तत्कालीन केंद्र सरकार से मुक्ति पाने की बेचैनीभरी चुनौती और विकल्प की
तलाश थी, बिहार के इस चुनाव में दो संपूर्ण कार्यकाल पूरा कर तीसरा अवसर
पाने को जनता के सामने प्रस्तुत नीतीश कुमार के नाम के साथ कोई ऐसा बड़ा
आरोप नहीं था। आलम यह कि प्रधानमंत्री को महागठबंधन के विरोध में दशक भर
पूर्व के 'जंगलराज' वाले जुमले का सहारा लेते रहना पड़ा। नीतीश कुमार के
विरुद्ध बड़े आरोप के अभाव के कारण ही प्रघानमंत्री चुनावी भाषणों में कभी
जंगलराज के पुराने जुमले ताे कभी ताजे तांत्रिक-प्रसंग के भंडाफोड़ अंदाज
वाले नुस्खे इस्तेमाल करते रहे। वह प्राय: हर चुनावी सभा में बिहार के
लिए स्वघोषित भारी-भरकम पैकेज की बात दुहराते रहे। साबित हुआ कि ऐसे सारे
जुमले-नुस्खे नाकाम रहे। जनता ने सारे जुगाड़ खारिज कर दिए।
बिहार में राजद, जेडयू, काग्रेस या उनके महागठबंधन के पक्ष में पहले से
काेई हवा बह रही हो, ऐसा बेशक नहीं था लेकिन चुनाव अभियान में भाजपा की ओर
से सीधे प्रधानमंत्री के कूदने और उनके एकल हवा-हवाई धमाकों ने देखते ही
देखते महौल बदल कर रख दिया। ऐसा लगने लगा कि यह सीधे-सीधे ताकतवर
प्रधानमंत्री और कमजोर लालू-नीतीश के बीच की रस्साकशी है। विराट जनमानस
कभी ताकतवर के हमलों का हामी नहीं होता और आम सहानुभूति हमेशा कमजोर पक्ष
के साथ जाती है। चुनाव-परिणाम बता रहे कि बिहार में इस बार ऐसा ही हुआ।
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