स्मृति
कैप्टन राघवेन्द्र विक्रम सिंह : अविस्मरणीय व्यक्तित्व
- श्याम बिहारी श्यामल
वर्ष 2005 का बनारस आज जैसा प्रधानमंत्री का शहर तो न था लेकिन नगरी तो वही काशी! सामान्य दिनों में भी लाख से ऊपर तीर्थ यात्रियों का स्वागत करने वाली. अपने प्रतिद्वंद्वियों से थोड़ा-बहुत नहीं, बाकायदा दुगुना-ढाईगुना अंतर के साथ प्रसारित सबसे बड़े अख़बार दैनिक जागरण के चीफ़ रिपोर्टर की तब पेराई कहीं ज़्यादा थी! कारण, संपादकीय संरचना में आज की तरह आउटपुट इनपुट, डीएनई आदि जैसी कोई दोहरी-तिहरी व्यवस्था तब तक नहीं बन सकी थी. डायरेक्टर और संपादक के बाद सीधे चीफ़ रिपोर्टर! लिहाज़ा फ़ील्ड से लेकर डेस्क तक रूतबा जबरदस्त था. लेकिन, 'बेल पका तो कौवे के बाप का क्या' ! जो गांठने वाला ही न हो, उसे रंग टाइट होने न होने से क्या फ़र्क पड़ने वाला! चुनांचे, चीफ रिपोर्टरी हो याकि सिटी चीफ़शिप, इस सिर के हिस्से बस गिरते-टकराते पत्थर-पहाड़ ही आते रहे.
कैप्टन राघवेन्द्र विक्रम सिंह वाराणसी के नगर आयुक्त रह चुके थे. उस समय राघवेंद्र चड्ढा चीफ़ रिपोर्टर थे और नगर निगम स्वयं देखते थे. मैंने जब बनारस में जागरण ज्वाइन किया तो चड्ढा साहब संपादकीय प्रभारी थे. ऐसा व्यक्तित्व, जो कुछ और नहीं, सिर्फ़ और सिर्फ़ जैसे गुलाबी मुस्कान से बना हुआ हो. कभी यदि परिस्थितिवश मनोभाव बदल भी जाते, तो उसके तुरंत बाद वह उसकी ऐसी भरपाई कर देते कि कहीं कोई कसैलापन रह ही नहीं जाता. तो, चड्ढा साहब हमनाम होने के नाते कैप्टन साहब के किस्से अक्सर चाव से सुनाते.
एक दिन अपने युवा रिपोर्टर साथी कृष्ण कुमार ने कचहरी में कैप्टन साहब की चर्चा की. उनसे मिलने चलने का आग्रह भी किया. अधिकारियों से भरसक अधिकतम दूरी रखने के अपने स्वभाव के कारण मैंने इसे हंसकर टाल दिया. कृष्ण कुमार ने इसके बाद मुस्कुराकर उनकी बौद्धिक सक्रियताओं के बारे में बताना शुरू किया. पता चला, कैप्टन लगातार अध्ययनशील रहने वाले व्यक्ति हैं, हिन्दी के सभी प्रमुख अख़बार उनके सामयिक विषयों पर आलेख छापते हैं! सुखद आश्चर्य हुआ.
अब तो मिलने की जल्दी जाग उठी. कचहरी के निकट ही स्थित सरकारी आवास पर कृष्ण कुमार ने उनसे परिचय कराया. बातें होने लगीं. बातों से बातें. बातें ही बातें. कुछ ही देर में लगने लगा, उनसे जैसे बहुत पुराना रिश्ता हो! अनुभव और तर्कों पर आधारित आलेखों में आर. विक्रम सिंह के विमर्श और विचार तो सुलझे हुए होते ही, मेरे लिए सबसे अधिक आकर्षण का विषय उनकी भाषा बन गई. बारीकी से तराशे हुए उनके छोटे-छोटे वाक्य उत्तम गद्य उपस्थित करते. ऐसा, जो अनुप्राणित होता काव्यात्मक गूंज-अनुगुंज से.
याद नहीं, वह नोकिया का या किस शुरुआती ब्रांड का कौन-सा छोटा वाला हैंडसेट था. उसी पर एक दिन दोपहर में कैप्टन साहब का कॉल आया. तब मैं हड़बड़ी में था. कहीं कोई घटना घटी थी और खाना छोड़कर मैं दफ़्तर जाने की जल्दी में था. इधर, कॉल पर उन्होंने सूचना दे दी कि वे मेरे यहां आ रहे हैं, एक लिफ़ाफा देने, जो नोएडा जाएगा. मतलब कोई सामयिक आलेख, जो उनसे मांगा गया हो या उन्हें अपनी ओर से प्रस्तावित करना हो. खैर, वे लहुराबीर के आसपास ही थे, कुछ ही मिनटों में आ गए. भीतर ड्राइंग रूम में आने से मना कर दिया और बाहर हरे-भरे गमलों के बीच कुर्सी-टेबुल देख बरामदे में ही पंखे के नीचे जम गए. मैं जल-जलपान वगैरह जैसे इंतजाम को भीतर आने लगा तो बोले, '' चाय-वाय एकदम नहीं! किसी को परेशान मत कीजिए, सिर्फ कुछ सादे पन्ने ले आइए! ''
पन्ने लेकर निकला तो वे कलम खोले आंख मूंदे मन में कुछ बुन रहे थे. आहट पर आंखें खोल ली. हाथ बढ़ाकर कागज़ ले लिया. मोड़कर चौथाई छोड़ी और लिखना शुरू कर दिया. पहले ही शब्द से गति! एकदम सरपट. रट्टा मारा हुआ कोई पाठ सरसराकर शब्दबद्ध करने की तरह. यंत्रवत! कुछ ऐसे जैसे वे बस माध्यम भर हों, कंटेंट दिमाग से निकल कलम और उससे होता हुआ सीधे पन्ने पर उतरता-पसरता चला जा रहा है! लेखन की प्रक्रिया और लेखक की यह सन्नद्धता देख मैं अवाक. दफ़्तर शीघ्र पहुंचने की अकबकाहट तो अब भी कम नहीं हुई थी, लेकिन यह आश्वस्ति अवश्य होने लगी कि हो रहा विलंब अकारथ नहीं जाने वाला!
कोई घंटा भर में उन्होंने तीन-चार पन्ने रंग डाले. चावल के महीन दानों जैसे अक्षर ! कंपोज हो जाए तो पूरे ढाई-तीन कॉलम कंटेंट. चौथाई पेज़ से ज्यादा. कैप्टन ने अब आलेख पर आद्योपांत एक बार नज़र भी डाल ली इसके बाद ही आंखों से चश्मा उतारा. देर से सामने पड़ी चाय भाप छोड़ कर शांत हो चुकी थी. उन्होंने कप उठा लिया और बगल में रखे नमकीन के प्लेट पर निगाह डाली.
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उनका शहर बदल गया. इधर कोई डेढ़ दशक के दौरान मेरी भी जिम्मेदारियां और जगहें बदलती रहीं. बीच में कई साल कैप्टन साहब से संपर्क शिथिल रहा. बीच-बीच में कृष्ण कुमार से, जो अन्यत्र जा चुके थे, फोन पर चर्चा में उनकी बातें अवश्य होती चलीं. वे बताते रहते कि आजकल कैप्टन साहब कहां एडीएम, डीएम या कमिश्नर का पद संभाल रहे हैं! सोशल मीडिया का समय आने के बाद कैप्टन साहब भी फ्रेंड लिस्ट में आ गए थे लेकिन यहां सक्रियता उन्होंने अवकाश ग्रहण के थोड़ा पहले, पिछले कुछ वर्षों के दौरान बढ़ाई.
फेसबुक पर वे हमसे संबंधित पोस्ट पर लाइक-कमेंट करने लगे. एक दिन जन्मदिन से संबंधित हमारे चित्र पर उन्होंने लिखा, '' आपदोनों (कपल) को कोई काम नहीं है क्या, जब देखो तब एक-दूसरे को केक खिलाते रहते हैं! '' पढ़कर हमलोग खूब हंसे. यह महसूस भी किया कि कैसे एक ही वाक्य लिखकर उन्होंने हास्य, प्रशंसा और आशीर्वचन का अद्भुत समावेश कर दिया!
एक बार सविता जी के कुछ ताजे स्नैप्स फेसबुक पर लगाते हुए मैंने क्रमशः कैप्शन लगाए, 'गृहलक्ष्मी', 'गृहसरस्वती' और 'गृहशक्ति'. लाइक-कमेंट तो जैसे आते हैं आने लगे. कुछ ही देर बाद ध्यान खींचा कैप्टन साहब के एक कमेंट ने. उन्होंने 'गृहसरस्वती' और 'गृहशक्ति' कैप्शन पर कमेंट में लिखा था- 'नया शब्द' ! मैं इस पर अभी कुछ सोच ही रहा था कि उनका कॉल आ गया. बोलने लगे, '' आपने मुझे आज दो नए शब्द दिए हैं, श्यामल जी! धन्यवाद! '' उनके प्रति मेरी अपनी ही धारणा थोड़ी और पुष्ट हो गई कि वह भाषा के प्रति अत्यंत ही नहीं, अतिरिक्त और निरंतर सजग हैं. एक-एक शब्द के व्यवहार, विकास और बदलाव-क्रम पर निगाह गड़ाए हुए.
फोन पर बात होती तो मैं उन्हें उनकी भाषा-सजगता पर अपनी सकारात्मक राय से अवगत कराता और आग्रह करता कि अपने आलेखों का एक चयन तैयार करें ताकि इसे पुस्तकाकार सामने लाया जा सके. शुरू में तो कुछ समय तक वह ना-नुकुर करते रहे लेकिन अब से कोई डेढ़-दो साल पहले एक दिन तैयार हो गए. पूछा, '' कौन छापेगा? '' मैंने आश्वस्त किया कि वह ' पांडुलिपि तैयार कर दें, बाकी दायित्व मेरा!'
कुछ दिन बाद बातचीत में उन्होंने फिर अपना पुराना प्रश्न दोहराया तो मैं समझ गया, वह ऐसे पांडुलिपि नहीं तैयार करने वाले. कोई प्रकाशक बिना पांडुलिपि देखे-समझे बात तो करेगा नहीं. फिर क्या हो कि कैप्टन अपनी ज़िद से हिलें ! अंततः दिल्ली के एक मित्र प्रकाशक को मैंने फोन कर अपनी पूरी उलझन बताई. वह कैप्टन साहब से पांडुलिपि आमंत्रित करने को तैयार हो गए. मैने उन्हें फोन नंबर देकर तत्काल बात करने का आग्रह किया. कुछ देर बाद कैप्टन साहब का कॉल आया, वह प्रतिष्ठित प्रकाशक से संपर्क संभव हो जाने पर प्रसन्न थे, लगा अब कुछ हफ्तों में पांडुलिपि सामने होगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ. पिछले साल दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में प्रकाशक से मैंने पूछा तो उन्होंने बताया कि कोई पांडुलिपि नहीं आई. संपर्क होने पर कैप्टन साहब ने आधी पांडुलिपि तैयार कर लेने की बात बताई और इसे शीघ्र पूर्ण कर लेने का वादा किया.
बनारस आने पर कैप्टन साहब मिलते अवश्य थे. पूर्व सूचना दे देते. अब से आठ माह पूर्व, दिसंबर 2023 में भी उन्होंने ऐसी पूर्व सूचना दी. दस दिसंबर की सुबह रामकटोरा क्षेत्र में हम मॉर्निग वॉक में थे. कैप्टन साहब का कॉल आया. बताने लगे, वे मेरे यहां आ रहे हैं, यहां गपशप के बाद लंका जायेंगे प्रसिद्ध साहित्यकार सदानंद शाही जी के यहां. थोड़ी देर में जब हम घर लौट रहे थे तो उनका दोबारा कॉल आया. बोले, कहीं निकल नहीं पाएंगे, क्योंकि उनके लिए जो गाड़ी आने वाली थी वह कुछ घंटों बाद ही उपलब्ध हो सकेगी.
घर आकर चाय के बाद मैं उनसे मिलने निकल पड़ा. कैंट क्षेत्र के एक होटल में उनसे लंबे अंतराल के बाद मुलाकात हो रही थी. देश, समाज, बनारस, साहित्य और अपनी-अपनी वर्तमान लेखकीय सक्रियता, अनेक विषयों पर बातें. उन्होंने मेरा उपन्यास ''कंथा'' मंगा लेने की बात बताई लेकिन अभी इसे पूरा नहीं पढ़ पाने का अफसोस भी जताते रहे. उन्होंने आगे कहा, '' आपके अगले उपन्यास ''हिन्देन्दु'' का अंश मैंने ''इंडिया टुडे ''(हिन्दी) की 'साहित्य वार्षिकी 23' में दो दिन पहले ही देखा है, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को आप नए ढंग से डेपिक्ट कर रहे हैं. नई पीढ़ी को नई शब्दावली में यह बताना बहुत जरूरी है कि हम किन पुरखों की संतान हैं और वे कैसे अद्भुत प्रतापी लोग थे! ''
साथ-साथ दोपहर का भोजन हुआ. इसके बाद फिर बतकही शुरू हो गई. उन्हें शाम में पूर्व सैनिक संघ की मीटिंग में हिस्सा लेना था. गाड़ी आने तक चर्चा चलती रही. तब कहां यह पता था, उनसे यही अंतिम मुलाकात है! क्या अजीब संयोग है, आठ सितंबर 2024 की देर रात सदानंद शाही की फेसबुक पोस्ट से ही पता चला, कैप्टन साहब नहीं रहे. वज्रपात के बीच भी हृदय से यह शिकायत अपने पूरेपन से निकली, '' नियति! तुमने बहुत जल्दबाजी कर दी! एक नायाब कलम को कहां तो अलग से कुछ अतिरिक्त मोहलत देने की उदारता दिखाती, उल्टे उसका अपना आयु-विस्तार भी समेट दिया और असमय उसे अनुपस्थित कर दिया! ''
'थे' नहीं, आप एक अविस्मरणीय व्यक्तित्व हैं कैप्टन साहब! कभी नहीं बिसरने वाले. आपकी स्मृतियों को असंख्य नमन.
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