विलक्षण विश्‍वकवि विद्यापति



         शब्‍द-विश्‍व के अक्षर-महाकवि विद्यापति 

                                          श्‍यामबिहारी श्‍यामल
         
लोकनायक तुलसी दास
         लोकनायक तुलसीदास और लोकप्राण कबीर की तरह ही महाकवि विद्यापति‍ हिन्‍दी भाषा की तो मूल हैसियत ही हैं लेकिन उन पर दावा करने वाले भाषा-समाजों में स्‍वाभाविक रूप से मैथिली सर्वोपरि है। इसके अलावा बांग्‍ला और नेपाली वालों का दावा भी उन पर उतना ही जोरदार है।                                                   
         भारतेन्‍दु साहित्‍य के गहन विश्‍लेषक और मगही के विख्‍यात रचनाकार-आलोचक डा. व्रजकिशोर पाठक ( डाल्‍टनगंज में मेरे शिक्षक रहे ) ने एक बार लम्‍बा आलेख लिखकर विद्यापति के अनेक गीतों के क्रिया-पदों और वाक्‍य-रूपों का गहन व्‍याकरणीय विश्‍लेषण करते हुए उन्‍हें मगही का कवि भी साबित किया था। यद्यपि‍ यह एक बहसतलब दावा था जिस पर निश्‍चय ही गम्‍भीर विमर्श क्रमश: आगे बढ़ना चाहिए था किंतु सम्‍भवत: बड़े फलक पर चर्चा न पहुंचने के कारण बात जहां की तहां रह गयी। बहरहाल, विद्यापति पर दावेदारी का आधार किसी भाषा समाज का किसी से कमजोर नहीं। तर्क कहीं कमजोर भी लगे तो वहां भावनाओं का ऐसा हार्दिक रंग खिला दिखता है कि प्रतिवाद करना उचित व्‍यवहार नहीं रह जाता। आखिर, क्‍यों और कैसे किसी के प्रेम को नकारा जाये...
लोकप्राण कबीर दास
             म्‍बन्धित क्षेत्रों के विराट लोक में महाकवि का वास है। घर-घर में गाये जाते हैं उनके गीत। मंगल मौकों से लेकर प्राय: समस्‍त संस्‍कार अवसरों पर। मिथिला के तो कण-कण में उनकी व्‍याप्ति है। वहां शायद ही ऐसा कोई घर-आंगन हो जहां एक दिन भी उनके गीतों या सुमिरन के बिना रीता बीत पाता हो। मिथिलेश कुमारी के स्‍वामी श्रीराम के बाद वह सम्‍भवत: ऐसे दूसरे महानतम व्‍यक्तित्‍व हैं जिनके प्रति मि‍थिला-भूमि में ऐसी सतत् और अगाध श्रद्धा लहराती रहती है।           
         हालांकि आचार्य रामचन्‍द्र शुक्‍ल ने हिन्‍दी साहित्‍य का इतिहास लिखते हुए जो कुछ ऐतिहासिक भूलें की है उनमें से एक तो यही कि विद्यापति को आदिकाल के फुटकल कवि के रूप में दर्ज किया। मजेदार बात यह क‍ि आचार्य शुक्‍ल की यह स्‍थापना स्‍वमेव हवा हो गयी। स्‍वाभाविक रूप से इसका प्रतिरोध कम नहीं हुआ किन्‍तु इस विरोध से अगनित गुणा अधिक भारी रहा जन-अस्‍वीकार-आवेग। लोगों ने इसे अनदेखी-बाण से जैसे उड़ा ही दिया।
        सागर को कूप कहने वाला कोई हो, क्‍या फर्क पड़ सकता है... ऐसे तथ्‍य को तो नकारने की औपचारिकता भी जरूरी नहीं रह जाती। भला कहां हमारे यहां ऐसा कोई दूसरा व्‍यक्तित्‍व है जिस पर बांग्‍ला जैसे विकसित साहित्‍य वालों से लेकर विदेशी (यानि नेपाली ) भाषा-शास्त्रियों के मन में भी अपनी वैभव-विभूति साबित करने का ऐसा उत्‍कट लालच ( कृप्‍या यहां 'लालच' का भाव 'अंगीकार-राग' के अर्थ में ग्रहण किया जाये ) छलक रहा हो... बहरहाल, विभिन्‍न भाषाओं के तमाम दावों का सम्‍पूर्ण सम्‍मान करते हुए एक ही आग्रह नि‍वेदित किया जा सकता है कि महाकवि विद्यापति को हम उनके व्‍यापक परिधि-विस्‍तार को देखते हुए विश्‍व-विभूति ही मानें। सत्‍य यही है भी कि वह हमारे शब्‍द-विश्‍व के अक्षर महाकवि हैं... । 
         ज ( 18 अक्‍टूबर 2011 ) सुबह-सुबह यहां उनकी एक अमर गीत-रचना...   

जय- जय भैरवि असुर भयाउनि 

संतकवि विद्यापति

विद्यापति

जय-जय भै‍रवि असुर भयाउनि
पशुपति भामिनी माया
सहज सुमति कर दियउ गोसाउनि
अनुगति गति तुअ पाया
वासर रैनि सबासन शोभित
चरण चन्‍द्रमणि चूड़ा
कतओक दैत्‍य मारि मुख मेलल
कतओ उगिलि कएल कूड़ा
सामर बरन नयन अनुरंजित
जलद जोग फुलकोका
कट-कट विकट ओठ पुट पांडरि
लिधुर फेन उठ फोंका
घन-घन-घनय घुंघरू कत बाजय
हन-हन कर तुअ काता
विद्यापति कवि तुअ पद सेवक
पुत्र बिसरू जनि माता...
भक्‍तकवि विद्यापति

Share on Google Plus

About Shyam Bihari Shyamal

Chief Sub-Editor at Dainik Jagaran, Poet, the writer of Agnipurush and Dhapel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

3 comments:

  1. महाकवि विद्यापति के बारे में पढकर अच्छा लगा, धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  2. mahakavi ke baare me aur jankaari de manyavar .....apitu dhanyavad aapke आपके दीप और मेरा अंधेरा
    क्या उजला है आस्मां
    जाने क्या रिवाज तेरे आदत मेरी
    जोड़कर हात साथ मै चलू साथी
    नाचिकेत
    धन्यवाद मान्यवर श्याम जी

    जवाब देंहटाएं