काशी का सम्‍मान : ' रेहन पर रग्‍घू ' को साहित्‍य अकादेमी



बेशक बहुत देर किंतु निस्‍संदेह दुरुस्‍त 

श्‍याम बिहारी श्‍यामल

         पन्‍यास 'रेहन पर रग्‍घू ' के लिए प्रख्‍यात कथाकार डा.काशीनाथ सिंह को वर्ष 2011 का साहित्‍य अकादेमी पुरस्‍कार देने की घोषणा स्‍वागतेय है। 'अपना मोर्चा ' और ' काशी का अस्‍सी ' के बाद यह उनका तीसरा उपन्‍यास है जो लगातार चर्चे  में  रहा है। यह भी विचित्र संयोग है कि कहानीकार ज्ञानरंजन और दूधनाथ सिंह के साथ की कथाकार-त्रयी के इस स्‍तम्‍भ-रचनाकार को कहानी नहीं बल्कि उपन्‍यास के लिए यह पुरस्‍कार दिया जा रहा है। 
         इसमें भी दो राय नहीं कि यह पुरस्‍कार उन्‍हें काफी पहले मिल जाना चाहिए था किन्‍तु अपने यहां पुरस्‍कारों का गुणा-गणित या उसकी जो राजनीति रही है, वह सर्वविदित है। इसी भंवर-जाल ने उन्‍हें इससे लगातार वंचित रखा। बहरहाल, अब सामने आया यह फैसला भले ही अत्‍यंत विलम्बित लगे किन्‍तु कहा सर्वथा उचित ही जायेगा। यह भी है कि ताजा घोषणा से इस पुरस्‍कार की विश्‍वसनीयता बढ़ी है।
       कहने की आवश्‍यकता नहीं कि हिन्‍दी साहित्‍य के क्षेत्र में उक्‍त पुरस्‍कार की भूमिका लम्‍बे समय से विवाद रचती रही है। हिन्‍दी कविता के पाठकों को यह किसी हद तक संतुष्‍ट भले करता दि‍खे,  गद्य-प्रेमी तो इससे खासे खफा रहते आये हैं। इसकी वजह है अनेक महत्‍वपूर्ण कथाकारों का इससे लगातार वंचित रहना। यह विडम्‍बना ही तो है कि कृति आधारित होने के बावजूद रचनाकार के समग्र योगदान और प्रतिष्‍ठा को ध्‍यान में रखने की मंशा जताने वाला यह पुरस्‍कार राजेन्‍द्र यादव, ज्ञानरंजन और दूधनाथ सिंह सरीखे हमारे अग्रणी कथाकारों को भी आज तक नहीं दिया जा सका है। 
         काशीनाथ सिंह को भी काफी समय पहले से यह पुरस्‍कार दिये  जाने की सम्‍भावना जतायी जाती रही थी। वर्ष 2006 में तो उनके दूसरे उपन्‍यास ' काशी का अस्‍सी ' को यह पुरस्‍कार मिलते-मिलते रह गया था। तब माना यह गया कि अश्‍लीलता का आरोप इस पर भारी पड़ा। तब भी राहत की बात यही कि 2006 का साहित्‍य अकादेमी भले काशीनाथ सिंह के नाम नहीं दर्ज हो सका किंतु अंतत: यह उस समय उन्‍हीं के शहर के खाते में आया जब इसकी घोषणा कवि ज्ञानेन्‍द्रपति के कविता-संग्रह ' संशयात्‍मा ' के नाम कर दी गई। 
        काशी छठे बनारसी विजेता : साहित्‍य अकादेमी पाने वाले डा. काशीनाथ सिंह छठे बनारसी साहित्‍यकार बन गये हैं। पहले यह पुरस्‍कार कवि त्रिलोचन, आलोचक डा. नामवर सिंह ( काशीनाथ के अग्रज ), कवि धूमिल, कथाकार डा. शिवप्रसाद सिंह और कवि ज्ञानेन्‍द्रपति को मिल चुका है।  

साहित्य अकादेमी पुरस्कार 2011
भाषा                 शीर्षक एवं विधा                             रचनाकार
असमिया       एई अनुरागी एई उदास (कविता-संग्रह)                   (स्व.) कबीन फुकन
बाङ्ला                बने आज कनचेर्टो (कविता-संग्रह)                मनींद्र गुप्त
बोडो                  अखाफोरनि दैमा (कविता-संग्रह)                 प्रेमानन्द मोसाहारि
डोगरी                 चेतें दियां ग’लियाँ (निबंध)                     ललित मगोत्रा
अंग्रेज़ी                इण्डिया आफ़्टर गांधी (विवरणात्मक इतिहास)              रामचंद्र गुहा
गुजराती               अंचलो  (कहानी-संग्रह)                               मोहन परमार
हिन्दी                रेहन पर रग्घू (उपन्यास)                      काशीनाथ सिंह
कन्नड                स्वप्न सारस्वत (उपन्यास)                            गोपालकृश्ण पै
कश्‍मीरी               न छ़ाय न अक्स (कविता-संग्रह)                 नसीम शफाई
कोंकणी               प्रकृतिचो पास (कविता-संग्रह)                          मेल्विन रोड्रीगस
मलयाळम्             बशीर: एकान्त वीधियिले अवधूतन (जीवनी)        एम.के. सानू
मणिपुरी               नंगबु ङगाईबडा (उपन्यास)                     क्षेत्री बीर
मराठी                वार्याने हलते रान (निबंध-संग्रह)                 ग्रेस (मणिक गोडघाटे)
ओडि़या               अचिह्न बासभूमि (उपन्यास)                           कल्पनाकुमारी देवी
पंजाबी                ढावां दिल्ली दे किंगरे… (उपन्यास)               बलदेव सिंह
राजस्थानी             जून-जातरा (उपन्यास)                               अतुल कनक
संस्कृत               भारतायनम् (महाकाव्य)                              हरेकृष्‍ण शतपथी
संताली                बंचाओ लरहाई (कविता-संग्रह)                          आदित्य कुमार मांडी
सिन्धी                … ता ख्याबां जो छा तिंडो (नाटक)              मोहन गेहानी
तमिळ                कवल कोट्टम (उपन्यास)                      एस. वेंकटेशन
तेलुगु                 स्वरालयालु (निबंध-संग्रह)                      शामला सदाशिव
उर्दू                  आफ़ाक़ की तरफ़ (कविता-संग्रह)                 खलील मामून
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टिप्पणी:       1.  नेपाली में कोई पुरस्कार नहीं।
2.  मैथिली में पुरस्कार बाद में घोषित किया जाएगा।
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रेहन पर रग्‍घू : एक अंश
कभी नहीं भूलेगी जनवरी की वह शाम !
शाम तो मौसम ने कर दिया था वरना थी दोपहर ! थोड़ी देर पहले धूप थी। उन्होंने खाना खाया और खाकर अभी अपने कमरे में लेटे ही थे कि सहसा अंधड़। घर के सारे खुले खिड़की दरवाजे भड़ भड़ करते हुए अपने आप बन्द होने लगे खुलने लगे। सिटकनी छिटक कर कहीं गिरी, ब्यौंडे कहीं गिरे और धरती हिल उठी हो, दीवारें काँपने लगी हों। आसमान काला पड़ गया और चारों ओर घुप्प अँधेरा।
वे उठ बैठें !
आँगन और लान बड़े-बड़े ओलों और बर्फ के पत्थरों से पट गये और बारजे की रेलिंग टूट कर दूर जा गिरी-धड़ाम ! उसके बाद जो मूसलाधार बारिश शुरू हुई तो वह पानी की बूँदें नहीं थीं-जैसे पानी की रस्सियाँ हो जिन्हें पकड़ कोई चाहे तो वहाँ तक चला जाय जहाँ से ये छोड़ी या गिराई जा रही हों। बादल लगातार गड़गड़ा रहे थे- दूर नहीं, सिर के ऊपर जैसे बिजली तड़क रही थी; दूर नही, खिड़कियों से अन्दर आँखों में।

इकहत्तर साल के बूँढे रघुनाथ भौंचक ! यह अचानक क्या हो गया ? क्या हो रहा है ?
उन्होंने चेहरे से बन्दरटोपी हटाई, बदन पर पड़ी रजाई अलग की और खिड़की के पास खड़े हो गए !
खिड़की के दोनों पल्ले गिटक के सहारे खुले थे और वे बाहर देख रहे थे।
घर के बाहर ही कदम्ब का विशाल पेड़ था लेकिन उसका पता नहीं चल रहा था- अँधेरे के कारण, घनघोर बारिश के कारण ! छत के डाउन पाइप से जलधारा गिर रही थी और उसका शोर अलग से सुनाई पड़ रहा था !

ऐसा मौसम और ऐसी बारिश और ऐसी हवा उन्होंने कब देखी थी ? दिमाग पर जोर देने से याद आया-साठ बासठ साल पहले ! वे स्कूल जाने लगे थे- गाँव से दो मील दूर ! मौसम खराब देख कर मास्टर ने समय से पहले ही छुट्टी दे दी थी। वे सभी बच्चों के साथ बगीचे में पहुँचे ही थे कि अंधड़, और बारिश और अंधेरा ! सबने आम के पेड़ों के तनों की आड़ लेनी चाही लेकिन तूफान ने उन्हें तिनके की तरह उड़ाया और बगीचे से बाहर धान के खम्भों में ले जाकर पटका ! किसी के बस्ते और किताब कापी का पता नहीं ! बारिश की बूँदें उनके बदन में गोली के छर्रों की तरह लग रही थीं और वे चीख चिल्ला रहे थे। अंधड़ थम जाने-के बाद-जब बारिश थोड़ी कम हुई तो गाँव से लोग लालटेन और चोरबत्ती लेकर निकले थे ढूँढ़ने !

यह एक हादसा था और हादसा न हो तो जिन्दगी क्या ?
और यह भी एक हादसा ही है कि बाहर ऐसा मौसम है और वे कमरे में हैं।
कितने दिन हो गये बारिश में भीगें ?
कितने दिन हो गए लू के थपेड़े खाए ?
कितने दिन हो गए जेठ के घाम में झुलसे ?
कितने दिन हो गये अंजोरियों रात में मटरगश्ती किए ?
कितने दिन हो गये ठंठ में ठिठुर कर दाँत किटकिटाए ?
क्या ये इस लिये होते है कि हम इनसे बच के रहे ? बच बचा के चले ? या इसलिये कि इन्हें भोगें, इन्हें जिएँ, इनसे दोस्ती करें, बतियाएँ, सिर माथे पर बिठाएँ ?
हम इनसे ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे ये हमारे शत्रु है ! क्यों कर रहे है ऐसा ?
इधर एक अर्से से रघुनाथ को लग रहा था कि वह दिन दूर नहीं जब नहीं रहेंगे और यह धरती रह जाएगी ! वे चले जाएगे और इस धरती का वैभव, उसका ऐश्वर्य, इसका सौन्दर्य- ये बादल, ये धूप, पेड़ पौधे, ये फसलें, ये नदी नाले, कछार जंगल पहाड़ और यह सारा कुछ यहीं छूट जाएगा ! वे यह सारा कुछ अपनी आँखों में बसा लेना चाहते है। जैसे वे भले चल जाएँ आँखें रह जाएगी; त्वचा पर हर चीज की थाप सोख लेना चाहते हैं जैसे त्वचा केचुल की तरह यहीं छूट जाएगी और उसका स्पर्श उन तक पहुँचाती रहेगी !

उन्हें लग रहा था कि बहुत दिन नहीं बचे है उनके जाने में ! मुमकिन है वह दिन कल ही हो, जब उनके लिए सूरज ही न उगे। लगेगा तो जरूर, लेकिन उसे दूसरे देखेंगे-वे नहीं ! क्या यह सम्भव नहीं है कि वे सूरज को बाँध कर अपने साथ ही लिए जाएँ – न रहे, न उगे, न कोई और देखे ! लेकिन एक सूरज समूची धरती तो नहीं, वे किस चीज को बाँधेगे और किस-किस को देखने से रोकेंगे ?
उनकी बाहे इतनी लम्बी क्यों नहीं हो जातीं कि वे उसमें सारी धरती समेट लें और मरें या जिएँ तो सबके साथ !
लेकिन एक मन और था रघुनाथ का जो उन्हें धिक्कारे जा रहा था- कल तक कहाँ था वह प्यार ? धरती से प्यार की ललक ? यह तपड़ ? कल भी यही धरती थी। ये ही बादल, आसमान, तारे, सूरज चाँद थे ! नदी, झरने सागर, जंगल, पहाड़ थे। ये ही गली, मकान, चौबारे थे ! कहाँ थी यह तड़प ? फुर्सत थी इन्हें देखने की ? आज जब मृत्यु बिल्ली की तरह दबे पाँव में आ रही है तो बाहर जिन्दगी बुलाती हुई सुनाई पड़ रही है ?

सच-सच बताओं रघुनाथ, तुम्हें जो मिला है उसके बारे में कभी सोचा था कि एक छोटे से गाँव से लेकर अमेरिका तक फैल जाओगे ? चौके में पीढ़ा पर बैठ कर रोटी प्याज नमक खाने वाले तुम अशोक बिहार में बैठ कर लंच और डिनर करोगे ?
लेकिन रघुनाथ यह सब नहीं सुन रहे थे। यह आवाज बाहर की गड़गड़ाहट और बारिश के शोर में दब गई थी। वे अपने वश में नहीं थे। उनकी नजर गई कोने में खड़ी छड़ी और छाता पर ! जाड़े की ठंड यों भी भयानक थी और ऊपर से ओले औऱ बारिश। हिम्मत जवाब दे रही थी फिर भी उन्होंने दरवाजा खोला या वे वहां खड़े हुए और अपने आप खुल गया ! भींगी हवा का सनसनाता रेला अन्दर घुसा और और वे डर कर पीछे हट गए ! फिर साहस बटोर और बाहर निकलने की तैयारी शुऱू की ! पूरी बाँह का थर्मोकोट पहना, उस पर सूती शर्ट, फिर उस पर स्वेटर, ऊपर से कोट। ऊनी पैण्ट पहले ही पहन चुके थे। यही सुबह जाड़े में पहन कर टहलने की उनकी पोशाक थी ! तो मफलर भी लेकिन उससे ज्यादा जरूरी था-गमछा ! बारिश को देखते हुए ! जैसे जैसे कपड़े भींगते जाएँगे, वे एक एक कर उतारते और फेंकते चले जाएँगे और अन्त में साथ रह जाएगा यही गमछा !
वे अपनी साज सज्जा से अब पूरी तरह आश्वस्त थे लेकिन नंगे बिना बालों के सिर को लेकर दुविधा में -कनटोप ठीक रहेगा या गमछा बाँध लें।
ओले जो गिरने थे, शुरू में ही गिर चुके थे, अब उनका कोई अंदेशा नहीं !
उन्होंने गमछे को गले के चारों ओर लपेटा और नंगे सिर बाहर आए ! अब न कोई रोकने वाला, न टोकने वाला। उन्होंने कहा -‘‘हे मन ! चलो, लौट कर आए तो वाह वाह ! न आए तो वाह वाह !’’

बर्फाली बारिश की अंधेरी सुरंग में उतरने से पहले उन्होंने यह नहीं सोचा था कि भींगे कपड़ों के वजन के साथ एक कदम भी आगे बढ़ना उनके लिए मुश्किल होगा। वे अपने कमरे से तो निकल आए लेकिन गेट से बाहर नहीं जा सके ! छाता खुलने से पहले जो बूँद उनकी नंगी, खल्वाट खोपड़ी पर गिरी, उसने इतना वक्त ही नहीं दिया कि वे समझ सकें यह बिजली तड़की है या लोहे की कील है जो सिर में छेद करती हुई अन्दर ही अन्दर तलवे तक ठुँक गयी है ! उनका पूरा बदन झनझना उठा। वे बौछार के डर से बैठ गए लेकिन भींगने से नहीं बच सके। जब तक छाता खुले, तब तक वे पूरी तरह भींग चुके थे !
अब वे फंस चुके थे-बर्फीली हवाओं और बौछारों के बीच। हवा तिनके की तरह उन्हें ऊपर उड़ा रही थी और बौछारें जमीन पर पटक रही थीं ! उन्हें इतना ही याद है कि लोहे के गेट पर वेकई बार बार भहराकर गिरे और यह सिलसिला सहसा तब खत्म हुआ जब छाता की कमानियाँ टूट गईं और वह उड़ता हुआ गेट के बाहर गायब हो गया। अब उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे हवा जगह जगह से नोच रही हो और पानी दाग रहा हो-जलते हुए सूरज से !
अचेत होकर गिरने से पहले उनके दिमाग में ज्ञानदत्त चौबे कौंधा-उनका मित्र ! उसने दो बार आत्महत्या करने की कोशिश कीं-पहली बार लोहता स्टेशन के पास रेल की पटरी पर नगर से दूर निर्जन जहाँ किसी का आना जाना नहीं था ! समय उसने सामान्य पैसेंजर या मालगाड़ी के नहीं, एक्सप्रेस या मेल का चुना था कि जो हो न हो, ‘खट’ से हो, पलक झपकते, ताकि तकलीफ न हो। वह पटरी पर ही लेटा था कि मेल आता दिखा ! जाने क्यों, उसमें जीवन से मोह पैदा हुआ और उठकर भागने को हुआ कि घुटनों के पास से एक पैर खचाक्।
यह मरने से ज्यादा बुरा हुआ ! बैसाखियों का सहारा और घर वालों की गालियाँ और दुत्कार ! एक बार फिर आत्महत्या का जुनून सवार हुआ उस पर ! अबकी उसने सिवान का कुआँ चुना ! उसने बैसाखी फेंक छलांग लगाई और पानी में छपाक कि बरोह पकड़ में आ गई ! तीन दिन बिना खाए पीए चिल्लाता रहा कुएँ में-और निकला तो दूसरे टूटे पैर के साथ !
आज वही ज्ञानदत्त-बिना पैरों का ज्ञानदत्त-चौराहे पर भीख माँगता है। मरने की ख्वाहिश ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा ! मगर यह कम्बख़्त ज्ञानदत्त उनके दिमाग में आया ही क्यों ? वे मरने के लिए तो निकले नहीं थे ? निकले थे बूँदों के लिए, हवा के लिए। उन्होंने नतीजा निकाला कि जीवन के अनुभव से जीवन बड़ा है। जब जीवन ही नहीं, तो अनुभव किसके लिए।

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About Shyam Bihari Shyamal

Chief Sub-Editor at Dainik Jagaran, Poet, the writer of Agnipurush and Dhapel.
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