दिनेश्‍वर प्रसाद का स्‍मरण


    
दिनेश्‍वर प्रसाद  : जल जैसी तरल
अटल और अकाट्य प्रतिभा
आज जबकि दिनेश्‍वर बाबू के निधन का समाचार सामने है, यह आकलन करना कम रोमांचक नहीं कि कैसे बेबाक डंकाठोंक वक्‍ता गुरु के वह ऐसे सरल, मृदुभाषी, विनयी शिष्‍य रहे। जैसे चट्टान के हृदय से फूटने वाला चमकता हुआ मीठा जल-स्रोत। गुरु और शिष्‍य, दोनों अपनी-अपनी तरह के विरल, अनूठे।
 संस्‍मरण 0 श्‍याम बिहारी श्‍यामल
डा. दिनेश्‍वर प्रसाद को जानने वालों में शायद ही कोई ऐसा मिले जो उनकी वि‍नम्रता का कायल न हुआ हो। नए से नए लेखक अथवा आयु-संवर्ग में पुत्र या पौत्र कोटि के व्‍यक्ति से भी मुखातिब होते हुए वह वैसी ही नवनीत कोमलता से पेश होते। कुछ यों जैसे अपने किसी सम्‍मान्‍ानीय व्‍यक्‍ति‍त्‍व से ही मिल रहे हों। इसके समानान्‍तर  जिन लोगों को उन्‍हें कभी हि‍न्‍दी के विख्‍यात साहित्‍येतिहासकार डा. रामखेलावन पाण्‍डेय के समक्ष देखने का अवसर मिला हो, वे ही समझ सकते हैं कि‍ अपने गुरु के सामने वह कैसे जल से वायु हो जाते थे। शिष्‍य-भाव की पराकाष्‍ठा में पहुंचकर स्‍वयं को विलीन कर देने की तरह। 
     दिनेश्‍वर बाबू के साहित्‍य-विचार से अवगत व्‍यक्ति के लिए ऐसा कुछ देखना प्राय: हर बार रोमांचक अनुभव बनता। कहां तो वैचारिक रूप से ऐसा परिपुष्‍ट, अडिग-अडोल और दृढ़ आलोचक और व्‍यक्तिगत जीवन में कैसे विरल सरल विनयी शख्‍स। प्रसंगवश यहां यह उल्‍लेख होना चाहिए कि डा. रामखेलावन पाण्‍डेय ने दशकों पहले जो ' हि‍न्‍दी साहित्‍य का नया इतिहास ' लिखा, वह अपनी दृष्टि, व्‍याख्‍या,  स्‍थापना और भाषा-शैली के मामले में आज भी अनूठा है।  इसमें उन्‍होंने हिन्‍दी साहित्‍य के काल-विभाजन के तमाम प्रचलित नाम तक नकार दिए और पुष्‍ट तर्कों के आधार पर उन्‍हें बदल डाला था। मसलन, उन्‍होंने 'वीरगाथा काल' को यह कहकर अस्‍वीकृत किया कि‍ जिस युग में कविता साढ़े तीन हाथ ( स्‍त्री-देह ) की परिक्रमा में लीन रही हो, उसे वीरगाथा काल कैसे कहा जाए ? 
    लिखने ही नहीं बोलने में भी डा. पाण्‍डेय की भाषा-शैली की तराश-खरास देखते बनती। उन्‍हें सुनना वस्‍तुत: लिखित वाक्‍यों को कानों से पढ़ने जैसा अनुभव देता। उच्‍चारण के साथ ही बोले जा रहे वाक्‍य के कॉमा से लेकर फुलस्‍टॉप तक तमाम विरामचिह्न भी जैसे आंखों के सामने लहरा उठते। और, इस भाषा-तराश के समानान्‍तर भाव-खरास कुछ यों कि‍ जिसे निशाने पर लेते उसे एकदम जैसे धो डालते। उनकी असहमति में उग्रता संबोधित व्‍यक्‍ति‍ के लिए तो कैसी सह्य होती इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सामान्‍य श्रोता भी इससे जैसे विचि‍लत हो उठता...। ऐसे गुरु के शिष्‍य होकर भी दिनेश्‍वर व्‍यवहार में उनके सर्वथा विपरीत। गुरु-शिष्‍य का एक प्रसंग यहां स्‍मरणीय है।
     ...बात है अस्‍सी के दशक की। अवसर था अपने समय के विवादास्‍पद उपन्‍यास ' घेरे के बाहर ' के चर्चित कथाकार द्वारि‍का प्रसाद के सम्‍मान में संगोष्‍ठी का। रांची के अपर बाजार क्षेत्र स्‍थि‍त बड़ालाल स्‍ट्रीट में दैनि‍क रांची एक्‍सप्रेस के कार्यालय भवन में छत पर आयोजन। दरअसल, उसी दिन द्वारिका प्रसाद को ' राधाकृष्‍ण पुरस्‍कार ' ( प्रेमचन्‍द युगीन प्रख्‍यात व्‍यंग्‍य लेखक राधाकृष्‍ण की स्‍मृति में दैनिक रांची एक्‍सप्रेस की ओर से लगभग तीन दशक से हर साल दिया जाने वाला साहित्यिक सम्‍मान ) प्रदान किया गया था। स्‍वाभाविक रूप से वहां वह ( द्वारिका प्रसाद ) भी उपस्थित थे। दिनेश्‍वर बाबू ने आरम्‍भ में ही विषय-प्रवर्तन के अंदाज में ऐसा कुछ कह डाला जिसका लब्‍बोलुआब यह कि हिन्‍दी साहित्‍य में द्वारिका प्रसाद जैसे विख्‍यात कथाकार की उपेक्षा की गई है। इसी क्रम में  उन्‍होंने डा. पाण्‍डेय की ओर संकेत करते हुए ऐसा कुछ भी कहा- ''... इसी शहर ( रांची ) में रहते हुए गुरुदेव ने 'हिन्‍दी साहित्‍य का नया इतिहास'  लिखा किंतु इसमें भी द्वारिका प्रसाद का उल्‍लेख नहीं...''। 
     न्‍य वक्‍ताओं ने भी इसी स्‍वर में द्वारिका प्रसाद के एक-एक कर कई उपन्‍यासों पर प्रकाश डालते हुए उनकी प्रशंसा और उपेक्षा की बातें जारी रखी। अंत में अचानक संगोष्‍ठी  का जैसे पूरा रंग ही उस समय उलटकर रह गया जब  डा. पाण्‍डेय ने अपना अध्‍यक्षीय भाषण शुरू किया। उन्‍होंने जो कहा उसका तात्‍पर्य कुछ यों- ''...मुझे आश्‍चर्य है कि दिनेश्‍वर वर्षों से मेरे 'इतिहास' को विश्‍वविद्यालय में छात्रों को भला पढ़ा कैसे रहा है जबकि आज तो यही लगा कि उसने इसकी भूमिका तक ठीक से नहीं पढ़ी... भूमिका में साफ लिखा गया है कि इस ( इतिहास ) में  बहुत सारे लेखकों को उनके नाम नहीं दिखेंगे। ऐसे लेखकों को यह कत्‍तई नहीं समझना चाहिए कि उनका नाम कि‍सी तरह छूट गया है... उन्‍हें यह ठीक से समझ लेना चाहिए कि उनका नाम छूटा नहीं बल्कि छोड़ दिया गया है...''। सभा सन्‍न। पराकाष्‍ठा तो तब शुरू हुई जब डा. पाण्‍डेय ने यह कहते हुए आगे कहा - ''...इतिहास में द्वारिका प्रसाद का उल्‍लेख जाए इसके लिए मैंने महीनों बर्बाद किए, उनके तमाम उपन्‍यास पढ़े लेकिन अफसोस कि आखिर मैं हिन्‍दी साहित्‍य का इतिहास लि‍ख रहा था, कूड़े-कर्कट का नहीं...''
     दा सहज रहने वाले दिनेश्‍वर बाबू को देखने वालों ने उसी दिन कुछ असहज देखा। लेकिन, गुरु तो गुरु... और टिप्‍पणी भी बाकायदा अध्‍यक्षीय पीठ से। उन्‍होंने ही नहीं, किसी ने भी इस पर आगे कुछ नहीं कहा। कहने के लिए बचा भी क्‍या था। आज जबकि दिनेश्‍वर बाबू के निधन का समाचार सामने है, यह आकलन करना कम रोमांचक नहीं कि कैसे बेबाक डंकाठोंक वक्‍ता गुरु के वह ऐसे सरल, मृदुभाषी, विनयी शिष्‍य रहे। जैसे चट्टान के हृदय से फूटने वाला चमकता हुआ मीठा जल-स्रोत। गुरु और शिष्‍य, दोनों अपनी-अपनी तरह के विरल, अनूठे। ...उन्‍हें श्रद्धांजलि।
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About Shyam Bihari Shyamal

Chief Sub-Editor at Dainik Jagaran, Poet, the writer of Agnipurush and Dhapel.
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