आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री, अंगुली उठाये प्रश्नवाचक मद्रा में। ( चित्र : साभार गूगल ) |
जानकी वल्लभ शास्त्री की घनघोर उपेक्षा हिन्दी आलोचना के नाम दर्ज एक ऐसा अभियोग है, जिसकी बाजाप्ता किसी आपराधिक मामले की तरह पड़ताल होनी चाहिए। क्यों एक रचनाकार को आठ दशक से भी अधिक समय तक सामने से नकारा जाता रहा ? और, किस 'उदारता' के तहत निधन के बाद उन्हें अचानक इतना बड़ा मान लिया गया ? यह मामला वस्तुत: हिन्दी आलोचना के माथे पर पुता एक ऐसा काला कलंक है जिसे धोने के लिए कई-कई नदियों का जल भी कम होगा।
महाकवि के महाप्रयाण का एक साल
आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री के महाप्रयाण ( 07 अप्रैल 2011 ) का एक साल पूरा हुआ। वह उत्तर छायावाद के सबसे बड़े कवि तो हैं ही, हमारी भाषा के दुर्लभ गद्यकार भी। उन्होंने सभी विधाओं में विपुल साहित्य निर्मित किया है। उनके लेखन के आरम्भ-काल की एक घटना हिन्दी साहित्य के इतिहास का एक यादगार संदर्भ है। युवा जानकी वल्लभ बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में छात्र थे। इसी दौरान उनकी एक रचना पढ़कर स्वयं महाकवि निराला उनसे मिलने काशी आए...। यह तथ्य है कि स्वयं निराला ने ही उन्हें प्रेरित कर संस्कृत से हिन्दी में लेखन को प्रवृत किया।
जानकीवल्लभ शास्त्री ने कविता में महत्वपूर्ण लेखन तो किया ही, गद्य की सभी विधाओं में व्यापक कार्य किया। आत्मकथा साहित्य में उनकी 'हंसबलाका' और उपन्यास विधा में 'कालिदास' अनूठी कृतियां हैं। 'स्मृति के वातायन' में संकलित उनके संस्मरण बेजोड़ हैं। उनके जैसा सान्द्र-तरल गद्य हिन्दी में किसी दूसरे के पास नहीं। यह सत्य है कि उनके विपुल व मौलिक गद्य साहित्य को तो सिरे से अनदेखा किया गया है। सभी स्तरों पर उनकी जिस तरह घोर उपेक्षा हुई है, यह हिन्दी साहित्येतिहास की एक विचित्र घटना है।
एक ज्येष्ठ साहित्यकार लगातार आठ दशक तक लगातार मूल्यवान लेखन-अवदान देता रहा किंतु उसे पूरा आलोचक समदाय मुंह सिले टुकुर-टुकुर ताकता रहा। जब छियान्बे साल की प्रदीर्घ अवस्था जी लेने के बाद जानकीवल्लभ विदा हुए तो दिल्ली में जुटे हमारे साहित्य के अग्रणी नामचीनों में किसी ने उन्हें ' रवीन्द्रनाथ टैगोर और निराला की परम्परा का अंतिम गीतकार ' घोषित किया तो किसी ने उनके साहित्य को मूल्यवान बताते हुए ' मूल्यांकन की आवश्यकता ' जताई।
हिन्दी की मुर्दा आलोचना का यह प्रेत-प्रलाप कितना त्रासद है, यह कहने की आवश्यकता नहीं। क़ायदे से देखें, तो जानकी वल्लभ शास्त्री की घनघोर उपेक्षा हिन्दी आलोचना के नाम दर्ज एक ऐसा अभियोग है, जिसकी बाजाप्ता किसी आपराधिक मामले की तरह पड़ताल होनी चाहिए। क्यों एक रचनाकार को आठ दशक से भी अधिक समय तक सामने से नकारा जाता रहा... और, किस 'उदारता' के तहत निधन के बाद अचानक इतना बड़ा मान लिया गया ?
यह मामला वस्तुत: हिन्दी के माथे पर पुता एक ऐसा काला कलंक है जिसे धोने के लिए कई-कई नदियों का जल भी कम होगा।
बहरहाल, यहां श्रद्धांजलि के रूप में उनकी कुछ रचनाएं...
वयोवृद्ध जानकीवल्लभ शास्त्री, काव्य-पाठ की दुर्लभ मुद्रा में। (चित्र: साभार गूगल) |
जानकी वल्लभ शास्त्री की कविताएं
सांध्यतारा क्यों निहारा जायेगा
सांध्यतारा क्यों निहारा जायेगा ।
और मुझसे मन न मारा जायेगा ॥
विकल पीर निकल पड़ी उर चीर कर,
चाहती रुकना नहीं इस तीर पर,
भेद, यों, मालूम है पर पार का
धार से कटता किनारा जायेगा ।
चाँदनी छिटके, घिरे तम-तोम या
श्वेत-श्याम वितान यह कोई नया ?
लोल लहरों से ठने न बदाबदी,
पवन पर जमकर विचारा जायेगा ।
मैं न आत्मा का हनन कर हूँ जिया
औ, न मैंने अमृत कहकर विष पिया,
प्राण-गान अभी चढ़े भी तो गगन
फिर गगन भू पर उतारा जायेगा ।
('उत्पल दल')
और मुझसे मन न मारा जायेगा ॥
विकल पीर निकल पड़ी उर चीर कर,
चाहती रुकना नहीं इस तीर पर,
भेद, यों, मालूम है पर पार का
धार से कटता किनारा जायेगा ।
चाँदनी छिटके, घिरे तम-तोम या
श्वेत-श्याम वितान यह कोई नया ?
लोल लहरों से ठने न बदाबदी,
पवन पर जमकर विचारा जायेगा ।
मैं न आत्मा का हनन कर हूँ जिया
औ, न मैंने अमृत कहकर विष पिया,
प्राण-गान अभी चढ़े भी तो गगन
फिर गगन भू पर उतारा जायेगा ।
('उत्पल दल')
कितना निठुर यह उपहास
कितना निठुर यह उपहास !
जो अजाने ही गया, वह था मधुर मधुमास !
कितना निठुर यह उपहास !!
अश्रु-'कण' कहकर जिसे
जो अजाने ही गया, वह था मधुर मधुमास !
कितना निठुर यह उपहास !!
अश्रु-'कण' कहकर जिसे
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- मैंने बहाया हाय !
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सूक्ष्म रूप धरे वही था -
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- हृदयहारी हास !
- कितना निठुर यह उपहास !
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स्वप्न-सुख की आस में
सोया रहा दिन-रात,
वह गया नित लौट -
शत-शत बार आकर पास !
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- कितना निठुर यह उपहास !
- ('रूप-अरूप)
किसने बाँसुरी बजाईजनम-जनम की पहचानी वह तान कहाँ से आई !
किसने बाँसुरी बजाई
अंग-अंग फूले कदंब साँस झकोरे झूले
सूखी आँखों में यमुना की लोल लहर लहराई !
किसने बाँसुरी बजाई
जटिल कर्म-पथ पर थर-थर काँप लगे रुकने पग
कूक सुना सोए-सोए हिय मे हूक जगाई !
किसने बाँसुरी बजाई
मसक-मसक रहता मर्मस्थल मरमर करते प्राण
कैसे इतनी कठिन रागिनी कोमल सुर में गाई !
किसने बाँसुरी बजाई
उतर गगन से एक बार फिर पी कर विष का प्याला
निर्मोही मोहन से रूठी मीरा मृदु मुस्काई !
किसने बाँसुरी बजाईमेरा नाम पुकार रहे तुममेरा नाम पुकार रहे तुम,
अपना नाम छिपाने को !
- सहज-सजा मैं साज तुम्हारा-
- दर्द बजा, जब भी झनकारा
पुरस्कार देते हो मुझको,
अपना काम छिपाने का !
- मैं जब-जब जिस पथ पर चलता,
- दीप तुम्हारा दिखता जलता,
मेरी राह दिखा देते तुम,
अपना धाम छिपाने को !- यह पीर पुरानी होयह पीर पुरानी हो !
मत रहो हाय, मैं, जग में मेरी एक कहानी हो ।
मैं चलता चलूँ निरन्तर अन्तर में विश्वास भरे,
इन सूखी-सूखी आँखों में, तेरी ही प्यास भरे,
मत पहुँचु तुझ तक, पथ में मेरी चरण-निशानी हो ।
दूँ लगा आग अपने हाँथों, मिट्टी का गेह जले,
पल भर प्रदीप में तेरे मेरा भी तो स्नेह जले,
जल जाये मेरा सत्य, अमर मेरी नादानी हो ।
वह काम करूँ ही नहीं, न हो जिससे तेरी अर्चा,
वह बात सुनूँ ही नहीं, न हो जिसमें तेरी चर्चा,
जग उँगली उठा कहे : कोई ऐसा अभिमानी हो ।
('तीर-तरंग)जानकी वल्लभ शास्त्री, अपने प्रियपात्रों ( श्वान-बिल्ली) के संग। ( चित्र: साभार गूगल)
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आचार्यवर को सादर नमन! विनम्र श्रद्धांजलि। मेरे प्रेरक रहे हैं।
जवाब देंहटाएंबंधुवर मनोज जी, जानकर प्रसन्नता हुई कि महाकवि जानकीवल्लभ शास्त्री से आपका भी भावनात्मक जुड़ाव है। वह हमारे साहित्य के महानतम व्यक्तित्व हैं। सदा हमारे हृदयों में विद्यमान रहेंगे...
जवाब देंहटाएंआपकी बातों से बिलकुल सहमत। साहित्य की राजनीति ने उन्हें जो मिलना चाहिए था, न देने दिया। पर हमें उनके उचित स्थान के लिए संघर्ष करना चाहिए।
हटाएंगला काट प्रतिस्पर्धा साहित्य मे देखकर घृणा होती है ।
जवाब देंहटाएंशास्त्री जी को मै १९८० से जनता हूं
उपर उपर पी जाते है जो पीने वाले है
कहते है ऎसेही जीते है जो जीने वाले है
एक महान कवि थे बिहार की विभुति है धन्यवाद ।
बंधुवर शिवशम्भु जी... कला-प्रतिभा और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में नेपथ्य का यह एक क्रूर सत्य है.. लेकिन लौ के नीचे हिलती काली परछाईं को देखकर रोशनी की क्षमता-सार्थकता पर संदेह करने की आवश्यकता नहीं.. जानकर अच्छा लगा कि महाकवि जानकीवल्लभ को 1980 से ही जानते हैं। ..सादर
जवाब देंहटाएंसाहित्यकार की तो हमेशा उपेक्षा की जाती रही है ...शायद मान उनको जीवन के अंतिम पलो me मिलती है ...यही कारण उनकी लेखनी को धार व और धार बढाती है ....दुनिया जाने के बाद ही समझ पाती है ...और प्रत्यक्ष से महरूम हो जाती है .मेरा नाम पुकार रहे तुम.....
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा
दिव्य आत्मा को नमन करता हूँ..