स्मृति में कृति
महेन्द्र मिश्र जैसा महान कलाकार मुफलिसी को सहजता से कुबूल करने को तैयार नहीं था इसलिए भटक गया... एक कलाकार या रचनाकार को अपनी कला-प्रतिष्ठा के लिए किस हद तक व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं की इच्छा का गला घोंटते चलना चाहिए ? क्या अपनी कला-प्रतिष्ठा के लिए कलाकार को हर हाल में सिर झुकाकर मुफलिसी ही कुबूल कर लेनी चाहिए ? ...'फुलसुंघी' को पूरा करते-करते ऐसे कई सवाल हैं जो कानों में गूंजने लगते हैं।
पटने की वह गमगमाती हुई शाम
श्याम बिहारी श्यामल
अस्सी के दशक में पटना की एक शाम स्मृतियों में आज भी अपनी पूरी चमक के साथ टंगी हुई है। सुगंध-स्मृतियां समेटे। ...भोजपुरी ( हिन्दी में भी सृजनरत ) के अग्रणी रचनाकारद्वय कृष्णानंद कृष्ण जी और भगवती प्रसाद द्विवेदी के साथ मैं पहुंचा था प्रख्यात उपन्यासकार पाण्डेय कपिल के घर। 'फुलसुंघी' के रचनाकार को सामने देखने की प्रसन्नतासिक्त बेचैन जिज्ञासा के साथ। ...तब से कुछ ही समय पहले भोजपुरी की इस महान कृति को पढ़ते हुए अनोखे गीतकार महेन्द्र मिश्र के जीवन-संघर्ष को सामने धधकती ज्वाला की तरह अनुभूत किया था। अब तो इसे पढ़े दो क्या, तीन दशक भी पूरा हो चला है, किंतु इस अविस्मरणीय कृति की झमक मस्तिष्क मंडल में आज भी कायम है। बेजोड़ रचना।
संभव है, स्मृति कुछ भटके ( कुछ गलत हो तो जानकार मित्र कृप्या संशोधन अवश्य करें ) किंतु कथानक कुछ यों ...नायक ( यानि भोजपुरी के गीतकार महेन्द्र मिश्र ) एक महान रचनाकार है लेकिन जीवन के मोर्चे पर आपराधिक कृत्य से जुड़ा एक विवश व्यक्ति। ...विडंबना देखिए कि जिस व्यक्ति की रचनाएं हज़ारों-हज़ार लोगों को लट्टू की तरह नचाती चल रही हों, उस पर पुलिस को नकली नोट छापने का धंधा चलाने का शक है। पुलिस उसकी जासूसी कर रही है। अनेक स्तरों पर।
...इसी क्रम में अंतत: एक जासूस नौकर बनकर नायक के यहां प्रवेश कर जाता है। सेवक बनकर वह साथ रहने और जासूसी करने लगा।... अद्भुत चित्रण। ...और, अंतत: भंडाफोड़ होकर रहता है। एक महान रचनाकार की सामान्यत: लगभग अज्ञात विकृत छवि सामने आती है उसकी गिरफ्तारी के साथ। ...लेकिन हद यह कि उसके गीतों के दीवानों का राग कम होने के बजाय, छेड़ी जाने वाली आग की तरह भड़कता दिखने लगता है...
...उपन्यास को पूरा करते हुए पाठक के सामने एक ऐसे समाज का सच सामने रह जाता है जहां एक बड़े रचनाकार को सुख-सुविधा की चाह में अपराध का सहारा लेना पड़ा... बेशक नायक की विकृत सोच-दृष्टि सामने आती है किंतु इसके साथ ही उस समाज का चेहरा भी बेपर्द होता है जो अपने कलाकार-समुदाय को आर्थिक संरक्षण देने के मोर्चे पर अक्सर असहाय दिखता आया है।
...महेन्द्र मिश्र जैसा महान कलाकार मुफलिसी को सहजता से कुबूल करने को तैयार नहीं था इसलिए भटक गया... एक कलाकार या रचनाकार को अपनी कला-प्रतिष्ठा के लिए किस हद तक व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं की इच्छा का गला घोंटते चलना चाहिए ? क्या अपनी कला-प्रतिष्ठा के लिए कलाकार को हर हाल में सिर झुकाकर मुफलिसी ही कुबूल कर लेनी चाहिए ? ...'फुलसुंघी' को पूरा करते-करते ऐसे कई सवाल हैं जो कानों में गूंजने लगते हैं। महेन्द्र मिश्र के जीवन का दूसरा पक्ष कितना स्वाभाविक है या कितना गलत, इस पर बहस होती रही है, होनी चाहिए, होती भी रहेगी...। लेकिन, जहां तक इस कृति का संदर्भ है, बड़ी बात यह कि पूरे संदर्भ-विस्तार को रचते हुए उपन्यासकार ने तथ्यों की प्रामाणिकता, उनके प्रति अपेक्षित संजीदगी और इन सबके समानांतर एक रचनाकार की संवेदना-निर्मिति के क्रमश: निर्वहन को पूरे उपन्यास में अद्भुत समन्वय-दक्षता के साथ साधा है।... सचमुच बड़ी कृति।
पटना के टेलीफोन भवन कैंटीन में 21.10.11 को भगवती प्रसाद द्विवेदी के साथ लेखक। |
पटना, टेलीफोन भवन कैंटीन : 21.10.11 को मुसाफिर बैठा, श्यामल और भगवती जी |
मिल जुल कर कम से कम इस ऑन लाइन तो प्रकाशित किया जा सकता है .
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