सवाल है कि जब 'हिन्दू हैं और बने भी रहना चाहते हैं' तो इस पर फिर संकोच क्यों और कैसा ? क्या यह मामूली विरोधाभास है ? अव्वल तो यही कि दोनों में फर्जी कौन है, संकोच या हिन्दू बने रहने की इच्छा ? यह टिप्प्णी निश्चय ही इतना अहसास कराती है कि आरएसएस या ऐसे दूसरे किसी संगठन के प्रति अज्ञेय के मन में उस समय कोई झुकाव नहीं रहा होगा, किंतु गौर करने की बात यह भी कि उन्होंने जिस तरह दो टूक शब्दों में 'हिन्दू हैं और बने रहना चाहते हैं' घोषित किया है, यह उनकी खास मानसिकता का भी संकेत है। यहां ज्ञान की सार्वभौमिकता की बातें दुहराते हुए उन्होंने एक वाक्य भी उदार मानवतावाद की वकालत में नहीं कहा है, क्या यह यों ही है या महज संयोगवश ऐसा हुआ है?
अज्ञेय का स्वीकार-विकार
श्याम बिहारी श्यामल
अज्ञेय जी की विडम्बना यह है कि वह देश-दुनिया के दृश्य-परिदृश्य तो ठीक से समझते-समझाते रहे कितु उनकी स्वयं की जीवन के प्रति राजनीतिक दृष्टि लगातार भ्रम का शिकार व्यक्त होती रही। ' मोहल्ला लाइव' में 20 मार्च 2012 को उनकी जो पुरानी संपादकीय टिप्पणी '' राष्ट्रीयता के लिए हमेशा खतरा रहेगा रा. स्वयंसेवक संघ '' ( 'दिनमान', 08 दिसंबर 1968 का संपादकीय ) लगी है जिसे लहराते हुए मॉडेरेटर अविनाश ने उन्हें आरएसएस-विरोधी घोषित किया है और उन पर अंगुली उठाने वालों को सधे ढंग से निशाने पर लिया है, यह छोटा-सा आलेख भी उनके विराट वैचारिक संभ्रम-संसार की ही झलक खोल रहा है।
इसी टिप्पणी का यह अंश देखिए, '' ...इन पंक्तियों के लेखक को अपने को हिंदू मानने में न केवल संकोच है, वरन वह इस पर गर्व भी करता है; क्योंकि इस नाते वह मानव की श्रेष्ठ उपलब्धियों के एक विशाल पुंज का उत्तराधिकारी होता है। उस संपत्ति को वह खोना, बिखरने या नष्ट होने देना, या उसका प्रत्याख्यान करना नहीं चाहता।...'' लेकिन तुरंत इसी के बाद के यानि अगले ही वाक्य में उनका यह 'स्वयं को हिन्दू मानने का संकोच' कैसी परिणति पा रहा है, इसे भी देख लीजिए, '' ...इसके बावजूद वह – और वैसा ही सोचने वाले अनेक प्रबुद्धचेता हिंदू – राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सरगर्मियों को अहितकर मानते हैं तो इसलिए नहीं कि वे हिंदू-द्वेषी या हिंदू धर्म द्वेषी हैं, वरन इसीलिए कि वे हिंदू हैं और बने रहना चाहते हैं। ''
सवाल है कि जब 'हिन्दू हैं और बने भी रहना चाहते हैं' तो इस पर फिर संकोच क्यों और कैसा ? क्या यह मामूली विरोधाभास है ? अव्वल तो यही कि दोनों में फर्जी कौन है, संकोच या हिन्दू बने रहने की इच्छा ?
इसी टिप्पणी का यह अंश देखिए, '' ...इन पंक्तियों के लेखक को अपने को हिंदू मानने में न केवल संकोच है, वरन वह इस पर गर्व भी करता है; क्योंकि इस नाते वह मानव की श्रेष्ठ उपलब्धियों के एक विशाल पुंज का उत्तराधिकारी होता है। उस संपत्ति को वह खोना, बिखरने या नष्ट होने देना, या उसका प्रत्याख्यान करना नहीं चाहता।...'' लेकिन तुरंत इसी के बाद के यानि अगले ही वाक्य में उनका यह 'स्वयं को हिन्दू मानने का संकोच' कैसी परिणति पा रहा है, इसे भी देख लीजिए, '' ...इसके बावजूद वह – और वैसा ही सोचने वाले अनेक प्रबुद्धचेता हिंदू – राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सरगर्मियों को अहितकर मानते हैं तो इसलिए नहीं कि वे हिंदू-द्वेषी या हिंदू धर्म द्वेषी हैं, वरन इसीलिए कि वे हिंदू हैं और बने रहना चाहते हैं। ''
सवाल है कि जब 'हिन्दू हैं और बने भी रहना चाहते हैं' तो इस पर फिर संकोच क्यों और कैसा ? क्या यह मामूली विरोधाभास है ? अव्वल तो यही कि दोनों में फर्जी कौन है, संकोच या हिन्दू बने रहने की इच्छा ?
यह टिप्प्णी निश्चय ही इतना अहसास कराती है कि आरएसएस या ऐसे दूसरे किसी संगठन के प्रति अज्ञेय के मन में उस समय कोई झुकाव नहीं रहा होगा, किंतु गौर करने की बात यह भी कि उन्होंने जिस तरह दो टूक शब्दों में 'हिन्दू हैं और बने रहना चाहते हैं' घोषित किया है, यह उनकी खास मानसिकता का भी संकेत है। यहां ज्ञान की सार्वभौमिकता की बातें दुहराते हुए उन्होंने एक वाक्य भी उदार मानवतावाद की वकालत में नहीं कहा है, क्या यह यों ही है या महज संयोगवश ऐसा हुआ है?
प्रश्न तो यह भी है कि जो व्यक्ति स्वयं को किसी जाति या धर्म की सीमा में रखने पर इस तरह दमदारी के साथ आमादा हो, उसके संबंधित जाति या धर्म के संकुचन में धंसने की आशंका से कोई कैसे और कब तक इनकार कर सकता है ? यह वस्तुत: मनोवैज्ञानिक विश्लेषण का विषय है कि कोई व्यक्ति जाति या धर्म की मानसिक सीमा में स्वयं को बांधे रखकर भी क्या सचमुच कभी 'उदार विश्व-मानव' बन सकता है ? क्या सचमुच ऐसा संभव है कि एक ही समय में गाल भी फुलाए रखे जाएं और हंस भी लिया जाए? क्या हिन्दू बने रहने की दृढ़ इच्छा के रूप में व्यक्त यह प्रत्यक्ष तथ्य उनकी किसी उलझी-अनखुली मनोग्रंथि का संकेतक नहीं ?
जहां तक अज्ञेय को लेकर कुछ लोगों के 'इधर समझदार होने' की मॉडरेटर की व्यंग्योक्ति का सवाल है, कहना चाहिए कि यह जल्दबाजी में किए आकलन से उपजी मानसिकता का रोष-वमन भर है। इसे इस रूप में भी समझा जा सकता है कि साहित्य में कोई भी विश्लेषण या स्थापना अंतिम अदालती फैसला नहीं। किसी रचनात्मक प्रयास को भी कोई अंतिम तौर पर समझ लेने का कभी दावा नहीं कर सकता। इसीलिए रचनाओं पर उनके मूल आयतन से कई गुणा अधिक विश्लेषण सामग्री आ चुकने के बावजूद हमेशा-हमेशा कुछ न कुछ नया कहने की गुंजाइश और आवश्यकता बनी रहती या महसूस की जाती रही है।
महान कृतियों पर तो दुनिया भर में प्रतिदिन चर्चा होती रहती है और किसी न किसी कोने में रोज कुछ न कुछ मौलिक विश्लेषण भी होता रहता है। अपने ही यहां कौन ऐसा दिन होगा जब सात दशक से भी पहले छपे 'गोदान' और 'कामायनी' पर कहीं न कहीं पढ़ाता हुआ कोई शिक्षक किसी कक्षा अथवा बोलता हुआ कोई विचारक किसी गोष्ठी-सेमिनार में कुछ न कुछ नव्य या नई-जैसी स्थापना भी पेश न कर देता हो।
जल के पेय न होने का तर्क देकर सागर के अस्तित्व को एकबारगी नकार नहीं दिया जाता। दृष्टांतीय या अलंकरणीय भर मानें तब भी उसके आकार-प्रकार का अलग से महत्व है। इतर बहुस्तरीय उपयोग भी। उसी तरह अज्ञेय का रचना-संसार विपुल है। तमाम विरोध-विरोधाभासों या कमी-बेशियों-असहमतियों के बावजूद यह किसी भी तरह पूर्णत: त्याज्य या खारिज कर देने लायक तो कदापि नहीं।
अपनी किसी भी सीमा में घिरे होने के बावजूद अज्ञेय ने जीव-जगत की इतने जीवन-परिदृश्य और मानव-संवेदना के इतने विविध रूप चित्रित किए हैं कि उनके रचनाकार का शब्द-योगदान असाधारण हो गया है। वह नि:संदेह हमारे बड़े रचनाकार हैं बल्कि इसीलिए उन पर बार-बार विचार होता रहा है। कसौटियां बदल-बदल कर मूल्यांकन अभियान चलते रहे हैं। चलने भी चाहिए। इसका अभिप्रेय संभवत: यह भी कि उनके रचनात्मक योग के बारे में कोई उदार आलोचना-दृष्टि भी विकसित हो।
यों भी शताब्दी मनाने के अवसर पर संबंधित ज्येष्ठ रचनाकार के त्याज्य पक्ष को धिक्कारने के मुकाबले उसके स्वीकार्य को सराहना सभ्यता का तकाजा है। इसके लिए किसी बड़े विचारक पर स्वर बदलने का आरोप लगाना या संदेह जताते हुए चलताऊ ढंग से तंज कसना जिम्मेवार व्यवहार तो कदापि नहीं।
प्रश्न तो यह भी है कि जो व्यक्ति स्वयं को किसी जाति या धर्म की सीमा में रखने पर इस तरह दमदारी के साथ आमादा हो, उसके संबंधित जाति या धर्म के संकुचन में धंसने की आशंका से कोई कैसे और कब तक इनकार कर सकता है ? यह वस्तुत: मनोवैज्ञानिक विश्लेषण का विषय है कि कोई व्यक्ति जाति या धर्म की मानसिक सीमा में स्वयं को बांधे रखकर भी क्या सचमुच कभी 'उदार विश्व-मानव' बन सकता है ? क्या सचमुच ऐसा संभव है कि एक ही समय में गाल भी फुलाए रखे जाएं और हंस भी लिया जाए? क्या हिन्दू बने रहने की दृढ़ इच्छा के रूप में व्यक्त यह प्रत्यक्ष तथ्य उनकी किसी उलझी-अनखुली मनोग्रंथि का संकेतक नहीं ?
जहां तक अज्ञेय को लेकर कुछ लोगों के 'इधर समझदार होने' की मॉडरेटर की व्यंग्योक्ति का सवाल है, कहना चाहिए कि यह जल्दबाजी में किए आकलन से उपजी मानसिकता का रोष-वमन भर है। इसे इस रूप में भी समझा जा सकता है कि साहित्य में कोई भी विश्लेषण या स्थापना अंतिम अदालती फैसला नहीं। किसी रचनात्मक प्रयास को भी कोई अंतिम तौर पर समझ लेने का कभी दावा नहीं कर सकता। इसीलिए रचनाओं पर उनके मूल आयतन से कई गुणा अधिक विश्लेषण सामग्री आ चुकने के बावजूद हमेशा-हमेशा कुछ न कुछ नया कहने की गुंजाइश और आवश्यकता बनी रहती या महसूस की जाती रही है।
महान कृतियों पर तो दुनिया भर में प्रतिदिन चर्चा होती रहती है और किसी न किसी कोने में रोज कुछ न कुछ मौलिक विश्लेषण भी होता रहता है। अपने ही यहां कौन ऐसा दिन होगा जब सात दशक से भी पहले छपे 'गोदान' और 'कामायनी' पर कहीं न कहीं पढ़ाता हुआ कोई शिक्षक किसी कक्षा अथवा बोलता हुआ कोई विचारक किसी गोष्ठी-सेमिनार में कुछ न कुछ नव्य या नई-जैसी स्थापना भी पेश न कर देता हो।
जल के पेय न होने का तर्क देकर सागर के अस्तित्व को एकबारगी नकार नहीं दिया जाता। दृष्टांतीय या अलंकरणीय भर मानें तब भी उसके आकार-प्रकार का अलग से महत्व है। इतर बहुस्तरीय उपयोग भी। उसी तरह अज्ञेय का रचना-संसार विपुल है। तमाम विरोध-विरोधाभासों या कमी-बेशियों-असहमतियों के बावजूद यह किसी भी तरह पूर्णत: त्याज्य या खारिज कर देने लायक तो कदापि नहीं।
अपनी किसी भी सीमा में घिरे होने के बावजूद अज्ञेय ने जीव-जगत की इतने जीवन-परिदृश्य और मानव-संवेदना के इतने विविध रूप चित्रित किए हैं कि उनके रचनाकार का शब्द-योगदान असाधारण हो गया है। वह नि:संदेह हमारे बड़े रचनाकार हैं बल्कि इसीलिए उन पर बार-बार विचार होता रहा है। कसौटियां बदल-बदल कर मूल्यांकन अभियान चलते रहे हैं। चलने भी चाहिए। इसका अभिप्रेय संभवत: यह भी कि उनके रचनात्मक योग के बारे में कोई उदार आलोचना-दृष्टि भी विकसित हो।
यों भी शताब्दी मनाने के अवसर पर संबंधित ज्येष्ठ रचनाकार के त्याज्य पक्ष को धिक्कारने के मुकाबले उसके स्वीकार्य को सराहना सभ्यता का तकाजा है। इसके लिए किसी बड़े विचारक पर स्वर बदलने का आरोप लगाना या संदेह जताते हुए चलताऊ ढंग से तंज कसना जिम्मेवार व्यवहार तो कदापि नहीं।
bahut khoob shyam bihari shamal ji, gahre tarkon se aapne is aalochna ko bahut dumdaar bana diya hai, haardik dhanyawaad!!!!!!!!
जवाब देंहटाएंshayamal ji, aapki ye tippani kitni sateek hai magar adhiktar sahitykaar vipreet vichar wale vyakti ka negative paksh darshakar uski aalochna karne mein hi nimagna rahna pasand karte hain na ki uske positive paksh ko batate hue ant mein uske negative paksh per bhi tippani karte chalein visheshkar jab hum uski janmshati mana rahe hon
जवाब देंहटाएं"यों भी शताब्दी मनाने के अवसर पर संबंधित ज्येष्ठ रचनाकार के त्याज्य पक्ष को धिक्कारने के मुकाबले उसके स्वीकार्य को सराहना सभ्यता का तकाजा है। इसके लिए किसी बड़े विचारक पर स्वर बदलने का आरोप लगाना या संदेह जताते हुए चलताऊ ढंग से तंज कसना जिम्मेवार व्यवहार तो कदापि नहीं"
समर्थन-बल और सद्भावनाओं के लिए हार्दिक आभार बंधुवर एससी मुदगल जी...
हटाएंaapne bilkul sahi bat kahi shyamal ji, jal ke apey hone ko lekar sagar ko anupayogi nahi thaharaya ja sakta. is vakya ke sahare aapne gahari bat kah dali hai. behatar aalekha ke liye badhaee.
जवाब देंहटाएंसमर्थन-बल और सद्भावनाओं के लिए हार्दिक आभार बंधुवर संतोष जी...
हटाएं