प्रख्यात व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय मूल से सृजित चित्र |
प्रेम जनमेजय की धाक उधर
व्यंग्य लेखन से मजाक इधर
श्याम बिहारी श्यामल
हमारी भाषा के अग्रणी व्यंग्य हस्ताक्षर प्रेम जनमेजय जी का आज ( अठारह मार्च ) जन्मदिन
है। व्यंग्यकार यानि हर बात को व्यंजना के साथ कहने वाला रचनाकार। रचना-शैली का यह व्यंजन हमेशा कुरकुरा और नमकीन ही रहे, जरूरी नहीं लेकिन कभी सादा-सपाट नहीं होगा, यह तय है। अक्सर मिर्चझांस और तीखास-खटास की तो एकदम सौ फीसदी गारंटी। ऐसा लेखन-व्यवहार बरतने वाला व्यक्ति भला किसी की आंखों का तारा कैसे बन सकता है... उसका तो जिससे भी सीधे जुड़ाव होना है, आंख की किरकिरी वाली नियति तय है।
बघनक्खा कितने भी प्यार से फिरे, सामने आकर गाल, पीठ या माथा देने वाले का महाकाल बन कूद पड़ना या चढ़ बैठना तय है। कहना न होगा कि व्यंग्यकार को अपने एक-एक शब्द की कैसे पूरी कीमत चुकानी पड़ती है और ब्याज में पूरा खामियाजा भी भुगतना पड़ता है। संयोग यह देखिए कि हिन्दी साहित्य के अपने आंगन में व्यंग्य विधा को भी ऐसे ही कुछ व्यवहारों से दो-चार होना पड़ रहा है।
प्रसंगवश यहां कहना पड़ रहा है कि आधुनिक हिन्दी भाषा साहित्य
पत्रकारिता के जनक भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र की लेखनी से हमारे यहां
लगभग डेढ़ शताब्दी पहले ही निकली
व्यंग्य लेखन-धारा आज भी पतली धारा के तौर पर हमारे सामने प्रवहमान है,
अपने अच्छे दिनों की प्रतीक्षा में डूबी-खोई सी। ...कविता, कहानी से लेकर
उपन्यास आदि विधाओं में लगातार जिस रफ्तार से नई पीढि़यां देखी जा रही
हैं, उसकी तुलना में व्यंग्य विधा में नए रचनाकार बहुत कम आते दिख रहे
हैं।
इसका कारण है व्यंग्य के प्रति लेखकों में संशय की स्थिति। कोई यह
स्वीकारे या नहीं, एक सच्चाई तो यह है ही कि अनेक रचनाकार व्यंग्य विधा
में इसलिए सक्रिय होने से बचते हैं क्योंकि इसमें अगंभीर मान लिए जाने का
खतरा प्रत्यक्षत: सामने दिखता है। यह स्थिति बनी है इस विधा को उपेक्षित
रखने की आलोचकीय चालबाजियों के कारण। इसे इस अंदाज में उपेक्षित रखा गया है
जिससे यह अहसास व्यक्त होता रहता है गोया इसे अगम्भीर विधा माना जा रहा
हो ।
निश्चय ही यह रवैया और नजरिया अनुचित ही नहीं घोर निंदनीय है। हमारे
यहां व्यंग्य लेखकों की उल्लेखनीय पंक्ति में राधाकृष्ण, जीपी
श्रीवास्तव और हरिशंकर परसाई से लेकर श्रीलाल शुक्ल, शरद जोशी, गोपाल
चतुर्वेदी, गोपाल प्रसाद व्यास, किट्टू, शंकर पुणतांबेकर, प्रेम जनमेजय,
केपी सक्सेना और ज्ञान चतुर्वेदी आदि तक जैसे समृद्ध रचनाकारों का
व्यंग्य साहित्य भी अभी तक आलोचना के एक स्पर्श के लिए मोहताज बना हुआ
है।
हिन्दी साहित्य की अपनी दुनिया के भीतर व्यंग्य विधा की यह स्थिति
किसी क्रूर मजाक से कम नहीं... ... प्रेम जनमेजय जी के जन्मदिन पर यह
सवाल-संदर्भ उठाया जाना जरूरी लगा।... बहरहाल, आलोचना और उसकी जली-भुनी
उपेक्षा-नीति को एक फूंक से उड़ाते हुए अपने ज्येष्ठ रचनाकार को जन्मदिन
पर यहां पेश कर रहा हूं ताजा खिली सुगंधित अनन्त शुभकामनाएं... 00000
प्रख्यात व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय, अपने व्यंग्य चित्र से मंत्रणा के मूड में। साभार गूगल |
मेरा नाम प्रेम है, प्रेम चोपड़ा नहीं। साहित्य में जीवंतता शाश्र्वत तत्वों से आती है। सनसनी से नहीं। आप कई बार प्रसिद्ध लोगों से यह सीखते है कि क्या करना है और कई बार यह सीखतें है क्या नहीं करना है। इस मामले में क्या नही करना वाली लाइन पर ही मैं चला। हमने सोचा चर्चा में आने के लिए स्तरीय लेखन का सहारा लें न कि ऊल-जलूल, सनसनीखेज वक्तव्यों का या स्कैंडलों का। व्यंग्य हास्य नही है एक गंभीर लेखन है एक दृष्टि है। यह अधारणता एकनिष्ठा साहित्य साधना मांगती है। हम साहित्यकारों को समझना चाहिए की हम साहित्यिक पत्रिका निकाल रहे है तहलका नहीं। बाकी,हां, आशा जी का मेरे जीवन मे और कृतित्व में जो योगदान है। वह मेरे व्यक्तित्व और कृतित्व में है इसलिए मेरी जो भी उपलब्धि है जो कई लोगों के लिए आशातीत है, उसके पीछे मेरी पत्नी आशा ही है।
- प्रेम जनमेजय
( ब्लॉग 'प्रवासी दुनिया' पर अनिल जोशी के एक प्रश्न के उत्तर में )
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