आधुनिक हिन्दी भाषा-साहित्य-पत्रकारिता के जनक भारतेन्दु बाबू |
भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने ऐलान किया था- ' इस धन ने हमारे पूर्वजों को बर्बाद किया है हम इसे बर्बाद कर देगे। ' वंशज बताते हैं, 'भारतेन्दु भवन' में चौखट के भीतर लेखन की कमाई का एक रुपया भी कभी नहीं आने दिया गया है क्योंकि उन्होंने आंखें मूंदते समय ऐसी ही हिदायत दी थी...
यहां सुनिये अपनी भाषा की कोमल किलकारीभाषा-उत्थान के खर्चीले आयोजन-प्रयोजन, धाराप्रवाह प्रकाशन-कार्यों और कठोर साहित्य-साधना के दौरान जीवन जब सुख-सुविधा वाले राजमार्ग से उतरकर अभाव के कंटीले-कंटक या अग्निपथ पर मुड़ गया तो भारतेन्दु बाबू ने अपने दिल की कठिन परीक्षा ली थी। यह जानने के लिए कि इसके भीतर धन के लिए कितना दर्द बचा है।
आधुनिक हिन्दी भाषा-साहित्य-पत्रकारिता के जनक भारतेन्दु बाबू
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वाराणसी के ' भारतेन्दु भवन ' में बायें से सविता सिंह, मालिनी, दीपेशचन्द्र, प्रो. गिरीशचन्द्र चौधरी और श्यामबिहारी श्यामल। ( चित्र लिया है निरंजन देव सिंह ने ) |
श्याम बिहारी श्यामल
काशी के चौखंबा क्षेत्र में स्थित ' भारतेन्दु भवन '... वह स्थान जहां आधुनिक हिन्दी भाषा-साहित्य और पत्रकारिता की कोमल किलकारी गूजी है... गजब आकर्षण है इस स्थान में... खासा ऊंचा विशाल यह भवन हमारे मन में अपने भाषा-साहित्य को लेकर विद्यमान गौरव-भाव का ही जैसे प्रतीक बना दिखता हो... सामने खड़ा, आसमान छूता, मीठे-मीठे मुस्कुराता हुआ। ...अनोखा स्थान, जहां हमारे भाषा-साहित्य के जन्मदाता ने साधना की है। घर फूंक कर हिन्दी की मीनार उठाने का काम।
प्रो. गिरीशचन्द्र चौधरी की एक मुदित मुद्रा। |
कहते हैं भाषा-उत्थान के खर्चीले आयोजन-प्रयोजन, धाराप्रवाह प्रकाशन-कार्यों और कठोर साहित्य-साधना के दौरान जीवन जब सुख-सुविधा वाले राजमार्ग से उतरकर अभाव के कंटीले-कंटक या अग्निपथ पर मुड़ गया तो भारतेन्दु बाबू ने अपने दिल की कठिन परीक्षा ली थी। यह जानने के लिए कि इसके भीतर धन के लिए कितना दर्द बचा है। प्रसंग है कि कई दिनों की कड़की के बाद गाढ़े समय कुछ पैसे कहीं से आ गये थे। रोजमर्रे का सामान घटा पड़ा था जिसे तुरंत मंगाना था किंतु इसी बीच अचानक उनके दिमाग मे तो अलग ही घंटी बज गई... नोटों को मोड़-गोलियाकर उंगलियो में फंसाया और एक झटके से सुलगा लिया... जब कलेजे से कोई हूक नही फूटी तो मुस्कुराये। क्या हमारी भाषा-साहित्य का आंगन आज उसी मुस्कान की टहक लाली से नहीं चमक रहा ?...
याद कीजये, सेठ अमीचंद के वंशज इन्हीं भारतेन्दु ने ऐलान किया था- ' इस धन ने हमारे पूर्वजों को बर्बाद किया है हम इसे बर्बाद कर देगे। ' वंशज बताते है, 'भारतेन्दु भवन' की चौखट के भीतर कभी लेखन की कमाई का एक रुपया भी नहीं आने दिया गया है क्योंकि उन्होने आंखें मूंदते समय ऐसी ही हिदायत दी थी...तो इसी ' भारतेन्दु भवन ' में मंगलवार ( 30 अगस्त 2011 ) की शाम हम थे भारतेन्दु बाबू की चौथी, पाचवीं और छठी पीढ़ी के वंशज-प्रतिनिधियो यानी प्रो. गिरीशचन्द्र चौधरी, उनके पुत्र दीपेशचन्द्र, पौत्र नन्हे कन्दर्पचन्द्र और बहु मालिनी के साथ।
मेरे बड़े सुपुत्र तृषांत सिंह ट्यूशन गये होने के कारण पहली बार ऐसे अवसर पर साथ नही थे किंतु छोटे निरंजन देव सिंह पूरे मूड-मिजाज से मोबाइल फोन के कैमरे पर हाथ आजमा रहे थे। उन्हे मम्मी सविता सिंह से तो पारंपरिक अभयदान जारी था किंतु मै अपनी आदत से लाचार। जरा-सा कुछ प्रतिकूल लगते, तुरंत एक झिड़क।
बायें से मालिनी, कन्दर्पचन्द्र, प्रो. गिरीशचन्द्र चौधरी, दीपेशचन्द्र व निरंजन देव। |
...तो दोनों परिवारों के बीच हर बार की तरह खुले-खिले अंदाज में जीवन-जगत के विभिन्न प्रसंगों पर बातें। अनेक तरह की मिठाइयों और पक्के महाल के प्रसिद्ध अन्य नमकीन आइटमों के साथ चाय की चुस्कियो के बीच बातें ही बातें और भिन्न-भिन्न तीव्रता-तेवर के हंसी-ठहाके। प्रो. चौधरी भूगर्भ शास्त्र के विद्वान हैं। बीएचयू से अवकाशप्राप्त किंतु अपने पारिवारिक पृष्ठभूमि-दायित्वोध से लबरेज। कौन ऐसा दिन होगा जब दो-चार विजिटर आकर दस्तक नहीं दे डालते... सबका स्वागत-सत्कार। ऊपर से हम जैसे कुछ स्थानीय साहित्य-प्रेमियों से हार्दिक लगाव रखते हुए बराबर पुकारते रहने-बुलाने-बतियाने में भी गहरी दलचस्पी। ...तो, यह कहूं कि मंगलवार की शाम ने एक बार फिर बनारस में होने -रहने का अनोखा सुख दिया...
आज कहां मिलते हैं ऐसे महान लोग ………आज तो सभी पैसे के पुजारी हैं ।
जवाब देंहटाएंभाई श्यामल जी आपको पढ़ना और आपका लिखा पढ़ना दोनों ही सुखद लगता है |
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने वन्दना जी... लेकिन ऐसे में भी कुछ लोग तो अभी भी हैं ही... हमें अच्छाइयों को उभारने और सामने लाने का दायित्व निभाना है। सद्भावनाओं के लिए आपका आभार..
जवाब देंहटाएंबंधुवर तुषार जी, सद्भावनाओं के लिए हार्दिक आभार..
जवाब देंहटाएंबनारस में जाने कितने-और लेखक-पत्रकार रह रहे होंगे, लेकिन आपकी चिन्ताएँ मुझे मुग्ध करती हैं। पत्रकारिता को आप सही अर्थों में 'एञ्जॉय' कर रहे लगते हैं, लगे रहो, पढ़कर मज़ा आता है।
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