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| अद्भुत रचना : ज़ैनुल आबेदिन की अकाल-श्रृंखला की चित्र-कृति। |
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लोमहर्षक दैन्य: ज़ैनुल आबेदिन की अकाल-श्रृंखला की चित्र-कृति।![]() |
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| अकाल में संकटग्रस्त मानवता पर झपट्टा मारने पहुंचे कौवे: ज़ैनुल की चित्र-कृति। |
ज़ैनुल आबेदिन का शिल्पी मन
श्याम बिहारी श्यामल
'' ...ज़ैनुल आबेदिन कौओं से बेहद नफरत करते थे। उनके कमरे के आसपास भी अगर कोई कौवा कांव-कांव करता था तो वे तुरन्त उसे भगाने को कहते थे। कौओं के प्रति उनकी घृणा के पीछे उनकी अकाल की स्मृतियां जरूर रही होंगी जब उन्होंने कालेबाजारियों और जमाखोरों को पूरी घृणा के साथ कौओं के माध्यम से अपने चित्रों में दिखाया था। विश्व कला में हम कई मौकों पर कौओं को विनाश और मृत्यु के साथ जुड़ा पाते हैं। विन्सेण्ट वॉन गोग के जीवन का अंतिम चित्र ' गेहूं की फसल पर मंडराते कौवे ' कई कारणों से महत्वपूर्ण है पर इस चित्र को बनाने के तुरन्त बाद वॉन गोग ने आत्महत्या कर ली थी। ...'' हमारे उपमहाद्वीप में पिछली शताब्दी के महानतम चित्रकार ज़ैनुल आबेदिन के शिल्पी मन की यह गहन और मार्मिक पड़ताल की है, प्रसिद्ध चित्रकार-कथाकार अशोक भौमिक ने। 'अनहद' (संपादक : संतोष कुमार चतुर्वेदी) के ताजे 'जनवरी-2012 अंक में। बहुमुखी अभिव्यक्ति-क्षमता वाले एक कलाकार द्वारा महान ज्येष्ठ शिल्पी का बेहद आत्मीयता से मूल्यांकन। पूर्णत: तथ्यपरक तटस्थता के साथ।
'' ...ज़ैनुल आबेदिन कौओं से बेहद नफरत करते थे। उनके कमरे के आसपास भी अगर कोई कौवा कांव-कांव करता था तो वे तुरन्त उसे भगाने को कहते थे। कौओं के प्रति उनकी घृणा के पीछे उनकी अकाल की स्मृतियां जरूर रही होंगी जब उन्होंने कालेबाजारियों और जमाखोरों को पूरी घृणा के साथ कौओं के माध्यम से अपने चित्रों में दिखाया था। विश्व कला में हम कई मौकों पर कौओं को विनाश और मृत्यु के साथ जुड़ा पाते हैं। विन्सेण्ट वॉन गोग के जीवन का अंतिम चित्र ' गेहूं की फसल पर मंडराते कौवे ' कई कारणों से महत्वपूर्ण है पर इस चित्र को बनाने के तुरन्त बाद वॉन गोग ने आत्महत्या कर ली थी। ...'' हमारे उपमहाद्वीप में पिछली शताब्दी के महानतम चित्रकार ज़ैनुल आबेदिन के शिल्पी मन की यह गहन और मार्मिक पड़ताल की है, प्रसिद्ध चित्रकार-कथाकार अशोक भौमिक ने। 'अनहद' (संपादक : संतोष कुमार चतुर्वेदी) के ताजे 'जनवरी-2012 अंक में। बहुमुखी अभिव्यक्ति-क्षमता वाले एक कलाकार द्वारा महान ज्येष्ठ शिल्पी का बेहद आत्मीयता से मूल्यांकन। पूर्णत: तथ्यपरक तटस्थता के साथ।
ज़ैनुल ने अपने जीवन काल में तीन मुल्क़ देखे। भारत-विभाजन से पहले वह भारतीय रहे। 1947 में यहां से जाने के पश्चात पाकिस्तानी बन गए जबकि बाद में उक्त भूखंड के बांग्लादेश बनने पर बांग्लादेशी। इतना कुछ के बावजूद उनकी संवेदना में बंगाल के अकाल की संवेदना कभी मद्धिम नहीं पड़ी। कौओं के प्रति कायम रहने वाला सख्त रवैया तो उनके ऐसे ही शिल्पकार-मानस की तस्दीक करता है। हमें उन्हें अपनी साझा कला-विरासत का प्रतीक-पुरुष मानते हुए गर्व की अनुभूति हो रही है।
अशोक भौमिक की उक्त व्याख्या के परिप्रेक्ष्य में ज़ैनुल की अकाल विषयक चित्र-कृतियों को फिर से देखना आज भी संत्रास का अनुभव भर रहा है। इन चित्रों में कौओं की उपस्थिति के निहितार्थ तीव्रता से रोम-रोम पर उतरते चले जा रहे हैं। सिहरन-सी महसूस हो रही है। ...कौवे विपदा-दैन्यग्रस्त मानवता के भयावह शत्रु के वेश में छाती पर चढ़े दिखने लगे हैं। रोमांचक प्रतीति तो यह कि एक कलाकार को कैसे अपनी कृतियों के तमाम संकेतकों को जीवन भर झेलते रहना होता है। चित्र-कृतियों के कौवे तो पन्ने खुलने पर हमारे सामने आते और पलटते ही ओझल हो लेते हैं किंतु ज़ैनुल उनकी उद्वेलक उपस्थिति से जीवन भर जूझते रहे। ऐसा लगता है कि कौओं के प्रति ठोस निर्णायक घृणा जैसे उनकी कारगर कार्रवाई हो... मनुष्यता पर संकट के समय झपट्टा मारने आ धमकने वाले कौओं को ठीक से पहचानने वाले एक गहन कलाकार का स्पष्ट प्रतिकार।
'ज़ैनुल आबेदिन' शीर्षक इस ग्यारह पृष्ठीय आलेख और इसके साथ ही आठ पृष्ठों में प्रस्तुत महान कलाकार की करीब तीन दर्जन चित्र-कृतियों की उपलब्धता के चलते भी 'अनहद' का यह अंक मूल्यवान व संग्रहणीय बन गया है। करीब साढ़े तीन सौ पेजों वाली इस पत्रिका में चौहत्तर पृष्ठों का सबसे बड़ा खंड नागार्जुन की रचनाधर्मिता को भिन्न-भिन्न कोणों से विश्लेषित करने वाला है जबकि कमला प्रसाद व भीमसेन जोशी की स्मृति में भी उम्दा सामग्री। इनके अलावा कविता-कहानी के रूपों में भरपूर ताजा रचनाएं। संपादक को बढि़या संयोजन के लिए बधाइयां।
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| अनहद : पत्रिका का ताजा 'जनवरी 2012 अंक'। |






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