हिंदी साहित्य में कायम गुरुडम के इस युग में ऐसे ‘गुरु’ कितने होंगे। मार्कंडेय तो बेशक हिंदी संसार में एक ऐसे ही शख्सियत गुजरे हैं। उनका जीवन वस्तुतः एक अनुकरणीय उदाहरण के रूप में सदा हमारे जेहन में उपस्थित रहेगा। युवा रचनाकार संतोष कुमार चतुर्वेदी ने अंतिम समय तक शिष्य-भाव से उनका साथ निभाया। पत्रिका निकालने में ही नहीं, बीमारी के दौरान व्यक्तिगत रूप से साये की तरह जुड़े रहने में भी। यह भी नयी पीढ़ी के रचनाकारों के लिए कम प्रेरणास्पद नहीं। हमारे हिंदी समाज का स्मृति-व्यवहार विचित्र स्वेच्छाचारी है। इससे बड़ी विडंबना भला दूसरी क्या हो सकती है कि हम मार्कंडेय जैसे अपने अग्रणी रचनाकार पर किसी पत्रिका का कोई श्रद्धांजलि-औपचारिकता के तहत निकला एक यादगार अंक भी देखने को तरस कर रह गये। ऐसा तब जबकि हमारे यहां आज दो दर्जन से ज्यादा ऐसी पत्रिकाएं निकल रही हैं, जिनकी पृष्ठ-संख्या तीन-चार सौ पृष्ठों तक होती है और प्रस्तुति-स्तर भी उल्लेखनीय।
उन्होंने कथा जमायी, लिखकर जिंदगी की गाड़ी खींची
स्मरण में है आज जीवन : मार्कंडेय को याद करते हुए
♦ श्याम बिहारी श्यामल
मार्कंडेय
हिंदी के उन थोड़े से कथाकारों में हैं, जिन्हें उनकी महज कुछेक रचनाओं के
बल भी सदा याद रखा जा सकेगा। यह यों ही नहीं था कि वह अपने जीवन-काल में
इसी बूते न केवल प्रासंगिक बने रहे, बल्कि जिंदगी भी पूरी जी। उन्हें उनके
मूल्यवान और लक्ष्यपूर्ण सृजन-कार्यों के लिए ही नहीं, बल्कि ‘कथा’ पत्रिका
के माध्यम से अपने समय-समाज के जरूरी संदर्भ-सवालों पर प्रभावी हस्तक्षेप
करने और सर्जनात्मक जगत में वैचारिक ऊष्मा बनाये रखने के लिए भी हमेशा याद
किया जाएगा। खुले विमर्श के लिए बुलाते-उकसाते विचार, व्यापक जनदायित्व के
मूल्यों से लबरेज कलम और अखंड लेखकीय स्वाभिमान… यही उनकी जमापूंजी रहे।
उन्हें जानने वालों को पता है कि कभी उनका कोई ठोस आर्थिक आधार नहीं रहा। न
कोई नियमित नौकरी, न व्यवसाय। आज जबकि सपारिश्रमिक बहुविध लिखने-छपने के
अवसर और स्थानों की बहुलता है, तब भी लेखन के बूते जीवन का सफर तय करना
आर्थिक रूप से कितना कठिन है, यह कहने की आवश्यकता नहीं। पिछले छह-सात दशक
का दौर तो इस दृष्टि से काफी जटिल समय रहा। इसके बावजूद उन्होंने कलम से
रोटी ही नहीं उगायी बल्कि अपने बच्चों का भविष्य भी गढ़कर दिखाया। बेटा को
अधिवक्ता बनाया तो बिटिया को डॉक्टर।
उन्होंने यह सब कैसे और अपने मूल्यों के दायरे में रहकर किस तरह के
मसि-कार्यों से पूरा किया होगा, इस विषय पर सोचते हुए माथे पर बल पड़ जा
रहे हैं। वैसे, उनका ऐसा चाकरी-मुक्त शुद्ध मसि-जीवन शायद इसलिए भी संभव हो
सका, क्योंकि वे अपने अनेक समकालीनों की तरह कभी दिल्ली-मुंबई की ओर नहीं
दौड़े और उस इलाहाबाद नगर में टिककर रहे, जो लंबे समय तक पूर्वी भारत का
विशिष्ट मुद्रण-केंद्र बना रहा। निस्संदेह यहां लेखन-मुद्रण-प्रकाशन की
बारीकियों के जानकार के लिए प्रतिष्ठापूर्वक कार्य के पर्याप्त अवसर रहे।
इसके बावजूद उन्होंने अपना समय कैसे काटा होगा, यह समझने का प्रयास करना एक
रोमांचकारी अनुभव दे रहा है। और, ऐसे जीवन-संघर्ष के बीच भी उन्होंने
‘कथा’ पत्रिका को चलाने का कठिन व्रत निभाया। गंभीर बीमारी ने उनके अंतिम
दिनों को कठिन बना दिया था किंतु पत्रिका की सांस डूबने नहीं दी, अपनी
आखिरी सांस तक इसे जिंदा रखा। यह स्वयं में एक अद्भुत प्रसंग है।
इस तरह तो मार्कंडेय ने बाकायदा यही साबित करके दिखाया कि लेखन-बल किसी
भी जुगाड़-ताकत के आगे कतई निष्प्रभावी नहीं। दूसरी ओर आज हमारे बीच अनेक
ऐसे रचनाकार विद्यमान हैं जिनकी ख्यातियां प्रायः सृजनेतर कार्यों से ही
कायम हुई और बनी हुई है। उनके लेखन में दम न हो, एकबारगी ऐसी भी कोई बात
नहीं, किंतु सुर्खियों का चस्का कुछ ऐसा कि वे अजीबोगरीब हरकतों में गजब
रुचि लेने लगते हैं या लेते रहते हैं। कोई एक ओर जहां समय-समय पर विवाद
सुलगाकर चारों ओर धुंआ-धुंआ कर-कराके सबका ध्यान अपनी ओर खींच लेने की कला
में दक्ष, तो कोई अपने लिए पीढ़ी-दर-पीढ़ी निजी बटुक-टोली गढ़ने और
जय-जयकार मचवाने का अचूक अभ्यस्त। इसके लिए अफसर किस्म के कई लेखक तो अपने
ऊंचे पद-प्रभाव का ऐसा खुला दुरुपयोग करते भी खूब देखे गये हैं कि इसे सहन
करना किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए कठिन होता है। जेनुइन रचनाकार के
लिए यह सब झेलना दमघोंटु होकर रह जाता है। इस बटुक-शैली के दक्ष वरिष्ठों
ने लगभग हर दौर में साहित्य में प्रदूषण भरने और कचरा फैलाने का ही काम
किया है। अपने पीछे की भीड़ का आयतन बढ़ाने के लिए ‘ऐसों’ ने क्या-क्या
नहीं किये। नये रचनाकार को अपना मुरीद बनाकर बांधे रखने के लिए उसकी जरूरत
से ज्यादा तारीफ ही नहीं, सदाबहार उपकार-प्रतिदान भी। यह सब कुछ इस कदर कि
वह शुरुआती दो-चार रचनाओं के बाद ही स्वयं को ‘प्रेमचंद’ से कम मानने को
तैयार नहीं रह जाये। ‘आका’ के अलावा किसी दूसरे रचनाकार को पहचानने से भी
इनकार जैसा व्यवहार। कई उदाहरण सामने हैं कि ऐसे आकाओं ने अपने ही उभारे
नयों को तारीफ से तर करते-करते अंततः नाकाम बनाकर ही दम लिया। दो-चार
रचनाओं पर ही तारीफ की आंधियों का उपहार-सुख पा निढाल हो जाने वाले ऐसे कई
चर्चित नाम जेहन में तैर रहे हैं, जिन्हें साहित्य के नियमित पाठक भी
निस्संदेह सही-सही समझ रहे होंगे। ऐसे कई ‘चर्चित’ कलम छोडे़ वर्षों से
निढाल पड़े बिसूर रहे हैं। समय-समय पर यह तो वक्त ने ही साबित किया है कि
असमय-अस्वाभाविक और अति चर्चा-तारीफ ही वस्तुतः नये रचनाकार के लिए जहर
बनती है। जैसे, नमक की अहमियत और चटक स्वाद का बखान करते हुए कोई इसे किसी
नवजात को पहली किलकारी के साथ ही चटा दे। अथवा, पलक खुलते ही सामने से
अचानक कोई हजार वाट के बल्ब का रोशनी-प्रहार कर दे। इसी मामले में
मार्कंडेय ऐसों के सर्वथा विपरीत थे। निकटस्थ को कड़वी सलाह देते चलने
वाले। किसी से सेवा-सत्कार लेने के सख्त परहेजी। अपना दुःख भरसक प्रकट न
होने देने के कठोर प्रयासी। उनके अंतिम दिनों का एक ऐसा ही प्रसंग अभी
पिछले साल का ही तो है।
दिल्ली में इलाज के दौरान उनका निधन हो जाने की सूचना कवि संतोष कुमार
चतुर्वेदी की ओर से मोबाइल पर एसएमएस से प्राप्त हुई। जानकारी मिलते ही
हमलोगों ने अपने अखबार दैनिक जागरण में मूल समाचार के अतिरिक्त उनसे
संबंधित विशिष्ट सूचनाएं एकत्र करके भरपूर प्रकाशित की। यथा, बनारस और उनके
अपने जनपद जौनपुर से जुड़ी उनकी गंतिविधियां व यादें। उनके संपर्कित रहे
लोगों में से प्रमुख अपने शहर के निवासी प्रख्यात कथाकार डा काशीनाथ सिंह
और समीक्षक प्रो सुरेंद्र प्रताप आदि के संस्मरण-अंश आदि। यह सब मार्कंडेय
के निधन के समाचार के साथ ही पैकेज करके छापा गया था। इसी क्रम में दूसरे
दिन किसी अन्य अखबार में एक युवा शोधार्थी के संस्मरण पर नजर गयी तो चौंक
जाना पड़ा। उसने अपने संस्मरणांश से यह बताया था कि गंभीर बीमारी के दौरान
दिल्ली ले जाये जाने से पहले मार्कंडेय जी की डिटेल मेडिकल जांच वाराणसी के
बीएचयू अस्पताल में ही करायी गयी थी। यानी कि वह यहां लाये गये थे। दिल को
धक्का-सा लगा। ऐसा कैसे हुआ कि वह यहां लाये गये और हमें भनक तक नहीं लगी।
आश्चर्य इसलिए भी कि उनके साथ साये की तरह लगे रहने वाले कवि संतोष कुमार
चतुर्वेदी के साथ नियमित मोबाइल पर संपर्क रहता रहा है। इसके बावजूद मुझे
यह सूचना क्यों नहीं मिली। यह बात दो दृष्टि से दुखदायी थी। एक तो अखबारी
होड़, दूसरे व्यक्तिगत। अखबार में मार्कंडेय विषयक हमारी सामग्री-प्रस्तुति
पर उस दिन चारों ओर से सराहना-संतोष व्यक्त किये जा रहे थे। इसके बावजूद
हमें यह तो समझ में आ ही रहा था कि वह एक महत्वपूर्ण सूचना हमें मिलने से
रह गयी। दूसरे, व्यक्तिगत रूप से एक अफसोस यह कि यदि उनके बनारस आने की बात
सही समय पर पता चल गयी होती, तो बीएचयू असपताल जाकर मैं उनसे मिल लेता।
दरअसल, तब तक उनसे फोन पर ही बातें होती रही थीं। बातचीत में ही
मन-मस्तिष्क पर उनका जो व्यक्तित्व दर्ज हुआ वह एकदम एकदम साफ निर्मल और
बहते हुए जल जैसा था। आवाज मीठी-महीन, किंतु मजबूत। दो-चार शब्दों में ही
उत्साह का संचार कर आश्वस्ति से भर देने वाली। घूमती लटाई से उभरते-खुलते
धागे जैसी। बात को उड़ाती हुई ऊंचाई पर चढ़ा ले जाने और मूल्य-बोध के
उत्कर्ष पर खिला देने वाली। फोन-वार्ताओं के बाद ही उनसे मिलने की इच्छा
हुई। इसके लिए इलाहाबाद जाने का कार्यक्रम कई बार बनाया किंतु सफल न हो
सका। अपनी रोटी की परिधि ऐसी पेचीदी कि अपने ही प्रेस से रोज रात में सीधी
गाड़ी निकलने के बावजूद तो साल-साल भर तक बलिया यानी गांव सिताबदियारा जाना
मुश्किल होता है। ऐसे में वर्ष पर वर्ष बीतते चले गये किंतु न इलाहाबाद जा
सका, न उनसे मिलना हुआ। बाद में तो वह गंभीर बीमारी के शिकार ही हो गये।
बहरहाल, उनके बनारस आने की सूचना न मिलने के संदर्भ में जरा शिकायती लहजे
में ही संतोष को कॉल कर टोका। उधर से बोलते हुए उन्होंने जो वजह बतायी,
उसने मुझे न केवल निरुत्तर बल्कि हतप्रभ बना दिया। इससे मार्कंडेय जी के
अभिभूत कर देने वाले अनुकरणीय मनोभावों का पता चला। संतोष के अनुसार
उन्होंने बनारस आने से पहले ही साथ के लोगों को हिदायत दे दी थी कि उनके
बीएचयू अस्पताल आने की बात यहां किसी भी व्यक्ति को पता नहीं चलने पाये।
ऐसा इसलिए ताकि जुड़े हुए लोगों को उनकी हालत देखकर कोई दुःख न उठाना पड़े
और इसलिए भी कि उन्हें किसी की सहानुभूति न लेनी-झेलनी पड़े।
हिंदी साहित्य में कायम गुरुडम के इस युग में ऐसे ‘गुरु’ कितने होंगे।
मार्कंडेय तो बेशक हिंदी संसार में एक ऐसे ही शख्सियत गुजरे हैं। उनका जीवन
वस्तुतः एक अनुकरणीय उदाहरण के रूप में सदा हमारे जेहन में उपस्थित रहेगा।
युवा रचनाकार संतोष कुमार चतुर्वेदी ने अंतिम समय तक शिष्य-भाव से उनका
साथ निभाया। पत्रिका निकालने में ही नहीं, बीमारी के दौरान व्यक्तिगत रूप
से साये की तरह जुड़े रहने में भी। यह भी नयी पीढ़ी के रचनाकारों के लिए कम
प्रेरणास्पद नहीं। हमारे हिंदी समाज का स्मृति-व्यवहार विचित्र
स्वेच्छाचारी है। इससे बड़ी विडंबना भला दूसरी क्या हो सकती है कि हम
मार्कंडेय जैसे अपने अग्रणी रचनाकार पर किसी पत्रिका का कोई
श्रद्धांजलि-औपचारिकता के तहत निकला एक यादगार अंक भी देखने को तरस कर रह
गये। ऐसा तब जबकि हमारे यहां आज दो दर्जन से ज्यादा ऐसी पत्रिकाएं निकल रही
हैं, जिनकी पृष्ठ-संख्या तीन-चार सौ पृष्ठों तक होती है और प्रस्तुति-स्तर
भी उल्लेखनीय। हमारे ऐसे पत्रिका-संपादकों को बेशक अपने वृहत्तर दायित्वों
का अनुपालन करना चाहिए। जयंती पर मार्कंडेय जी की स्मृति को प्रणाम।
( यह आलेख पिछले साल यानी 2011 में लिखा व 'मोहल्ला लाइव' पर प्रकाशित हुआ था )
इस पर ' मोहल्ला लाइव ' पर हुआ विमर्श
मुझे उनके साथ १५ वर्षों तक रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और इन
दिनों में उनको जानने समझने का सुअवसर भी प्राप्त हुआ. वे एक
जीवित किद्वंती की तरह थे. उनके पास होने पर कभी भी यह अहसास
नहीं हुआ कि हम अपने समय के एक वरिस्थ रचनाकार के पास बैठे
हैं. उन्होंने लेखन को पूर्णकालिक रूप से जिया. आकाशवाणी में लगी हुई
नौकरी छोड़ दी लेखकीय स्वाभिमान के लिए. वे एक बेहतर इंसान थे.
जब उनके जीवन को आधार बनाकर ‘नमो अन्धकारम’ कहानी लिखी गयी
तब वे थोडा आहत तो हुए, लेकिन तुरंत ही उन्होंने उन कहानीकार को
माफ़ कर दिया जिन्होंने ये कहानी लिखी थी. ‘कथा’ में हमेशा उन्होंने नए
रचनाकारों को पर्याप्त स्थान दिया. वे हम सब रचनाकारों के दुःख सुख
में साथ रहते थे. उनके चिंता के केंद्र में जहा एक ओर वरिस्थ आलोचक
नंदकिशोर नवल,शिव कुमार मिश्र आदि का स्वास्थ होता था. तो दूसरी
ओर उनके घर काम करने वाली महरी, दूध बाटने वाला ग्वाला, और बिजली
मिस्त्री कि समस्याए भी जैसे उनकी अपनी निजी समस्या होती थी. आज
जब वे इस संसार में भौतिक रूप से नहीं हैं, उनके दुर्लभ व्यक्तित्व को याद
कर आँखे नम हो आती है. उनकी स्मृति को नमन.