लम्बी कविता
हवा में कीलें
श्याम बिहारी श्यामल
।। 1 ।।
अक्षर-अक्षर हिलते हैं
हिल-हिलकर सटते हैं
और छिटकती है चिनगारी
शब्द दहक रहे हैं
पुट्ठे पर घाव बनकर
जली जा रही है त्वचा
मैं पीड़ा से परेशान हूँ
चिल्ला रहा हूँ
तड़प रहा हूँ
सामने आँखों में गुर्रा रहे हैं
मुलायम ख़ूबसूरत रोएँवाले
जोड़ी भर आँखों में रोमांच भरे भेड़िये
जो गुर्रा रहे हैं
और बैठे हैं घात लगाकर
हमले के लिए
मन सुनसान होकर
बनता जा रहा है
अँधरे में गुम बेहरकत
काला जी.टी. रोड
लम्बा-चौड़ा और निर्जन
चीलों का उत्सव
गिद्धों का पर्व
चीटियों के महाभोज के दिन
मैं अलीगढ़ हूँ
ख़ून उगल रही है मेरी
लहूलुहान देह
मैं हैदराबाद हूँ
जुती हुई है मेरी पीठ
मैं फ़ैजाबाद हूँ
अयोध्या हूँ
देख लो मेरी समूची देह पर
ख़ूनी पंजों के निशान
रक्त से सिक्त
हिल-हिलकर सटते हैं
और छिटकती है चिनगारी
शब्द दहक रहे हैं
पुट्ठे पर घाव बनकर
जली जा रही है त्वचा
मैं पीड़ा से परेशान हूँ
चिल्ला रहा हूँ
तड़प रहा हूँ
सामने आँखों में गुर्रा रहे हैं
मुलायम ख़ूबसूरत रोएँवाले
जोड़ी भर आँखों में रोमांच भरे भेड़िये
जो गुर्रा रहे हैं
और बैठे हैं घात लगाकर
हमले के लिए
मन सुनसान होकर
बनता जा रहा है
अँधरे में गुम बेहरकत
काला जी.टी. रोड
लम्बा-चौड़ा और निर्जन
चीलों का उत्सव
गिद्धों का पर्व
चीटियों के महाभोज के दिन
मैं अलीगढ़ हूँ
ख़ून उगल रही है मेरी
लहूलुहान देह
मैं हैदराबाद हूँ
जुती हुई है मेरी पीठ
मैं फ़ैजाबाद हूँ
अयोध्या हूँ
देख लो मेरी समूची देह पर
ख़ूनी पंजों के निशान
रक्त से सिक्त
।। 2 ।।
हर हत्या के बाद
मैंने दी है दस्तक
हर लूट के वक़्त
लगाई है ज़ोर-ज़ोर से हाँक
हर बलात्कार को देखकर
मैं चीख़ा हूँ
मगर
बेकार
सब बेकार
कोई नहीं सुनता अब
किसी की दस्तक
कोई हाँक
या चीख़
मैंने जब-जब खटखटाया है
ऊँचा दरवाज़ा
मेरी पीठ पर
चला दिया गया है हल
और लहलहाने लगी है
बर्बादी की फ़सल
मेरी कनपटी पर भिड़ गया है तमंचा
और यह सीख दी गई है
कि मैं मुँह न खोला करूँ
मैं जाऊँगा बस्ती-बस्ती
मैं गाँव-गाँव घूमूँगा
मैं दरख़्त-दरख़्त चढ़ूँगा
और चिल्लाऊँगा
ज़ोरों से
कि अब कुछ करना होगा
मैंने दी है दस्तक
हर लूट के वक़्त
लगाई है ज़ोर-ज़ोर से हाँक
हर बलात्कार को देखकर
मैं चीख़ा हूँ
मगर
बेकार
सब बेकार
कोई नहीं सुनता अब
किसी की दस्तक
कोई हाँक
या चीख़
मैंने जब-जब खटखटाया है
ऊँचा दरवाज़ा
मेरी पीठ पर
चला दिया गया है हल
और लहलहाने लगी है
बर्बादी की फ़सल
मेरी कनपटी पर भिड़ गया है तमंचा
और यह सीख दी गई है
कि मैं मुँह न खोला करूँ
मैं जाऊँगा बस्ती-बस्ती
मैं गाँव-गाँव घूमूँगा
मैं दरख़्त-दरख़्त चढ़ूँगा
और चिल्लाऊँगा
ज़ोरों से
कि अब कुछ करना होगा
।। 3 ।।
जब कभी भी
चढ़कर दरख़्त पर
मैंने देखा है एक साथ
समूची लम्बी सड़क को
मुझे दिखा है साफ़-साफ़
हर बार
धड़कता हुआ साँप
फैला हुआ
पसरा हुआ
ज़हर से भरा हुआ,
रग-रग ज़हरीला
साँप कि जिसकी
पूँछ है शहर की तरफ़
मुँह वाला हिस्सा
छू रहा है
मेरे गाँव का सिवान
या कि इसके दोनों तरफ मुँह हैं ?
मुझे शंका है भाई
ज़रूर ही यह है दुमुँहा ही
मैं बच्चा था तब
काली नहीं हुई थी
हमारे गाँव की यह सड़क
बाद में जब पक्की हुई
तब लगने लगी ऐसी
मैं कोई भ्रम नहीं
उड़ा रहा हूँ
हर रोज़ सुबह-शाम
चढ़कर दरख़्त पर
तौलता हूँ
बार-बार अपनी नज़र
मैं झटक नहीं पा रहा हूँ
अपनी दहशत
यह सड़क मुझे
दिख रही है हर बार
साफ़-साफ़ साँप
चढ़कर दरख़्त पर
मैंने देखा है एक साथ
समूची लम्बी सड़क को
मुझे दिखा है साफ़-साफ़
हर बार
धड़कता हुआ साँप
फैला हुआ
पसरा हुआ
ज़हर से भरा हुआ,
रग-रग ज़हरीला
साँप कि जिसकी
पूँछ है शहर की तरफ़
मुँह वाला हिस्सा
छू रहा है
मेरे गाँव का सिवान
या कि इसके दोनों तरफ मुँह हैं ?
मुझे शंका है भाई
ज़रूर ही यह है दुमुँहा ही
मैं बच्चा था तब
काली नहीं हुई थी
हमारे गाँव की यह सड़क
बाद में जब पक्की हुई
तब लगने लगी ऐसी
मैं कोई भ्रम नहीं
उड़ा रहा हूँ
हर रोज़ सुबह-शाम
चढ़कर दरख़्त पर
तौलता हूँ
बार-बार अपनी नज़र
मैं झटक नहीं पा रहा हूँ
अपनी दहशत
यह सड़क मुझे
दिख रही है हर बार
साफ़-साफ़ साँप
।। 4 ।।
सलीब चढ़ाकर मुझे
कीलें ठोंक रहा है कोई
मेरे दोनों हाथों को
पैरों को
सटाकर पीछे
मैं चिल्ला भी कैसे सकता हूँ
मेरे होठों पर
साट दिया गया है
इस बार सैलो-टेप
मैंने विरोध किया है
अब भी करूँगा
मैं आकाश को
ज़मीन को
धिक्कारूँगा
मैं मनुष्य को ललकारूँगा
मुझे प्यार है
मेरे गाँव से
मेरी राजधानी से
मैं सवाल उठाऊँगा
कि क्यों पाट दिया गया है
आकाश मेरी राजधानी का
बगूलों से
मुझी से यह जानकर
मेरा सारा गाँव
खो चुका है आँखों की नींद
लोग तैयार हैं
मेरा साथ देने को
मेरी मौत मुझे नहीं मार सकती
मैं मौत को भी
समझा सकता हूँ
सुना सकता हूं
जुल्म की दास्ताँ
मौत भी हमारे साथ होगी
पीछे-पीछे
झण्डा उठाए
यह कोई मामूली बात नहीं कि
तीन सौ खंभों का
पवित्र घर
बना दिया गया
बूचड़खाना
और काबिज़ हो गए हैं
आकाश पर
पंख फैलाए
बग-बग बगुले
कीलें ठोंक रहा है कोई
मेरे दोनों हाथों को
पैरों को
सटाकर पीछे
मैं चिल्ला भी कैसे सकता हूँ
मेरे होठों पर
साट दिया गया है
इस बार सैलो-टेप
मैंने विरोध किया है
अब भी करूँगा
मैं आकाश को
ज़मीन को
धिक्कारूँगा
मैं मनुष्य को ललकारूँगा
मुझे प्यार है
मेरे गाँव से
मेरी राजधानी से
मैं सवाल उठाऊँगा
कि क्यों पाट दिया गया है
आकाश मेरी राजधानी का
बगूलों से
मुझी से यह जानकर
मेरा सारा गाँव
खो चुका है आँखों की नींद
लोग तैयार हैं
मेरा साथ देने को
मेरी मौत मुझे नहीं मार सकती
मैं मौत को भी
समझा सकता हूँ
सुना सकता हूं
जुल्म की दास्ताँ
मौत भी हमारे साथ होगी
पीछे-पीछे
झण्डा उठाए
यह कोई मामूली बात नहीं कि
तीन सौ खंभों का
पवित्र घर
बना दिया गया
बूचड़खाना
और काबिज़ हो गए हैं
आकाश पर
पंख फैलाए
बग-बग बगुले
।। 5 ।।
एक ने पकड़े
सटाकर चारों पाँव
एक ने दबोचा पेट
ऐंठते हुए बीत्ते भर की पूँछ
...और होने लगा ज़िबह
इत्मीनान से बकरा
चाकू से छीला गया चाम
काट-काटकर धोए जाने लगे
माँस के लोथड़े
सज गई दौरी
टाँग दिया गया
अधकटी गोड़ी में फँसाकर
चामछुड़ा आधा बकरा
मैं थर्राता हूँ
इस बैशाख की
लपलप दुपहरी में भी
काँपता हूँ
मुझे तेज़ी से
याद आ रहा है गाँव
और बैठता जा रहा है
मेरा कलेजा
पान कचरे
चौड़े होठों, गंदे दाँतों वाले
झकझक सफ़ेद कपड़े पहने
कस्साई या कि कहूँ जल्लाद से
मैं भयभीत हो चला हूँ
इच्छा हो रही है
कि मैं शोर मचा दूँ
और जमा करके भीड़
बचा लूँ
अपने गाँव को
सटाकर चारों पाँव
एक ने दबोचा पेट
ऐंठते हुए बीत्ते भर की पूँछ
...और होने लगा ज़िबह
इत्मीनान से बकरा
चाकू से छीला गया चाम
काट-काटकर धोए जाने लगे
माँस के लोथड़े
सज गई दौरी
टाँग दिया गया
अधकटी गोड़ी में फँसाकर
चामछुड़ा आधा बकरा
मैं थर्राता हूँ
इस बैशाख की
लपलप दुपहरी में भी
काँपता हूँ
मुझे तेज़ी से
याद आ रहा है गाँव
और बैठता जा रहा है
मेरा कलेजा
पान कचरे
चौड़े होठों, गंदे दाँतों वाले
झकझक सफ़ेद कपड़े पहने
कस्साई या कि कहूँ जल्लाद से
मैं भयभीत हो चला हूँ
इच्छा हो रही है
कि मैं शोर मचा दूँ
और जमा करके भीड़
बचा लूँ
अपने गाँव को
।। 6 ।।
रेलवे लाइन है
छर्रियों-गिट्टियों में
डूबी-डूबी पटरियाँ
और पटरियों पर
बैठकर किए हुए गूह
कँटीले पौधे हैं
सूखे-टटाए हुए
सिगनल के तार हैं
घिरनियों के ऊपर से
गुजरे हुए
ओवर-ब्रिज है यह
नीचे से गुज़र रहा हूँ मैं
लोटा लिए बैठी स्त्रियाँ
देखकर मुझे उठ जाती हैं
बढ़ता जा रहा हूँ मैं
बेफ़िक्र-सा
झुटपुटे ख़यालों में डूबा
अचानक देखता हूँ
पिल्ले की लाश
ताज़ा है शव
मुलायम सुनहरे रोएँदार
और मरने के बाद भी अल्हड़
मुस्कुराता-सा दिखता पिल्ला
मुझे छेंकता है प्रश्नवाची मौन से
हाहाकारी तटस्थता से
मैं चकराता हूँ
डगमगाता हूँ
और दहाड़ता हूँ
ट्रेन से नहीं कटा है यह पिल्ला
इसके पेट पर
निशान हैं साफ़-साफ़
पत्थर से थकुचे जाने के
भीतर से
झाँक रहा है लाल माँस
और ख़ून !
किसने की है यह हत्या ?
...और क्यों सुला गया है
यह लाश रेल लाइन पर ?
मैं सिगनल-पोल पर चढ़कर
आगाह करना चाहता हूँ
कि गंभीर है यह मामला
मैं चाहता हूँ गोलबंद करना
लोगों को
राजनीतिक हत्याओं के
इस तपते दौर के खिलाफ़
छर्रियों-गिट्टियों में
डूबी-डूबी पटरियाँ
और पटरियों पर
बैठकर किए हुए गूह
कँटीले पौधे हैं
सूखे-टटाए हुए
सिगनल के तार हैं
घिरनियों के ऊपर से
गुजरे हुए
ओवर-ब्रिज है यह
नीचे से गुज़र रहा हूँ मैं
लोटा लिए बैठी स्त्रियाँ
देखकर मुझे उठ जाती हैं
बढ़ता जा रहा हूँ मैं
बेफ़िक्र-सा
झुटपुटे ख़यालों में डूबा
अचानक देखता हूँ
पिल्ले की लाश
ताज़ा है शव
मुलायम सुनहरे रोएँदार
और मरने के बाद भी अल्हड़
मुस्कुराता-सा दिखता पिल्ला
मुझे छेंकता है प्रश्नवाची मौन से
हाहाकारी तटस्थता से
मैं चकराता हूँ
डगमगाता हूँ
और दहाड़ता हूँ
ट्रेन से नहीं कटा है यह पिल्ला
इसके पेट पर
निशान हैं साफ़-साफ़
पत्थर से थकुचे जाने के
भीतर से
झाँक रहा है लाल माँस
और ख़ून !
किसने की है यह हत्या ?
...और क्यों सुला गया है
यह लाश रेल लाइन पर ?
मैं सिगनल-पोल पर चढ़कर
आगाह करना चाहता हूँ
कि गंभीर है यह मामला
मैं चाहता हूँ गोलबंद करना
लोगों को
राजनीतिक हत्याओं के
इस तपते दौर के खिलाफ़
।। 7 ।।
बहुत उद्विग्न हूँ मैं
लौटकर फ़ैजाबाद से
अलीगढ़ से
हैदराबाद से
भागलपुर और अयोध्या से
बर्फ़ हो रहा है
मेरी रगों में
मेरा ख़ून
तमाम देखी हुई हक़ीक़तें--
--ख़ून सनी माटी
कटे हाथ
छँटे पाँव
पेट में घुसा हुआ खंजर
जले हुए मकान
झुलसकर औंधियाए बच्चे
बहुत बेरहमी से रौंदकर
मौत के घाट उतारी-सुलाई हुई बहनें
--मुझे धिक्कार रही हैं
मुझे ललकार रही हैं
मुझे आगाह कर रही हैं
मैं हतप्रभ हूँ
शर्मिंदा हूँ
मैं क्यों था मरा-मरा
अभी तक
क्यों मैं बुनता रहा
शब्दों की सलाइयों पर
बेवज़ह स्वेटर
मैं लड़ूँगा
अपने चोंख शब्दों को लेकर
अजेय हथियार बनाकर
खोलता हूँ ताले
तहखाने शब्द-भंडारों के
अरे, यह क्या!
कुचले हुए हैं मेरे तमाम शब्द
रग-रग टूटी है
इनकी भी
घायल शब्दों से लिपटकर
बिलख रहा हूँ मैं
मेरी आँखें देख रही हैं
संतप्त शब्दों की आँखों में
टूटना-बिखरना
गर्भ में पल रही
एक समूची लड़ाई का
मुझ पर आपादमस्तक
रेंग रहा है
गदराए खेतों पर
ओले पड़ने का-सा दुःख
लौटकर फ़ैजाबाद से
अलीगढ़ से
हैदराबाद से
भागलपुर और अयोध्या से
बर्फ़ हो रहा है
मेरी रगों में
मेरा ख़ून
तमाम देखी हुई हक़ीक़तें--
--ख़ून सनी माटी
कटे हाथ
छँटे पाँव
पेट में घुसा हुआ खंजर
जले हुए मकान
झुलसकर औंधियाए बच्चे
बहुत बेरहमी से रौंदकर
मौत के घाट उतारी-सुलाई हुई बहनें
--मुझे धिक्कार रही हैं
मुझे ललकार रही हैं
मुझे आगाह कर रही हैं
मैं हतप्रभ हूँ
शर्मिंदा हूँ
मैं क्यों था मरा-मरा
अभी तक
क्यों मैं बुनता रहा
शब्दों की सलाइयों पर
बेवज़ह स्वेटर
मैं लड़ूँगा
अपने चोंख शब्दों को लेकर
अजेय हथियार बनाकर
खोलता हूँ ताले
तहखाने शब्द-भंडारों के
अरे, यह क्या!
कुचले हुए हैं मेरे तमाम शब्द
रग-रग टूटी है
इनकी भी
घायल शब्दों से लिपटकर
बिलख रहा हूँ मैं
मेरी आँखें देख रही हैं
संतप्त शब्दों की आँखों में
टूटना-बिखरना
गर्भ में पल रही
एक समूची लड़ाई का
मुझ पर आपादमस्तक
रेंग रहा है
गदराए खेतों पर
ओले पड़ने का-सा दुःख
।। 8 ।।
सभी चित्र : साभार गूगल |
गाँव मेरा
होता जा रहा है सुनसान
कालीथान का पीपल
हो गया है अकेला
क्यों जमती जा रही है
थाक-थाक भर धूल यहाँ ?
तीरडंडी स्वामी की मठिया पर
नहीं बैठ रही अब
गाँव की कोई संसद
उठती जा रही हैं
गाँव की चौपालें
लोगों ने कम कर दिया है क्यों
-कालीथान पर बैठना
-मठिया पर जमा होना
-देश-दुनिया पर बहस करना
-अपनी भूमिका तय करना !
कुछ सुना आपने ?
मँगवा लिया है मुखिया ने रंगीन टीवी
और अब बनकर हँसमुख
देने लगे हैं पनाह
पूरे गाँव को
बंद दरवाज़े के भीतर
दालान में
तमाम लोग बैठ गए हैं चुप
गोजी रखकर
मुखिया के बंद दालान में
टीवी के सामने
बटेसर काका ने रख दी है
बगल में वह लाठी
जिससे मार गिराया था
क्रूर अंग्रेज कमिश्नर को
और लड़ते रहे थे बीस साल
लगातार
मुस्कान में डूब रहा है
रघुवा भी बैठा
देख-देख रंगीन चित्र
जिसने हिला दिए थे
अंगद-पाँव मुखिया के
पिछले चुनाव में
मुखिया के बंद दालान में
अँकवार भर की एक मशीन बोल रही है
और सुन रहा है
सारा का सारा गाँव
चुपचाप और चकाचौंध
पाँव तुड़ाकर बैठा
कैसे टूटेंगी दालान की
चाक-चौबंद दीवारें ?
कौन खुरचेगा यह चकाचौंध
और नीम मुर्दनी ?
पंचायत के गुंबद को
कौन मुक्त कराएगा सर्पपाश से ?
अब तो उकेरनी ही चाहिए
यह राख
और यह चिंगारी...
होता जा रहा है सुनसान
कालीथान का पीपल
हो गया है अकेला
क्यों जमती जा रही है
थाक-थाक भर धूल यहाँ ?
तीरडंडी स्वामी की मठिया पर
नहीं बैठ रही अब
गाँव की कोई संसद
उठती जा रही हैं
गाँव की चौपालें
लोगों ने कम कर दिया है क्यों
-कालीथान पर बैठना
-मठिया पर जमा होना
-देश-दुनिया पर बहस करना
-अपनी भूमिका तय करना !
कुछ सुना आपने ?
मँगवा लिया है मुखिया ने रंगीन टीवी
और अब बनकर हँसमुख
देने लगे हैं पनाह
पूरे गाँव को
बंद दरवाज़े के भीतर
दालान में
तमाम लोग बैठ गए हैं चुप
गोजी रखकर
मुखिया के बंद दालान में
टीवी के सामने
बटेसर काका ने रख दी है
बगल में वह लाठी
जिससे मार गिराया था
क्रूर अंग्रेज कमिश्नर को
और लड़ते रहे थे बीस साल
लगातार
मुस्कान में डूब रहा है
रघुवा भी बैठा
देख-देख रंगीन चित्र
जिसने हिला दिए थे
अंगद-पाँव मुखिया के
पिछले चुनाव में
मुखिया के बंद दालान में
अँकवार भर की एक मशीन बोल रही है
और सुन रहा है
सारा का सारा गाँव
चुपचाप और चकाचौंध
पाँव तुड़ाकर बैठा
कैसे टूटेंगी दालान की
चाक-चौबंद दीवारें ?
कौन खुरचेगा यह चकाचौंध
और नीम मुर्दनी ?
पंचायत के गुंबद को
कौन मुक्त कराएगा सर्पपाश से ?
अब तो उकेरनी ही चाहिए
यह राख
और यह चिंगारी...
वर्ष 1990-91 के दौरान लिखी रचना / ' प्रेम के अकाल में ' (1998) में संग्रहित / डा. नागेश्वर लाल संपादित ग्रंथ ' अंतिम दशक की लंबी कविताएं ' में कवि-वक्तव्य और डा. शम्भु बादल की टिप्पणी समेत संकलित
कविता का एक एक अंश बेहतरीन और अलग हटकर चित्र प्रस्तुत करता है।
जवाब देंहटाएंसादर
बंधुवर यशवन्त जी, रचना पर गंभीर दृष्टिपात और उत्साहवर्द्धन के लिए अनौपचारिक हार्दिक आभार..
हटाएंअच्छी और सार्थक कवितायेँ ...बधाई आपको
जवाब देंहटाएंबंधुवर रामजी बाबू, हार्दिक आभार..
हटाएंबहुत अच्छी और प्रभावशाली कवितायें श्यामल जी ! अपने समय की विद्रूपता के रेखाचित्र खींचती हुई इन रचनाओं के लिए आपको बधाई !
जवाब देंहटाएंबंधुवर अरुण जी, आपकी प्रतिक्रिया से बल मिला है... अनौपचारिक हार्दिक आभार...
हटाएंachchhi kavitayen badhai
जवाब देंहटाएंअनौपचारिक हार्दिक आभार उर्मिला जी..
हटाएं