सांसत में हमारा शब्‍द-संसार

स्‍मृतिशेष, स्‍मृतियां अशेष ::::: महाकवि जानकीवल्‍लभ
 हमारा साहित्य क्षेत्र सांसत और सीलन से इसलिए भरा हुआ है क्योंकि इसे अंधेरे और चौतरफा बंद दुनिया में बदल दिया गया है। मीडिया में राजनीति और अपराध से लेकर धर्म, स्वास्थ्य, शेयर, फैशन, ज्योतिष और खानपान आदि तक जैसे सभी गतिविधि-क्षेत्रों की भीतरी पड़ताल बतौर न्यूज स्टोरी आती है लेकिन साहित्य की कभी नहीं। इस पर न्यूज स्टोरी जैसी पड़ताल-सामग्री न कोई लिखना पसंद करता है न छापना। यह परिपाटी न जाने कब बदलेगी कि साहित्य पर जब लिखेगा तो कोई न कोई कथाकार-कवि-समीक्षक या प्रोफेसर-अध्यापक जैसा जीव ही। उस पर तुर्रा यह कि कलम चलाते या की-बोर्ड खटखटाते हुए ऐसे महाशय के सामने कोई आम पाठक शायद ही कभी होता हो। वह सीधे-सीधे समझ में आने वाली बात कह ही नहीं सकता। उसके शब्द-वाक्य पकौड़ी-जलेबियों की तरह ही होंगे! छनते हुए, छन्‍न-छन्‍न करते। उसे दरअसल अपना लोहा जो मनवाना होता है फलां ‘तीसमार खां’ आलोचक या चिलां ‘मियां मिट्ठू’ समीक्षक से। इसलिए वह सामान्य जिज्ञासु के लिए लिखता ही नहीं, लिहाजा आम नागरिक यहां की भीतरी हालत कभी जान नहीं पाता।

साहित्य की सांसत भरी दुनिया 

मूल्यांकन का मायाजाल


संदर्भ : उत्तर छायावाद के सबसे बड़े कवि जानकी वल्‍लभ शास्‍त्री की उपेक्षा
♦ श्याम बिहारी श्यामल

मुजफ्फरपुर में अपने आवास निराला निकेतन के बरामदे पर प्रिय श्‍वानों के साथ बैठे शास्‍त्री जी।
किसने बांसुरी बजायी ♦ आचार्य जानकी वल्‍लभ शास्‍त्री
जनम जनम की पहचानी वह तान कहां से आयी
किसने बांसुरी बजायी
अंग अंग फूले कदंब सांस झकोरे झूले
सूखी आंखों में यमुना की लोल लहर लहरायी
किसने बांसुरी बजायी
जटिल कर्म पथ पर थर-थर कांप लगे रुकने पग
कूक सुना सोये-सोये हिय मे हूक जगायी!
किसने बांसुरी बजायी
मसक मसक रहता मर्मस्‍थल मरमर करते प्राण
कैसे इतनी कठिन रागिनी कोमल सुर में गायी!
किसने बांसुरी बजायी
उतर गगन से एक बार फिर पी कर विष का प्‍याला
निर्मोही मोहन से रूठी मीरा मृदु मुस्‍कायी!
किसने बांसुरी बजायी
भिन्न रुचि के पाठकों को शायद ही इस बात का अंदाजा हो कि उनकी भाषा के साहित्य का भीतरी हाल फिलहाल कितना डावांडोल चल रहा है! गुटबंदी, व्यूहबंदी और दिल्ली-केंद्रीयता ने शब्दों की इस दुनिया को लंबे समय से सांसत में डाल रखा है। जो रचनाकार गुट, व्यूह और दिल्ली-दल की इस तिकड़ी से बाहर है, उसकी कोई खोज-खबर तक लेने को तैयार नहीं, भले ही वह कितना भी महत्वपूर्ण रच रहा हो। पत्र-पत्रिका से लेकर प्रकाशन-केंद्रों तक यही तिकड़ी काबिज है। इसलिए स्वाभाविक रूप से साहित्य की मुद्रित दुनिया गढ़ने की ताकत भी बहुत हद तक उसी के हाथ आ गयी है। ऐसे में क्या-क्या अनर्थ हो सकता है, हो रहा है या हो चुका है, इसका ताजा उदाहरण हैं आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री का हश्र।
96 वें साल में सात अप्रैल को अंतिम सांस लेने वाले शास्त्री जी ने लंबे समय तक घनघोर उपेक्षा झेली। उत्तर छायावाद के इस महान कवि का उत्तर-जीवन जैसी घोर उपेक्षा और अनदेखी के गहन अंधेरे में डूबा रहा, यह हिंदी साहित्य का एक लोमहर्षक वृत्तांत है। उनके निधन के बाद एक-डेढ़ हफ्ते तक किसी ‘बड़े’ का कोई औपचारिक शोक वक्तव्य तक कहीं नहीं दिखा। दो हफ्ते बाद अचानक साहित्य अकादेमी में हुई शोकसभा का समाचार अखबार में चमका। आलोचकों में डॉ नामवर सिंह, मैनेजर पांडेय, गोपेश्वर सिंह तो कवियों में केदारनाथ सिंह, अशोक वाजपेयी, मदन कश्यप और अनामिका की उपस्थिति की चर्चा के साथ। सबने जानकीवल्लभ के लेखन को महत्वपूर्ण बताया। उन्हें बड़ा रचनाकार स्वीकारा और उनके मूल्यांकन की आवश्यकता जतायी। कवि केदारनाथ सिंह ने तो उन्हें टैगोर और निराला की परंपरा का अंतिम गीतकार घोषित करते हुए श्रद्धांजलि दी।
अनोखे रचनाकार :: जानकीवल्‍लभ शास्‍त्री
उनका पद्य हो या गद्य, भाव ऐसे प्रबल-प्रचुर कि संवेदना ऐंठती हुई गन्ने-सी छलक-छलक जाए! एक-एक वाक्य और शब्द-शब्द जहां व्याख्येय हों। आत्मा निचोड़कर लिखा यह साहित्य किसी के मिटाये मिटने से तो रहा। लिहाजा उनकी अप्रकाशित सामग्री सहेजने और सबको प्रकाशित किये जाने का यत्न होना चाहिए। इसके बावजूद उनकी जितनी चीजें प्रकाशित और रेखांकित हैं, वह अपर्याप्त नहीं। इसमें दो राय नहीं कि भविष्य में जब कभी भी हमें अपने भाषा-साहित्य में क्लासिकी की तलाश हो – प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद और निराला के बाद सीधे जानकीवल्लभ शास्त्री के पास ही ठौर मिल सकेगी। इसलिए यहां मूल सवाल यह कि हम दिल्ली के बाहर के अपने बड़े साहित्यकार को भी क्या मरणोपरांत ही पहचानेंगे?
जानकीवल्लभ को जानने वाले बता सकते हैं कि कैसे दशकों से हमारा यह महान साहित्यकार अपनी ही साहित्यिक बिरादरी की घोर उपेक्षा और अनदेखी से कातर रहा! खोज-खबर लेने वाला न समालोचक-समीक्षक, न कोई प्रमुख पत्रिका का संपादक। महज छह माह पहले की ही बात है। नेट पर एक ब्लॉग ने उनकी कविताएं प्रस्तुत की। मॉडरेटर ने शीर्षक लगाया ‘भूले कवि जानकीवल्लभ शास्त्री की कुछ बिसरी कविताएं’! और, इन ‘बिसरी’ कविताओं के साथ की प्रस्तुति-टिप्पणी भी देख लीजिये, ‘…आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री मुजफ्फरपुर के ऐसे क्लासिक हैं, जिनके बारे में बात तो सब करते हैं लेकिन पढ़ता कोई नहीं है। उनके कुत्तों, उनकी बिल्लियों, उनकी गायों, उनकी विचित्र जीवन शैली की चर्चा तो सब करते हैं लेकिन उनकी कविताओं की चर्चा शायद ही कोई करता हो। पिछले दिनों पद्मश्री ठुकराने के कारण वे चर्चा में थे। जीवन के नौ से अधिक दशक देख चुके शास्त्री जी तन से भले अशक्त दिखते हों, मन में वही ठसक, वही बांकपन दिखता है। अब तो इस उपेक्षित कवि की वे पंक्तियां खुद उनके संदर्भ में अर्थपूर्ण प्रतीत होती हैं- फूले चमन से रूठकर / बैठी विजन में ठूंठ पर / है एक बुलबुल गा रही / कैसी उदासी छा रही…’ इस सर्वत्र व्याप्त आम अहसास से भी अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारी भाषा के इस सिरमौर रचनाकार ने कैसी मनःस्थितियों में अपने अंतिम दिन बिताये! इस स्थिति का अपराधी कौन है?
जानकीवल्लभ ने अपने अंतिम वर्ष कितनी वेदना में बिताये हैं, इसका कलेजा दहला देने वाली झलक कवियत्री रश्मिरेखा द्वारा मुजफ्फरपुर से प्रेषित एक संवाद से मिलती है। सर्वथा स्तब्धकारी! कुछ ही माह पहले की बात। एक पत्रिका में रश्मिरेखा ने शास्त्री जी पर आलेख लिखा। अंक आया तो लेकर पहुंचीं। बुजुर्ग के आग्रह पर लेख का पाठ करने लगीं। अब दृश्य यह कि वह आलेख का पाठ कर रही हैं और सामने बैठे 95 पार के जानकीवल्लभ जार- बेजार रो रहे हैं! यह किसका रुदन है? एक निष्णात कवि-मात्र का या स्वयं साकार अभागे हिंदी साहित्य का? यह सवाल किसी बिहार के मुजफ्फरपुर से नहीं, इतिहास के गलियारों से उठ रहा है जिसका उत्तर देने से बचा नहीं जा सकता। जिम्मेवार तत्वों की हुतात्मा तक को जवाब देना-चुकाना ही पड़ेगा! कहना न होगा कि जानकीवल्लभ की शख्सियत कभी किसी के लिए अज्ञात नहीं रही।
यह भला किसे पता नहीं कि पिछली शताब्दी के तीसरे दशक में एक रचना पढ़कर स्वयं महाप्राण निराला जिस ‘प्रिय बाल पिक’ से मिलने बनारस के काशी हिंदू विश्वविद्यालय परिसर स्थित रुइया हॉस्टल जा पहुंचे थे, वह किशोर कोई और नहीं बल्कि जानकीवल्लभ थे! इससे पहले महामना मदनमोहन मालवीय ने बिहार के गया जिले के मैगरा गांव से आये जिस गरीब किशोर को अपने खर्चे पर शिक्षा दिलाने का कदम उठाया वह दूसरा कोई नहीं, जानकीवल्लभ ही थे! यह भी किसी से छुपा नहीं रहा कि मुजफ्फरपुर के जन-जन और बिहार के प्रबुद्ध समाज में सर्वज्ञात यह शख्स लगातार सृजनरत रहा। यह वस्तुतः उनकी कोई भूल-गलती नहीं, बल्कि सर्वोच्च मूल्य चुकाकर बरती गयी उत्कृष्ट नैतिकता ही है कि उन्होंने किसी की झंडाबरदारी कुबूल नहीं की। मन को यदि कोई राजनीतिक विचार नहीं जंचा तो न सही। कभी कोई चिंता-चतुराई नहीं। किसी गुट-गुटके की परवाह नहीं। जहां जैसे रहे, ठनकते रहे। कवि थे और अपनी एक कविताई दुनिया रच रखी थी।
मुजफ्फरपुर में बड़े-से आहाते वाला उनका निराला निकेतन साहित्य संसार का एक अनोखा हिस्सा बना रहा। यहां आने वालों में नाट्यसम्राट पृथ्वीराज कपूर से लेकर निराला और त्रिलोचन-नामवर तक के नाम शामिल हैं! यहां कौन नहीं पहुंचा! उन पर लिखने या उनके बारे में चर्चा करने से भले लोग बचते रहे लेकिन अंत-अंत तक मौका पाते ही वहां पहुंचने से कोई बचता न था! रोज तो कोई न कोई पहुंचा ही रहता था। ऐसे में यह मानना ही होगा कि आज के भाग्य विधाताओं में सबको सब कुछ पता था, किंतु किसी ने एक नहीं सोची। इसलिए उनकी उपेक्षा साहित्य के नीति-नियंताओं के दामन पर एक ऐसा दाग है जिसे धोने में शायद पृथ्वी-भर का जल भी कम पड़े। दिमाग में बार-बार महाभारत का अभिमन्यु-वध दृश्य उभर रहा है! एक योद्धा, जिसे छल के साथ चारों ओर से घेर लिया गया और मौत के घाट उतार दिया गया। घोर अनैतिकता और खालिस नाइंसाफी के साथ। शर्मनाक उदाहरण!
दरअसल, हमारा साहित्य क्षेत्र सांसत और सीलन से इसलिए भरा हुआ है क्योंकि इसे अंधेरे और चौतरफा बंद दुनिया में बदल दिया गया है। मीडिया में राजनीति और अपराध से लेकर धर्म, स्वास्थ्य, शेयर, फैशन, ज्योतिष और खानपान आदि तक जैसे सभी गतिविधि-क्षेत्रों की भीतरी पड़ताल बतौर न्यूज स्टोरी आती है लेकिन साहित्य की कभी नहीं। इस पर न्यूज स्टोरी जैसी पड़ताल-सामग्री न कोई लिखना पसंद करता है न छापना। यह परिपाटी न जाने कब बदलेगी कि साहित्य पर जब लिखेगा तो कोई न कोई कथाकार-कवि-समीक्षक या प्रोफेसर-अध्यापक जैसा जीव ही। उस पर तुर्रा यह कि कलम चलाते या की-बोर्ड खटखटाते हुए ऐसे महाशय के सामने कोई आम पाठक शायद ही कभी होता हो। वह सीधे-सीधे समझ में आने वाली बात कह ही नहीं सकता। उसके शब्द-वाक्य पकौड़ी-जलेबियों की तरह ही होंगे! छनते हुए, छन्‍न-छन्‍न करते। उसे दरअसल अपना लोहा जो मनवाना होता है फलां ‘तीसमार खां’ आलोचक या चिलां ‘मियां मिट्ठू’ समीक्षक से। इसलिए वह सामान्य जिज्ञासु के लिए लिखता ही नहीं, लिहाजा आम नागरिक यहां की भीतरी हालत कभी जान नहीं पाता।
यदि साहित्य-संसार की गैर साहित्यिक यानी तथ्यात्मक पड़ताल भी समानांतर आती रहे तो उन प्रभावशाली लोगों के मन पर एक जन-दबाव अवश्य रह सकेगा जो जाने-अनजाने इस क्षेत्र को बना-बिगाड़ पाने की क्षमता समेटकर बैठे हुए हैं। ऐसे लोग आंखें मूंदे-मूंदे आम को अमरूद तो अमरूद को सेब बताकर भी अड़ और लड़ लेते हैं! यह दुनिया यदि खुली और सूचना के स्तर पर जन-जन से नियमित जुड़ी होती तो यहां कोई अपने-आप ‘साहित्य का स्वयंभू नियंत्रक और महालेखा परीक्षक’ नहीं बन बैठा होता। जानकीवल्लभ शास्त्री के मामले में बरती गयी मनमानी से तो यही सिद्ध होता है!
( 'मोहल्‍ला लाइव' पर 24 अप्रैल 2011 को प्रकाशित) 
 इस रचना सं संबंधित ' मोहल्‍ला लाइव ' का लिंक     http://mohallalive.com/2011/04/24/shyam-bihari-shyamal-on-janki-vallabh-shastri-2/
'मोहल्‍ला लाइव' पर दर्ज प्रतिक्रियाएं





  • jai kumar jha said: आजकल योग्यता व अच्छी सोच की नहीं बल्कि पैसे का जमाना व चलन है…पैसा जिसके पास है वही सबसे बरे सम्मान का हक़दार है चाहे वो पैसा चोरी,डकैती व बेईमानी से ही क्यों ना आया हो….






  • awesh said: श्यामल जी ,गुट ,व्यूह और दिल्ली दल में सिमटे हिंदी साहित्य के तथाकथित पुराधों से आप शास्त्री जी को स्वीकृत किये जाने के अपेक्षा ही क्यूँ करते हैं ?शास्त्री जी ने कभी खुद भी ऐसा नहीं चाहा |हिंदी साहित्य अभागा तो है ही ,अब निस्तेज भी हो रहा है |






  • नवीन said: भईया प्रणाम
    जो बने थे संवारने के लिये उन्होने कभी संवारा ही नही,
    और जो संवार सकते थे , उन्हे वो चीज गंवारा ही नही…
    हम साहित्य के क्षेत्र मे जो देख रहे है उसके उपर यह लिख रहे है कि जो स्व्यम्भु होते है और फिर एन केन प्रकारेण एक पद पे पहुंच जाने के बाद उनके लिये हमेशा हर महान रचनाकार , साहित्यकार , जो सही मायने मे है वो कुछ नही है !
    आपकी यह पंक्ति – हमारा साहित्य क्षेत्र सांसत और सीलन से इसलिए भरा हुआ है क्योंकि इसे अंधेरे और चौतरफा बंद दुनिया में बदल दिया गया है।
    हर एक चीज को साफ साफ या युँ कहे तो सच्चाई का प्रतिबिम्ब बन के दिखा रही है !
    खैर हम उनसे क्यो उम्मीद करे जब हम खुद ही उन्हे उनकी असलियत मे परिभाषित कर चुके है ! इसलिये हम दोष स्वयँ पे लेते हुये आज के युवा पीढी को देते हुए जिनके लिये शास्त्री जी मानक और पथ प्रदर्शक हो सकते है यह गुजारिश करना चाहेंगे की इस लेख से हमे बहुत कुछ सबक के तौर पे सीखते हुये भविष्य मे , भविष्य के लिये वो सीलन , वो बदबुदार , वो सांसत से भरा माहौल न दे , उसके लिये प्रयास होना चाहिये !
    अगर कुछ गलत या ज्यादा लिख दिया हो तो क्षमा !
    आपका
    नवीन






  • जगदीश्वर चतुर्वेदी said: बहुत सुंदर और सटीक लिखा है।






  • विमलेश त्रिपाठी said: बिल्कुल सही लिखा है आपने..शायद अब लोगों के कानों में जूं रेंगे… आभार






  • Manoj Chaabra said: बिलकुल सही बात है श्यामल जी, हिंदी साहित्य जगत जितनी गुट-बाजी का शिकार है वैसा उदाहरण अन्यत्र शायद ही देखने को मिले…






  • अभिनव अरुण said: आचार्य पर श्यामल जी का लेख हम साहित्यकारों की चेतना को चुनौती देता प्रतीत हो रहा है |हम सब अपने अपने सुख के दडबे में प्रशंसा और आलोचना की लुकाछिपी खेल रहे हैं | और एन्जॉय भी कर रहें हैं |आज जो पठनीयता का संकट है उसके लिये भी अपनी ढफली अपना राग की यह प्रवृति भी जिम्मेदार है | श्यामल की सक्रियता और उनका शोधपरक लेखन सराहनीय है | लेखक को शुभकामनाएं |






  • Ramanbhai Rathod said: Yeh paristhiti hamare mulk ki sabhi Bhashao ke liye paida hooi hai.Achhchhe se achhchhe Sahityakar ko bhi gumnami me chale jaana padta hai.Sanman ke liye bhi dekha jaata hai ki woh Sarkar se kitna karib hai.Svamani Sahityakar aisi chamchagiri se door rehta hai to oosi se naa-insaafi hoti hai.Aise kitne pratibhasaali sahityakar Likhna bandh karte hai.Nooksaan to hamare Mulk ko hi hota hai.Main to lagta hai andhere me khada hoon aur oojaale ki koi ummid nahi.






  • Bishwa Nath Singh said: Thanks for sharing with an awesome write-up.Acharya Shastri Ji was an institution in himself who will be remembered and cherished for long for his great contribution in promoting Hindi as our country’s national language.Let me join others to pay our respectful homage to him! Such pesonality is rarely seen in this world.






  • navneet pandey said: गुटबंदी, व्यूहबंदी और दिल्ली-केंद्रीयता ने शब्दों की इस दुनिया को लंबे समय से सांसत में डाल रखा है। जो रचनाकार गुट, व्यूह और दिल्ली-दल की इस तिकड़ी से बाहर है, उसकी कोई खोज-खबर तक लेने को तैयार नहीं, भले ही वह कितना भी महत्वपूर्ण रच रहा हो। पत्र-पत्रिका से लेकर प्रकाशन-केंद्रों तक यही तिकड़ी काबिज है। इसलिए स्वाभाविक रूप से साहित्य की मुद्रित दुनिया गढ़ने की ताकत भी बहुत हद तक उसी के हाथ आ गयी है।
    दरअसल, हमारा साहित्य क्षेत्र सांसत और सीलन से इसलिए भरा हुआ है क्योंकि इसे अंधेरे और चौतरफा बंद दुनिया में बदल दिया गया है। मीडिया में राजनीति और अपराध से लेकर धर्म, स्वास्थ्य, शेयर, फैशन, ज्योतिष और खानपान आदि तक जैसे सभी गतिविधि-क्षेत्रों की भीतरी पड़ताल बतौर न्यूज स्टोरी आती है लेकिन साहित्य की कभी नहीं। इस पर न्यूज स्टोरी जैसी पड़ताल-सामग्री न कोई लिखना पसंद करता है न छापना। यह परिपाटी न जाने कब बदलेगी कि साहित्य पर जब लिखेगा तो कोई न कोई कथाकार-कवि-समीक्षक या प्रोफेसर-अध्यापक जैसा जीव ही। उस पर तुर्रा यह कि कलम चलाते या की-बोर्ड खटखटाते हुए ऐसे महाशय के सामने कोई आम पाठक शायद ही कभी होता हो। वह सीधे-सीधे समझ में आने वाली बात कह ही नहीं सकता। उसके शब्द-वाक्य पकौड़ी-जलेबियों की तरह ही होंगे! छनते हुए, छन्‍न-छन्‍न करते। उसे दरअसल अपना लोहा जो मनवाना होता है फलां ‘तीसमार खां’ आलोचक या चिलां ‘मियां मिट्ठू’ समीक्षक से। इसलिए वह सामान्य जिज्ञासु के लिए लिखता ही नहीं, लिहाजा आम नागरिक यहां की भीतरी हालत कभी जान नहीं पाता।
    बहुत ही सटीक और सही विश्लेषण किया है आपने तथाकथित बड़ों और उनकी बाड़ेबंदी, सोच का






  • Dr. Sushil Kumar said: A discourse with depth, an honest review and evaluation with unconventional wisdom!
    Congratulations!
    Sushil






  • रवि भूषण पाठक said: आचार्य जानकी बल्‍लभ शास्‍त्री की उपेक्षा करने वाले आलोचक तो हिंदी आलोचना के सिरमौर बने हुए हैं,अत:उनकी भी खबर लेनी चाहिए ,वैसे श्‍याम बिहारी जी ने बहुत ही सटीक लिखा है ।






  • satyendra said: मैं साहित्य के बारे में बहुत नहीं जानता. हाँ, इतना समझ पाता हूँ कि पहले भी एक साहित्य राजे-महराजों के लिए लिखा जाता था और एक आम जनता के लिए. जो जनता के लिए लिखा जाता है, उसे जनता पढ़ती है और जो राजे महराजों के लिए लिखी जाती है.. वो साहित्य या लेखन वह वर्ग पढता है. समीक्षा वगैरह से अगर कोई विख्यात होता है तो ये अलग मामला बन जाता है…तब तो विशुद्ध रूप से मार्केटिंग वाला मामला है, उसमे आम लोगों को हटा ही दिया जाना चाहिए, बाजार जो पढ़वाएगा, वही साहित्य बनेगा!
    हिंदी ही क्या, दुनिया के तमाम भाषाओँ में लेखन होता है, तमाम चीजें लोगों तक पहुच पाती हैं, और ज्यादातर नहीं पहुच पाती हैं. आम जीवन पर प्रभाव डालने वाला लेखन भी अगर दमदार है तो लोग उसके प्रसार का मीडिया बन जाते हैं और वो जन-जन तक पहुच ही जाता है.






  • अनिल जनविजय said: बेहद अच्छा लेख लिखा है, श्यामल जी! अब महाकवि पर एक किताब भी लिख दीजिए। मेरी शुभकामनाएँ ।






  • Hemant Bharatpuri said: Really it is very sad. so many potential poets disappeared from the site of readers.






  • Satya Mitra Dubey( Satya Dubey) said: Ap Ka Alekh Bahut Sameecheen Hai.






  • Dinesh Mishra said: बिलकुल सही बात है श्यामल जी, बहुत ही सटीक और सही विश्लेषण…..!!






  • शशिभूषण said: आपने बहुत अच्छा लिखा है।
    किसी बहुत अच्छे साहित्यकार की दुर्दशा और उपेक्षा देखकर दुख तो बहुत होता है पर फिर यह खयाल भी आता है कि कोई फर्क नहीं पड़ता किसी संत की असंत क्या कद्र जानेगा? बोदा शख्स मेधा को कैसे पुरस्कृत करेगा? बेईमान,ईमानदार को क्या ईनाम देगा? सच्चे साहित्यकार अपना सम्मान आप होते हैं। कुछ बनिया बक्काल जिन साहित्यकारों का ओहदा बढ़ाते रहते हैं उन्हें आसन-गद्दी आदि देते हैं वे सहारा हटते ही लद्द से गिर पड़ते हैं और कोई उठाने तक नहीं जाता।
    विश्वविद्यालय,पत्रिकाएँ और प्रकाशनगृह साहित्य की सत्ताएँ हैं। इन्हें साध लो तो कैसे भी लेखक रहो छाए रहोगे पर सच यह है लेखक होने की धुन लग जाए तो इनकी परवाह करने कौन जाएगा।
    एक लेखक और पत्रकार के रूप में आपने अपना दायित्व निभाया। अपने पक्ष के साथ सामने आए यही साहित्य की स्वस्थ परंपरा है। यह कभी क्षीण न हो यही कामना है। वरना सच्चे लेखकों,कलाकारों,संस्कृतिकर्मियों की दुर्गति कम होने के दूर दूर तक आसार दिखाई नहीं देते।…






  • आशुतोष कुमार said: जरूरी हस्तक्षेप.”ताड़ खड़खड़ाते हैं , केवल चील गीध ही गाते .”जैसी पंक्ति लिखने वाले इस कवि ने केवल प्राकृतिक अकाल की ही नहीं , सांस्कृतिक अकाल की ओर भी इशारा किया था.अपनी विरासत को जंग और गर्द से बचाने जिम्मेदारी हम सब की है , क्योंकि हिंदी में तो सब कुछ होना हमेशा ही बचा रहता है.






  • leena said: योग्यता एक चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है उसकी शेष पूर्ती प्रतिष्ठा से होती है. मोहन राकेश जी कि यह पंक्तियाँ इस सन्दर्भ में और वर्तमान परिस्थितियों और मापदंडो पर सटीक उतरती है. साहित्य में समाज का रुख मोड़ने कि शक्ति होती है. कलम की शक्ति का परिचय आप सभी महान लेखकों को देने की आवश्यकता नहीं है. प्रतिभा का सम्मानित होना बहुत ज़रूरी है.






  • mayamrig said: हिन्‍दी कविता की महान परंपरा में से लुप्‍त या कि अज्ञात रही एक महत्‍वपूर्ण कड़ी को जोड़ने का आपका काम बधाई योग्‍य है। छायावाद के बाद उत्‍तर छायावादी धारा सरस्‍वती की तरह लुप्‍त ही रही, अन्‍य गंगा, जमना को सब देख पाये। जानकीवल्‍लभ शास्‍त्री जी से परिचय पाना एक पूरी परंपरा से साक्षात्‍कार करना है। इस जानकारी के बाद अपनी अज्ञानता पर लज्जित हूं कि इतने महत्‍वपूर्ण कवि को अब तक ना जान पाया….। अब कुछ जाना है तो अधिक जानने की इच्‍छा हो चली है। आपका प्रयास सार्थक रहा।






  • asangghosh said: साहित्‍यकारों की उपेक्षा करना केन्‍द्र अथवा राज्‍य, हर सरकार का शगल बन गया है, लेकिन खुद साहित्‍यकारों द्वारा ही वरिष्‍ठ साथी की समय पर सुध नही ली जाना गंभीर चिंता का ि‍वषय है.






  • asangghosh said: साहित्‍यकारों की उपेक्षा करना केन्‍द्र अथवा राज्‍य, हर सरकार का शगल बन गया है, लेकिन खुद साहित्‍याकारों द्वारा ही वरिष्‍ठ साथी की समय पर सुध नही ली जाना गंभीर चिंता का ि‍वषय है.






  • Anuj Kulshrestha said: श्याम बिहारी जी आपका लेख जानकी वल्लभ शास्त्री के ऊपर लिखा हुआ पढ़ा आपने जो उनकी यादो और उनके कद को जिस तरीके से शब्दों में डाला है वो बहुत ही कमाल का है|
    मैं वास्तव में आपके लेख को पढ़कर दुखी हुआ कि किस तरह भारत में भाई भतीजावाद हावी है| एक सम्मानित एवं श्रेष्ठ कवि की उपेक्षा करना साहित्य का अपमान करना है| आपने जिस तरीके से सब चीजो पर धायं खींचा है वास्तव में वो प्रंशसनीय है|
    आप साहित्य की जिस नि:स्वार्थ भाव से सेवा कर रहे है वो तो काफी तारीफे काबिल है|






  • अरुणाकर पाण्डेय said: आपने सचमुच बहुत ही भयानक और मार्मिक स्थिति को उजागर किया है,लेकिन आवश्यकता है ऐसे ही अन्य उपेक्षित रचनाकारों पर भी लगातार चर्चा करते रहने की !
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    About Shyam Bihari Shyamal

    Chief Sub-Editor at Dainik Jagaran, Poet, the writer of Agnipurush and Dhapel.
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