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हिन्दी साहित्य की अनोखी आंखें : नामवर जी |
नामवर जी की चिंतन-प्रणाली की एक खासियत कि किसी भी बात को
वह कभी अंतिम तौर पर बंद नहीं करते। ऐसा नहीं कि जो कह दिया, उस पर आगे सोचना
रोककर सदा के लिए अड़ गये। जीवन जब गतिमान हो और ज्ञान-मनीषा की धार
लगातार प्रवहमान, तो विमर्श भला स्थिर या रुका हुआ कैसे हो सकता है। कोई
स्थापना भला अंतिम सत्य कैसे हो सकती है। इसीलिए तो कितना भी लिख-बोल चुकने
के बावजूद उनकी लेखनी और वाणी का काम लगातार शेष बना हुआ है। उन्हें कितना
भी पढ़ा जा चुका हो, किसी ने कितने भी व्याख्यान सुन रखे हों, उन्हें
फिर-फिर पढ़ने-सुनने की इच्छा कभी धीमी नहीं पड़ती। उन्हें पढ़ना-सुनना
हमेशा बचा रहता है। वह कभी किसी ऐसे विषय पर भी पर्याप्त रोचक ढंग से और
ढेरों नयी सूचनाएं देते हुए लंबा व्याख्यान दे सकते हैं जिसके बारे में आप
पहले से सोच भी नहीं सकते। साहित्येतर लगने वाले विषय पर भी पूरी तरह
साहित्य-प्रसंगों से भरा व्याख्यान। ऐसा कि आप चकित रह जाएं।
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दुर्लभ संगत : कवि त्रिलोचन जी के साथ |
झरना ऊपर से झर रहा है, भीतर से भर रहा है
श्याम बिहारी श्यामल
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दृष्टि जिसकी दुनिया कायल है : नामवर जी |
नामवर
जी आज 84 के हो गये। यह सोचते-कहते हुए कैसा तो लग रहा है? ऐसा इसलिए
क्योंकि उनके पाठक, श्रोता और निकटस्थों ने उन्हें जब देखा है, एक नये रूप
में। पुरानापन का तो जैसे उनसे दूर-दूर का कोई रिश्ता ही न हो। उनसे जैसे
भी जहां भेंट हो, छापे के अक्षरों के बीच या सभाकक्ष अथवा प्रत्यक्ष रूप
में सामने ही, हर बार वह नवीन रूप में मिलते हैं। आश्चर्य होता है कि एक
व्यक्ति स्वयं में कैसे इतना वैविध्य विमर्श-कोणों का समन्वय-बिंदु हो सकता
है! वह जब कभी मुंह खोलते हैं, कोई न कोई नयी बात सामने आती है। हमेशा एक
टटका नजरिया। यह किसी के लिए बेशक असहज या अस्वीकार्य भी हो सकती है। कोई
चाहे तो तीव्र असहमत भी हो ले। किसी को कभी ठेस-धक्का पहुंचना भी मुमकिन
है, किंतु उन्हें निकट से जानने वाले समझते हैं कि कुछ भी बोलते-लिखते हुए
वह कभी व्यक्तिगत नहीं रहते। उनकी नजरें जैसी पैनी और मुस्कान चमकीली हैं,
व्यवहार-बात भी वैसी ही समभावी। उनके पैमाने पर जब जो बात व्यक्त करने
योग्य होकर सामने आती है, वह बहुत जिम्मेवारी और मजबूती से सामने रख देते
हैं।
उनकी चिंतन-प्रणाली की एक खासियत यह कि किसी भी बात को
कभी अंतिम तौर पर बंद नहीं करते। ऐसा नहीं कि जो कह दिया, उस पर आगे सोचना
रोककर सदा के लिए अड़ गये। जीवन जब गतिमान हो और ज्ञान-मनीषा की धार
लगातार प्रवहमान, तो विमर्श भला स्थिर या रुका हुआ कैसे हो सकता है। कोई
स्थापना भला अंतिम सत्य कैसे हो सकती है। इसीलिए तो कितना भी लिख-बोल चुकने
के बावजूद उनकी लेखनी और वाणी का काम लगातार शेष बना हुआ है। उन्हें कितना
भी पढ़ा जा चुका हो, किसी ने कितने भी व्याख्यान सुन रखे हों, उन्हें
फिर-फिर पढ़ने-सुनने की इच्छा कभी धीमी नहीं पड़ती। उन्हें पढ़ना-सुनना
हमेशा बचा रहता है। वह कभी किसी ऐसे विषय पर भी पर्याप्त रोचक ढंग से और
ढेरों नयी सूचनाएं देते हुए लंबा व्याख्यान दे सकते हैं जिसके बारे में आप
पहले से सोच भी नहीं सकते। साहित्येतर लगने वाले विषय पर भी पूरी तरह
साहित्य-प्रसंगों से भरा व्याख्यान। ऐसा कि आप चकित रह जाएं।
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दुर्लभ चित्र : युवा नामवर जी |
ऐसा ही एक प्रसंग यहां उल्लेखनीय है। संभवतः सन 2000
की बात है! धनबाद में केंद्रीय ईंधन अनुसंधान संस्थान (सीएफआरआई) के
तत्कालीन निदेशक काशी हिंदू विश्वविद्यालय के छात्र रह चुके थे। नामवर जी
के शिष्य। अगाध श्रद्धा रखने वाले। उन्होंने तय किया कि अपने गुरु को
संगोष्ठी में बुलाएंगे। उन्होंने उन्हें बुला भी लिया। जब निमंत्रण-कार्ड
मिला तो मैं चकित। संगोष्ठी का जो निर्धारित विषय था, वह मजदूरों के
स्वास्थ्य को लेकर था। वैचारिक तौर पर तो एक जरूरी संदर्भ समेटने वाला
किंतु हमारी रुचि के हिसाब से निहायत शुष्क। दरअसल कुछ ही दिनों पहले ‘रेणु
रचनावली’ और ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली’ के संपादक भारत यायावर के
साथ मैंने दिल्ली-यात्रा की थी। हमदोनों ने लगभग एक पूरा दिन नामवर जी के
सानिध्य में बिताया था। उसी दौरान उन्होंने उक्त शिष्य-हठ की चर्चा की थी
और संभावित धनबाद-यात्रा का संकेत भी दिया था।
भारत यायावर ने तभी से मन बनाया था, वह सीएफआरआई वाली
संगोष्ठी के एक दिन पहले धनबाद आ गये। मैं उस समय वहां दैनिक आवाज में था।
इस अवसर पर हमने ‘नगर में नामवर’ नाम से एक परिशिष्ट भी निकाला था।
संगोष्ठी के दौरान नामवर जी जब अपना व्याख्यान देने खड़े हुए, तो हमारा
ध्यान मंच के पार्श्व में टंगे बैनर पर रेंगता रहा। निहायत ही तकनीकी
सांस्थानिक आस्वाद का पोस्टर जैसा। देखे जाने वाले की आदत में शुमार
प्रेमचंद-प्रसाद जैसे अपने किसी प्रिय साहित्यकार के चित्र से वंचित।
अपरिचित-सा इश्तहार। मन ही मन हम यही सोच-कह रहे थे कि आज तो वह यहां फंस
गये हैं। भला मजदूरों के स्वास्थ्य पर क्या बोलेंगे, कुछ औपचारिक टिप्पणी
देकर शायद बैठ जाएं! लेकिन, हमारा सोचना गलत साबित हुआ।
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अचूक निशाना : नामवर जी |
उन्होंने जब बोलना शुरू किया तो हम चकित रह गये। अपने
व्याख्यान की शुरुआत ही उन्होंने कुछ यों भावुक अंदाज में की कि हर श्रोता
जैसे उनकी वाणी से चिपक-सा गया। उनके शब्द कुछ यों थे, मुझे कभी-कभी लगता
है कि मैं कभी न कभी इन्हीं श्रम-क्षेत्रों के किसी मजदूर का बेटा था…
इसके बाद साहित्य के व्यापक परिदृश्य पर मजदूरों का
संदर्भ समेटते हुए उन्होंने इतने विविध दृष्टांत पेश किये कि यह एक
व्याख्यान सुनना ही सैकड़ों रचनाओं का आनंद-अर्क पीने जैसा बन गया। हमें यह
गहराई से अहसास होने लगा था कि यह नामवर जी की सतत अध्ययनशीलता और नयी से
नयी चीजों के प्रति व्यापक जिज्ञासा व ग्राह्यता का ही कमाल है कि वह हमेशा
स्वयं में ‘भरते’ रहते हैं। लगातार ‘देते’ हुए भी कभी ‘खाली’ होते नहीं
दिखे। अफसोस कि उस दौरान कुछ व्यक्तिगत अस्त-व्यस्तता के कारण उनका वह
व्याख्यान मैं रिकार्ड न कर सका। पता नहीं, सीएफआरआई वाले इसे रिकार्ड कर
पाये थे या नहीं। वह सदा-सदा हमारे बीच विद्यमान रहें और हिंदी साहित्य को
अपनी ऊष्मा से ऊर्जस्वित बनाये रखें, यही विनम्र कामना है।
( यह आलेख पिछले साल लिखा और 'मोहल्ला लाइव' पर प्रकाशित है )
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हिन्दी आलोचना साहित्य के तीन स्तम्भ : डा. रामविलास शर्मा और डा. मैनेजर पाण्डेय के साथ ( सभी चित्र साभार : गूगल ) |
इस आलेख पर 'मोहल्ला लाइव' में हुआ विमर्श
About
Shyam Bihari Shyamal
Chief Sub-Editor at Dainik Jagaran, Poet, the writer of Agnipurush and Dhapel.
अभी तो जन्मदिन की हार्दिक बधाई। मुझे खुशी इस बात की भी है श्यामल जी ने सुबह फेसबुक पर यह बात चलायी थी जिसे नामवर जी के बड़े बड़े परिचितों ने जन्मतिथि के सही या गलत होने पर टिका दिया पर वे रुके नहीं और यह अच्छी आत्मीय याद से भरी पोस्ट यहाँ पढ़ने को मिली।