कामायनी का हीरक-उत्‍सव

घर में दो दिन पहले से 'कामायनी' का मंचन देखने चलने की ललक क्रमश: गाढ़ा हो रही थी। सविता जी ही नहीं, तृषांत और निरंजन देव भी अपने-अपने मोबाइल फोनों के कैमरे के एंगल कसते-ऐंठते रहे। शाम होते ही हमलोग निकल चले। आयोजन-स्‍थल पर हमारी उपिस्थिति मंचन के प्रारंभ से काफी पहले दर्ज हो गई। स्‍वयं व्‍योमेश शुक्‍ल ने आगे बढ़कर स्‍वागत किया और अभी खाली ही पड़ी पंक्तियों में स्‍थान ग्रहण करा दिया। इसके बाद तो देखते ही देखते मुक्‍ताकाशीय मंच के सामने की पूरी दीर्घा ठसाठस। पाठ्य पुस्‍तक रूप से लेकर आम स्‍तरों पर 'कामायनी' को लगातार साढ़े सात दशकों से पढ़ा जा रहा है। कम से कम यहां आए साहित्‍य-जिज्ञासुओं के लिए तो इसकी कथा एकदम अज्ञात कदापि नहीं है, किंतु यह जबरदस्‍त जिज्ञासा-विकल भीड़...। चल रहे मंचन के दौरान कई बार पीछे देख-देख मैं तसल्‍ली करता रहा, आम पाठकों-जिज्ञासुओं में हमारे मूल्‍यवान साहित्‍य के प्रति सचमुच आज भी वही राग है, वही सम्‍मान।  
' कामायनी ' के 75 साल
बनारस के सांस्‍कृतिक संकुल में 17 जून 2012 को 'कामायनी' के मंचन का एक दृश्‍य। 
 श्‍याम बिहारी श्‍यामल
नारस के चौकाघाट स्थित सांस्‍कृतिक संकुल परिसर में 17 जून 2012 की शाम सचमुच 'हीरक' आभा से स्‍नात... । महाकवि जयशंकर प्रसाद रचित हिन्‍दी के महानतम  महाकाव्‍य 'कामायनी' के 75 साल पूरे होने पर इसके मंचन का अवसर। साहित्‍यिक आयोजनों में आम जिज्ञासा की कमी जैसे आरोप को नकारते हुए मुक्‍ताकाशीय मंच के सामने की दर्शक-दीर्घा लबालब भरी हुई।  अद्भुत क्षण हमारे सामने था। 
काशी की जि‍स धरती ने पिछली शताब्‍दी के आरम्भिक दशकों में जयशंकर प्रसाद के नाटकों पर 'अभिनेय नहीं ' होने का आरोप देखा था, वही आज उनकी महानतम महाकाव्‍य-कृति तक को रंग-बिरंगी रोशनियों की झरझराती धाराओं के बीच मुग्‍धकारी अभिनयों में दृश्‍यमान होते देख रही थी। ...
ह ऐतिहासिक तथ्‍य है कि अपने नाटकों पर अनभियेयता का आरोप लगने के बाद प्रसाद ने इसे यह कहकर सिरे से अस्‍वीकार कर दिया था कि वह मंच के अनुरूप क्‍यों लिखें, मंच ही स्‍वयं को उनके नाटकों के योग्‍य बनाए। हालांकि बाद में जब प्रेमचंद और कुछ रंगकर्मियों समेत अनेक शुभेच्‍छुओं का दबाव बढ़ा तो उन्‍होंने 1935 में 'चंद्रगुप्‍त' नाटक का पुनर्पाठ तैयार किया। तब तो इसके प्रभावशाली मंचन ही कैंट क्षेत्र और बांस फाटक ( विश्‍वेश्‍वर टॉकीज ) में संभव नहीं हुए बल्कि यह घटना तत्‍कालीन दौर में धमाकेदार चर्चा का विषय भी बनी। 
'चंद्रगुप्‍त' की मंचीय प्रस्‍तुति संभव बनाने में रामानंद मिश्र की भूमिका अहम थी। इसमें लक्ष्‍मीकांत झा ( जो बाद में भरतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर बने ) ने सिंहरण का अभिनय किया था और पंडि‍त सीताराम चतुर्वेदी ने राक्षस का। मंचन से पूर्व इसका नाट्याभ्‍यास बांस फाटक क्षेत्र स्थित रामानंद मिश्र के आवास पर चलता था। स्‍वाभाविक रूप से यह सारा प्रसंग-विवरण मेरे उपन्‍यास ' कंथा ' ( महाकवि प्रसाद के जीवन-युग पर आधारित :  दो साल से 'नवनीत' में धारावाहिक प्रकाशन जारी )  में दृश्‍यबद्ध हुआ है।
...तो, 17 जून 2012 की शाम बनारस के सांस्‍कृतिक संकुल परिसर के मुक्‍ताकाशीय मंच पर हमारे सामने प्रकट हो रही थी प्रथम पुरुष मनु की कथा। सधी हुई रोशनी की फूटती धाराओं, संगीत की भिन्‍न-भिन्‍न ध्‍वनि-भंगिमाओं और कलाकारों की मुग्‍धकारी भाव-मुद्राओं में प्रलय का क्षण, भीगे नयनों से ताकते मनु, तदंतर श्रद्धा के साथ उनका मिलाप, संसर्ग, बिलगाव, इड़ा ( बुद्धि ) के प्रति आकर्षण, निमग्‍नता, सारस्‍वत प्रदेश की रचना के क्रम में तमाम वृत्तियों का सृजन कितु अंतत: इड़ा से मोहभंग, मानव की उत्‍पति, श्रद्धा से पुनर्मिलन और मानव को इड़ा के हवाले कर मनु-श्रद्धा का तपस्‍या के लिए हिमालय की ओर प्रस्‍थान... सबकुछ जैसे सामने ही घटित हो रहा हो। 
अवस्मिरणीय अवसर :: 'कामायनी' का मंचन देखने पहुंचे हमलोग ( क्लिक : निरंजनदेव सिंह )
र में दो दिन पहले से 'कामायनी' का मंचन देखने चलने की ललक क्रमश: गाढ़ा हो रही थी। सविता जी ही नहीं, तृषांत और निरंजन देव भी अपने-अपने मोबाइल फोनों के कैमरे के एंगल कसते-ऐंठते रहे। शाम होते ही हमलोग निकल चले। आयोजन-स्‍थल पर हमारी उपिस्थिति मंचन के प्रारंभ से काफी पहले दर्ज हो गई। स्‍वयं व्‍योमेश शुक्‍ल ने आगे बढ़कर स्‍वागत किया और अभी खाली ही पड़ी पंक्तियों में स्‍थान ग्रहण करा दिया। इसके बाद तो देखते ही देखते मुक्‍ताकाशीय मंच के सामने की पूरी दीर्घा ठसाठस। पाठ्य पुस्‍तक रूप से लेकर आम स्‍तरों पर 'कामायनी' को लगातार साढ़े सात दशकों से पढ़ा जा रहा है। कम से कम यहां आए साहित्‍य-जिज्ञासुओं के लिए तो इसकी कथा एकदम अज्ञात कदापि नहीं है, किंतु यह जबरदस्‍त जिज्ञासा-विकल भीड़...। चल रहे मंचन के दौरान कई बार पीछे देख-देख मैं तसल्‍ली करता रहा, आम पाठकों-जिज्ञासुओं में हमारे मूल्‍यवान साहित्‍य के प्रति सचमुच आज भी वही राग है, वही सम्‍मान। 
'कामायनी' के हीरक वर्ष पर पर सचमुच कभी न भूलने वाला आयोजन। आयोजन-प्रमुख 'रुपवाणी' की संस्‍थापिका शंकुतला शुक्‍ला, निर्देशक युवा कवि व्‍योमेश शुक्‍ल और कलाकारों में संगीतकार अरविंद दासगुप्‍त, स्‍वाति ( मनु ), प्रतिमा ( श्रद्धा ), नंदिनी ( इड़ा ), प्रशस्ति, अवंतिका, रौशन और मीनाक्षी आदि को अनंत शुभकामनाएं और बधाइयां।
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About Shyam Bihari Shyamal

Chief Sub-Editor at Dainik Jagaran, Poet, the writer of Agnipurush and Dhapel.
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