यह महसूस हुए बगैर नहीं रह सका कि अपनी उपेक्षा से कैसे आज एक महत्ती रचनाकार कातर होकर इस कदर हत्संदर्भ होकर रह गया है कि उसे अपने किए तक की रह-रहकर विस्मृति होने लगी है। यह वस्तुत: हमारे उस साहित्य समाज का सच है, जहां रंगमंच पर गढ़े हुए रंग-राग डंके की चोट पर रंग जमा रहे हैं और असल रचना या रचनाकार नेपथ्य में धकेले जाने के बाद सुबकने को विवश। ऐसी स्थिति-परिस्थितियां किसी भी सही रचनाकार में क्रमश: विस्मृति और संज्ञाशून्यता ही तो भर सकती है !
'नामवर होने का अर्थ' का मुखपृष्ठ |
श्याम बिहारी श्यामल
किताब घर से छपकर पिछले दिनों आई अपनी पुस्तक ' नामवर होने का अर्थ ' के बारे में कवि-संपादक भारत यायावर ने हाल ही एक मार्मिक वाक्य कहा। वह फोन पर मुखातिब थे, '' श्यामल जी, देखिए... मैं चालीस साल से लेखन क्षेत्र में हूं लेकिन मेरी पहली कृति अब आई है ! ''
मैं हतप्रभ। यह उस व्यक्ति का बयान है जिसके नाम के साथ ' फणीश्वरनाथ रेणु रचनावली ' के साथ ही पंद्रह खंडों वाली विराट ' महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली ' के अलावा कई दर्जन संपादित किताबें और चार कविता-पुस्तकें दर्ज हैं। हालांकि, इन पंक्तियों के लेखक के तत्काल प्रतिवाद पर हंसते हुए उन्होंने बौद्धिक दक्षता और लालित्य के साथ बात को कायदे से मोड़ भी दिया किंतु यह वस्तुत: एक रचनाकार के सतत् जागृत अवचेतन से औचक छलकी पीड़ा थी जिसका अहसास गहरे तक चुभकर रह गया। यह महसूस हुए बगैर नहीं रह सका कि अपनी उपेक्षा से कैसे आज एक महत्ती रचनाकार कातर होकर इस कदर हत्संदर्भ होकर रह गया है कि उसे अपने किए तक की रह-रहकर विस्मृति होने लगी है।
यह वस्तुत: हमारे उस साहित्य समाज का सच है, जहां रंगमंच पर गढ़े हुए रंग-राग डंके की चोट पर रंग जमा रहे हैं और असल रचना या रचनाकार नेपथ्य में धकेले जाने के बाद सुबकने को विवश। ऐसी स्थिति-परिस्थितियां किसी भी सही रचनाकार में क्रमश: विस्मृति और संज्ञाशून्यता ही तो भर सकती है !
पांच से छह अंकों की मोटी तनख्वाह का आधार गढ़ने वाले शोध-अनुसंधान के कार्य आज जिस तरह थोक और फर्जी तरीकों से संपन्न हो रहे हैं, यह सर्वज्ञात है। ऐसे विश्वविद्यालयी और सांस्थानिक उपक्रमों की भरमार जगजाहिर है, जहां न जाने कितने शोधार्थियों ने कितने ही विषय-संदर्भों पर अब तक अपनी असंख्य 'खोज' दर्ज की है किंतु हिन्दी साहित्य में वास्तविक 'खोजीराम' के रूप में एक ही संज्ञा स्वीकार्य है भारत यायावर।
हिन्दी साहित्य के इतिहास का 'द्विवेदी युग' तो सर्वज्ञात रहा किंतु आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के अनेक ज्ञात-अल्पज्ञात और कुछ तो प्राय: अज्ञात नामों से लिखे बहुआयामी विपुल साहित्य को बारीक पहचान-परीक्षण के साथ सहेज-समेटकर विराट 'रचनावली' का रूप देने वाले भारत यायावर के इस काम ने नब्बे के दशक में भला किसे चकित नहीं कर दिया था ? उसी तरह इससे पहले उन्होंने आंदोलनकर्मी से कथाकार बने फणीश्वरनाथ रेणु के अखबारों-पत्रिकाओं में बिखरे साहित्य को जिस जतन के साथ धूल-गर्द झाड़कर 'रेणु रचनावली' का आकार गढ़ने की ऐतिहासिक भूमिका निभाई, यह कार्य यादगार बन गया। निश्चय ही ऐसे योगदान की उम्मीद किसी जुगाड़ु या डिग्रीपिपासु शोधकर्मी से तो कदापि नहीं की जा सकती, किसी साधन संपन्न संस्था-संस्थान से भी नहीं। इसके विपरीत कोई जुनूनी तूल जाए तो क्या नहीं करके दिखा सकता ! भारत यायावर ऐसे ही जुनूनी व्यक्ति हैं जिन्होंने अनोखे महत्ती कार्य संभव किए हैं।
यहां गौरतलब यह कि ऐसा कुछ किए जाने के दौरान इसके साथ-साथ जो एक और घटना नहीं रोकी जा सकी, वह है एक रचनाकार का पृष्ठभूमि में चला जाना। हालांकि, 1980 से 2004 के बीच उनकी चार कविता-पुस्तकें ( झेलते हुए : 1980, मैं हूं यहां हूं : 1983, बेचैनी : 1990 और हाल-बेहाल 2004 ) आईं किंतु इस कवि को उसकी अपनी ही संपादक-छवि से कभी नहीं उबरने दिया गया। क्या इसमें इस संपादक-छवि का कोई दोष है, या रचनाकार की अपनी ही कोई गतिविधि बाधक ? आखिर संपादन-कार्यों के साथ-साथ भारत यायावर का कवि भी अपनी ही गति से हमेशा रचना-सजग और सक्रिय रहा है, जिसके प्रत्यक्ष प्रमाण कभी कम तो कभी अधिक वर्षों के अंतराल पर आते रहने वाले उनके कविता-संग्रह हैं।
जहां तक उनकी कविताओं की बात है, इन्हें देखकर समझा जा सकता है कि कैसे ये रचनाएं अपने समय-समाज से नाभि-नाल आबद्ध ही नहीं बल्कि समकालीन रचनाशीलता के हिसाब से भी पूरी तरह प्रयोगशील और उल्लेखनीय हैं। इसके बावजूद यह भला कैसे लगातार घटित होता रहा कि यह रचनाकार इतने जीवंत सृजन-साक्ष्यों के रहते समकालीन रचना-चर्चाओं से एकदम ओझल किया जाता रहा ? क्या यह यों ही अनजाने हो जाने वाली घटना है या हमारे साहित्य में भी फैल चुके छवि-छद्म प्रकोप की सूचक ?
यहां प्रस्तुत है, उनकी सर्वप्रथम प्रकाशित लंबी कविता का एक अंश
भारत यायावर
झेलते हुए
1.
बाहर और भीतर
जो शून्य है
जगाता रहता है
बार-बार
मेरे अन्दर
कभी
वर्षा की झड़ियाँ
पड़ती हैं लगातार
कभी भावों
और विचारों के
वृक्षों को
झकझोरती
बहती है
तेज़
हवा
और बाहर भी
यही कुछ
होता है--
पर मैं
अपने में डूबा
बाहर के
शून्य में होते
विवरणों को
नहीं पढ़ पाता
और जब कभी भी
टटोलता हूँ
बाहर का विस्तृत आकाश
बिछी हुई धरती का
अपरिमेय विस्तार
स्वयं को
बहुत बौना पाता हूँ
डरने लगता हूँ
और कहीं
अपने ही अन्दर
छुपने की जगह
तलाशने लग जाता हूँ
मेरे अन्दर की
बिछी हुई धरती पर
कितनी ही
झुग्गियाँ
और झोपड़ियाँ हैं
उनके सामने
धूल से अँटे
खेलते बच्चे हैं
जो मुझे देख
छुप जाते हैं
दहशत से भर जाते हैं
मैं
सभी को पहचानता हूँ
शायद वे
नहीं पहचानते मुझे
समझ रहे हैं प्रेत !
सामने
एक लम्बी पगडंडी है
आपस में
बतियाते
दूर से ही
कई लोग
चले आ रहे हैं
पर मुझे देख
लगता है
कोई प्रेत देख लिया---
भागते हैं तेज़
-
- और तेज़
-
- और तेज़
ओह !
इस
अन्दर की दुनिया में भी
कितना अजनबी हूँ
2.
मेरे बाहर और भीतर
जो शून्य है
जगाता रहता है
बार-बार
और मुझे
मेरी माँ की
ममता और करुणा के
आँसुओं में
अपने देश की
जर्जरित संस्कृति
तलाशती है
देश मेरे व्यक्तित्व का
पर्याय नहीं क्योंकि
मैं सिर्फ़
इस बूढ़े देश का
भूगोल होना
नहीं चाहता
देश
मेरे भीतर के शून्य को
पूर्ण करने में
शायद सक्षम न रहे
पर बाहर का शून्य
पूरित हो
उसकी धरती के जख़्म
भर देगा
देश मेरी माँ की
-
- आँखें है
जिसमें मेरे लिए
एक अबोध विश्व है
जिसे मैंने
न जाने कितनी बार
नकार कर भी
स्वीकारा है
देश मेरे लिए
मात्र संस्कृति ही नहीं
आनेवाली
एक क्रान्तिकारी पीढ़ी के
समर्पित हाथों की
सम्भावना है
हाथ
जो तराशेंगे
हाथों को
हाथ एक नई संस्कृति
-
-
- गढ़ेंगे
-
हाथों की तब
अपनी भाषा
और अभिव्यक्ति होगी
भाषा और संस्कृति पर
झगड़ते देश-भक्तों को
नकारते
सभी के प्रति प्रेम में डूबे
हाथों का तब
अपना इतिहास होगा
(हाथ
उठ रहे हैं
मिल रहे हैं
एक नई संस्कॄति
भाषा इतिहास
हो रहे हैं
- हा
- थ )
- (लंबी कविता 'झेलते हुए ' का अंश )
कुछ विस्मृत कड़ियों के साथ एक गम्भीर रचना कर्म का साझा करने का कोटिशः धन्यवाद
जवाब देंहटाएंसादर
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