नए आस्वाद का गद्य
श्याम बिहारी श्यामल
भारत यायावर के इन आलेखों में हिन्दी का एक ऐसा संवेदन-सजग और
स्पंदन-प्रखर गद्य विकसित हुआ है जो अभिव्यक्ति के नए आयाम गढ़ता है। एक
ऐसी शैली, जिसमें गद्य-पद्य के समवेत और बहुविध रंग-रूप-रस एकाकार हुए हों।
अपनी पूरी छटा और प्रभावान्विति के साथ। चिंतन-तत्व खुब धुनी हुई फहफहाती
कपास की तरह तो विचार-सरणियां चरखे पर इत्मीनान से कती अ-गांठ सूत की तरह।
विशिष्टता यह कि विचार यहां विमर्श की मुद्रा में आने से पहले
हृदय-स्पर्श की भूमिका में हैं। यह गति-क्रम साहित्य से संबंधित
आलेखों में ही नहीं, राजनीति और भाषा विषयक टिप्पणियों में भी प्राय:
सर्वत्र अबाध है। लेखक संदर्भ-विशेष का कोरा उल्लेख करके आगे नहीं बढ़
लेता बल्कि सम्बद्ध परिदृश्य को दृश्यबद्ध करता चलता है। यानि कि आलेखन
या उल्लेखन-भर नही, संदर्भ-फलक का साथ-साथ सजीव चित्रण भी।
यह गद्य-उद्यम इसलिए भी संभव हो सका है क्योंकि भारत यायावर ने हिन्दी के जातीय से लेकर समकालीन साहित्य और दैनंदिनी के मीडियायी लेखन तक का जैसा नियमित मंथन-अध्ययन किया है, यह कम से कम उनकी अपनी पीढ़ी में तो अन्यतम है। उन्हें जानने वालों को पता है कि कैसे उनकी दिनचर्या में पढ़ना दीवानगी की हद तक शामिल रहा है। हर समय उनके पास कोई न कोई किताब, पत्रिका या अखबार के पन्ने खुले ही होने चाहिए। सामान्य दिनों में यह यदि उनकी नियमित आक्सीजन-खुराक है तो अस्वस्थता की दशा में यही औषधि भी। यह दशा अक्सर उनके परिजनों से लेकर शुभेच्छु मित्र-बंधुओं तक के ललाट पर लकीरें बनकर गहराती भी रही है, लेकिन स्वयं उन्हें कभी इसकी कोई चिंता नहीं हुई। 'महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली' और इससे पहले 'फणीश्वरनाथ रेणु रचनावली' का कार्य पूरा करने के बाद जब यह दु:साध्यता उनके स्वास्थ्य पर काली छाया बनकर तारी हुई थी, तो यह एक संताप का प्रदीर्घ दौर था जो उन्हें तिल-तिल झेलना पड़ा। वह वर्षों स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से जूझते रहे। हद यह कि उस दौरान भी चिकित्सकों की तमाम हिदायतें अपनी जगह और हमेशा बीच-बीच में मुड़े कोर-कोने वाले पन्ने झलकाती कोई न कोई किताब, पत्रिका या अखबार की प्रति उनके सिरहाने अपनी जगह कायम। पढ़ना वस्तुत: उनके लिए सांस लेने की तरह है, जो आखिर भला कभी रुके तो क्यों ! यहां कदम-कदम पर उनके पढ़ाकुपन की झलक है।
भारत यायावर ने संपादक के रूप में अकेले दम पर जितना विपुल कार्य संपन्न किया है, यह स्वयं में एक मिसाल है। शोध-संग्रहण के बड़े-बड़े साधन-संपन्न संस्थान तक को चकित करने और आईना दिखाने वाला। हमारे नामी-गिरामी संस्थानों में गोष्ठी-संगोष्ठी के नाम पर क्या चलता रहा है, यह किसी से छुपा नहीं। मोटी रकम समेटने और हवाई मार्ग से आने -जाने वाले 'विद्वानों' में से किसने किस गोष्ठी-संगोष्ठी में हिन्दी साहित्य के किस संदर्भ में कब कौन-सा महान या सर्वथा नया विचार-सूत्र प्रतिपादित कर दिया, यह वस्तुत: स्वयं में शोध का एक गंभीर विषय है जबकि इसके बरक्स नव अन्वेषण के ऐसे कार्यक्रमों पर पानी की तरह बहाए जाने वाले धन का भी संस्थानानुसार मूल्यांकन-आकलन होना चाहिए।
यह भारत यायावर ही हैं जिन्होंने युगनिर्माता साहित्यकार महावीर प्रसाद द्विवेदी के विराट और बिखरे साहित्य को बीन-समेटकर 'रचनावली' के पंद्रह खंडों में प्रस्तुत कर दिया। बड़ी बात यह कि उन्होंने यह सब करते हुए स्वयं को किसी निरा संग्राहक या संपादक की भूमिका तक सीमित नहीं रखा। 'महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली' से अवगत लोगों को पता है कि कैसे उन्होंने इसमें प्रस्तुति-क्रम में स्वयं को एक अध्ययेता और विश्लेषक के रूप में भी सर्वत्र उपस्थित बनाए रखा है। रचनाओं को उनकी संदर्भ-भूमि में उतरकर खोजना और वस्तु-वैशिष्ट्य को उद्घाटित करते हुए सूत्रों में ही किंतु दृढ़निश्चयतापूर्वक विश्लेषित करना सिर्फ उन्हीं जैसे संपादक की पहचान है। विस्मयकारी यह भी कि कार्य पूरा होने के बाद चौथाई सदी से अधिक का समय बीत चुकने के बावजूद आज भी उन्हें आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की अधिकांश रचनाओं के बहुलांश मूल-पाठ से लेकर संबंधित संदर्भ और तत्विषयक अपनी टिप्पणियां भी अक्सर मूल रूप में स्मरण हैं। बातचीत के क्रम में उनसे यह सब सुनते चलना सुखद अनुभव बनता चलता है। इसी लिहाज से हमारी भाषा में वह आज ऐसे विरल व्यक्तित्व हैं जिनसे मिलना-बतियाना हिन्दी साहित्य के एक साथ कई-कई युगों में प्रत्यक्ष प्रवेश पा जाने और विहार करने का दुर्लभ सुख देता रहा है।
यह यदि नहीं भी कहा जाए कि भारत यायावर सामने न आते तो हिन्दी साहित्य को 'समग्र फणीश्वरनाथ रेणु' मिलना नामुमकिन था, तब भी इतना स्वीकारने में कम से कम इन पंक्तियों के लेखक को कोई दिक्कत नहीं कि दूसरे संपादक के लिए यह 'खोज' इतनी जल्दी इतने समृद्ध रूप में सहज कदापि नहीं थी। किसान, आंदोलनधर्मी और राजनीतिज्ञ से क्रमश: कथाकार बने फणीवरनाथ रेणु के जहां-तहां दबे, बिसरे और बिखरे साहित्य को भारत यायावर ने जिस व्यग्र तलाश-प्यास के साथ खोजा और जैसे सघन बया-जतन से तिनका-तिनका संजोकर 'रचनावली' का संपूर्ण रूप दिया, यह वस्तुत: उनका एक असामान्य योगदान है। भारत से लेकर नेपाल तक के धूल-धूसर पुस्तकालयों, पत्र-पत्रिकाओं के अस्त-व्यस्त दफ्तरों और स्मृति खोते रेणु-संपर्कितों तक पहुंच-पहुंचकर रेणु-साहित्य की तलाश की यह कथा स्वयं में किसी रोमांचक उपन्यास से कम नहीं, जिसे उन्हें कभी लिपिबद्ध करने पर भी विचार करना ही चाहिए। हालांकि हमारा रचनाकार समाज अभी इतना अकुंठ, व्यवहार-सभ्य और उदार नहीं हो सका है कि ऐसे योगदान को ठीक से जानते-मानते हुए भी कृतज्ञता पूर्वक स्वीकारे या यादगार रूप में कोई आभार-प्रदर्शन आयोजित करे लेकिन भारत यायावर ने इसकी कोई परवाह नहीं की और रेणु-कार्य पूरा करने के तत्काल बाद आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का साहित्य संजोने में जुट गए। वस्तुत: रेणु वाले काम के बाद से ही सबने उनका लोहा मान लिया और किसी के चाहते न चाहते भी हिन्दी संसार में उन्हें 'खोजीराम' के रूप में अभिहित किया जाने लगा।
भारत यायावर नाम के साथ संपादक-रूप में जो उपलब्धियां अबाध बलते दीपक की लौ की तरह चमक रही हैं, उसकी परछाईं वाला तथ्य अत्यंत कारुणिक है। संपादन-कार्यों की इस लम्बी दौड़ ने भारत यायावर के रचनाकार-व्यक्तित्व को जैसे पूरी तरह ओझल बनाकर छोड़ दिया हो। अस्सी के दशक में 'झेलते हुए' जैसी प्रयोगधर्मी और विचार-प्रज्ज्वलित लम्बी कविता से सबका ध्यान खींचने वाले भारत यायावर ने बाद में भी लगातार कविताएं लिखी जिनके संग्रह लगातार सामने आते भी रहे किंतु आश्चर्यजनक ढंग से इन्हें लगभग अनदेखा किया जाता रहा। इस अनदेखी को आकस्मिक माना जाए या उनके ही संपादकीय योगदान की ओट से किया जाने वाला साहित्य के चालाक आखेटकों का शातिर खेल ? अब से कुछ ही समय पहले भारत यायावर ने अपनी सद्य: प्रकाशित पुस्तक 'नामवर होने का अर्थ' के छपने की सूचना देते हुए इन पंक्तियों के लेखक से दूरभाष-वार्ता में एक मार्मिक वाक्य कहा था, '' श्यामल जी, देखिए... मैं चालीस साल से लेखन क्षेत्र में हूं लेकिन मेरी पहली कृति अब आई है ! ''
मैं हतप्रभ। यह उस व्यक्ति का बयान है जिसके नाम के साथ ' फणीश्वरनाथ रेणु रचनावली ' के साथ ही पंद्रह खंडों वाली विराट ' महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली ' के अलावा कई दर्जन संपादित किताबें और चार कविता-पुस्तकें दर्ज हैं। हालांकि, इन पंक्तियों के लेखक के तत्काल प्रतिवाद पर हंसते हुए उन्होंने बौद्धिक दक्षता और लालित्य के साथ बात को कायदे से मोड़ भी दिया किंतु यह वस्तुत: एक रचनाकार के सतत् जागृत अवचेतन से औचक छलकी पीड़ा थी जिसका अहसास गहरे तक चुभकर रह गया। यह महसूस हुए बगैर नहीं रह सका कि अपनी अनदेखी से कैसे आज एक महत्ती रचनाकार कातर होकर इस कदर हत्संदर्भ होकर रह गया है कि उसे अपने असामान्य योगदान तक की रह-रहकर विस्मृति होने लगी है।
यह वस्तुत: हमारे उस साहित्य समाज का सच है, जहां चमचमाते रंगमंच पर गढ़े हुए रंग-राग ही डंके की चोट पर रंग जमा रहे हैं जबकि असल रचना या रचनाकार नेपथ्य में धकेले जाने के बाद संज्ञाशून्य हो जाने को विवश। ऐसी स्थिति-परिस्थितियां किसी भी निरपेक्ष रचनाकार में क्रमश: विस्मृति और संज्ञाशून्यता ही तो भर सकती है ! इसके विपरीत यह भी सत्य है कि सक्षम रचनाकार किसी भी प्रतिकूलता का शिकार बनकर अधिक समय तक जहां का तहां पड़ा नहीं रह सकता। वह अपने रचाव से किसी भी बिखराव को विलुप्त कर कैसे भी शून्य को सृजन-नाद से निनादित कर सकता है। भारत यायावर ने हाल ही नामवर सिंह की जीवनी लिखी है। इसके तुरंत बाद उन्होंने अब यहां इस रूप में स्वयं को प्रस्तुत कर इसी रचनाकार-जिजीविषा का पुनर्नव सिद्ध किया है।
'विरासत' में कबीर, शरत, प्रेमचंद, रेणु, नागार्जुन, नामवर सिंह , राजेंद्र यादव, भीष्म साहनी और कमलेश्वर से लेकर राजेश जोशी तक के योगदान-अवदान पर ही नहीं बल्कि महात्मा गांधी, जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया की ऐतिहासिक-वैचारिक विरासत पर गहन दृष्टिपात हुआ है। उसी तरह भाषा से लेकर मीडिया तक के संदर्भ को समेटा गया है। ध्यातव्य यह कि इस वैविध्यपूर्ण विषय-विस्तार में भी कहीं लेखकीय दृष्टि-सान्द्रता बाधित नहीं हुई है। वह चाहे जिस विषय प्रभाग पर कलम चला रहे हों, एक लेखक-इकाई की संवेदनशीलता सर्वत्र आद्योपांत विद्यमान है। संपादक की निर्ममता भी, तो आलोचक की खांटी वस्तुपरकता भी। इन सबके संग-साथ ही एक कवि की धड़कती हुई हार्दिक कमनीयता तो सर्वत्र रंजित है ही। इतने यतन-योगों ने इस गद्य को विशिष्ट बना दिया है, जिसे पढ़ चुकने के बाद भी बार-बार भाषा का आनंद लेने के लिए दुहराया जा सकेगा।
यह गद्य-उद्यम इसलिए भी संभव हो सका है क्योंकि भारत यायावर ने हिन्दी के जातीय से लेकर समकालीन साहित्य और दैनंदिनी के मीडियायी लेखन तक का जैसा नियमित मंथन-अध्ययन किया है, यह कम से कम उनकी अपनी पीढ़ी में तो अन्यतम है। उन्हें जानने वालों को पता है कि कैसे उनकी दिनचर्या में पढ़ना दीवानगी की हद तक शामिल रहा है। हर समय उनके पास कोई न कोई किताब, पत्रिका या अखबार के पन्ने खुले ही होने चाहिए। सामान्य दिनों में यह यदि उनकी नियमित आक्सीजन-खुराक है तो अस्वस्थता की दशा में यही औषधि भी। यह दशा अक्सर उनके परिजनों से लेकर शुभेच्छु मित्र-बंधुओं तक के ललाट पर लकीरें बनकर गहराती भी रही है, लेकिन स्वयं उन्हें कभी इसकी कोई चिंता नहीं हुई। 'महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली' और इससे पहले 'फणीश्वरनाथ रेणु रचनावली' का कार्य पूरा करने के बाद जब यह दु:साध्यता उनके स्वास्थ्य पर काली छाया बनकर तारी हुई थी, तो यह एक संताप का प्रदीर्घ दौर था जो उन्हें तिल-तिल झेलना पड़ा। वह वर्षों स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों से जूझते रहे। हद यह कि उस दौरान भी चिकित्सकों की तमाम हिदायतें अपनी जगह और हमेशा बीच-बीच में मुड़े कोर-कोने वाले पन्ने झलकाती कोई न कोई किताब, पत्रिका या अखबार की प्रति उनके सिरहाने अपनी जगह कायम। पढ़ना वस्तुत: उनके लिए सांस लेने की तरह है, जो आखिर भला कभी रुके तो क्यों ! यहां कदम-कदम पर उनके पढ़ाकुपन की झलक है।
भारत यायावर ने संपादक के रूप में अकेले दम पर जितना विपुल कार्य संपन्न किया है, यह स्वयं में एक मिसाल है। शोध-संग्रहण के बड़े-बड़े साधन-संपन्न संस्थान तक को चकित करने और आईना दिखाने वाला। हमारे नामी-गिरामी संस्थानों में गोष्ठी-संगोष्ठी के नाम पर क्या चलता रहा है, यह किसी से छुपा नहीं। मोटी रकम समेटने और हवाई मार्ग से आने -जाने वाले 'विद्वानों' में से किसने किस गोष्ठी-संगोष्ठी में हिन्दी साहित्य के किस संदर्भ में कब कौन-सा महान या सर्वथा नया विचार-सूत्र प्रतिपादित कर दिया, यह वस्तुत: स्वयं में शोध का एक गंभीर विषय है जबकि इसके बरक्स नव अन्वेषण के ऐसे कार्यक्रमों पर पानी की तरह बहाए जाने वाले धन का भी संस्थानानुसार मूल्यांकन-आकलन होना चाहिए।
यह भारत यायावर ही हैं जिन्होंने युगनिर्माता साहित्यकार महावीर प्रसाद द्विवेदी के विराट और बिखरे साहित्य को बीन-समेटकर 'रचनावली' के पंद्रह खंडों में प्रस्तुत कर दिया। बड़ी बात यह कि उन्होंने यह सब करते हुए स्वयं को किसी निरा संग्राहक या संपादक की भूमिका तक सीमित नहीं रखा। 'महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली' से अवगत लोगों को पता है कि कैसे उन्होंने इसमें प्रस्तुति-क्रम में स्वयं को एक अध्ययेता और विश्लेषक के रूप में भी सर्वत्र उपस्थित बनाए रखा है। रचनाओं को उनकी संदर्भ-भूमि में उतरकर खोजना और वस्तु-वैशिष्ट्य को उद्घाटित करते हुए सूत्रों में ही किंतु दृढ़निश्चयतापूर्वक विश्लेषित करना सिर्फ उन्हीं जैसे संपादक की पहचान है। विस्मयकारी यह भी कि कार्य पूरा होने के बाद चौथाई सदी से अधिक का समय बीत चुकने के बावजूद आज भी उन्हें आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की अधिकांश रचनाओं के बहुलांश मूल-पाठ से लेकर संबंधित संदर्भ और तत्विषयक अपनी टिप्पणियां भी अक्सर मूल रूप में स्मरण हैं। बातचीत के क्रम में उनसे यह सब सुनते चलना सुखद अनुभव बनता चलता है। इसी लिहाज से हमारी भाषा में वह आज ऐसे विरल व्यक्तित्व हैं जिनसे मिलना-बतियाना हिन्दी साहित्य के एक साथ कई-कई युगों में प्रत्यक्ष प्रवेश पा जाने और विहार करने का दुर्लभ सुख देता रहा है।
यह यदि नहीं भी कहा जाए कि भारत यायावर सामने न आते तो हिन्दी साहित्य को 'समग्र फणीश्वरनाथ रेणु' मिलना नामुमकिन था, तब भी इतना स्वीकारने में कम से कम इन पंक्तियों के लेखक को कोई दिक्कत नहीं कि दूसरे संपादक के लिए यह 'खोज' इतनी जल्दी इतने समृद्ध रूप में सहज कदापि नहीं थी। किसान, आंदोलनधर्मी और राजनीतिज्ञ से क्रमश: कथाकार बने फणीवरनाथ रेणु के जहां-तहां दबे, बिसरे और बिखरे साहित्य को भारत यायावर ने जिस व्यग्र तलाश-प्यास के साथ खोजा और जैसे सघन बया-जतन से तिनका-तिनका संजोकर 'रचनावली' का संपूर्ण रूप दिया, यह वस्तुत: उनका एक असामान्य योगदान है। भारत से लेकर नेपाल तक के धूल-धूसर पुस्तकालयों, पत्र-पत्रिकाओं के अस्त-व्यस्त दफ्तरों और स्मृति खोते रेणु-संपर्कितों तक पहुंच-पहुंचकर रेणु-साहित्य की तलाश की यह कथा स्वयं में किसी रोमांचक उपन्यास से कम नहीं, जिसे उन्हें कभी लिपिबद्ध करने पर भी विचार करना ही चाहिए। हालांकि हमारा रचनाकार समाज अभी इतना अकुंठ, व्यवहार-सभ्य और उदार नहीं हो सका है कि ऐसे योगदान को ठीक से जानते-मानते हुए भी कृतज्ञता पूर्वक स्वीकारे या यादगार रूप में कोई आभार-प्रदर्शन आयोजित करे लेकिन भारत यायावर ने इसकी कोई परवाह नहीं की और रेणु-कार्य पूरा करने के तत्काल बाद आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का साहित्य संजोने में जुट गए। वस्तुत: रेणु वाले काम के बाद से ही सबने उनका लोहा मान लिया और किसी के चाहते न चाहते भी हिन्दी संसार में उन्हें 'खोजीराम' के रूप में अभिहित किया जाने लगा।
भारत यायावर नाम के साथ संपादक-रूप में जो उपलब्धियां अबाध बलते दीपक की लौ की तरह चमक रही हैं, उसकी परछाईं वाला तथ्य अत्यंत कारुणिक है। संपादन-कार्यों की इस लम्बी दौड़ ने भारत यायावर के रचनाकार-व्यक्तित्व को जैसे पूरी तरह ओझल बनाकर छोड़ दिया हो। अस्सी के दशक में 'झेलते हुए' जैसी प्रयोगधर्मी और विचार-प्रज्ज्वलित लम्बी कविता से सबका ध्यान खींचने वाले भारत यायावर ने बाद में भी लगातार कविताएं लिखी जिनके संग्रह लगातार सामने आते भी रहे किंतु आश्चर्यजनक ढंग से इन्हें लगभग अनदेखा किया जाता रहा। इस अनदेखी को आकस्मिक माना जाए या उनके ही संपादकीय योगदान की ओट से किया जाने वाला साहित्य के चालाक आखेटकों का शातिर खेल ? अब से कुछ ही समय पहले भारत यायावर ने अपनी सद्य: प्रकाशित पुस्तक 'नामवर होने का अर्थ' के छपने की सूचना देते हुए इन पंक्तियों के लेखक से दूरभाष-वार्ता में एक मार्मिक वाक्य कहा था, '' श्यामल जी, देखिए... मैं चालीस साल से लेखन क्षेत्र में हूं लेकिन मेरी पहली कृति अब आई है ! ''
मैं हतप्रभ। यह उस व्यक्ति का बयान है जिसके नाम के साथ ' फणीश्वरनाथ रेणु रचनावली ' के साथ ही पंद्रह खंडों वाली विराट ' महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली ' के अलावा कई दर्जन संपादित किताबें और चार कविता-पुस्तकें दर्ज हैं। हालांकि, इन पंक्तियों के लेखक के तत्काल प्रतिवाद पर हंसते हुए उन्होंने बौद्धिक दक्षता और लालित्य के साथ बात को कायदे से मोड़ भी दिया किंतु यह वस्तुत: एक रचनाकार के सतत् जागृत अवचेतन से औचक छलकी पीड़ा थी जिसका अहसास गहरे तक चुभकर रह गया। यह महसूस हुए बगैर नहीं रह सका कि अपनी अनदेखी से कैसे आज एक महत्ती रचनाकार कातर होकर इस कदर हत्संदर्भ होकर रह गया है कि उसे अपने असामान्य योगदान तक की रह-रहकर विस्मृति होने लगी है।
यह वस्तुत: हमारे उस साहित्य समाज का सच है, जहां चमचमाते रंगमंच पर गढ़े हुए रंग-राग ही डंके की चोट पर रंग जमा रहे हैं जबकि असल रचना या रचनाकार नेपथ्य में धकेले जाने के बाद संज्ञाशून्य हो जाने को विवश। ऐसी स्थिति-परिस्थितियां किसी भी निरपेक्ष रचनाकार में क्रमश: विस्मृति और संज्ञाशून्यता ही तो भर सकती है ! इसके विपरीत यह भी सत्य है कि सक्षम रचनाकार किसी भी प्रतिकूलता का शिकार बनकर अधिक समय तक जहां का तहां पड़ा नहीं रह सकता। वह अपने रचाव से किसी भी बिखराव को विलुप्त कर कैसे भी शून्य को सृजन-नाद से निनादित कर सकता है। भारत यायावर ने हाल ही नामवर सिंह की जीवनी लिखी है। इसके तुरंत बाद उन्होंने अब यहां इस रूप में स्वयं को प्रस्तुत कर इसी रचनाकार-जिजीविषा का पुनर्नव सिद्ध किया है।
'विरासत' में कबीर, शरत, प्रेमचंद, रेणु, नागार्जुन, नामवर सिंह , राजेंद्र यादव, भीष्म साहनी और कमलेश्वर से लेकर राजेश जोशी तक के योगदान-अवदान पर ही नहीं बल्कि महात्मा गांधी, जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया की ऐतिहासिक-वैचारिक विरासत पर गहन दृष्टिपात हुआ है। उसी तरह भाषा से लेकर मीडिया तक के संदर्भ को समेटा गया है। ध्यातव्य यह कि इस वैविध्यपूर्ण विषय-विस्तार में भी कहीं लेखकीय दृष्टि-सान्द्रता बाधित नहीं हुई है। वह चाहे जिस विषय प्रभाग पर कलम चला रहे हों, एक लेखक-इकाई की संवेदनशीलता सर्वत्र आद्योपांत विद्यमान है। संपादक की निर्ममता भी, तो आलोचक की खांटी वस्तुपरकता भी। इन सबके संग-साथ ही एक कवि की धड़कती हुई हार्दिक कमनीयता तो सर्वत्र रंजित है ही। इतने यतन-योगों ने इस गद्य को विशिष्ट बना दिया है, जिसे पढ़ चुकने के बाद भी बार-बार भाषा का आनंद लेने के लिए दुहराया जा सकेगा।
भारत यायावर के गद्य संग्रह 'विरासत' ( शिल्पायन, 2013 ) की भूमिका
वर्ष 2013 आपको सपरिवार शुभ एवं मंगलमय हो ।शासन,धन,ऐश्वर्य,बुद्धि मे शुद्ध-भाव फैलावे---विजय राजबली माथुर
जवाब देंहटाएं