जयशंकर प्रसाद के जीवन-युग पर आधारित उपन्‍यास  कंथा     ए‍क अंश                        
 
 दिशाकाश
श्याम बिहारी श्यामल  

आंगन में गवनई की मधुर-मृदुल धारा बह चली। कण-कण राग-रंजित, क्षण-क्षण ताल-तरंगित। रजवंती की मंडली की धूम। बलाघात की पीड़ा की कोख से ही तो जनमती हैं राग-रागिनियां, नाद-ध्वनियां और अनादि सरगम से अनन्त संगीत-रचनाएं! यानी संगीत का समग्र संसार! एक बलाघात श्‍यामा के मन पर भी स्थिरप्राय हो गया है जिसने इस किशोरी प्रतिभा को अग्नि-ताप भर दिया है! कंठ से लेकर पांवों और अनोखे स्वर-आलाप से कठिन पग-थिरकन तक, एक अदभुत अग्नि-आवेग-प्रवाह। 
   साथी गौनहारिनें मन ही मन चकित-चकाचौंध। आंगन में सबके आकर्षण का केंद्र बन गयी है श्‍यामा। उसकी सक्रियता चुलबुली हो उठी है और प्रतिभा पुलकित। सभी मुरीद। रजत जल-प्रवाह जैसा प्रच्छन्न आलाप और नृत्य की दृश्‍य-धर्मा नयी-नयी शैली-भंगिमाएं! नृत्य-क्रम में उसके मुख से जो भी शब्द उच्चरित हो रहा उसका पल भर में वह ऐसा भाव-संकेत रचकर प्रस्तुत कर दे रही कि अनुभूति एकदम प्रखर-प्रकट! ‘फूल’ बोलते ही स्वयं खिल जा रही। ‘मोरनी’ कहते ही स्‍वयं फुदकती हुई दृश्‍यमान। ‘गंगा’ उच्चारण के साथ आपादमस्तक धवल पावनता। ‘गुलाब’ शब्द पर आंखों में पंखुड़ियों की तरह कोमल स्पंदन। ‘गेंदा’ बोलते ही गाल गोल-हप्प! नायिका-कथन के आलाप के समय वह कोमल -कमनीय होकर आंखें नचाती और नायक-कथन पर दृढ़ता से भरकर प्रस्तुत। आस-पड़ोस से पहुंची महिलाओं से लेकर गृह-स्वामिनी लखरानी और विंध्यवासिनी तक, सभी उस पर प्रसन्न। 
   गायन का पहला दौर पूरा होते ही लखरानी ने उसे पास बुलाया। वह अचकचायी-सी ताकने लगी। सकुचाती हुई निकट आ गयी। उन्होंने अपने गले से सोने का हार निकाला और उसे पहना दिया, ‘‘ यह ले मेरी ओर से एक छोटी-सी भेंट! ...मान गयी! ...तूं तो सचमुच बहुत अच्छा गाती है रे! शाबाश! तेरे कंठ में तो माता सरस्वती का वास है... एकदम साक्षात्!’’
   विन्ध्यवासिनी ने उसके सिर पर हाथ रख दिया, ‘‘ तू ने तो मेरे आंगन में राग-गंगा ही उतारकर रख दी है! घर-आंगन का कोना-कोना सिंचित हो उठा है... ’’

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‘‘ क्यों री श्‍यामा, आखिर तू ने तो अपना काम कर दिखाया... ’’ नीलोफर ने भौंहें उचकायी, ‘‘ ...पहल ही वार में सीधे बाघ मार गिराया...! ’’
श्‍यामा चौंक गयी, ‘‘ ऐंऽ...! क्या... ? ’’
‘‘ ...अब अनजान भी बनने लगी ? वाह... क्या अदा! ...बहुत खूब!... ’’
‘‘ तू कहना क्या चाह रही है, साफ-साफ बोल न! ‘‘ श्‍यामा तो सकुचायी सिकुड़ती रही, बगल में बैठी कुन्ती ने बालों में कंघी फेरते हुए आंखें गड़ायी।
‘‘ ... सबने तो एक साथ खुली आंखों साफ-साफ देखा है... ऐसे में अब फिर और क्या कहना-दुहराना! ’’ नीलोफर की आंखें घिरनी की तरह घूमती रहीं। मुस्कान की लाली में सूखी मिरची की झांस। धीरे से आकर शबाना, सजनी और शान्ता भी पास बैठ गयीं। श्‍यामा के मुख पर मौन और संकोच आपस में गुत्थमगुत्थी होते रहे। 
   कुन्ती को जिज्ञासा के आवेग ने खिन्न बनाना शुरू कर दिया। आवाज तीखी हो गयी, ‘‘ क्या बकवास किये जा रही हो... जो कहना चाहती हो उसे एक बार में उगल दो न! ’’
‘‘ मैं तो उगल ही दूंगी... लेकिन इसने तो एक ही झटके में पूरा हिमालय ही निगल लिया है! बाबू साहब जैसे रईस पर अपना जादुई बाण चला दिया! ’’
कुन्ती को जैसे बिच्छू छू गया हो, ‘‘ इसने क्या कर दिया! ...और कहां कुछ हुआ! अरे नये व्यक्ति पर सबको जिज्ञासा होती है, बाबूसाहब को ऐसा ही कुछ महसूस हुआ और उन्होंने चौंककर एक नजर डाल दी, बस! ...इसके अलावा कहां कुछ हुआ! ...और इसमें भला इसने कहां कुछ किया! ’’ श्‍यामा की झुकी नजरें गड़ती चली गयीं। खिलखिलाती पहुंचीं संध्या, मीना और रेखा ने पास आते ही मौन ओढ़ लिया। तीनों चुपचाप बैठ गयीं। थोड़ी दूरी बनाकर। नीलोफर की भौंहें धनुश-सी खिंचीं और मुंह से पुश्प-पंक्ति छूटी:
...यह बागवानी अलग है, फूल कुछ अलग गमला कुछ अलग
जंगल है सुहाना-सा, षिकार कुछ अलग हमला कुछ अलग
पास बैठी लड़कियां एक साथ किल्लोल करतीं खिलखिला उठीं। कुन्ती सूखे लत्ते की तरह लहक उठी। श्‍यामा के मुखमण्डल पर बारीक मुस्कान हल्के खिली-हिली। नीलोफर ने एक दृश्टि ष्यामा पर डाली और तुरंत दूसरी नजर कुन्ती पर:
बीमार तो है खासा खुशगवार
पर इतना गमगीन क्यों तीमार
कुन्ती ने श्‍यामा पर एक दृष्टि डाली और झटके से नीलोफर की ओर मुखातिब, ‘‘ क्योंकि तीमार को बीमार का मिजाज भी पता है और बीमारी की हद भी... और तेरी जैसी फब्तीबाज का ईमान भी और तमाशबीनी ख्वाहिष भी! ’’
सभी खुलकर ठठा पड़ीं। कुन्ती का तनाव अपनी ही मुक्तधार हंसी से धुल-पुंछ गया। कमरे का कोना-कोना खनखना उठा। हवा पर हंसी कपास की तरह उड़ने लगी। बाहर से दौड़ती पहुंची रजवंती। अधखुली मुस्कान के साथ अचकचाकर पूछा, ‘‘...किस बात पर उठी हंसी की यह लहर ? किस बात पर ? ’’
रह-रहकर सबकी दृश्टि नीलोफर की ओर उठ रही थी। ष्यामा की नजरें गड़ी रहीं। नीलोफर सीधी होकर बैठ गयी, ‘‘ कुछ नहीं! यहां यों ही हंसी-मजाक चल रहा है... ’’
‘‘यों ही? क्या यों ही में ऐसी छत उड़ा देने वाली हंसी उठ रही है! इसका मतलब... ओऽ...! ...तुमलोग आपस में किसी का मजाक तो नहीं उड़ा रहीं... ? ’’
कोई कुछ कहता इससे पहले ष्यामा की भावुकता पिघल गयी। रूदन तीव्र और करुण! सभी चुप और किंकर्त्तव्यविमूढ़। रजवंती की आंखें लाल। षब्द धीपे हुए, ‘‘..तो तुमलोगों ने इसे सताना षुरू कर दिया.. रंग दिखाने लगीं... यह नयी है इसलिए न इसे परेषान कर रही हो! ’’
कुन्ती को जैसे मनचाहा अवसर मिल गया हो, ‘‘ दीदी, नीलोफर इसे बाबू साहब से जोड़कर दिल्लगी कर रही थी... इसी से यह... ’’
‘‘ बाबू साहब से जोड़कर! मतलब ? ’’ उसने दिमाग पर जोर दिया।
‘‘ अरे, कल जो उन्होंने एक नजर इस पर नहीं डाली थी! ’’
‘‘ तो ? इसमें क्या ? ’’
‘‘ उसी को लेकर नीलोफर कह रही है कि इसने बाबूसाहब पर अपना जादू चला दिया है...’’ कुन्ती ने घूमकर नीलोफर की ओर देखा, ‘‘बोलो, बोलो! दीदी को बता दो वह बात... ’’
‘‘ हां! इसमें क्या... मैंने तो कहा ही है ऐसा... यह सही है... सबको तो पता चल गया है कि यह जो ष्यामा है बनती तो बहुत सीधी है लेकिन एक नजर में कल बाबूसाहब को ऐसा चित किया कि... ’’ नीलोफर ने साफ षब्दों में यों कह डाला जिसकी किसी को उम्मीद न थी।
‘‘ अगर ऐसा है भी तो इसमें भला गलत क्या है... मैंने तो पहले से कह रखा है कि मेरा यह आंगन समाज से बगावत ठाने बैठी कुंवारियों का विलाप-स्थल नहीं है... यहां बेषक तभी तक रहो जब तक तुम्हें संरक्षण की सचमुच आवष्यकता हो... जैसे ही किसी को अच्छा घर-वर मिल जाये मुझे बता दे... मैं बाजे-गाजे के साथ कायदे से बेटी की तरह डोली में बिठाकर विदा कर दूंगी...’’ रजवंती की वाणी धीरे-धीरे ठंडी होने लगी। 
‘‘ लेकिन बाबूसाहब तो कभी विदा कराने वालों में शामिल नहीं हो सकते! ...वे बड़े रईस हैं और पहले से घर-गृहस्थी वाले भी... ’’ नीलोफर की आंखों का नीलापन उग्र हो उठा, ‘‘ रईस लोग ऐरे-गैरों का इस्तेमाल भर करते हैं, गले कभी नहीं लगाते! ...मन भर इस्तेमाल के बाद मौका देख ऐसा घूमाकर फेंकते हैं कि मीलों दूर गिरने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं बचता...’’
‘‘...बाबूसाहब कौन हैं कैसे हैं, यह सब मैं अधिक जानती हूं या तुम? ’’ रजवंती बिफर उठी, ‘‘...तु ज्यादा दिमाग दौड़ायेगी? बहुत दिमाग हो गया है तेरे पास? मैं बताऊं तुझे! ’’ 
शांता आगे आयी, ‘‘ दीदी, मैं नीलोफर की ओर से माफी मांगती हूं... असल में वह जो कुछ कह रही है यह उसकी अकेले की नहीं, हम जैसी ढेरों लड़कियों की धुंधुआती भावनाएं हैं... जिन्हें समय-समय पर इसी समाज ने विश्‍वासघात के साथ बेरहमी से दागा है, उनका दर्द तो कभी-कभी जुबान पर आ ही सकता है... उसने सुंघनी साव पर नहीं, रईसों के रवैयों पर उंगली उठायी है...’’ रजवंती को उसकी बात ने किसी हद तक प्रभावित किया, यह उसकी तेजी से बदली मुख-मुद्रा से व्यक्त हुआ। चढ़ी हुई त्योरी सीधी हुई किंतु दूसरे ही पल इस पर चिन्ता की लकीरें चढ़ गयीं। नीलोफर ने शांता की ओर कृतज्ञता से भरी दृष्टि उठायी। उत्तर में वह कुछ यों मुस्कुरायी जिसमें पारस्परिकता के अहसास रेंगते दिखे। रजवंती के बोल -व्यवहार नम्र हो गये, ‘‘ ...चलो, वह तो ठीक है ...बेशक, समाज में आज ऐसा होने लगा है कि बड़े-बड़े रईस भी छोटी-छोटी हरकतें करने लगे हैं... लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कोई ऐसा रईस बचा ही नहीं है जिसे सही कहा जाये... सुंघनी साव के रूप में हमलोगों ने आज जिन्हें देखा है, वे कोई साधारण व्यक्ति नहीं बल्कि ऐसे षख्स हैं जिनका धंधा तो जरुर है सुर्ती-सुंघनी का, किंतु नषा है ज्ञान का! जब देखो तब वे कभी कागज-कलम तो कभी वेद-पुराण पकड़े कुछ न कुछ गम्भीर सोचते-विचारते ही मिलते हैं... सुना है वे कवि-लेखक हैं... उनकी अच्छी-अच्छी किताबें छपती हैं जिन्हें बड़े-बड़े विद्वान सराहते हैं... आज तक कभी कोई हल्की बात मैंने उनके मुंह से नहीं सुनी... कभी नहीं... ’’
ष्यामा गौर से सुनती रही। रजवंती ने अपनी बातें जारी रखीं, ‘‘ ...सच्ची बात तो यही कि अंततः आदमी की सीमाएं हैं... जैसे कोई कैसा भी सिद्ध पुरुश हो, उसका षरीर भी गंदगी ही निकालता है, वैसे ही हर व्यक्ति समाज में व्याप्त किसी न किसी बुराई से कमोवेश ग्रस्त ही मिलेगा... समाज में आज यही चलन है कि जिसके पास ताकत है.. हैसियत है.. वह प्रकट तौर पर एकाधिक रक्षिताएं रख लेता है... इसमें उसके परिवार को भी अधिक आपत्ति नहीं होती क्योंकि एक तो यह समाज में अपना रुतबा जताने का एक खास जरिया बन चुका है ...दूसरे, सुहागनें अपने रईस पति की प्रसन्नता में ही अपनी खुशी समझती हैं... और ऐसे मामलों में बाधा न बनने को ही अपने लिए श्रेयस्कर मानती हैं... पहले तो मुगल बादशाहों के हरम बेगमों से भरे होते थे... ऐसे में यदि यहां की किसी लड़की ने सुंघनी साव जैसे किसी रईस को मोह लिया हो तो यह कोई अपराध नहीं हो गया.......लड़की खुद समझदार है... उसका मन भर रहा हो तो मुझे कोई दिक्कत नहीं! ’’

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‘‘ रजवंती दीदी जरा देर के लिए भी हटती है तो घर भांय-भांय लगने लगता है... ’’ आंखें नचाती नीलोफर अधभीगी साड़ी लपेटे भीतर आयी, ‘‘ किधर निकली हैं, कब लौटेंगी ?’’
चूड़ियां खनकातीं कुन्ती और शान्ता खड़ी-खड़ी भीगे बालों में कंघी फेरती रहीं और उसे आते हुए आईने में ही देख लिया। दोनों मुस्कुरायीं। नीलोफर भी कंघी लेकर निकट आ गयी, ‘‘ तूं दोनों ऐसे क्यों मुस्कुरा रही हो, क्या हुआ? ’’ 
‘‘ ‘ऐसे’ मतलब ? कैसे मुस्कुराना चाहिए भला?’’ चोटी गूंथती पहुंचीं नीलोफर ऐंठी।
‘‘ मैं दीदी के बारे में पूछ रही हूं और तुम सभी मजाक पर मजाक किये जा रही हो...’’
‘‘ मजाक पर मजाक ? किसने मजाक किया अभी यहां ? ’’
‘‘ ऐसे मुस्कुराना मजाक नहीं तो और क्या है! ’’
‘‘ अच्छा! तो आज तुमने मजाक की नयी नस्ल खोज निकाली! मुस्कुराना मजाक है! ’’
‘‘ खैर! यह मजा है या मजाक, इससे मतलब नहीं! यह तो बता, दीदी कहां गयी ? ’’
वे मुंह खोलतीं इससे पहले ष्यामा धब्ब-धब्ब दौड़ी हुई घबरायी-सी भीतर आ गयी, ‘‘ मुझे बचा लीजिये.. वो लोग आ गये हैं.. मेरे घरवाले... मैं यदि उनके हाथ लग गयी तो वे मुझे मार डालेंगे... आपलोग बचा लीजिये मुझे!... मुझे इन खतरनाक इरादे वालों से बचा लीजिये..’’
नीलोफर तुरंत आंगन की ओर दौड़ी। पीछे-पीछे कुंती और शांता भी। दरवाजा छेंके खड़ी शबाना ने मोर्चा ले रखा था। वे तीन थे। लम्बे-लम्बे और चढ़ी हुई आंखों वाले। आवाज में घनचोट-सी। बार-बार एक ही रट,‘‘ पता चला है, श्‍यामा यहीं है.. एक बार मिला दीजिये!’’ 
शबाना बार-बार इनकार करती रही। दृढ़ता और सख्ती से, ‘‘  इहां श्‍यामा नाम की कोई लड़की या महिला है ही नहीं! आपलोगों को किसी ने गुमराह किया है... ’’
पास ही खड़ी कुंती ने जोड़ा, ‘‘ यहां से आपलोग लौटिये... यहां आपलोगों का रुकना उचित नहीं...  कुछ पुलिस वालों के यहां आने का पहले से कार्यक्रम तय है ...’’
पुलिस का नाम सुनते ही तीनों हवा गये। दरवाजा बंद कर शबाना दोनों को साथ लिये हुए भीतर आ गयी। सभी भयाक्रान्त। बेचैन। फुदुर-फुदुर डभकती खामोशी। 
रजवंती आयी। गाढ़ी चुप्पी टूटी, ‘‘कौन आया था ? तुमलोगों ने मिलकर पीटा नहीं? ’’
शबाना ने पूरा विवरण दिया तो वह संतुष्‍ट। पुलिस वाला जुमला बेधड़क कह डालने का जिक्र आते ही सभी हंसने लगीं। सबने कुन्ती को प्रशंसा की दृष्टि से देखा। 
बात ही बात में रजवंती के तेवर ढीले पड़े, ‘‘ अब मेरा विचार यह हो रहा है कि श्‍यामा को लेकर अधिक खतरा मोल लेना ठीक नहीं... क्यों न उसे बाबूसाहब के परिसर में रहने की जगह दिला दी जाये! ’’
‘‘ वहां श्‍यामा सुरक्षित भी रहेगी और सुगंधित भी! ’’ सभी हंसने लगीं। ‘सुगंधित’ की व्यंजना घंटाध्वनि की अनुगूंज-सी मन के अंतरतम तक उतरती चली गयी। 

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भवन के सामने विस्तीर्ण कच्चे चबूतरे पर सुबुक बंगलिया। चारों ओर उमगती हरियाली में हंसते-मुस्कुराते फूल। बीच में यह छोटा-सा बैठकनुमा कक्ष। इसी में श्‍यामा को वास मिला। तय हुआ था कि वह यहां रहते हुए फिर किसी बाहरी संगीत कार्यक्रम में हिस्सा नहीं लेगी। वह सुबह-शाम परिसर के शिवाले में भजन गाती और दिन भर अन्तःपुर में मालकिन विन्ध्यवासिनी देवी की सेवा-टहल में रहती। उन्हें भी कोई ईर्ष्‍या-द्वेष या डाह नहीं, उसे छोटी बहन का स्नेह देतीं। श्‍यामा यों तो बोल-व्यवहार में सबका मन जीते रहती किंतु लखरानी देवी उसके लिए अब भी असाध्य बनी हुई थीं। उन्हें उसका घर में प्रवेश करना तक नहीं पच पा रहा था। वह बार-बार देवरानी विंध्यवासिनी देवी को आंख से संकेत करती रहतीं जिसका तात्पर्य होता कि इसे घर के भीतर इस तरह न आने दो। ऐसे अवसर पर वह सिर झुकाकर सहमति जता देतीं किंतु बाद में जब कभी ष्यामा सामने आ जाती तो उनका मन उसके निर्दोश स्वभाव पर पिघल जाता। वह बार-बार सोचतीं कि इस बार उसे किसी भी बात के बहाने डपटकर भगा देंगी किंतु उसके सामने आते ही मन बदल जाता। 
उस दिन की बात। लखरानी ने पूजा कक्ष से हांक लगायी, ‘‘ बहू, फूल के डलिया लेके आवाऽ...’’ विन्ध्यवासिनी रसोई में थीं। स्नान अभी किया नहीं था। ष्यामा मंदिर से आकर अभी -अभी काम में लगी थी। उन्होंने आग्रही स्वर में कहा, ‘‘ ष्यामा, तूं नहायी-धोयी है... जाओ दीदी को पूजा वाले कमरे में डलिया दे आओ... ’’
ष्यामा दौड़कर भीतर गयी। लखरानी उसे देखते ही आगबबूला! दरवाजे पर ही पांव ठिठक गये। आसन पर बैठी-बैठी वह जैसे आग की लपट में बदल गयी हों, ‘‘ तुम यहां भी घुस आयी ? किसने भेजा तुम्हें यहां ? तुम्हें यहां तक घुस आने की हिम्मत कैसे हुई ? ’’
‘‘ मैं खुद नहीं आयी हूं यहां... भेजा गया है... ’’ 
‘‘ जिसने भी भेजा हो मैं उसका मुंह नोंच लूंगी... चल भाग... ’’
हक्की-बक्की खड़ी ष्यामा मुंह ताकती रही। बड़ी-बड़ी आंखों में कोई भय नहीं, केवल आष्चर्य और ऊहापोह। अब से पहले उसने यह कभी नहीं महसूस किया था कि उसे अंतःपुर में इस कदर नापसन्द किया जाता है! उसकी निडरता पर लखरानी का गुस्सा लगातार भड़कता रहा, ‘‘ ... कैसी बेशरम है! भगा रही हूं तब भी नहीं हिल रही... चल भाग यहां से! ... जा अपने बंगलिया में ही जाकर वहीं नाच-गा!... ’’
चिल्लाने की आवाज पर विंध्यवासिनी आंगन से दौड़ी-दौड़ी आयीं। श्‍यामा ने पीछे मुड़कर देखा तो उनसे दृश्टि मिलते ही उसकी आंखें डबडबा गयीं किंतु वह फूलों की डलिया पकड़े वहीं खड़ी रही। विंध्यवासिनी देवी को ष्यामा की डबडब आंखें देख अच्छा नहीं लगा। उन्होंने लखरानी से पूछा, ‘‘ क्या हुआ दीदी ? इसने कोई गलती कर दी क्या ? ’’
‘‘ यह यहां तक घुस आयी, यही क्या मामूली गलती है? यह कोई नाच-फाच वाली जगह तो नहीं, पूजा कक्ष है... यहां इस जैसी का पांव पड़ना... छिः..छिः...’’ वाणी जल रही थी।
‘‘ यहीं दरवाजे पर बंगलिया में इसे रहने का स्थान मिला है... यह तो अपने षिवाले में बैठकर भगवान का भजन गाने वाली है... स्वयं बाबूसाहब ने इसे यह अधिकार दे रखा है... इसमें इसका भला क्या दोश! .... ’’ लखरानी की आंखों में ऐसी ज्वाला उन्होंने आज से पहले कभी नहीं देखी थी। वह सहम गयीं किंतु दूसरे ही पल साहस कर आगे कहा, ‘‘...इसे फूल की डलिया लेकर यहां मैंने ही भेजा था... ’’ विंध्यवासिनी का स्नेहिल रूप देख श्‍यामा की करुणा तरल होने लगी। दृष्टि मिली तो उनकी आंखें जैसे उसे संरक्षण का आश्‍वासन दे रही थीं।
‘‘ तुमको स्वयं बुद्धि नहीं तो मैं क्या करूं! तुम्हें यह नहीं समझ में आ रहा कि यह नाचने-गाने वाली है... बच्चा ; प्रसाद ने एक तो इसे दरवाजे पर बंगलिया में वास दे दिया और अब यह धीरे-धीरे घर में घुसने लगी... क्या चाहती हो कि इसे भी कोठी के भीतर ही तुम्हारे बराबर एक षयनकक्ष भी मिल जाये! ... अरी मूरख, बुद्धि से काम ले... इसे यहां से खदेड़ने का ही उपाय सोच... यह नाचने-गाने वालियां अक्सर नचाने-रुलाने वाली भी साबित होती हैं... किसी का भी घर बर्बाद करने में ऐसी औरतों को कोई दया नहीं आती...’’ लखरानी ने उसकी ओर दृश्टि उठायी तो ष्यामा उधर ही ताक रही थी। वह आगे बोलीं, ‘‘ ... देखो न! कितनी ढीठ है!... जरा भी टस से मस नहीं हो रही... जरा भी षील-लज्जा होती तो इतनी बात पर भागकर बाहर चली जाती और चुल्लू भर पानी में नाक डुबो लेती... ’’ ष्यामा का धैर्य टूट गया। वह फफक पड़ी और दौड़कर बाहर निकल भागी। दरवाजे पर खड़ी विंध्यवासिनी देवी ने हाथ पकड़कर उसे रोकना चाहा किंतु वह वेग से हाथ छुड़ाकर निकल गयी।  

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 पूजा के बाद लखरानी ने विंध्यवासिनी को अपने कक्ष में बुलाया। दरवाजा बन्द कर सामने बिठा लिया, ‘‘ अरे, बच्चा के दिमाग तो लगता है उलट गया है... अपने मन के हो गये हैं... ऐसा भला होना चाहिए! नाचने वाली को इस तरह घर में वास दे देना चाहिए! ... ’’
विंध्यवासिनी चुप रहीं। वह आगे बोलीं, ‘‘ सुना है कि आजकल शाम में वह बच्चा के साथ घोड़ागाड़ी में बैठकर सैर पर भी निकल रही है... मर्दाना कपड़ों में... वाह! ... खूब नाम का काम हो रहा है... इसी तरह तो सुंघनी साहू कुल की प्रतिश्ठा बढ़ेगी! बाऊ और भैया का नाम ऐसे ही तो और ऊंचा होगा... और चमकेगा... ’’ बोलकर वह कुछ देर चुप रहीं फिर पूछा, ‘‘ तुम मुंह क्यों नहीं खोलती? क्या तुम्हें यह सब बुरा नहीं लग रहा? ...तुम डरती क्यों हो... तुम्हारे श्‍वसुर या जेठ तो अब इस दुनिया में नहीं हैं किंतु इस घर में बच्चा के ऊपर अभी मैं हूं... तुम मुंह तो खोलो मैं इसे मारकर भगा दूंगी... ’’ विंध्यवासिनी ने मंुह न खोला। लखरानी देवरानी का मन पढ़ न सकीं।

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सुबुक बंगलिया में बैठे प्रसाद ‘इन्दु’ के ताजे अंक का अवलोकन कर रहे हैं। चेखुरा लपकता हुआ आया, ‘‘ बहिरु बाबा आइल हउवन! ’’
‘‘.तूं विद्वानन के नाम बिगाड़त हउवे? ‘‘ प्रसाद ने सिर उठाया तो वह एक कदम पीछे, ‘‘...नाम बताओ... यहां पहुंचने वालों में तो ऐसे दो सज्जन हैं... ’’
‘‘ सभा वालु हउवन बुढ़उ... इहईं ली आयी... ? ’’
‘‘ हां! जाओ उन्हें साथ लेकर आओ... ’’
झटककर आते केदारनाथ पाठक ने दूर से ही हाथ ऊपर उठाये, ‘‘..महादेव! महादेव!!’’
प्रसाद ने उत्तर में दोनों हाथ जोड़ लिये। पाठक भीतर आ गये। सामने रखी दूसरी चौकी पर बैठे, ‘‘ कविवर, हाथ में ‘इंदु’ का अंक क्यों पकड़े हैं ? ’’
प्रसाद ने अचकचाकर प्रश्‍नवाचक दृष्टि उठायी तो वे तपाक से बोले, ‘‘ अरे, सुबुक बंगलिया कोई पर्णकुटी थोड़े ही है... यहां आपके हाथ में ‘वह’ चांद हो तो ज्यादा अच्छा... ’’
पाठक का यह दिलफेंक अंदाज कुछ अधिक उदग्र लगा। प्रसाद ने चकित भाव से दृष्टि उठायी। मुंह पुलपुल, चेहरा लाल मालपुआ। आंखें घिरनी जैसी नाचती हुईं! ...लेकिन मन ऐसा रंग-बिरंगा! प्रसाद को हंसी आ गयी किंतु दूसरे ही पल सम्भल गये। मुस्कुराये। 
पाठक की भौंहें उचक गयीं, ‘‘ वह है कहां ? ’’
‘‘ कौन ? ’’ प्रसाद जान-बूझकर अनजान बन गये।
‘‘ अरे, वही! आपकी आम की फांक! ’’ 
प्रसाद झेंप गये। पत्रिका के पृष्‍ठ पलटने लगे। 
पाठक अपने कान के पास हाथ ले गये। श्रवण-यंत्र टटोलने लगे, ‘‘ लगता है वह भीतर गयी है अभी... ’’ 
प्रसाद ने सिर हिलाकर हां कहा। वे आगे बोले, ‘‘ ... उसकी बढ़री अंखियां बहुत रसीली हैं... इसीलिए मुझे तो वह आम की फांक ही दिखती है... ’’
प्रसाद ने उनके कान की ओर देखा। श्रवण-यंत्र बाहर की ओर निकला हुआ। आवाज थोड़ी तेज, ‘‘ आप जो यह सब इतना कुछ बोलते रहते हैं... कभी इसके बारे में सोचा है ... ’’
‘‘ क्या ? ’’ वे बायें कान को आगे की ओर करते थोड़ा खिसक आये।
‘‘ आपकी बातें स्वयं यमराज भी सुन रहे होंगे और उन्हें कुछ दिनों तक तो याद रह ही सकती हैं!... ’’
‘‘ मतलब ? ’’
‘‘ अरे बुढ़उ हो चुके हैं तो आपकी और यमराज के बीच की दूरी भी तो काफी कम हो चुकी होगी... और अगर जल्दी ही आप दोनों मिलने वाले होंगे तो उन्हें आपकी ये सब बातें बहुत अच्छी तरह याद भी तो रह सकती हैं नऽ! ’’ प्रसाद ने बगैर हंसे-मुस्कराये कहा। 
पाठक तुनक गये, ‘‘ अरे, बाऊस्साब, तूं बनिया हउवा तऽ तोहार दिमागो कब्बो-कब्बो कउड़िये जइसन हो जाला!...’’ प्रसाद मुस्कुराये तो वे भड़क उठे। अब खड़ी बोली पर उतर आये, ‘‘आपको हम पर विष्वास नहीं है? ..यमराज ससुर को भी किसी सुबुक बंगलिया में कोई ऐसी ही आम की फांक थमाकर बइठा देंगे.. एक जनम यहीं बैठे रह जायेंगे यमराज महाषय!’’ 
ठठाकर हंस पड़े प्रसाद। सामने से ष्यामा आयी तो पाठक ने उसकी ओर एक संक्षिप्त दृश्टि डाली फिर प्रसाद की ओर ताकने लगे, ‘‘ अरे, घर में मलकिन लोग येकरा मानत हईन नऽ! ... एगो सेविका बढ़ गल अउर काऽ! ’’
दास आये। पाठक स्वागत में उठे, ‘‘ आवाऽ! अब इहां दू ठे ‘मजनूं’ जुट गइलन! ’’
दास ने हंसकर कहा, ‘‘ चलाऽ, देखत जाऽ ! ’’
प्रसाद ने उन्हें साग्रह सामने चौकी पर बिठाया। बैठते हुए उन्होंने बताया, ‘‘ मित्र मन बहुत दुःखी है... स्थिति जब असहनीय लगने लगी तो सोचा कि तुम्हारे पास चलूं... राहत मिलनी होगी तो यहीं मिलेगी, अन्यथा और कहां ऐसा सम्भव हो पायेगा! ’’
प्रसाद ने उन्हें आंखों से ही पाठक की उपस्थिति का खयाल रखने की हिदायत दी। पाठक ने बात ताड़ ली। तुनककर बोले, ‘‘ अरे, तूं दुनो कौनो साजिष रचत हउवा काऽ ? ... हमसे कुछ छिपावा मत... अइसन कुछ करबा तऽ बतिया तो खोद के हम निकालिये लेब लेकिन तोहन लोग के अइसन हाल करब कि दुनो लोग खड़ी बोली हिन्दी से फिर पलक झपकते पीछे व्रजभाशा काल में लौट जइबा अउर कवित्त के आंसू रोवे लगबा! हमके चिन्हत हउवा नऽ ! ’’
प्रसाद व दास एक साथ ठठा पड़े। प्रसाद बोले, ‘‘...देखिये पाठक बाबा! आखिर प्रेम-व्रेम का मामिला है... यह सब आप जैसे किसी बहुत बूढे़-बुजुर्ग से बतियाना ठीक नहीं! ’’
‘‘ अरे, हम बूढ़-ठूढ़ हीऽ ? कान जवाब दे देलस तऽ हम बूढ़ा गइली ? आंख, नाक, हाथ, पांव-हम्मर सब कुछ अभी टांठ हौ... दिमाग तऽ तोहन सब से भी जादे रंगीन हौ... हमके सब बतावाऽ... इहे सब सुन-देख के तऽ हम्मर मन जवान हो जाला... ’’
दोनों मंद-मंद मुस्कुराते रहे। पाठक ने आगे पूछा, ‘‘ किसन जी, एक बात बतावाऽ... तूं दुनो दोस्त एके संगे आपन प्रेम-लीला रचावत हउवाऽ... लेकिन एक के आगु अमावस्या के रात (श्‍यामा) हौ तऽ दोसर के आगु चांदनी से नहायेल पूरनवासी (पूर्णिमा) के... अइसन काहे ? ’’
दास अतिरिक्त संजीदा हो उठे, ‘‘ पण्डित जी यही तो बात है!...कृष्‍ण-पक्ष की रात हो या शुक्ल पक्ष की, उसकी रक्त-मज्जा से लेकर मन-प्राण तक सभी अंधेरे से ही बने हैं... पूरनवासी की रात में भी पेड़ ऊपर से चाहे भले चांदनी ओढ़े दिखते हों उनकी स्नेह-वत्सल छाया अपनी गोद में अंधेरे को ही समेटे कलेजे से चिपटाये बैठी होती है.. अंतर सिर्फ यही कि शुक्ल पक्ष में चांद अपनी क्षमता भर अंधेरे से लड़ाई छेड़े रहता है! ...लेकिन आह! पूर्णिमा की रात तो एक-अकेली होती है.. वह फिर दुबारा कहां दिखती है.. मेरी पूर्णिमा भी ढल चुकी है...’’
  दास के स्वर की टीस और आंखों की उदासी से कलेजा धक् से करके रह गया प्रसाद का। उन्होंने व्यग्र दृष्टि डाली। दास की आंखों में खारा समुद्र ठाठें मार रहा था। स्वर में बेहिसाब उदासी, ‘‘ अपनी बहन के साथ वह लौट गयी फ्रांस! ’’
‘‘ अचानक ? ’’
‘‘ हां, पहले कभी कुछ जरा भी संकेत नहीं दिया। ...इधर दो दिनों तक वह मेरे यहां आयी ही नहीं। कल सुबह आयी और सीधे यह बताया कि आज तो उसे कलकत्ता की गाड़ी पकड़नी है और वहां से फिर स्वदेश! मैं हक्का-बक्का रह गया। कुछ सोच ही नहीं पा रहा था। उसने आगे खुद ही बताया कि दो दिनों से वे दोनों बहनें अपना सारा सामान बेच रही थीं... स्वदेश लौटते समय विदेशी आगन्तुक सारा सामान बेच कर बोझ से भी मुक्ति पा लेते हैं और पैसा भी खड़ा कर लेते हैं न! ... सो, जनाब.. पूर्णिमा की रात ढल गयी! एक कथा का अंत हो गया... ’’ उनके स्वर से जैसे भाप निकलने लगा हो। प्रसाद ने पाठक की ओर देखा। वे बहुत गम्भीर बने रहे। दास माथे पर हाथ धरे मौन-विलाप की मुद्रा में। 
  श्‍यामा भीतर से निकलकर छम्म-से बाहर की ओर गयी। इस पर किसी का ध्यान नहीं गया।

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   प्रसाद के मन पर खिन्नता की अधभीगी धुंध टूट-टकरा रही है। कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा! पूरी रात बैठे-बैठे बीत चुकी है किंतु कागज पर एक शब्द तक नहीं उतर सका है। पंछियों की चहचहाहट से जैसे ही आसमान से अंधेरा फट चुकने का संकेत मिला, मन मलाल से भर उठा। अंग-अंग में विफलता टभकने लगी। लगातार। मस्तिष्‍क की निढाल शिराओं में अटके अभिव्यक्ति-वंचित किंतु आकार ले चुके ठोस दानेदार तथ्य-कथ्य जैसे बालू-कणों की तरह अटके कसमसाते रहे। रह-रह कर तेज। 
   गली में अंधेरा धांगते हुए उद्विग्न मन से बेनियाबाग पहुंच गये। टहलने। यहां भी चैन नहीं। न तो प्रातः की खुली हवा में कोई ताजगी, न बात-बात पर कोंचते मुंशी प्रेमचन्द के ठहाके में कोई करतब। रचना-विफलता का रात का किस्सा सुन उन्होंने ठिठोली की, ‘‘...मित्र, कल्पना-लोक में विचरने के मजे आप खूब लूटते हैं... तो यह बदमजा भी तो आप ही को चखना होगा! ’’
   प्रसाद को जैसे कांटा चुभ गया हो, ‘‘ कल्पना के बिना भला कौन-सी रचना सम्भव हुई है आज तक ? किसकी ? ’’
‘‘ बाबूसाहब! आप अन्यथा न लें! मेरा तात्पर्य समझिये! लाख कोंचने के बाद भी आप इतिहास का प्रेतलोक छोड़ेंगे नहीं, तो प्रेतों की ऐसी लीलाओं से भला आपका पीछा छूटेगा कैसे ? इससे तो दो-चार होता ही रहना होगा न! ...अब इधर आप मुझे ही देख लीजिये, मैं तो रात में जो एक बार बैठ जाता हूं तो तब तक लिखता रह जाता हूं जब तक नींद सिर चढ़कर मचलती हुई मुझे पस्त कर लुढ़का नहीं देती! मेरे साथ खतरा तो बल्कि यह पेश होता है कि लिखते-लिखते पस्ती में कहीं लैम्प पर न लुढ़क जाऊं! ऐसे में कभी हादसा भी तो हो सकता है ...लिहाजा मेरे लाख मना करने के बाद भी शिवरानी नहीं मानतीं... उधर कहीं बैठी मेरी निगरानी करती रहती हैं... लुढ़क जाने पर मेरे सामने से लैम्प और कागज-कलम हटाकर सहेज लेती हैं तभी सोने जाती हैं... ’’
प्रेमचन्द की बातें जिज्ञासा तो जगाती रहीं किंतु जैसे रह-रह कर मुंह भी चिढ़ा रही हों। शीतल-समतल हवा तो काव्यानन्द की तरह ही लहरा रही है किंतु अन्य दिनों की तरह आज यह तन-मन को संपन्न नहीं कर पा रही! 
दोनों साथ-साथ चलते मैदान के दक्षिणी छोर पर पहुंचे। अपने रोज के ठिकाने पत्थर के टीले पर। बैठ गये। अगल-बगल। प्रेमचन्द ने अपनी बातें जारी रखी, ‘‘...मेरे साथ तो ऐसा आज तक नहीं हुआ कि मैं लिखने बैठूं और मेरी कोई सोची हुई बात दिमाग से कहीं इधर-उधर खिसक-बिदक गयी हो! बात से बात निकलती चली जाती है! अक्सर लिखते-लिखते कलम की स्याही खत्म हो जाती है लेकिन कभी बात नहीं। ऐसा सम्भवतः सिर्फ इसीलिए होता है क्योंकि मैं जो बातें बीन कर लाता हूं वह पास-पड़ोस की होती हैं। जाहिरन पूरी तरह जमीनी। तो, ऐसी बातें छितरायेंगी भी तो कहां जायेंगी! अंततः वहीं न जहां से लायी गयी हैं! ...तो जमीन पकड़कर लिखने की यही सुविधा है... लेकिन आप जो हजारों साल पहले के भूतलोक से प्रसंग खींचते हैं... भई, सीधी बात है- हजारों साल पहले की बात दिमाग से फिसल जाये तो कहां जायेगी... हजारों मील दूर ही तो! ...रात में आपके साथ हुआ यही होगा कि आपके मन से जो हजारों साल पहले की कोई बात फिसली, वह पल भर में उड़कर चली गयी होगी वहीं अपनी पुरानी जगह यानी हजारों साल दूर... भूतलोक के काले-अंधेरे गड्ढे में! ... उसी तरह कल्पना-अल्पना के रंग-बिरंगे बुलबुले जब फूटने लगें तो उन्हें फिर कौन यथाकार-यथाहाल वापस ला सकता है! ’’
‘‘...अगर आप यह ठिठोली कर रहे हैं तो चलिये इसका स्वागत है!...’’, प्रसाद ने न चाहते हुए भी होठों पर मुस्कान उगायी, ‘‘...मुझे अवसाद से बाहर लाने के लिए अभी ऐसी ही कोई युक्ति वांछित भी है किंतु प्रसंगवश कल्पना को लेकर आपका जो मंतव्य व्यक्त हो रहा है, यह तर्कसंगत नहीं है! ...मैं पूछता हूं कि आप जो जमीनी कथाएं रच रहे हैं वह किसी मिट्टी के लोंदे से नहीं गढ़ी जा रहीं, एकदम उसी तरह शब्दों से ही रची जा रही हैं जैसे दूसरा कोई भी साहित्य! ...शब्दों से वाक्य, वाक्यों से प्रसंग और प्रसंगों से कथा-कहानी की रचना की पूरी प्रक्रिया अंततः कल्पना से ही तो अन्तिम आकार पाती है! ...रही बात सृजन-प्रयासों के लिए श‍िल्प-शैलीगत व वैचारिक आधारों के चयन की, तो मैं किसी एक आयाम पर कुंडली मारकर तूफानी झलकुट्टन मचाने का पक्षपाती नहीं हूं! जल, थल और वायु अथवा नभ, सभी लोकों पर उनकी ही सम्भव शैलियों में अपनी लेखनी के निशान अंकित करना चाहता हूं...! मैं विराट, खारे व ठाठें मारते इतिहास में डुबकी लगा-लगाकर उपयोगी तथ्य-कथ्य या काल-सत्य के मोती भी निकालकर सामने रखूंगा और धरती से लेकर अनन्त आकाष तक लहराती तरंगों पर कोमल-कमनीय काया कविता की विरल-कोमल क्रीड़ा या दग्ध संवेदनाओं के तप्त दृश्‍य-परिदृश्‍य भी उतारूंगा... झोपड़ी के दुःख से लेकर महल-इमारतों के विषाद तक की तमाम छुपी हुई परतें भी उधेड़ूंगा तथा रंग-बिरंगे-रंगीले या बदरंग रोजमर्रे में धंसती मानवता को जगाने और बचाने की अपनी भूमिका का निर्वहन भी करता रहूंगा... अंतिम क्षण तक! ...ऐसी सभी रचनात्मक भूमिकाओं का यथावश्‍यक संतुलित निर्वाह करूंगा... करता रहूंगा ! ऐसा नहीं कि नकली ढंग से कोई एक पक्ष या एक तरीका पकड़कर धुनिये की तरह जीवन भर वही -वही धुनकता रह जाऊं! ’’
प्रेमचन्द संजीदा हो गये। प्रसाद कुछ पल थिर होते रहे। दोनों के मुखमण्डल पर असहज मौन छायाएं डोलती रहीं। आपस में उलझती-सुलझती हुई। 
ऐन उसी समय सामने से कृष्‍णदेव प्रसाद गौड़ 'बेढब बनारसी' आते दिखे। छंदमुक्त गति-क्रम में गोल-मटोल पौधे की तरह हिलते-डुलते हुए। उनके पीछे-पीछे डाक्टर हुबदार सिंह। डाक्टर प्रातः भ्रमण-षैली का पूर्ण पालन करते बन्द मुट्ठी को आगे -पीछे फेंकते तेज-तेज कदम बढ़ाते चले आ रहे थे। पास आकर पहले गौड़, उसके बाद डाक्टर रुक गये। नमस्ते-बन्दगी के दौरान ही दोनों ने बात ताड़ ली। कुछ पल तक तो समान जिज्ञासा व आष्चर्य भाव से ताकते रहे, तत्पश्‍चात आपस में एक-दूसरे को देखा और चुपचाप एक साथ वहां से खिसक गये। दोनों को प्रेमचन्द-प्रसाद के चेहरों पर उगे नुकीले मौन ने चिन्तित किया था। आगे बढ़ते डाक्टर ने गौड़ के कंधे पर हाथ धर कर आंखें नचायीं, ‘‘..लेखक-कवि गण चौबीस घंटे अपनी ही धुन में रहते हैं.. लगता है अपने मुंशीजी और बाबूसाहब के बीच फिर कोई मामला आज सुबह-सुबह ही फंस गया है...’’
‘‘...कोई न कोई मामला फंसना ही फंसना है...’’ गौड़ ने चुटकी ली, ‘‘...लेखन फंसव्वल का इलाका ही तो है... हर लेखक-कवि के दिमाग में हमेशा कोई न कोई चिन्ता या कल्पना फंसी ही रहती है... ’’ डाक्टर ने होंठ बिचकाये और जाते हुए एक बार पीछे मुड़कर देखा, ‘‘ ...एक ही गनीमत है कि मुंशी जी और बाबूसाहब में कितना भी मामला फंसे कभी धेबियापाट की हद तक चले जाने की आशंका लगभग शून्य ही है... ’’
‘‘ सचमुच अगर यह सम्भावना शून्य भर भी हो तो क्यों नहीं अभी आसपास कहीं छिप-बैठकर दोनों की थोड़ी-सी निगरानी कर ही ली जाये!...’’ गौड़ ने बगैर हंसे-मुस्कुराये ही तीर छोड़ा।
‘‘...आराम से अभी मैदान का अपना चक्कर पूरा कीजिये! अरे मैं हूं न!...’’ डाक्टर ने मुस्कुराकर उन्हें देखा, ‘‘...तुरन्त मरहम-पट्टी का इंतजाम बन जायेगा! ’’ आगे बढ़ते हुए दोनों ने एक साथ ठहाका लगाया। 
‘‘...दरअसल, मैं आपके मन को रात के अवसाद से बाहर निकालना चाह रहा हूं...’’ कुछ पल के स्थैर्य को प्रेमचन्द ने मीठे-मीठे तोड़ा, ’’...ऐसे मौके पर एकदम विपरीत भावभूमि का ज्वंलत प्रसंग छेड़ देने या दिमाग को इतर दिशा में धकेल देने वाली बात कह देने से कामयाबी मिल जाती है! व्यक्ति नये विषय की ओर ऐसा गतिपूर्वक मुड़ता है कि अवसाद का पिछला प्रसंग एक हिचकोले के साथ मन से छूट जाता है... इसी नजरिये से मैंने मजाक के रूप में ही आपसे भूतलोक वाला जुमला कह डाला... कृपया आप इसका अन्यथा न लें!...’’ 
प्रसाद ने सस्मित उनकी ओर देखा। प्रेमचन्द की मूंछों के नीचे भी निश्‍छल चंचल रेखा फैलने लगी। उनके शब्द गाढ़े प्रेम-भाव में पगे-सने हुए हैं, ‘‘..मैं इस विशिष्‍टता का तो लोहा मानता ही हूं कि आप जितने ही अत्यन्त संवेदनशील कवि हैं, उतने ही जनजीवन व जनमन की गहन पड़ताल कर महीन बुनावट करने वाले सजग कथाकार भी! आप इतिहास को अपने ढंग से पुनर्जीवित कर उससे जिस तरह प्रेरणा व आवश्‍यक प्रभाव के स्रोत के तौर पर अन्वेषित कर रहे हैं, यह काम आप और केवल आप ही कर सकते हैं... ’’
सुबह का कोरा कोमल कैनवस-पृष्‍ठ सरसरा उठा है! उस पर दिवस का हल्का चम्पई रंग दबे पांव उतर रहा है। प्रेमचन्द ने देखा, प्रसाद के मुखमण्डल से स्याह गिजमिजी रेखाएं तेजी से हवा हो रही हैं! उन्हें काफी सुकून मिला। 
दोनों मुस्कान-विनिमय के साथ बिदा हुए।  

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घर लौटे प्रसाद। कुछ देर तक बैठकखाने में रहे और व्यापार के रोज के कुछ जरूरी काम निकाले। मन पर फिर-फिर धुंध गिरती रही। चेखुरा ने लाकर दूध की फेनिल बाल्टी और चमकता लम्बा पीला पीतल का गिलास रख दिया और खड़ा होकर ससंशय निरखता रहा। उन्होंने व्यापार की बही समेटकर एक ओर करते हुए उसकी ओर देखे बिना खिन्नता छिटकायी, ‘‘...इसे ले जाओ, औंटने को दे दो... आज पीने का मन नहीं है... ’’
‘‘...अखाड़े की ओर तो आप अभी जायेंगे ही... कसरत-कुश्‍ती तो छूटेगी नहीं... फिर दूध क्यों नहीं पियेंगे... सवा सेर न सही, आधा सेर तो पी ही लेना चाहिए... ’’ उसने निडरता के साथ जोर देकर आगे कहा, ‘‘...कुश्‍ती-गुरु आकर मंदिर के पास टहल रहे हैं... ’’
प्रसाद ने उसकी ओर तप्त दृष्टि उठायी, ‘‘ ...अरे, एक बड़का गुरु तो तुम भी हो! तुम चेखुरा तो कम मुझ पर दबाव बनाने में एकदम साहू शम्भुरत्न ही हो! मेरे बड़का भैया... ’’
वह पहले थोड़ा सहमा किंतु उनके व्यंग्य-बाण सुन एक कदम आगे आ गया। बाल्टी में डुबोकर गिलास को निकाला। उसने बाहर तक टघरते फेन से नहाये गिलास को आगे किया तो प्रसाद ने न चाहते हुए भी पकड़ लिया। बगैर कुछ कहे पी गये और तख्त पर एक ओर गिलास को रख दिया। उसने आगे बढ़कर गिलास उठा लिया और तुरन्त भरकर फिर पकड़ा दिया। वह भर-भर कर पकड़ाता गया और प्रसाद पीते चले गये। बाल्टी उलटकर उसने पीछे खिसकते हुए तेज स्वर में कहा, ‘‘...थान के पास से आज मैंने बाल्टी में तीन सेर दूध डाला था... मुझे मालूम था कि आज बाबूसाहब का मन उचटा हुआ है... पहले ना कहेंगे लेकिन मैं चाह जाऊंगा तो सवा सेर की जगह दो-तीन सेर तक दूध पी लेंगे... ’’
प्रसाद ने हास्यपूर्वक चौंकते हुए चिल्लाकर झपट्टा मारा, ‘‘ ...अरे, बदमाश! तुमने मुझे बातों में उलझाकर तीन सेर धारोष्‍ण दूध पिला दिया...? ’’ 
चेखुरा हंसता हुआ बाल्टी खटपटाता भाग खड़ा हुआ। 
प्रसाद उठे और बनियान-लुंगी हटाकर लंगौटे के ऊपर अंगौछा लपेट लिया। केहुनी के पास से मोड़कर बाहों को उठाये, कंधे के पास से झटका देते बाहर आ गये। कुश्‍ती-गुरु दिखे। उन्होंने तुरंन्त झुककर अभिवादन किया। 
प्रसाद ने मुस्कुराकर उत्‍तर दिया, ‘‘...गुरु, आज कुश्‍ती छोड़ा! मन ठीक ना हौ! कुछ करेके मन तऽ ना रहल लेकिन कुछ न कुछ तऽ अब करहीं के पड़ी... काहे कि चेखुरा बदमाशी से तीन सेर दूध पिला देले हौ, एहे से कुछ करल जरुरी हो गल हौ.. आज हजार नहीं, दो-चार सौ सपाटा अउर दो सौ बैठक भर करब! कुश्‍ती ना करब... ’’
कुश्‍ती-गुरु ने उनकी ओर विस्मय से ताकते हुए हाथ जोड़ लिया, ‘‘...बाबू साहेब, तूं जे करबा से आपन कराऽ! हम अभी मंदिले पर कुछ देर बइठब! हमरा इहां रहे से कौनो हर्जा तऽ नाईं हौ ? ’’ 
मुस्कुराकर रह गये प्रसाद। 
आगे बढ़े और बे-मन से अखाड़े में उतरे। सपाटे पर भीतरी कसमसाहटों का झटका भारी पड़ता रहा। मन बार-बार खिन्नता से जूझता रहा। सपाटे से जैसे शिराओं में रात के अटके अभिव्यक्ति-वंचित शब्द-वाक्य एक ओर सिमटते चले जा रहे थे। मन की कसमसाहट क्रमश: मद्धिम पड़ने लगी। इसी अनुभव-उपलब्धि के झोंक में सपाटे पर सपाटे लगते चले गये। 
कुश्‍ती-गुरु ने मंदिर के पास से ही तेज स्वर में टोंका, ‘‘ ... अरे, बाबूसाहेब!... सपाटा बहुत हो गल! ... अब रोका! ... रोज हजारे सपाटा होला... आज चौदह सौ पार कर गल!  अब येके रोका! ... ’’
प्रसाद रुके। पसीने से नहा गये थे। सांसें मोटे रस्से-सी ऐंठ रही थीं। सीना भाथी बन गया था। भूल के भींगे अनुभव पर हंसी की बून्दें चुहचुहाने लगीं।
सुस्ताने के बाद बैठक शुरू की। बहुत ध्यान से गिनकर पांच सौ! कुष्ती-गुरु की आवाज में आग्रह कौंधा, ‘‘...बैठक पांच सौ कर लेला! कहले रला कि दुइये सौ करबा...’’
देह को ढीला छोड़ सांसों की गति पर नियंत्रण बना रहे हैं प्रसाद। उनके  शब्द थरथरा रहे हैं, ‘‘ अरे, गुरु! गलती से जब सपाटा चौदह सौ हो गल तऽ सोचली कि बैठक पांच सौ पूराइये ली! ’’
‘‘ अरे, भइया, जब सपाटा रोज से अधिके कर लेला अउर बैठको पूरा हो गल तऽ कुश्‍ती काहे छूटी ? ’’ वह मंदिर के चबूतरे से उतरे और पास आने लगे।
प्रसाद बोले, ‘‘ ... आ जा! कौनो चिन्ता के बात नाही हौ! एकदम बीस जोड़ कुश्‍ती हो जाई! कौनो कोटा अधूरा ना छूटी! ’’
कुश्‍ती-गुरु आज मात पर मात खाते रहे। प्रसाद पहले ही झपट्टे में ऐसा पकड़ लेते कि उनकी कांख में कुश्‍ती-गुरु की गर्दन आ जाती। उसकी किंकियाहट गूंजने लगती। सारी उस्तादी धरी रह जाती। कुश्‍ती-गुरु के सारे पेंच प्रसाद की कांख में दुबक-उलझ कर हवा हो जाते। देखते ही देखते दांव समाप्त। बीसों जोड़ कुष्ती में कुष्ती-गुरु चित!
कुश्‍ती-गुरु जाते-जाते कह गये, ‘‘ ... वाह, बाबूसाहेब! खूब छकउला! पहिले कह देला कि मन ठीक ना हौ... ओकरा बाद हमर दुर्गति करा देला! कुष्ती से पहिलहीं दिमागी दांव लगा देला! ’’  
नहाने-धोने के बाद प्रसाद बैठक में आ गये। रात के कागज-पत्‍तर खोल कर बैठ गये। कुछेक शब्दों के बाद ही रिक्त पड़ा रह गया पृष्‍ठ सामने आया तो कसक-सी उठी। मन में कहीं यह प्रश्‍न भी उठा कि ऐसा तो पहले भी कई-कई बार हुआ है कि रचना मंडराकर ऊपर ही ऊपर विफल मेघ-सी छितरा गयी है और अन्ततः अंतर्धान भी, किंतु इस बार की विफलता इस तरह क्यों छाती पर मूंग दल रही है? प्रश्‍न छूंछा ही रहा। कोई उत्‍तर कहीं से नहीं कौंधा।
चेखुरा परात लिये बहुत बारीकी से निरखता हुआ सम्भल-सम्भलकर दबे पांव बिल्लार की तरह आया। प्रसाद उसके इस अंदाज पर मुस्कराये, ‘‘ तुमने तो तीन सेर दूध पिलाकर मुझे खूब परेशान किया! न चाहते हुए भी अखाड़े में सपाटे, बैठक और कुश्‍ती... ’’
उसने भीतर आने के बाद दरवाजे के निकट ही रुककर ध्यान से उन्हें देखा और बीच में ही बात काट दी, ‘‘ ... तो मुझे पुरस्कार मिलना चाहिए कि मैंने आपके प्रतिदिन के अभ्यास को टूटने से बचा लिया! ’’
प्रसाद फिर मुस्कुराये। उनकी मुख-मुद्रा से आश्‍वस्ति लेकर वह आगे बढ़ने लगा और पास पहुंचा। उसने परात को तख्त पर रख दिया। प्रसाद ने उठती सुगन्ध को नथूनों में भर लिया, ‘‘...वाह! एकदम आज कुछ भी मत भूलना! मैंने आज बता दिया है न कि मेरा मन ठीक नहीं है ...तो ऐसे में तुम्हारा यही धर्म बनता है कि तुम बड़े प्रेम से मुझे भरपूर परेषान करो...’’
वह झुकता हुआ झेंप गया। सिर नीचे किये-किये उसने परात से बादाम की गिरी का कटोरा निकालकर तख्त पर रखा। फिर एक-एक कर घी का गिलास और दूध के हरीरा का डूभा भी। सबको पंक्तिबद्ध सजाकर काफी पीछे खिसककर खड़ा हो गया। 
प्रसाद ने बिना कुछ कहे-सुने हाथ बढ़ाया और एक-एक कर ग्रहण करने लगे।
चेखुरा बिना पूछे बताने लगा, ‘‘ ... हरीरा आज तीन सेर दूध का है, आध सेर दूध ज्यादा हो गया था... ’’
प्रसाद ने सिर हिलाया, ‘‘ घी भी पाव भर से अधिक लग रहा है और गिरी भी..’’
उसने हंसते हुए प्रतिवाद किया, ‘‘...एकदम नहीं! जो रोज रहता है वही था...पाव- पाव भर ही है घी और गिरी! इससे अधिक निकल जाये तो आप चाहे जो सजा दे दें ’’
‘‘ अरे नहीं! जाओ कोई बात नहीं! तुम तो अपने ढंग से ठीक ही सोच रहे हो...’’ 
चेखुरा खाली पात्रों को परात में समेटकर चला गया।
उन्होंने रात के रिक्त पृश्ठ को निकालकर सामने रखा। दृष्टि स्फुट शब्दों और बीरान पड़े रिक्त पृष्‍ठ को सहलाने लगी। रचना-विफलता के रात के क्षण फिर शिराओं में उभरने-गड़ने लगे। लगा, लिखने के समय कैसे कोई असमय जिज्ञासा अचानक सामने पत्थर-सी आ गिरती है और उसकी चोट के तीव्र प्रकम्पन से मन में रूपाकार ग्रहण कर चुकी बातें भी कैसे तत्क्षण सहमकर फुर्र हो जाती हैं! यह आहत अनुभूति कलेजे में चुभती रही। 
ओह, रात में कितनी अनुकूल रचना-स्थिति रही! कविता कागज पर उतरते-उतरते रह गयी! काम करने कुछ जल्दी ही बैठे किंतु...! हल्की बून्दा-बान्दी। भीग-भीग कर रात की हालत सराबोर भारी कम्बल जैसी। अंधेरा भारी-भारी-सा। हवा पानी जैसी। खाना खा लेने के कुछ ही देर बाद घर में सभी तो सो चुके किंतु अभी घड़ी की सुइयां बारह पर नहीं। दिन भर मन में स्कन्दगुप्त और उसका समय मंडराते रहे। ‘स्कन्दगुप्त’ पर प्रस्तावित नाटक पर आज काम करने की योजना रही। तख्त पर एक ओर शिलाखण्ड व ताम्रपत्रों के विवरण तो दूसरी तरफ पटना से काद जायसवाल द्वारा प्रेशित संदर्भ की कच्ची सामग्री के रूप में इतिहास के षताधिक पृश्ठ भी। जैसे, तत्कालीन कालखण्ड ही सदेह आकर निकट बैठ गया हो! उससे सघन मानसिक संवाद षुरू! आसपास ‘कथासरित्सागर‘ व ‘रघुवं’ सरीखे ग्रन्थों की उपस्थिति भी मुखर। मन बड़े-से काठ के पहिये की तरह घूमता रहा। कई दिनों से गहराती चिन्ता कोहरे की तरह भरी रही- स्कन्दगुप्त के चरित्र का कैसे उत्थान किया जाये! उसे ‘विक्रमादित्य’ पदाधिकारी बनाना है तो बनाना है! यह विष्वास तो दृढ़ ही हो चुका कि स्कन्दगुप्त इससे जरा भी कमतर नहीं रहा इसलिए उसे ऐसा ही आकार भी तो दिया ही जाना चाहिए न! तत्कालीन तथ्य-सत्य के इससे तनिक भी इतर होने का प्रष्न ही नहीं! असल में, इस तथ्य की संगति मन में पिछले लम्बे काल के अन्तराल में बनते-बनते ही तो बनी है! इतिहास के पृश्ठों पर भटकते हुए और अन्य सन्दर्भ-ग्रन्थों के उत्खनन-गून्थन के दौरान। क्या करें, कहां से कैसे षुरू करें, किस तरह! 
ऐन इसी व्यग्र ऊहापोह के बीच सामने ‘कानन कुसुम’ की प्रति क्या दिखी कि अचानक एक विद्युत कौंध-सी चमक-तड़क उठी। दूसरे ही पल मन की धुंध-धूल जैसे आईने-सी धुल- पुंछ गयी हो! पटल पर कटोरा औंध जाने से जैसे प्रात की अरुण आभा-से रंग गिरने-टघरने लगे और क्षणांष में गतिपूर्वक फैलते दिशाकाश में छा गये हों! रस-रंग और सुगन्ध से सिंची हवा में कविता के कुछ ताजा खिले शब्द भौंरों के संग-संग मंडराने लगे! अरे, भौंरे फूल का पीछा कर रहे हैं या फूल भौंरों के पीछे पड़ गये हैं? फूल ही आज मधुर गुनगुन का मीठा रस निचोड़ने पर उतर आये हैं!... 
मस्तिश्क और तर्जनी-मध्यमा-अंगूठे पर कविता एक साथ दस्तक ठोंकने लगी। दुर्भाग्य कि ऐन मौके पर लेखनी ही आंख-मिचौनी पर उतारु! सोचा, यहीं कहीं कागज-पŸार में छुपी होगी। उलटने-पलटने लगे कि गुप्तकालीन सन्दर्भ का एक पृश्ठ हाथ में आ गया। ताम्र-पत्र का विवरण देख उसमें ऐसे डूबे कि कविता छूमंतर! कुछ ही पल बाद यह दग्ध अनुभूति हुई कि मंडराते काव्य-मेघ तो नीचे लटकते हुए पृश्ठ के बहुत पास आकर भी अचानक तेज गति से वापस पीछे लौट गये हैं... बिना बरसे... और अब तक आकाष में ओझल भी... तो मन इस क्षति पर उड़-सा गया! तभी से मिजाज लुटा-पिटा-सा लग रहा है! उसके बाद न तो ‘स्कन्दगुप्त‘ पर कुछ काम हो सका, न कोई एक अदना काव्य-वाक्य ही आकार ले पाया। बस, कुछ स्फुट षब्द पृश्ठ पर अनाथ-से अटके-भटके-जैसे भौंचके ठिठके ताक रहे हों! सोने पर नींद भी झीनी -झीनी हिलती रही। जब से जगे हैं मानस-पृश्ठ, धूप में टटाते सूखे वस्त्र-सा झिर्-झिर्-झिर्- झिर् हिल-कांप रहा है!

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‘‘ कहो, चाणक्य! क्या दुविधा है ? ’’ आंखें मल-मलकर देखा प्रसाद ने। सामने दास ही तो खड़े हैं! उन्होंने स्वागत में सबसे पहले मुस्कुराहट प्रस्तुत की, ‘‘ मित्र, आ गये हो तो अच्छा किया! अब कृपया भले-भले बैठ जाओ! मन अभी बहुत चंचल है!’’
दास मुस्कुराये, ‘‘ कोई बात नहीं! मन के चंचल होने से कोई विषेश दिक्कत नहीं! ...लेकिन देखना, इसी रौ में यदि तुम्हारी भुजंग भुजाएं भी चंचल होने लगें तो पहले बता देना! ’’
प्रसाद ने उŸार में भर-नजर देख भर लिया। बोले कुछ नहीं। दास ने प्रसंग को मोड़ दिया, ‘‘ मैं तुम्हें एक जरूरी सूचना देने आया हूं... ’’
उन्होंने जिज्ञासा से देखा। वह आगे बोले, ‘‘...कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर काषी आये हैं...’’
प्रसाद की पूरी मुख-मुद्रा एक क्षण में बदल गयी। दिन भर की क्लान्ति गायब। अब चरम सजगता। स्वर में धातु जैसी खनक, ‘‘ ...अच्छा! कविगुरु ? बनारस में ? किस संदर्भ में आये हैं? कब तक यहां रहेंगे ? ’’ 
‘‘ आये तो हैं एकान्त-वास करने! कुछ दिन अब यहां वे इत्मीनान से व्यतीत करेंगे... मेरे बागीचे के पास एक जो बड़ा-सा उद्यानगृह है उसी में टिके हैं! पूरी तरह विश्राम के लिए ही यहां आये हैं... इसलिए किसी अपरिचित या अल्पपरिचित से तो मिल ही नहीं रहे...! जिससे उन्हें मिलना होता है उसे बुलवा लेते हैं, बस! ’’ 
प्रसाद ने चुपचाप सुनते हुए सिर हिलाया। दास बताने लगे, ‘‘ मुझे बुलवाया था... कल षाम में मैं गया और उनसे मिल आया... उन्हें षान्ति निकेतन के लिए एक संगीत षिक्षक की आवष्यकता है... मुझे उन्होंने कहा- तुम्हारी जानकारी में कोई योग्य व्यक्ति हो तो दो!... ’’
कमला देवी आयीं तो दास खड़े हो गये, ‘‘ भाभीश्री को प्रणाम कर रहा हूं! ’’
वह बोलीं, ‘‘ ... मैं भी देवरश्री को आषीश दे रही हूं! ’’
प्रसाद को हंसी आ गयी। बोले, ‘‘ ... मैं नाटककार हूं और चुपचाप देवर-भाभी का नाटक देख रहा हूं! ’’
सभी एक साथ ठठाकर हंस पड़े। कमला देवी ने प्रसाद से पूछा, ‘‘ खाना के लिए आप बतायेंगे तभी तो निकलेगा न! ’’
प्रसाद बोले, ‘‘ ...इस जैसे अंतरंग मित्र के सामने तो कुछ भी कमी-बेषी हो, सब चल जायेगा! जो साग-सŸाू हो निकालिये, यह भी साथ-साथ कुछ भोग लगा लेगा! ’’
वह मुस्कुराती हुई लौट गयीं। दास बोले, ‘‘ मैं तो कहूंगा कि तुम चलकर कविगुरु से मिलो! मिलना चाहिए! ’’ 
प्रसाद बोले, ‘‘ भई, मेरे मन में भी उनके प्रति जिज्ञासा तो है ही ... और अभी जब तुम उनके आने की बात बता रहे हो तो उनसे मिलने की इच्छा बलवती हो उठी है! किंतु लगे हाथ तुमने यह भी तो बता दिया न कि वे सबसे मिल ही नहीं रहे, तो यह जिज्ञासा अब ठंडी भी पड़ने लगी है! ’’
‘‘ अरे, यार! क्यों उलटा ही सोचने लगे! तुम्हारी उनसे मुलाकात तो मैं कराऊंगा न! ऐसा नहीं कि आमने-सामने होने पर उनसे मिलते हुए केवल तुम ही उजागर होगे! यह भी तो सम्भव है कि तुम्हें देख-समझ लेने पर स्वयं गुरुदेव को भी यह लग जाये कि  कि वे तुमसे स्वयं को मिलवा रहे हैं...! ’’
‘‘ चलो, ठीक है! तुम्हारी इच्छा अगर हो तो मुझे उनसे मिलकर खुषी ही होगी! वैसे, मैं निराला की तरह उनका कोई दीवाना तो नहीं किंतु उनसे मिलकर मैं कुछ जरुरी चर्चा करने का इच्छुक अवष्य हूं... जानना चाहूंगा कि उन जैसा बड़ा कलाकार काव्य, कला और संगीत के मौलिक प्रष्नों पर क्या सोचता है... वे बड़े कवि-कलाकार हैं उन्हें विभिन्न स्तरों पर देखने-परखने की एक स्वाभाविक जिज्ञासा भी तो है ही... ’’ प्रसाद के षब्द सजग-सचेत थे। 
दास ने कहा, ‘‘ मैं कविगुरु से पहले तुम्हारे नाम पर मिलने का समय ले लेता हूं फिर तुम्हें खबर करूंगा... ’’

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दास और मुनीम लक्ष्मणदास बाहर खड़े हैं। उद्यानगृह का कर्मी बाहर आया तो दोनों समुत्सुक हो उठे। उसने पास आकर धीरे से कहा, ‘‘ ... बाबू ने पूछा है कि हारमोनियम साथ लाये हैं कि नहीं ? ’’
दोनों एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। दास बोले, ‘‘ देखा! मैंने कहा था न कि कविगुरु आपकी कला-प्रतिभा की छटा तत्काल ही देखना चाहेंगे! चलिये, हमलोगों ने अच्छा किया कि अपना वाद्ययंत्र गाड़ी में रखवाकर ही चले! ’’
मुनीम पुलकित हो उठे, ‘‘ हां! आपने ऐन सही समय पर और बहुत सही सलाह दी! मैं बाहर जाकर हारमोनियम उतार लाता हूं... ’’ वे लपक कर बाहर की ओर बढ़े तो दास ने पीछे से तेज स्वर में कहा, ‘‘ आप कोचवान को कह दीजिये... वह उतारकर ला देगा! आप अभी स्वयं को भरसक उद्यम व थकान से बचाकर चलिये... कविगुरु के पास आपको कुछ करके दिखाना जो है! ’’
मुनीम पीछे मुड़कर ससंकोच हंसे और आगे बढ़ गये। दास ने उद्यानगृह के कर्मी को बताया, ‘‘ तुम उन्हें बता दो कि हारमोनियम साथ लाये हैं... हमदोनों अभी पीछे से पहुंचते हैं... ’’
वह हंसा, ‘‘ उन्हें बाहर से आ जाने दीजिये... मैं हारमोनियम उठा लूंगा... ’’
मुनीम स्वयं ही हारमोनियम उठाये आते दिखे तो उद्यानगृह-कर्मी लपक कर आगे बढ़ा और वाद्ययंत्र थामकर पीछे मुड़ गया। वह गतिपूर्वक आने लगा और भीतर घुसते हुए दोनों को अभी यहीं रूकने का संकेत देकर चला गया।
दास बोले, ‘‘ ... असल में कविगुरु का यह एकान्तवास चल रहा है... संगीत में गहरी रूचि होने के चलते ही वे यह समय देने को तैयार हुए हैं...! ’’
मुनीम ने कहा, ‘‘ मैं तो उन्हें अपनी कला की एक झलक दिखाकर भी स्वयं के अब तक के सम्पूर्ण प्रयास को सार्थक मान लूंगा! ’’
उद्यानगृह-कर्मी फिर प्रकट हुआ, ‘‘ ... आइये, बाबू ने आपदोनों को बुलाया है...!’’
दोनों उसके पीछे-पीछे चल पड़े। दोनों ओर यहां से वहां तक सूखी लकड़ी के खम्बों पर अर्द्ध गोलाकर टाट की छप्पर, जिस पर नीचे से ऊपर चढ़कर फैली-फूली हुई लताएं। एक साथ कई-कई फूलों और लताओं की मिश्रित सुगन्ध। दोनों ओर की क्यारियों में भी फूलों के अनगिन रूप-प्रकार। कभी लगता की गुलाबों की सुगन्ध के झकोरों पर उड़-उधिया रहे हैं तो कभी नाक में सोनजूही, बेला और चम्पा की महक भरने लगती। 
मुनीम ने फुसफुसा कर कहा, ‘‘ ... यहां की हवा तो सुगन्ध से ऐसे नहायी हुई है कि मन यों ही अथाह ऊर्जा और अनन्त इच्छाषक्ति से लबालब हो उठा है... ’’
दास ने उसी संजीदगी से कहा, ‘‘ ... मुनीम जी! अपनी एकाग्रता को सुगन्ध के झकोरों पर चढ़कर मत उधियाने दीजिये! ... यह मत भूलिये कि आप इस समय संसार के एक बड़े कला-न्यायाधीष के समक्ष प्रस्तुत होने जा रहे हैं...! ... अतिउत्साह और हवा -हवाई आत्मविष्वास से बचिये! कहीं ऐसा न हो कि यह सारा ‘लबालब’ एक झटके में ‘डबाडब’ में बदल जाये! ’’ मुनीम जैसे गड्ढे में गिरने से बाल-बाल बचे हों। चेहरे पर भय-सा भभका। दास ने इसे पढ़ लिया, ‘‘ ...ना-ना-ना! आप असहज मत होइये! ...मैं आपको डरा नहीं रहा, सचेत कर रहा हूं! बेपरवाह रहेंगे तो चूक सकते हैं, इसीलिए जगा दे रहा हूं! ...आप बहुत तन्मयता से कविगुरु को अपनी कला की बानगी पेष करियेगा ... मैंने जो आपकी तारीफ की है उसका मान रखना होगा! ’’ 
सामने बांस की पीली-पीली चौड़ी खपचियों का नया बना एक स्तूपनुमा कक्ष। बेंत की चार खाली आरामदेह कुर्सियों के बीच एक ऐसी ही पांचवीं पर बैठे हैं कविगुरु। मीठे रंगों के स्वस्थ धागों की जीवित कढ़ाई वाला चोगा पहने और दोनों केहुनियां कुर्सी के मोटे हत्थे पर टिकाये। पांवों को थोड़ा आगे की ओर किये हुए। अब यह एक संगीतकार के साथ जाने का असर है या क्या कि कविगुरु के सिर की सूफियाना टोपी के नीचे हिलते घने घुंघराले धवल बाल और झरझराती दाढ़ी एक झलक में मधुर-महीन आलाप- लहरियों-सी ध्वनि-स्नात दिखने लगी। रोम-रोम जैसे राग-रागिनियों से एकालाप करने लगे हों। सामने से तकते नक्षत्रों सरीखे उनके बलते नेत्र जैसे कोई नया राग विकीर्ण करने लगे। मीठी-मीठी धूप को देखकर लग रहा था कि यह लौटते हुए सूरज की आभा नहीं बल्कि कविगुरु के आसपास फैली जीवनधर्मी सृजन-षान्ति का खिला हुआ रंग है!
दोनों अभी कुछ कदम दूर ही थे कि कविगुरु ने दोनों हाथ ऊपर उठाकर आंखें मूंद ली और नीचे लाते हुए मन्द-मृदु स्वर में कहा, ‘‘ ...आओ! कला के दो नवीन साधको! काषी की संगीत कला-दक्षता की एक षीतल घूंट मेरे कण्ठ पर भी रख दो! ’’
उन्होंने आखें खोली तो दोनों ने झुककर अभिवादन किया। दास बोले, ‘‘ गुरुदेव! यही हैं मुनीम लक्ष्मणदास ! विषिश्ट संगीताचार्य! हारमोनियम पर सरोद की अद्भुत गतें उतार लेते हैं...कण्ठ में भी कला-कसक है! मैंने इन्हीं के बारे में आपको बताया था... ’’
कविगुरु के मुखमण्डल पर मुस्कान का नया छंद चमका, ‘‘ ... इन्हें देखते ही मुझे लग गया... कलाकार के मुख पर उसकी कला हमेषा उपस्थित रहती है एकदम मौसम की तरह... बल्कि कह लो बसन्त की तरह! ... अब इनकी उंगलियां और इनका कण्ठ अपने बारे में सब कुछ बतायेंगे... ’’
हारमोनियम के सोपानों पर उंगलियां नृत्य करने लगीं। हवा पर ध्वनि-तरंगों की महीन- वेगवती दुग्ध-धाराएं बह चलीं। वातावरण छलछला गया। आसपास के लता-गुल्म तक अभिभूत। पŸो-फूल-कलियां-डालियां सब गति-तरंग में आ नृत्य में तल्लीन। मुनीम का मृदु आलाप वाद्ययंत्र की सुरीली तान से रह-रहकर एकाकार होता हुआ जैसे हवा के रेषे-रेषे को झंकृत रागों में गूंथता रहा। कविगुरु के नेत्र पलक-पल्लवित हो- होकर उपस्थित विस्तार को लांघते रहे। जैसे, आत्मब्रह्मांड से एकसार हो रहे हों! वाद्य व गायन-कला की एक ऐसी छटा साकार हो उठी जिसमें सब कुछ रागमय हो उठा।... 
सिर हिलाते और टप्-टप् हथेलियां बजा रहे हैं कविगुरु। जैसे, कोमल वायु-तरंगें सहला -थपका रहे हों। दास को लगा जैसे मुनीम के गायन-वादन प्रतिरचित हो कवि-मुख पर साकार उत्खनित होने लगे हों! 
इसी बीच गुरुदेव ने कुछ संकेत किया जिसे मुनीम तत्काल समझ गये और मुंह बन्द कर लिया। अब हारमोनियम का एकल आलाप हवा के रेषे-रेषे पर जैसे अपने रंग छिड़कने लगा हो। गुरुदेव इस संगीत-वर्शा में झमाझम भींगते दिखने लगे। ध्वनि-बून्दों को रोम-रोम की महीन जिह्वाओं से संस्पर्षित करते हुए। कविता का भाव जगत बुनते- रचते हुए। लगा जैसे कला के आंगन में सावन उतर आया हो और कविŸा कन्या संगीत -स्नान कर रही हो!
झंकार के झपकते ही क्रमषः गूंज-अनुगूंज थमती गयीं। कविगुरु ने आप्यायित नेत्र खोले तो हवा की सतह पर उनकी संतृप्त दृश्टि का पुश्ट स्पर्ष धड़कता हुआ महसूस हुआ। उनकी रत्न-सी पुतलियों पर जैसे अब से पहले के सारे रागायित पुलकित तरंगित क्षण-कण संचित-अंकित चमक रहे हों। उनके षब्द विरल मृदुल कोमलता से भरे-पूरे हुए, ‘‘...मैंने हारमोनियम का ऐसा संगीत तो पहले कभी नहीं सुना था...! अद्भुत आनन्द की उपलब्धि हुई!..’’
मुनीम को औचक जैसे पारसमणि का अकल्पित संस्पर्ष मिल गया हो। वे स्वयं स्वर्ण- हारमोनियम होकर झंकार से भर उठे। कविगुरु के षब्द उंगलियां बनकर त्वचा-सोपानों पर नृत्य करने लगे। हृतंत्री के तार राग रचने लगे। अनन्त आलाप मनाकाष को नादब्रह्म बनाने लगा। उन्हें लगा कि उनकी युगों-युगों की बिसूरती अनाम-अज्ञात अहिल्या- साधना की पथरायी प्रतीक्षा पूर्ण हो गयी है! मुक्ति-संस्पर्ष सम्पन्न हो चुका है!
सभी चुप हैं किंतु परस्पर संवाद चरम पर! सभी का सबसे षब्द-मुक्त वार्तालाप प्रवहमान। कविगुरु का उन दोनों से। उनदोनों का उनसे और आपस में। फूलों का हवा से। सुगन्ध का समय से। वसुन्धरा का पौधों से, जीवन से, जगत से। ...सबका सबसे अथक भाव- विनिमय। यह अपूर्व संवाद चलता रहा, बढ़ता रहा, बहता रहा...
एक अन्तराल के बाद कविगुरु अपनी ही आंखों में जैसे कहीं सुदूर अनन्त से लौट आये हों। बैठे-बैठे ही थोड़ा हिले-सम्भले और स्वयं को समेटकर आगे की ओर उन्मुख किया। मुखमण्डल पर पीड़ा-सी पिरायी, ‘‘... मुझे अफसोस है कि षान्ति निकेतन में हारमोनियम वर्जित है... अन्यथा मैं इस प्रतिभा को अपने साथ अपने पास ले जाता... ’’
एक छोटी-सी चुप्पी को मुनीम ने तोड़ा, ‘‘ ... अब यह नाचीज स्वयं को कभी आपसे दूर कहां कर पायेगा...! आपकी उपस्थिति की चिर चांदनी तो मेरे अन्तरतम में हमेषा-हमेषा खिली रहेगी! ’’
फिर एक बजता हुआ छोटा-सा मौन। 
दास ने मुस्कुराकर कहा, ‘‘ मुझे मुनीम जैसे संगीताचार्य को यहां लाकर आपसे मिलाने पर गर्व का अनुभव हो रहा है... ’’
गुरुदेव के नेत्र मुस्कुरा रहे थे। दास ने आगे कहा, ‘‘ कविगुरु, अब आपसे एक काव्यप्रतिभा का साक्षात्कार कराना चाहता हूं... जयषंकर प्रसाद... अर्थात् एक ऐसा नाम जो अपनी साधना के ताप से गतिपूर्वक स्वर्णाक्षरों में तब्दील हो रहा है! विषेशण बनती हुई एक संज्ञा, जो हिन्दी की कीर्ति-पताका के आकार में ढल रही है! हमारी भाशा का सुनहरा जगमग भविश्य! कदाचित् आने वाले समय का तुलसीदास या रवीन्द्रनाथ भी! ...’’
षुभ्र धवल दाढ़ी और केषराषि आहिस्ता हिली, ‘‘...भविश्य तो हमेषा स्वागतेय है! उसका उज्ज्वल होना भी निर्धारित है... क्योंकि हिन्दी को गंगा बनने और सदानीरा होने से कोई नहीं रोक सकता! ....कल ही इसी समय प्रतीक्षा करूंगा... ’’

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वही उद्यानगृहकर्मी फिर उसी तरह आया। दास ने उसकी ओर दृश्टि उठायी और ज्योंही कुछ बोलने को हुए कि वह मुस्कुराता हुआ तत्काल पीछे लौट गया। 
प्रसाद को आष्चर्य हुआ, ‘‘ अरे, इसने तो हमलोगों से कुछ पूछा भी नहीं और उल्टे पांव अन्तर्धान भी हो चुका...! अब क्या होगा...! ’’
दास खुले, ‘‘ ...वह मुझे पहचान गया है... कविगुरु से अनुमति लेकर अभी ही लौटेगा! वैसे, एक बात पूछूं ? ’’
‘‘ हां! क्यों नहीं! ’’
‘‘ रवीन्द्रनाथ टैगोर से मिलने से पहले तुम्हारे मन में अभी क्या चल रहा है...? ’’
उद्यानगृहकर्मी बुलावा लेकर आ चुका, लेकिन दोनों तो स्वयं में ही मगन।
प्रसाद की वाणी में आवेग आ गया, ‘‘ जिज्ञासा, जिज्ञासा और सिर्फ जिज्ञासा! तुम यही समझो कि मेरे मन में जिज्ञासाओं का जैसे समुद्र ही उमड़-गरज रहा है... एक बड़ा कवि-कलाकार जिसका तन-मन संसार और समय की थाह बताने वाला एक सर्वाधिक संवेदनषील विरल मापक-यंत्र है, वह कैसे व्यवहार करता है, कैसे सोचता है, कैसे बोलता है, उसकी प्रसन्नता कैसी है, उसके विशाद का क्या रंग है, उसका क्रोध कितना कठोर है, उसकी आसक्ति कितनी तरल है, उसकी खिन्नता कैसी झीनी है, उसकी तृप्ति कैसी गाढ़ी है... आदि-आदि... रवीन्द्रनाथ हमारे समय के श्रेश्ठतम एकल प्रतिभा हैं... एक ही काया में कवि-कथाकार, चित्रकार, संगीतज्ञ, चिन्तक, दार्षनिक... अनेक विषिश्ट व्यक्तित्वों का विरल विन्यास! ... इसलिए उनके प्रति जिज्ञासाएं बहुत प्रबल हैं... बहुरूपी भी! ’’ प्रसाद के षब्द तन्मय और नेत्र तरंगों से भरे हुए।
उद्यानगृहकर्मी देर तक खड़ा-खड़ा दोनों के मुंह ताकता रहा। दास की तन्द्रा टूटी तो उसे देखकर चौंक पड़े। हड़बड़ाकर प्रसाद का ध्यान झकझोरा और चलने का संकेत किया। प्रसाद मुस्कुराये। 
आगे-आगे उद्यानगृहकर्मी और पीछे वे दोनों। बेंत की वही खाली कुर्सियां। कविगुरु पास ही तख्त के पिछले छोर पर आगे पर्याप्त रिक्त स्थान छोड़ चुकुमुकु बैठ गये। सामने आधा से ज्यादा तख्त खाली। चादर पर जैसे चांदनी पुती हुई हो। वही-वही दिव्य हरित-सुगंधित वातावरण।
दोनों को आता देख उन्होंने दूर से ही खिले-खिले लाल-पीले षब्द-पुश्प उछाले, ‘‘ आओ, आओ! हिन्दी भाशा के कोंपल कमनीय कमल कवि! तुम्हारा यहां स्वागत है... ’’
प्रसाद का अन्तस झनझना उठा। कविगुरु की वाणी का प्रथम हृदय-स्पर्ष ही ऐसा मुग्ध कर देने वाला! पहली ही दृश्टि में अपनी आभा में समेट लेने वाला सम्मोहक व्यक्तित्व ! दिव्य छवि-उपस्थिति। असाधारण अनुभूति। उन्हें लगा- कविगुरु तो सचमुच जिये जा रहे एक-एक क्षण को कविता बनाकर धारण करते चलने वाले विरल षख्स लग रहे हैं ! काल को टटोलती-बटोरती उनकी आंखें कितनी सर्वषुभेच्छु हैं !...
निकट पहुंचते ही वही विरल-टहक वाणी फिर हवा पर खिंची,‘‘ ...मुझे तुम्हारे बारे में सब पता हो चुका है... तुम्हारी ही लेखनी से हिन्दी कविता की वसुन्धरा पर एक नये युग का सूत्रपात हुआ है.. मुझे स्वयं तुमसे मिलना था... कृश्णदास ने मेरा यह एक बड़ा काम पूरा किया!’’
दास हक्का-बक्का। कविगुरु का मुंह ताकते रहे। कल तो एकदम अनजान लग रहे थे! आज यह भाव! क्या सचमुच कविगुरु पहले से प्रसाद के बारे में पूरी तरह सूचित हैं! आष्चर्य!
कविगुरु तख्त से उठे। खड़े हुए। काव्य कद एक कौंध के साथ जैसे अनन्त ऊंचाई तक खिंच गया हो! धरती को आकाष से जोड़ती एक रष्मिरेखा। प्रसाद ने अचकचाकर देखा, उनकी छंदोबद्ध मुस्कान सचमुच अपूर्व। रस, रंग, सुगन्ध, भाव व अलंकारों से रंजित! परिपाक्-परिपूर्ण। मुखमण्डल पर इस देष के व्यतीत हजारों-हजार वर्शों के समय-सत्य के चरण-चिह्न। वेद, पुराण, उपनिशद, स्मृति, श्रुति... सबके स्मृति-चिह्न चिरन्तन रेत-कण-से चमकने लगे। उनकी उपस्थिति-रूपाकृति में बाल्मिीकि और वेदव्यास से लेकर तुलसी-कबीर तक सभी झांकते दिखने लगे। नेत्रों में से बाहर हुलकते दिखे गीता-पिता कृश्ण और करुणा-कल्प बुद्ध। 
कविगुरु ने एक कुर्सी के पास स्वयं पहुंचते हुए दोनों को सामने बैठने का साग्रह संकेत दिया। दास ने मुंह खोला, ‘‘ गुरुदेव, अब तो आपके सामने औपचारिकता में भी यह कहने की आवष्यकता नहीं रही कि यही हैं सुकवि जयषंकर प्रसाद! ’’
प्रसाद सकुचाये। कविगुरु उनसे मुखातिब हुए, ‘‘ मुझे अब तक हिन्दी अच्छी तरह नहीं सीख पाने का बहुत पछतावा है... यह एक अत्यन्त सक्षम भाशा है और आने वाले समय में इसकी षक्ति का जब सम्पूर्ण प्रकटीकरण होगा तो यह विष्व की सर्वाधिक षक्तिषाली भाशा बनेगी! ’’
दोनों मुग्ध, मौन। कविगुरु कहते चले जा रहे थे, ‘‘ प्रत्येक भाशा की अपनी कुछ विषेश षक्ति होती है और विषिश्ट सम्भावनाएं भी। हिन्दी में आपके यहां जो ‘हट’ और ‘पन’ प्रत्यान्त षब्द जैसे ‘घबराहट’ और ‘लड़कपन’ होते हैं, बांग्ला में यह है ही नहीं! इसकी कमी हमलोग बहुत अफसोस के साथ अनुभव करते हैं! ’’
प्रसाद बोले,‘‘ हां, असल में हिन्दी भाषा क्षेत्र की जो भौगोलिक विस्तृती है इसके चलते भी ढेर सारी उपलब्धियां स्वयं ही जुड़ती चली जाती हैं... पांच कोस पर पानी और आठ कोस पर भाषा बदलने के सिद्धांन्त के तहत ही देख लीजिये न कि हिन्दी  को कितनी व्यवहारगत व भाशिक विविधता सुलभ होती चली जा रही है! ’’
दास तो चुप रहे किंतु उनके मन में प्रश्‍न कुलबुलाते रहे। कविगुरु और प्रसाद के बीच क्या कविता के सन्दर्भ पर भी कोई सार्थक चर्चा होगी ? क्यों कविगुरु हिन्दी के मौजूदा लेखन- सन्दर्भ पर कुछ नहीं पूछ रहे ? एकान्तवास की एकाग्रता ने उनमें कहीं विश्रामी निर्प्रष्नता तो नहीं भर दी है! 
तभी कविगुरु ने आंखें मूंद ली। दोनों हाथों को आकाश की ओर उठाया और जैसे महाशून्‍य से कोई अंतरंग संवाद रचने लगे हों। उनकी यह महामग्नता जैसे घण्टे-घड़ियालों की तरह गूंजने लगी। 
प्रसाद बुदबुदाये, ‘‘ सचमुच, यह गहन भाव-दशा है, विरल रचना-समाधि! लगता है कि कवि के सद्य:चरण अभी किसी सर्जना-भूमि में भाव-विचरण कर रहे हैं! ’’ 
एक नाति प्रदीर्घ अन्तराल के बाद उन्होंने आंखें खोली। तमतमाया मुखमण्डल लाल, भभूका। पहचानना मुश्किल कि यह वही शख्स हैं जो अभी कुछ ही पल पहले सहज अंतरंग बातें करता रहा! गुरुदेव ने बगल से लेखनी व करीने से सजे कागज की तख्ती उठा ली। तख्ती को सामने रखकर वे नभ की तरह झुके और आत्मा की तरह छा गये। लेखनी चलती हुई पृश्ठ पर षब्द उगलने लगी। षब्द तेजी से वाक्यों में ढलने लगे। वाक्य लगातार काव्य-काया में ढलते रहे। पृष्‍ठ पर जैसे-जैसे शब्द-वाक्यों का परिमाण बढ़ता गया, इसके समानांतर उलटे गति- अनुपात में कविगुरु के धीपे मुखमण्डल से लाली हवा होती गयी। एक पूरा पृष्‍ठ सुलेख बांग्ला लिपि में उतरे नवजात काव्य की किलकारी से भर गया। 
तख्ती और लेखनी को यथास्थान रखकर कविगुरु ने फिर आंखें मूंद ली और सीधे सजग बैठ गये। मुख पर अब क्लान्ति के कण झलके किंतु इसके साथ ही स्नेह के सघन भाव भी। 
प्रसाद ने उन्हें सहज बनाना आवश्‍यक समझा, ‘‘ गुरुदेव, आप तो काव्य के अतिरिक्त चित्रकला और संगीत में भी समान गति रखते हैं, मेरे मन में लम्बे समय से एक प्रश्‍न उठता रहा है... क्या कला के ऐसे तमाम रूपों का कोई एकमेव समुच्च्य नहीं गढ़ा जा सकता ? ’’  
कविगुरु के नेत्र सजग हो गये। प्रसाद ने अपनी बात को थोड़ा और खोला, ‘‘..रसज्ञ की जिह्वा पर कविता, चित्रकला और संगीत का अंतिम स्वाद तो अंततः समान रूप में ही उतरता है... अपने चरम प्रभाव में तीनों ही विधाओं की श्रेश्ठ रचनाएं अंततः भावक को ब्रह्मानन्द-दषा में ही तो पहुंचाती हैं! तीनों कलाएं आपस में कभी अनबोला नहीं पनपने देतीं... उनकी खुसुर- पुसुर कभी नहीं टूटती... किंतु इनके साधकों में कहीं आपसी समन्वय नहीं दिखता... ऐसा क्यों ? मैं पूछता हूं, तीनों विधाओं के साधकों में भला विकट विलगाव की स्थिति ही क्यों रहे! व्यवहार में ही देखिये न, कवि का चित्रकार या संगीतकार से या संगीतकार का चित्रकार या कवि से अथवा चित्रकार का कवि या संगीतकार से कोई सांगोपांग भाव-विनिमय-संसर्ग कहां स्थापित हो पाता है! ’’
‘‘ मुझे देखते-जानते हुए भी आप यह बात भला कैसे कह सकते हैं! ’’ गुरुदेव के नेत्रों में विनोद-मोद की चमक उभरी। शब्दों में व्यंजन, ‘‘...क्या मेरे अन्तस में कविता, चित्रकला और संगीत एक साथ पंक्तिबद्ध नहीं हैं ? ’’
प्रसाद मुस्कुराये। दास को अहसास हो गया है कि यह एक दुर्लभ संवाद-काल है जो सुखद संयोगवष ऐन आंखों के सामने घटित हो रहा है! गुरुदेव बैठे-बैठे झूमने लगे। पुष्‍प-पौध की तरह। स्वर में लय भी और रस भी, ‘‘...यह सृष्टि बहुरंग, बहुरूप, बहुआयाम, बहुरस, बहुराग, बहुध्वनि, बहुमौन, बहुआकार, बहुभाषा, बहुलिपि, बहुविध और बहुसिद्धांत... अर्थात् बहु-बहु व विराट् स्वरूप है! ऐसा कुछ नहीं जो यहां उपलब्ध न हो, ऐसा भी कुछ नहीं जो यहीं अपने विलोम की ललकार से मुक्त हो! समरूप खोजने निकलो तो एक पूरी शृंखला बन जाये और विलोम या अपरूप की तलाश में आगे बढ़ो तो उसकी भी वैसी ही कड़ियां हाजिर! हर चरम का उद्याम प्रतिरोध और विकट विलोम सृजित-उपस्थित है! उदाहरण के लिए आप एक ओर आग की क्षमता-विकटता को देखिये तो इसी क्षण इसके समानांतर पानी की सत्‍ता-शक्ति का स्मरण कर लीजिये! सृजन का कमाल यह कि दोनों जितने ही परस्पर विलोम दिखेंगे, उतने ही एक-दूसरे के अपरिहार्य और निर्विकल्प सम्पूरक भी। आग के हृदय में पानी का वास है तो पानी के अन्तस में आग का रमण! ...इसलिए प्रश्‍न वस्तु का नहीं, दृष्टि का है! ’’
प्रसाद और दास निर्वाक् किंतु अतिरिक्त सजग-सक्रिय। उनके मन-मस्तिष्‍क पर कविगुरु के शब्द झमाझम बरस रहे हैं, ‘‘...प्रश्‍न है कि हम ऐसा चाहने ही क्यों लगें कि संसार के सारे पहाड़ कतार से पृथ्वी के एक ही हिस्से में खड़े हो जायें और यह भी कि तमाम नदियां एक साथ सीधी-सरल समानान्तर रेखाओं में पंक्तिगामिनी हों जायें... यह कितना हास्यास्पद होता अगर सभी जीव-जन्तुओं के अपने अलग-अलग खाने बने होते जैसे एक भूभाग में विष्व के तमाम कौवे रहते तो एक में तोते, भूमि का एक अलग टुकड़ा दुनिया भर के घोड़ों का होता तो एक गायों का, एक सांपों का अपना भूखण्ड तो एक नेवलों का... नदियों की एकमुष्त संख्या ऐसी जिसमें केवल रोहू मछलियां होतीं तो कुछ ऐसी जिनमें केवल मांगुर.. तो ऐसे में यह दुनिया भला दुनिया कैसे बन पाती! ... ऐसा होने पर तो यह एक पृथ्वीव्यापी अजायबघर हो जाता, विष्व कदापि नहीं! रोध-अवरोध-प्रतिरोध, घर्षण- विच्छुरन और क्षरण सम्भव न बनें तो नव्य की अवधारणा ही विलीन हो जाये! सच तो यह कि यह संसार ही बना है बहुविध-बहुरूप व विलोम-प्रतिरोध के सक्षम समागम से!  इसलिए यदि कहीं किसी प्रक्षेत्र में कोई आलोड़न और क्षरण गोचर हो रहे हों तो अंततः इसे प्रसव-पूर्व की पीड़ा और एक अपूर्व नवीनता के आगमन का संकेत भी समझा जा सकता है! उसी तरह किन्हीं परस्पर सम्पूरकों के समुच्च्य को देखने की लालसा जगे तो थोड़े-से प्रयास पर ही यह प्रत्यक्षतः देखा जा सकता है कि कैसे एक जैसी चीजें अपने बीच के अंतरालों को नगण्य बनाती बिना किसी बाधा के एक ऊंचाई पर परस्पर जुड़ाव रचने में सक्रिय-सफल होती रहती हैं...! गोकि अंतराल परस्पर जुड़ाव में कभी बाधक नहीं और नैकट्य या सामीप्य परस्पर सम्बद्धता के इकलौते चिह्न नहीं! संसर्ग या परस्पर विनिमय के लिए गलबांही कहां आवष्यक है! धरती और आकाष कहां सटे हुए हैं ? लेकन, नहीं सटने के बाद भी क्या दोनों के संसर्ग व परस्पर विनिमय में आज तक कभी कोई बाधा आयी है? 
आकाष नियमपूर्वक बरसा रहा है धूप और चांदनी और जीवन-बूंदें, तो धरती क्षण-क्षण आकाश को निर्बाध भेज रही है अपनी वाष्पित शुभकामना, कृतज्ञता और प्यार और प्यार और प्यार और प्यार... अर्थात् एक अनन्त संसर्ग, एक अबाध विनिमय अथक गति से लगातार सम्भव हो रहे हैं- अनादि काल से... ’’
प्रसाद के मुखमण्डल पर तृप्ति की आभा है। दास चमत्कृत। 
गुरुदेव खड़े हो गये हैं। वे दोनों भी। 
छोटे-छोटे कदम बढ़ाते गुरुदेव कुछ निकट आ रहे हैं ‘‘...बहुत अच्छा लगा आपलोगों का यहां आना... इस तरह जिज्ञासा दिखाना और एक नये अंदाज में विमर्श की स्थिति की रचना करना... मुझे एक बात का अभी यहां गहरा अनुभव हो रहा है कि मुझे हिन्दी भाषा में अपनी गति ठीक कर ही लेनी चाहिए... मैं आपलोगों को सीधे मूल हिन्दी भाषा में पढ़ना चाहता हूं... ’’

नवनीत’ ( अप्रैल 2011 अंक ) में प्रकाशित धारावाहिक 11 वीं किस्त



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About Shyam Bihari Shyamal

Chief Sub-Editor at Dainik Jagaran, Poet, the writer of Agnipurush and Dhapel.
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