यहाँ तक आ गये हम भी यूं ही चलते-चलते
मुक़ाम-ए-ज़िंदगी में कोई उस्ताद कहाँ हुआ किया
कुछ कहना-सुनना चल पड़ा यूं ही कहते-कहते
ख्वाहिश अब भी कि ज़माने से सीधे होते मुकाबिल
शिकस्त भी खाते तो बात अपनी यूं ही रखते-रखते
किसी ने साथ नहीं लिया न कोई पीछे ही मेरे आया
बियाबां चीरते चले गालिब-ओ-मीर गुनगुन करते
पांव अटके तो क़दम डगमग-डगमग हुआ किये
पता न था बदलेंगे वे लोग जो हम पर थे हंसते
लब खुलने से पहले ज़ुबां-ए-दिल हिलने लगता
हम चुप हो जाते अपनी खामोशी सुनते-सुनते
बेखुदी बेवक़्त कभी बेमतलब और अक्सर बेसबब
श्यामल रह गया यूं ही नहीं कुछ खास बनते-बनते
©श्याम बिहारी श्यामल
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