आंख में अंगुली 0 कौन हैं ये लाइकलपकु और कमेंटकपटी तत्व


              फेसबुकी साथियों का गजब फसाना   
                                                             0 श्यामबिहारी श्यामल


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फेसबुक, ट्विटर या ऐसे दूसरे सोशल नेटवर्किंग साइटों ने हाल के दिनों में दुनिया के विभिन्न हिस्सों में कई अद्भुत प्रभाव दर्ज कराये हैं तो सिर्फ इसीलिए क्योंकि अमुक संदर्भ में इनका व्यापक और सकारात्मक प्रयोग किया गया! इस प्रसंग में हम मिस्र का नाम यहां प्रतिनिधि-दृष्टांत के तौर पर ले सकते हैं, जहां इसी माध्यम का इस्तेमाल कर जनचेतना, जनजागरुकता और जनजुटान को संभव बनाया जा सका! इसके बाद वहां कैसे-कैसे क्या 
हुआ, यह जितना रोमांचक है उससे कहीं ज्यादा यही अहसास कराने वाला कि सोशल नेटवर्किंग साइट को हम बाकायदा मुक्ति-मार्ग के रूप में सफलता के साथ कैसे प्रयोग में ला सकते हैं!
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दुनिया भर में सोशल नेटवर्किंग साइटों के बढ़ते प्रयोग के समानांतर ही इनके सकारात्मक प्रभाव की खबरें भी सब तक पहुंचती रही हैं! इसके बावजूद इनका हम कितना सकारात्मक प्रयोग कर कर रहे हैं? यह सवाल जेहन में कुछ समय से तैर रहा था जो अचानक तब भभक पड़ा जब फेसबुक पर एक ताजा सहमा देने वाला अनुभव प्राप्त हुआ। दरअसल, सोमवार ( 10. 05. 2011 ) को मैंने इसी साइट पर गिफ्ट पैक में दिखाई गयी पुस्तक की छवि के साथ मित्रों को एक बिनमांगी सलाह दे डाली थी! वह यह कि हमें अपने सामाजिक व्यवहार-जगत में विभिन्न अवसरों पर दिये जाने वाले उपहार के तहत प्रियजनों को किताबें देने की निर्णायक पहल करनी चाहिए! ऐसे अवसरों पर हमलोग गिफ्ट सेंटरों पर पहुंच मोटी रकम ढीलकर कोई भी फालतू या गैरजरूरी-सी चीज भी उठा पैक करा लेते हैं और लक्षित प्रियजन के सिर मढ़ आते हैं! बिना यह सोचे कि अमुक व्यक्ति को दी जा रही वस्तु की कितनी आवश्यकता है! आम तौर पर उपयोगी चीजें खरीदी जा चुकी होती हैं, कोई उपहार में इनके आने का इंजतार नहीं करता।
इससे तो अच्छा यह कि हम ऐसे मौकों पर उपहार में किताबें देने का स्वभाव बनायें या विकसित करें! इससे पुस्तकों की पहुंच का दायरा भी बढ़ेगा और स्वस्थ माहौल भी विकास पायेगा! हिन्दी में किताबों की क्या हालत है, यह किसी से छिपी नहीं है! हालत यह है कि नामी- गिरामी लेखक भी अपनी किताब के अगले संस्करण का मुंह बीस-बीस साल में नहीं देख पाते। पत्र-पत्रिकाओं में छाये रहने वालों की भी किताब छपना आसान नहीं है। अच्छी-भली नौकरी करने और लेखन का शौक रखने वालों के माध्यम से अब तो प्रकाशक ही उल्टे धन लेकर किताब छापने का गोपनीय धंधा चला रहे हैं! इसके बावजूद पुस्तकालयों में खरीद का आधार न हो तो हिन्दी के पंचान्बे प्रतिशत प्रकाशक एक साथ एक मिनट में टें बोल धराशायी हो जायें! अमूल्य लेखन-कर्म को इस पुस्तक-बाजार के गणित ने निर्मूल्य बनाकर छोड़ दिया है! प्रकाशक सांढ़ बना बैठा है, जिसे जब चाहे अनदेखा कर दे या जब तक मन हो नीचे दबोच-दबाये बैठा रहे! अच्छे-भले कलमकार भी छुप-छुपाकर उसके निकट जा नंदी-पूजन को विवश हैं! ऐसे में यदि हिन्दी समाज में पुस्तक का प्रयोग बढ़ेगा तो लेखकों के दिन फिर सकेंगे, इसमें दो राय नहीं। किताबें जब हाथों-हाथ बिकेंगी तो छापने के लिए खोजी भी जायेंगी। ऐसे में प्रकाशक भला लेखक को कब तक अनदेखा कर सकेगा!
बहरहाल, इस सलाह को छह लोगों ने ‘लाइक’ किया अर्थात् मौन-पसंदगी दी जबकि टिप्पणीपूर्वक इसका समर्थन किया महज तीन लोगों ने। यह तीन भी मेरे अत्यंत अंतरंग प्रकार के साथी हैं... भूपेंद्र सहाय, अरुण कुमार पांडेय और आशुतोष पाठक। पहले वाले तो एक संस्थान में सहकर्मी रहे हैं जो फिलहाल गोरखपुर में रह रहे हैं और इस नाते अंतरंग हो गये जबकि बाद के दोनों बनारस के। तात्पर्य यह कि उक्त टिप्पणियां भी सहज प्रवाह में बहकर नहीं बल्कि गाढ़े
रिश्ते के आकर्षण में खिंचकर आयीं हैं! ( यह आलेख सोमवार की सुबह लिखा गया है, उसके बाद दो साथियों सैन्नी अशेष और विकास नेमा के कमेंट मिले हैं जबकि लाइक में तीन नाम जुड़ गये हैं बलराम अग्रवाल, रविशंकर रवि और सैन्नी अशेष। नेमा जी की टिप्पणी बहुत उत्सावर्द्धक है जबकि सैन्नी साहब की सारगर्भित। सबका आभार। ) शायद बाकी फेसबुकी साथियों को या तो यह सलाह पसंद नहीं आयी या वे ऐसा कुछ पहले से जानते-समझते रहे हों! हालांकि पहले से जानने-समझने वाले भी चाहते तो अपनी सहमति जता ही सकते थे किंतु स्पष्टतः उनमें मेरी सलाह के प्रति कोई भाव नहीं उपज सका!                                                                                                  
      इसके बरक्स अब जरा दूसरी ओर मैं आपका ध्यान दिला दूं। पता नहीं कितने साथियों ने इस पर गौर किया हो, किंतु इलाहाबाद के कवि संतोष कुमार चतुर्वेदी समेत कुछ अन्य साथियों ने पहले ध्यान दिलाया है और मैंने भी अब यह महसूस किया कि फेसबुक पर कमेंट के हिसाब-किताब में कोई तिर्यक गणित है! कुछ साथी या अ-साथी इसके पहुंचे हुए फनकार हैं! वे अचानक या अक्सर कोई न कोई बे-सिर-पैर की बात बतौर शिगूफा छोड़ते रहते हैं। अजब-गजब यह कि वे ज्योंही आकर ऐसी फुलझड़ी छोड़ते हैं, कमेंटों की सावनी फुहार शुरू हो जाती है! जैसे, दर्जनों क्या, सैकड़ों ‘जिन्दाबादी’ इसी की व्यग्र प्रतीक्षा में अपने-अपने कोटर में बैठे टुकुर-टुकुर ताक रहे थे! देखते ही देखते यह झमाझम बारिश में भी बदल जाती है! उधर, फुलझड़ीबाज कहीं भी किसी गद्दे में धंसा अगले शिगूफे की योजना या साजिश बुन रहा हो सकता है जबकि यहां अंट-शंट बातों की लड़ी है कि टूटने का नाम नहीं लेती! यह लंबी और लंबी और लंबी होती चली जा रही होती है। ‘लाइक’ और ‘कमेंट’ का आंकड़ा पूंछ उठाये कूदते सेंसेक्स की तरह भागता ही भागता नजर आ रहा होता है! शिगूफा यदि ‘मेरे पेट में दर्द है, इसका मतलब क्या है’ या ‘सूरज यदि शाम के बाद उदित हो तो’ जैसा भी हो तब भी आपको आंकड़ा ‘लाइक’ में 150-200 और ‘कमेंट’ में 90-120 तक जैसा भी दिख जाये तो कोई आश्चर्य नहीं!
      यहां यह याद दिला देना आवश्यक है कि फेसबुक, ट्विटर या ऐसे दूसरे सोशल नेटवर्किंग साइटों ने हाल के दिनों में दुनिया के विभिन्न हिस्सों में कई अद्भुत प्रभाव दर्ज कराये हैं तो सिर्फ इसीलिए क्योंकि अमुक संदर्भ में इनका व्यापक और सकारात्मक प्रयोग किया गया! इस प्रसंग में हम मिस्र का नाम यहां प्रतिनिधि-दृष्टांत के तौर पर ले सकते हैं, जहां इसी माध्यम का इस्तेमाल कर जनचेतना, जनजागरुकता और जनजुटान को संभव बनाया जा सका! इसके बाद वहां कैसे-कैसे क्या हुआ, यह जितना रोमांचक है उससे कहीं ज्यादा यही अहसास कराने वाला कि सोशल नेटवर्किंग साइट को हम बाकायदा मुक्ति-मार्ग के रूप में सफलता के साथ कैसे प्रयोग में ला सकते हैं! साइट से फैलायी गयी जनचेतना का ही यह कमाल रहा कि तानाशाही सत्ता के मुसीबती बुलडोजर के पहियों के नीचे रौंदी जा रही मिस्र की जनता के रोष और इसकी अभिव्यक्ति को फूटकर बाहर आते देखा जा सका। इस आग के दर्शन पूरी दुनिया ने टीवी के ठोस पर्दे पर किये। इसका वह अगला परिणाम भी देखा गया, जिसने पूरी दुनिया की हवा का जैसे रुख ही मोड़कर रख दिया हो! तानाशाही शासन वाले दूसरे मुल्कों में भी परिदृश्य बदलने लगा। अन्यत्र भी सत्ता के दैत्याकार चक्के के नीचे दबी जनता की कसमस अपना ठोस आकार और दूरगामी असर प्राप्त करने लगी है! इसके अलावा सार्थक प्रयोग के दूसरे अनेक दृष्टांत भी हमारे सामने हैं। कभी किसी असाध्य रोगी को सु-योग्य चिकित्सक या समुचित-सटीक चिकित्सकीय सलाह मिल गयी तो कहीं दशकों के बिछुड़े परिजन अचानक एक-दूसरे के सामने आ गये! ऐसे समाचार लगातार आते रहे हैं।
      बड़ी बात यह कि लेखन-प्रकाशन की हमारी दुनिया भी इससे कम नहीं बदली है! लेखकों को इस माध्यम से मामूली मुक्ति-सुख नहीं मिला है! इसका मर्म सही ढंग से खासकर उन्हें समझ में आ रहा होगा जो असहमति- स्वर या विपक्ष-विचारकोण के रचनाकार रहे हों! जो किसी भी आवरित नकार का एक झटके से अनावरण करने या या ‘पहाड़ जैसे पाप’ को उड़ाने के लिए अपने फूंक का प्रयोग करने में भी एक मिनट की देर पसंद नहीं करते! ऐसे लेखकों को पत्रिका- संपादकों का कैसा संताप झेलना पड़ता आया है, यह निकटस्थ-अंतरंग इकाइयां भी शायद ही सही-सही समझ सकें! कोई मामूली प्रतिकूल टिप्पणी छपाने के लिए भी कितना-कितना बर्दाश्त नहीं करना पड़ता रहा है! कई बार तो ऐसे अवसर भी गुजरे हैं जब किसी-किसी संपादक की मूढ़मगजी के चलते वृहद सरोकार के जरूरी मुद्दे तक आकार न ले सके, बल्कि जड़ से हवा होकर रह गये! पत्रिका-विशेष के संपादक या उसके मॉडल समीक्षक-आलोचकों ने अब तक कितनी साहित्यिक संहार-लीलाएं या कैसी-कैसी साहित्यिक भ्रूणहत्याएं की है, इसका ठीक-ठीक हिसाब लगाना भी मुमकिन नहीं। जाहिरन यह सब इसीलिए होता रहा, क्योंकि लेखक केवल निरीह लेखनीधारी-भर था, उसके पास अपनी बात को अपने ढंग से इच्छित या अपेक्षित समय पर सबके सामने रख पाने की ऐसी सुविधा न थी, जो आज सोशल नेटवर्किंग साइटों ने मुहैया करा दी है! आज कोई अदना-सा लेखक अपनी उस बात को भी असंख्य लोगों के सामने लहरा दे सकता है, जो किसी ‘शेर सिंह’ या ‘तीसमार खां’ के विरुद्ध ही क्यों न हो! क्या ऐसा पहले संभव था! सच बात तो यह कि सोशल नेटवर्किंग साइटों ने पत्रिका-पिनक का युग और संपादक-राज ही समाप्त कर दिया है! अब संपादक के इशारे पर मुद्दे निकाले या लहराये नहीं जा रहे! बात इस अथाह सूचना-प्रवाह पटल पर निकलती है और कुछ घंटों या अधिकतम एक-दो दिनों में किसी सहमतिजन्य मुकाम या उसके आसपास पहुंचती दिखने लगती है!
इसी सार्थक प्रयोग-संभावना के परिप्रेक्ष्य में फालतू प्रलाप की पनपती प्रवृति चिंताजनक है! कमेंटबटोरु या लाइकलपेटु बकवासें जिस तरह बढ़ रही हैं, इससे यह अंदेशा भी स्वाभाविक है कि कहीं इस पूरे माध्यम की छवि ही बॉलीवुड-टॉलीवुड टाइप कर देने की साजिश तो नहीं हो रही? आखिर इसका क्या मतलब निकाला जाये? क्या फेसबुक पर भी एक प्रकार का माफिया वर्ग पैदा हो गया है ? कमेंटजुगाड़ु या लाकइलपेटु जैसा कोई नया माफिया तंत्र! या, ऐसा तो नहीं कि यहां बतकुच्चनी और बतबनव्वली कला के माहिर जन्तुओं की आबादी तेजी से बढ़ रही हो? क्या फेसबुक बकबकियों या बकवासियों का अड्डा बनकर रह जायेगा?
contact : 09450955978
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About Shyam Bihari Shyamal

Chief Sub-Editor at Dainik Jagaran, Poet, the writer of Agnipurush and Dhapel.
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7 comments:

  1. आपने सही कहा खतरे यहाँ भी हैं और गंभीर भी | आपका लेख कई विन्दुओं की ओर ध्यान आकर्षित करता है और उनपर चिंतन की माँग भी अपेक्षित है |फेस बुक भी कम से कम हमारे देश में जुगाडू प्रक्रति का हो गया है | गनीमत कि बात बस ना से हाँ भला वाली ही है |
    आपकी बात पर विमर्श हो और रास्ता निकले सुखद होगा |
    -अभिनव अरुण

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  3. फेसबुक पर ही ऐसा ज्यादा देखने को मिल रहा है। कुछ लोगों ने एकदम मजाक बनाकर रख दिया है इस शक्तिशाली माध्यम को। स्वस्थ और सार्थक विचार-विनिमय की जगह चुटकुलेबाजी और मसखरापन के नजारे देख किसी भी जिम्मेदार नागरिक को चिंता होना लाजिमी है। लोग किसी से अपना संबंध खराब नहीं होने देना चाहते, इसलिए गलत देख-महसूस करके भी मौन रह जाते हैं! आपने इसे गंभीरता से उठाया है, यह अच्छी बात है!

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  4. श्याम भाई सार्थक बहसों के साथ हंसी मज़ाक भी जरूरी है, जिस महफ़िल में हंसी मजाक न हो वहाँ का माहौल भारी लगने लगता है.

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  6. आदरणीय श्यामल जी, बहुत ही संजीदा विषय पर आपने यह आलेख लिखा है, सबसे पहले तो मेरे विचार से किसी को भी यदि उपहार दिया जाय तो यह जरूर सोचना चाहिए की जो उपहार हम दे रहे है उसकी उपयोगिता ग्रहण करने वाले के सन्दर्भ में क्या है, महंगी से महंगी उपहार भी कभी कभी प्रयोग के बिना किसी कोने में पड़ा होता है किन्तु कोई बिलकुल सस्ता सा उदाहरण स्वरुप एक सुन्दर सा कलम दिल के पास होता है और हमेशा उपहार देने वाले की याद दिलाता है | आप का सुझाव बिलकुल ही सही है, किताब से बड़ा कोई दोस्त होता ही नहीं है, और किताब एक धरोहर की तरह है जो आने वाली पीढ़ी के लिए भी उपयोगी है, साथ में उसके पीछे का अपरोक्ष प्रभाव का विवेचना भी आपने बहुत ही सही तरह से किया है मैं बिलकुल सहमत हूँ |
    रही फेस बुक पर टिप्पणियों की बात तो इसका अलग ही समीकरण है, यदि कोई सुंदर और आकर्षित सी फोटो लगाईं हुई कथित महिला प्रोफाइल पर यह स्टेटस आता है कि "आज मेरी सैंडिल टूट गई" तो उसपर टिप्पणियों के वोले गिरने लगते है, किन्तु यदि किसी पुरुष प्रोफाइल से यह स्टेटस भी आता है कि "आज एक्सीडेंट में मेरी कमर टूट गई" तो भी कोई पूछने वाला नहीं है | बहुत सारे मित्र like कर देंगे, कमर टूटने को भी लोग पसंद करते है |
    सब मिलाकर आपने एक सारगर्भित आलेख लिखा है, बहुत बहुत बधाई आपको |
    आपका
    गणेश जी "बागी"
    संस्थापक
    www.openbooksonline.com
    (एक सामाजिक और साहित्यिक वेब साईट)

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  7. किताब देने का आइडिया अच्छा है। हालांकि अच्छे विचार पर अमल करना कठिन।
    फेसबुक पर बहस के सवाल पर मेरी सोच है कि भारत के किसी भी गली चौराहे पर निकल जाएं, सब विशेषग्य ही होते हैं। क्रिकेट का खेल चल रहा हो औऱ तेंदुलकर आउट हो जाए, सभी लोग उसे अपने अपने तरीके से सलाह देंगे, लेग की गेंद ऑफ की ओर नहीं खेलना चाहिए था, उछलती गेंद दबाकर खेलनी चाहिए थी, आदि-आदि। फेसबुक भी वैसा ही साधन है और सबको अपनी बात रखने का हक है। उसमें कभी कभी सार्थक मसलों पर भी चर्चा हो जाती है, कभी-कभी अच्छे मित्र मिल जाते हैं और कभी लगता है कि इस फेसबुक से एकाउंट बंद कर देना ही बेहतर विकल्प है। आज धूप अच्छी है--- पर अगर टिप्पणी आ रही है तो वह भी अच्छा और नहीं आ रही है तो वह भी अच्छा। टिप्पणी करने वाला जाने कि उसने टिप्पणी क्यों की। टिप्पणी करने की कोई मजबूरी भी नहीं है। चाहे तो करें, चाहे तो न करें।
    तमाम विद्वान ऐसे हैं जो टिप्पणी करवाने पर अपना एकाधिकार समझते हैं, क्योंकि वे बुद्धिजीवी होते हैं। वे जवाब देने को बेवकूफी समझते हैं। तमाम विद्वान ऐसे होते हैं जो अपनी पोस्ट पर तो खूब टिप्पणी चाहते हैं, दूसरे को तवज्जो नहीं देते क्योंकि वह उनकी नजर में बेमतलब की बात कर रहा होता है। तमाम लोगों के पास पद प्रतिष्ठा की धमक होती है और उसकी चमचागीरी में पचासों लोग जै-जै कर देते हैं, कुछ नौकरी की आस में जैजै कर देते हैं। विविधता से भरा देश है अपना।

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