अन्‍तर्विरोध बनाम अन्‍तर्शक्‍त‍ि 
अज्ञेय के बहाने शंभुनाथ पर जगदीश्‍वर चतुर्वेदी की अतिशय चिंता

  श्‍यामबिहारी श्‍यामल
       'हिन्‍दी समय डॉट कॉम' ( http://www.hindisamay.com/Alochana/Aadhunikaran-aur-agney-ki-chitaney.html ) पर प्रकाशित शंभुनाथ का यह आलेख '' आधुनिकीकरण और अज्ञेय की चिंताएँ '' पर आलोचक जगदीश्‍वर चतुर्वेदी ने सात अप्रैल ( 2012 ) को फेसबुक पर सबका ध्‍यान खींचा है। इस क्रम में उनकी कई टिप्‍पणियों में एक यह देखिए, '' हिन्दी में तथ्यहीन और अकादमिक अवधारणाओं का तेजी से प्रसार-प्रचार हो रहा है। इसमें कुछ समीक्षकों की भूमिका है। ये समीक्षक बिना जाने-समझे अवधारणाओं का इस्तेमाल करते हैं। इस पर भी मुश्किल तब आती है जब कोई विश्वविद्यालय अकादमिक गुणवत्ता का ख्याल किए वगैर उसे अपनी पत्रिका या बेवसाइट पर प्रकाशित कर देता है। इस तरह की आलोचना को हिन्दी की अंटशंट आलोचना कहना समीचीन होगा। इस तरह की आलोचना की स्तरहीनता और तथ्यहीनता की पब्लिक समीक्षा की जानी चाहिए। इस तरह की एक आलोचना हमारी नजर से गुजरी है जो किसी भी तरह अकादमिक अवधारणाओं की कसौटी पर सटीक नहीं बैठती। यहां नीचे ( यहां ऊपर ) लिंक है उस समीक्षा का उसे पढ़ें। यहां पर आलोचक ने सतही, अनैतिहासिक और अंतर्विरोधी नजरिए से अवधारणाओं के नामों का दुरुपयोग किया है। कम से कम विश्वविद्यालय की बेवसाइट पर इस तरह की अंटशंट समीक्षा को प्रकाशित करने बचा जाना चाहिए।... ''
        गदीश्‍वर चतुर्वेदी की पोस्‍ट पर चर्चा में दूसरे दिन की सुबह तक इन पंक्‍ति‍यों के लेखक के अलावा अमरेन्‍द्रनाथ त्रिपाठी, हितेन्‍द्र पटेल और भारतेन्‍दु मिश्र ने हिस्‍सा ( पूरा विमर्श इस टिप्‍पणी के नीचे उपलब्‍ध ) लिया है। हितेन्‍द्र जी की शिकायत है कि शंभुनाथ के लेख से भ्रम कमने के बजाय बढ़ता है। मामला अज्ञेय का है, इसलिए प्रश्‍न है कि यह भ्रम है ही क्‍यों ? 
         बसे पहली बात तो यही कि यह भ्रम इसलिए है क्‍योंकि अज्ञेय का साहित्‍य अंतर्विरोधों से मुक्‍त नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे प्राय: प्रत्‍येक उल्‍लेखनीय रचनाकार का सृजन-संसार। मूल प्रश्‍न तो यह कि क्‍या कोई भी महान सृजन बगैर अन्‍तर्विरोध के सम्‍भव है ?     
         ध्‍यातव्‍य यह कि अंतर्विरोध कोई समस्‍या नहीं, बल्कि सृजन और विमर्श की अन्‍तर्शक्ति है। मूल अन्‍तर्प्रक्रिया। अधारभूमि भी। कोई भी चित्रकृति जैसे बिना शेड्स के सम्‍भव नहीं, वैसे ही कोई भी सर्जनात्‍मक उद्योग बगैर अंतर्विरोध और उसके तनाव-ताप के मुमकिन कहां ! अंतर्विरोध ही है जो किसी भी प्रदीर्घ सृजन-यात्रा को सतत बनाता है अथवा उसके लिए लगातार आगामी रचना-पथ प्रशस्‍त करता चलता मिलता है।
        हम यहां अपनी ही भाषा के साहित्‍य-संसार पर एक नज़र डालते हैं। भारतेन्‍दु बाबू से शुरू कीजिए और प्रसाद, निराला, दिनकर तक आ जाइए। वस्‍तुतथ्‍य तो यही कि विचार-सरणि व भाषा-दृष्टि से लेकर शैली-शिल्‍प संवर्ग तक, भला किस महान रचनाकार की समग्र यात्रा का ग्राफ एकरेखीय खींचा जा सकता है ? अक्‍सर एक ही रचनाकार के सृजन में तो परस्‍पर विपरीत दृष्टिकोण तक तने दिखते चले जाते हैं। कहीं गहरी खड्ड-खाई तो कहीं विचलनकारी विरोधाभास भी। 
         क्‍या पूरे भारतेन्‍दु साहित्‍य में अंग्रेजों के प्रति एक जैसी आक्रामकता है ? 'कामायनी' के रचनाकार जयशंकर प्रसाद के उपन्‍यास क्‍या प्रेमचंद से कम सहज हैं ? 'गरम पकौड़ी ' तथा ' रानी और कानी ' जैसी रचनाएं देने वाले कवि निराला के नाम के साथ ही क्‍या 'राम की शक्तिपूजा ' जैसी रचना भी दर्ज नहीं है ? आग उगलने वाले कवि की छवि रखने वाले दिनकर के स्‍वर से ही क्‍या ' उर्वशी ' नहीं फूटी और इसी रचनाकार की अंतिम दिनों की परिणति ' हारे को हरिनाम ' के रूप में नहीं दर्ज हुई है ? लिहाजा यह स्‍वाभावि‍क ही है कि अज्ञेय और उनका साहित्‍य भी इससे इतर नहीं हो सकता था।
         से में यदि शंभुनाथ अज्ञेय पर विचार करते हुए उन्‍ाके प्रति अब तक अपनाए गए दोनों अतिवादी मार्ग से अलग हटकर तमाम विरोधाभासों और अन्‍तर्विरोधों को सामने रखकर व्‍यापक विमर्श की आधारभूमि तैयार करते हैं तो यह चिन्‍ताजनक नहीं, बल्‍कि‍ स्‍वागतेय माना जाना चाहिए। इस पर खुले मन से चर्चा होनी चाहिए। जहां तक जगदीश्‍वर चतुर्वेदी द्वारा शंभुनाथ के आलेख को ' सतही, अनैतिहासिक और अंतर्विरोधी नजरिए से अवधारणाओं के नामों का दुरुपयोग ' करने वाला करार देने की बात है, यह अनावश्‍यक अतिशय उग्र प्रतिरोध चौंकाने वाला है। संदेह होना लाजिमी है कि अज्ञेय के बहाने इस प्रतिरोध के पीछे कहीं व्‍यक्तिगत राग-द्वेष जैसी बात या कोलकते की स्‍थानीय साहित्यिक राजनीति तो नहीं ! कामना की जानी चाहिए कि कोलकते में रह रहे उक्‍त दोनों सम्‍माननीय वरिष्‍ठों के बीच परस्‍पर ऐसा कुछ कदापि नहीं होगा जिसकी छाया हमारे साहित्‍य पर पड़ सके।

......   फेसबुक पर 08 अप्रैल 2012 को पूर्वाह्न 11.30 तक की चर्चा ...... 

हिन्दी में तथ्यहीन और अकादमिक अवधारणाओं का तेजी से प्रसार-प्रचार हो रहा है। इसमें कुछ समीक्षकों की भूमिका है। ये समीक्षक बिना जाने-समझे
अवधारणाओं का इस्तेमाल करते हैं। इस पर भी मुश्किल तब आती है जब कोई विश्वविद्यालय अकादमिक गुणवत्ता का ख्याल किए वगैर उसे अपनी पत्रिका या बेवसाइट पर प्रकाशित कर देता है। इस तरह की आलोचना को हिन्दी की अंटशंट आलोचना कहना समीचीन होगा। इस तरह की आलोचना की स्तरहीनता और तथ्यहीनता की पब्लिक समीक्षा की जानी चाहिए। इसतरह की एक आलोचना हमारी नजर से गुजरी है जो किसी भी तरह अकादमिक अवधारणाओं की कसौटी पर सटीक नहीं बैठती। यहां नीचे लिंक है उस समीक्षा का उसे पढ़ें।यहां पर आलोचक ने सतही, अनैतिहासिक और अंतर्विरोधी नजरिए से अवधारणाओं के नामों का दुरूपयोग किया है। कम से कम विश्वविद्यालय की बेवसाइट पर इस तरह की अंटशंट समीक्षा को प्रकाशित करने बचा जाना चाहिए।

http://www.hindisamay.com/Alochana/Aadhunikaran-aur-agney-ki-chitaney.html
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    • Amrendra Nath Tripathi आगे आगे देखिये होता है क्या!
    • Shyam Bihari Shyamal जगदीश्‍वर जी, ब्‍लॉग को सरसरी निगाह से अभी देखा है.. अच्‍छा हो यदि आप आप अपनी चिंता को खोलकर बताएं.. शंभुनाथ जी की टिप्‍पणी इत्‍मीनान से पढ़ी जाएगी..
    • Amrendra Nath Tripathi shyam ji ki dilchaspi meri bhee..
    • Jagadishwar Chaturvedi श्यामल जी, मेरी चिन्ता एक ही है अवधारणाओं के नामों का चलताऊ उपयोग बंद हो। एक प्रोफेसर अपने निबंधों में जब यह करता है तो वह अनेक को भ्रमित करता है।
    • Amrendra Nath Tripathi han, aapke naye status se jahir huaa..
    • Shyam Bihari Shyamal ‎'चलताऊ' क्‍या है बंधुवर ?...
    • Shyam Bihari Shyamal ‎'चलताऊ' क्‍या है बंधुवर ?...
    • Jagadishwar Chaturvedi
      श्यामल जी, इसी लेख के आरंभ का पैराग्राफ पढ़ें- "आधुनिकीकरण की बड़ी परियोजनाओं ने समाज में दमनमूलक सत्ता के नए रूपों का निर्माण किया है। इन रूपों में केंद्रीकरण, भौतिकवादी जीवन शैली और संस्कृति-उद्योगों का विस्तार मुख्य हैं। वर्चस्व के ये रूप मनुष्य को नगण्य बना देते हैं, कला को मास कल्चर का अंग बना लेते हैं और साहित्य का अवमूल्यन करते हैं। एक और चीज घटित होती है, भाषा मुख्यत: सत्ता का खिलौना बन जाती है। वह बाजार या राजनीति के संकेतों में ढलने लगती है। इसी तरह कल्पना में उपनिवेश बनने लगते हैं। इसमें संदेह नहीं कि आधुनिकीकरण के बिना विकास संभव नहीं है। यह उत्तर-औद्योगिक समाज की एक अनिवार्य घटना है। ऐसे परिवेश में विलक्षण है कि अज्ञेय जैसे कवियों ने आधुनिकीकरण को आलोचनात्मक निगाह से देखा और चाहा कि मनुष्य की महत्ता न गिरे, समाज में 'व्यक्ति' का विलोप न हो, अनुभव की महत्ता समझी जाए और साहित्यिकता की रक्षा हो।"
    • Shyam Bihari Shyamal बंधुवर, आपने जो अंश यहां रखा है, इसमें कुछ शब्‍दावली नई है, खटक भी रही है... लेकिन, इसे ज़रा इत्‍मीनान से देखने की आवश्‍यकता महसूस कर रहा हूं... वेसे, आलेख मैंने देखा है, उसमें असहमति के अंदाज़ और बिन्‍दु कई हैं... लेकिन क्षमा कीजिएगा, यह मेरी सीमा भी हो सकती है, मुझे फिलहाल ऐसा तो कुछ नहीं दिख रहा कि इस पर एकबारगी ' स्तरहीनता और तथ्यहीनता ' जैसा ब्रह्मास्‍त्र ही चला दिया जाए...
    • Jagadishwar Chaturvedi श्यामलजी, आलोचना को मित्र और बंधुभाव के बाहर लाकर देखें।हिन्दी की आलोचना का पतन इन्हीं कारणों से हुआ है। अवधारणाओं में नए शब्द का नहीं अर्थ और अवधारणा के पीछे सक्रिय प्रक्रियाओं को प्रमाण के साथ लिखा जाना चाहिए। हिन्दी के कई समीक्षक और ये आलोचक महोदय भी।बिना प्रमाण के लिख रहे हैं।
    • Hitendra Patel Shyam Bihari Shyamal आप ज़रा इन स्थापनाओं को एक ही आलेख में देखें और बताएँ कि क्या इससे भ्रम बढता है या कमता है. यह लम्बा है लेकिन इसपर ध्यान दें. मैं सहमत हूँ कि लेख में कुछ विचारणीय बिन्दु हैं लेकिन जब एक नामवर आलोचक इस तरह लिखेगा तो यह कहना वाजिब है कि उन्होंने अवधारणाओं का असावधान प्रयोग किया है.
    • Hitendra Patel
      ‎1. आधुनिकीकरण की बड़ी परियोजनाओं ने समाज में दमनमूलक सत्ता के नए रूपों का निर्माण किया है।
      2. अज्ञेय निजी सच के कवि नहीं हैं।
      3. अज्ञेय यथार्थवादी लेखक नहीं थे, पर वह समाज-विमुख लेखक भी न थे।
      4. अज्ञेय सामाजिक होने की जगह अपने स्वयंरचित संसार में खड़े दिखाई देते हैं
      5. अज्ञेय भौतिकवादी सभ्यता और इसकी पूँजीवादी प्रणाली से अपने तरीके से मुठभेड़ करते हैं।
      6. भारतीय मध्य वर्ग की खूबी है कि वह लेना ही लेना जानता है, देना नहीं जानता।
      7. अज्ञेय नागर रुचि की भाषा में लिखते हुए भी 'नागरिक समाज' से संवाद करना नहीं चाहते। वे चट्टान, समुद्र, फूल, कौवा, सूर्य, कार्तिक की पूर्णिमा, पेड़-पौधों, वन से संवाद करते हैं। वे उसी जगह से संवाद करना चाहते हैं, जहाँ सत्ता का कोई चिह्न न हो।
      8. अज्ञेय समुद्र के समान विराट ही नहीं, बूँद के समान छोटी चीज भी देखते हैं।
      9. अज्ञेय का 'बाहर' जितना उजड़ा हो, उनका मन उदात्त सौंदर्यानुभवों से भरा है। उनमें आधुनिक मनोरुग्णता की जगह जीवन के प्रति गहरी आस्था है
      10. अज्ञेय की कविताओं में कविता और जीवन का वैसा विभाजन नहीं है जैसा कि मान लिया गया है। साहित्य में आधुनिकता इतनी अतिवादी नहीं हो सकती थी कि जिंदगी से एकदम विमुख हो जाए।
      11. वह जीवन को संगीत की आँखों से देखते हैं।
      12. आधुनिक कवियों ने युद्ध का हमेशा विरोध किया। अज्ञेय को एक शांतिवादी कवि के रूप में याद किया जा सकता है।
      13. अज्ञेय के लिए इतिहास समस्या है।
      14. आधुनिकतावादी लेखक 'नैतिक' और 'अनैतिक' की जगह 'वैयक्तिक' को प्रधानता देते हैं। समाज की जगह व्यक्ति ज्यादा महत्वपूर्ण विषय हो जाता है। साहित्य प्रातिनिधिक की जगह आत्मसंदर्भात्मक हो जाता है। ऐसे खास समय में अज्ञेय जैसे लेखकों का जो साहित्य आया, उसे आज किस तरह देखा जाए, यह एक समस्या है।
      15. वह इतिहास को नहीं, स्मृति को चुनते हैं। उनका स्मृति से दोहरा रिश्ता है। वह एक कारागार है और वह सुरंग भी है।
      16. आधुनिक लेखकों के लिए स्मृति एक बड़ी समस्या रही है -- किसे चुनें और किसे छोड़ें। एक वैयक्तिक स्मृति है और एक राष्ट्रीय स्मृति है। व्यक्ति की सारी स्मृतियाँ वैयक्तिक नहीं होतीं।
      17. आधुनिकीकरण ने राज्य संगठन को मजबूत बनाया, राज्य और जनता के बीच दूरी पैदा की।
      18. अज्ञेय के आत्मान्वेषण की सीमा यह है कि उसमें कहीं भटकन नहीं है। वह हमें उद्विग्न नहीं करता, बल्कि 'कंफोर्टेबल' लगता है।
      19. अज्ञेय की कविता महानगरीय जीवन में निरंतर अधिक अकेले होते जा रहे लेखक की कविता है।
      20. एक समय द'गाल के शासन में सार्त्र अत्याचार के विरोध में युवाओं के साथ पेरिस की सड़कों पर उतर आए थे। अज्ञेय के पास आपातकाल के दौर में 'चुप की दहाड़' थी। यह जरूर कहा जा सकता है कि वह तानाशाही के राजनीतिक शिविर में कभी नहीं गए।
      21. अज्ञेय एक महत्वूर्ण प्रस्थान थे। उन्होंने लोकप्रिय मिथकों से कोई सरोकार नहीं रखा और अपने अलग मिथक रचे।
    • Bhartendu Mishra बहुत सुन्दर और समीचीन बिन्दु आपने रखे हैं।कविता में लगातार अज्ञेय सौन्दर्यांवेषी प्रयोग करते रहे।बिना सत्ता और किसी खास विचारधारी की परवाह किए। जनता से दूर होने के कारण उन्हे कलावादी साहित्यकार मान लिया जाता है।...अब शम्भुनाथ जी तो बडे....।
    • Shyam Bihari Shyamal
      बंधुवर जगदीश्‍वर जी, आपकी यह बात उचित है कि हर अवधारणा या स्‍थापना के निष्‍पादन के साथ ही तत्‍काल आलोचक को इसके समर्थन में उद्धरण या अंश रखने का काम करना ही चाहिए। इसके बगैर संभ्रम जैसी बनती स्थिति कही जा रही बात को कमज़ोर और कभी-कभी संदिग्‍ध भी बनाती है... शंभुनाथ जी को इस दृष्टि से थोड़ा और श्रम करना ही चाहिए था... किंतु, बंधु, इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि यह आलेख ( शंभुनाथ जी का ) एकबारगी ऐसा है जिसे ' सतही, अनैतिहासिक और अंतर्विरोधी नजरिए से अवधारणाओं के नामों का दुरूपयोग ' ( आपके शब्‍द ) करने वाला घोषित कर दिया जाए। मेरे ख्‍याल से शंभुनाथ जी की कई स्‍थापनाओं पर बहस होनी चाहिए.. सादर..
    • Hitendra Patel
      सही बात, श्यामल जी. पर संकट यह है कि यह भ्रम श्रम से दूर नहीं होगा. एक ऐसी छद्म भाषा बनायी गयी है जिसमें पक्ष या विपक्ष इस तरह से रखा जाता है कि दोनों तरफ की बातें हो जाती हैं और आप सुविधा से इधर या उधर दोनों ओर को 'कवर' कर लेते हैं. अवधारणाओं के अनैतिहासिक और सतही प्रयोग से एक आलोचक को बचना चाहिए. शंभुनाथ जी पढे लिखे आलोचक हैं. वरिष्ठ भी. उनसे इसकी अपेक्षा की जानी चाहिए कि यह भ्रम न रहे. मुझे उनके लेख से यही शिकायत है कि वे नाहक एक साधारण सी बात को ऐसे पेश कर रहे हैं मानो कोई नयी स्थापना दे रहे हों. यह शोधार्थी के लिए तो ठीक है लेकिन आलोचक के लिए नाकाफी है. इसे व्यक्तिगत स्तर से न देखें.
    • Jagadishwar Chaturvedi
      श्यालजी, शंभुनाथजी के लेख पर बहस ही तो हो रही है।सवाल यह है कि वे अवधारणाहीन लेखन की पद्धति का इस्तेमाल कर रहे हैं। आपका बहस से आशय क्या है मैं समझ नहीं पाया। मेरे लिंक और टिप्पणी के बाद ही बहस हो रही है।यही बहस है। सवाल यह है कि क्या अज्ञेय और अन्य धारणाओं का ठीक से विवेचन कर रहे हैं या झाडू मार रहे हैं। हिन्दी में यह लेखन बहुत है।शंभुनाथ जी इस तरह के लेखन के माहिर हैं। वे मेरे निजी तौर पर सहकर्मी हैं और उनके लेखन को मैं अच्छी तरह जानता हूँ।हिन्दी के प्रोफेसर के लेखन में अकादमिक चलताऊपन ,वह भी हर समय, आलोचना को क्षतिग्रस्त करता है। मैं अपने निष्कर्षों पर कायम हूँ और मैं सब्जेक्टिव राय कभी नहीं देता। मैंने उनके लिखे को पढ़कर लिखा है।
    • Hitendra Patel उदाहरण के तौर पर मैंने जो 21 पंक्तियाँ एक ही आलेख से उद्धृत की हैं उसे अलग अलग पढिये और एक साथ रखकर पढिए आपको लगेगा कि झाडूमार अप्रोच ही काम कर रहा है. अलग अलग पढने से वे बातें ठीक ठाक लग सकती हैं लेकिन कोई पर्सपेक्टिव बनाने जायेंगे तो समस्या पैदा होगी.
    • Jagadishwar Chaturvedi इसके अलावा वे पूंजीवाद को कहीं अपने परिप्रेक्ष्य में शामिल नहीं करते।
    • Hitendra Patel वे आधुनिकतावाद का एक अमूर्त्त रूप सामने रखकर बहुत सारी बातें कह जाते हैं जो सुनने में अच्छी लगती हैं लेकिन यह समझ में नहीं आता कि इस आधुनिकतावाद का पूँजीवाद से ठीक ठीक क्या रिश्ता है. साथ ही इस आधिनिकतावाद का आधुनिकता से क्या संबंध है. ऐजाज अहमद की एक बात (पैरी एंडरसन के हवाले से) याद आती है - Modernisation, Modernity and Modern are different things. बहुधा इन तीनों को मिला देने से घालमेल हो जाता है.

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About Shyam Bihari Shyamal

Chief Sub-Editor at Dainik Jagaran, Poet, the writer of Agnipurush and Dhapel.
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1 comments:

  1. मैं व्यक्तिगत रागद्वेष के आधार पर नहीं लिखता। नहीं स्थानीय राजनीति का खेल है यह। शंभुनाथ के लेख में अवधारणाओं के अवमूल्यन का संकट काम कर रहा है। शंभुनाथ ने अपने लेख में अज्ञेय के कम अपने अंतर्विरोध ज्यादा व्यक्त किए हैं। मसलन् मासकल्चर के बारे में उनकी जो राय है वह अनैतिहासिक और तथ्यहीन है। मैंने यह बात जानबूझकर लिखी है। क्योंकि वे प्रोफेसर हैं 68साल के हैं।कम से कम अवधारणाओं का अवमूल्यन अक्षम्य अपराध है वह भी एक वि.वि. प्रोफेसर के द्वारा। इससे छात्रों में विभ्रम पैदा होता है।
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