व्‍यंग्‍य / जितना मूर्ख उतना सूर्ख


0  कबीरचौरा  0 
                                                                                                                 श्‍याम बिहारी श्‍यामल

                                             जितना मूर्ख, उतना सूर्ख

‘‘ कान से सांस और मुंह से गंध लिया कर... चाहे इसी तरह, पर कुछ न कुछ नया किया कर... ’’ बनारस में दश्‍वाश्‍वमेध घाट की सीढि़यों पर कबीर का इकतारा रुखे आलाप के साथ महीन राग मिला रहा था।
पास खड़े एक युवक से रहा नहीं गया, ‘‘ बाबा, आप यह क्या गा रहे हैं ? ’’
‘‘ समय! ’’ कबीर ने बगैर आंखें खोले अपना आलाप क्षण भर बाधित किया फिर अपने काम में जुट गये, ‘‘ लुंगी काटकर पायजामा, पायजामा फाड़ गंजी... खेलो चाहे क्रिकेट, चाल हमेशा शतरंजी... ’’
युवक निकट आ गया, ‘‘ मैं कुछ समझा नहीं... ’’
‘‘ समझना आवश्‍यक भी नहीं... सोचना भी जरूरी नहीं... चलते बनो...’’ राग-बाधा लम्बी खिंचने पर कबीर के मुखमण्डल पर खिन्नता दिखने लगी। इकतारा का स्वर तीखे टंकार से भर गया। कबीर के राग में तल्खी आ गयी, ‘‘ चाहे कर बकवास... बनाये रख भूख-प्यास... दबोच ले सबकी सांस...’’
वह चिढ़-सा गया, ‘‘ बाबा, जब कुछ समझाना-बताना ही नहीं और अपने लिए ही गा रहे हो तो यह काम किसी परबत पर या जंगल में जाकर क्यों नहीं करते! ’’
कबीर ने इकतारा रख दिया, ‘‘ क्या यह नगर जंगल से कम लग रहा है तुम्हें ? क्या यहां जंगली जानवरों की आबादी तुम्हें बहुत छोटी लग रही है? नीचे गंगा में उतरकर घाट की इन सीढि़यों को देखो, यह भी परबत से कम नहीं दिखेंगी तुम्हें... ’’
‘‘ आप क्या-क्या यह सब बके जा रहे हैं! ...कृपा कीजिये, मुझे समझाइये ’’
‘‘ ऐसी जिद ही क्यों कर रहे हो...इसका मतलब ही यही कि तुम अपने ही समय के साथ नहीं हो... अब तो न सोचना अच्छी बात है न समझना... असली मजा नासमझी में है, समझदारी में तो कदापि नहीं! ’’
‘‘ यह बात भी समझ से परे! आप लगातार ऐसी ही बातों का लोड बढ़ा रहे हैं...’’
‘‘ तूं भी तो हार नहीं मानने वाला... एक पर एक सभी बातों को समझने से इनकार करता चल रहा है... ’’ कबीर ने हंसकर सिर झटकारते हुए उंगली हिलायी और रंगे हाथ पकड़ लेने जैसा हर्ष छलकाया, ‘‘ तूं तो बहुत समकालीन है रे बचवा... बल्कि इससे भी अधिक... तूं तो उआ है... ’’
‘‘ उआ ? मतलब ? ’’
‘‘ मतलब नहीं, बल्कि खुलेआम बेमतलब! उआ यानी उत्तर आधुनिक! ’’
‘‘ उत्तर आधुनिक! यह क्या बला है ? ’’
‘‘ बला ही है! ‘प्रश्‍न‘ की पुकार से ‘उत्तर’ को कहो ‘आ’... पास आ जाये तो उसे पकड़ लो और धुन कर रख दो... यही उत्तर को धुन देने वाला जो धुनिक है, वही है उत्तर आधुनिक! ’’ कबीर ने गम्भीरता से समझाया।
युवक खीझ गया, ‘‘...अब या तो मेरा ही दिमाग काम नहीं कर रहा या... ’’
‘‘ वाह! वाह! यही दशा तो तुम्हें अर्जित करनी थी, जब दिमाग काम करना बंद कर दे...’’ कबीर ने खुशी से झूमते हुए इकतारा उठा लिया, ‘‘...टुन्टुन्...टुन्टुन्... बन जाओगे यदि खरा, तुमसे सबको खतरा ही खतरा... लोग डालेंगे गले में फांस, बंद कर देंगे तुम्हारी सांस... बनो जितना ही मूर्ख, प्रोफाइल उतना ही सूर्ख... कर लो बंद दिमाग, ज्ञान को कहो भाग... जितना ही अच्छा करो शीर्षासन, खिलाड़ी सौंप देंगे सत्ता-शासन... टुन्टुन्...टुन्टुन् ... ’’
युवक सीढ़ी पर पस्त भाव से थसक गया था। उसकी आवाज थक-हार गयी थी, ‘‘ कहीं आप कबीर साहेब तो नहीं ? ’’ वह सकपका गये तो युवक का विश्‍वास जम गया, ‘‘ ओहो! इसीलिए तो आप सारी बातें उलटकर बोल रहे हैं... यानी कि यही आपकी प्रसिद्ध उल्टी बानी है...’’
कबीर अपने सिर पर हाथ ले गये और खुंसे हुए मोरपंख को टोने लगे, ‘‘ यही है जो मेरी पहचान को बेमतलब खोलता रहता है... ’’ उनकी आंखें डबडब भर आयीं, ‘‘ अब किसी को भला मेरी शिक्षाओं की आवश्‍यकता ही क्या! ’’
युवक ने झुककर अभिवादन किया, ‘‘ नहीं... नहीं सद्गुरु! आप ऐसा कत्तई न सोचें... कम से कम हम जैसों को तो आपकी ही शिक्षा की आवश्‍यकता है... जाने- अनजाने हम भी उपस्थित समय और इसकी ताजा तहजीब से तालमेल नहीं बिठा पा रहे... हमारा रोष-आक्रोश मन के अन्दर बंद-बंद खौल रहा है... हम भीतर ही भीतर डभक रहे हैं... आपकी बोली-बानी हमें खुद को खोलने का इल्म तो बता रही है... यही क्या कम है! ’’ उसकी आवाज भीग गयी।
कबीर मुस्कुराये, ‘‘ अच्छा... ऐसा! इसका मतलब कि दुनिया में दिल अभी जिन्दा है! हमारे ही यहां अभी ऐसा भी युवा विद्यमान है? सचमुच ? ’’
युवक ने अपना परिचय दिया तो कबीर हंसे, ‘‘ तभी तो मैं कहूं कि ऐसा युवक भला आज के इस दौर में आ कहां से गया! ’’ वह अचकचाकर ताकता रहा। कबीर ने पास रखे इकतारे को सहलाया, जैसे किसी बच्चे को दुलार रहे हों, ‘‘ बेटा, तूं लेखक है न! इसलिए तूं न युवा है न कुछ और... तूं सिर्फ और सिर्फ एक धड़कता हुआ दिल है... दुनिया के दर्द से कातर और परपीड़ा से घायल... इसीलिए तूं दुःखी है...’’ कबीर ने इकतारा उठा लिया, ‘‘...टुन्टुन्...टुन्टुन्... दिल को गलाकर बनाओ दाल, बिकाऊ लिखो तो कमाओ माल... ...टुन्टुन्...टुन्टुन्... रहोगे यदि संजीदा गम्भीर, अंततः बन जाओगे दुखिया कबीर... टुन्टुन्...टुन्टुन्... दुनिया चाहे जपे नाम हो जाओगे सर्वहारा, उल्टी- सीधी गा-गाकर टुनटुनाओगे इकतारा... ...टुन्टुन्...टुन्टुन्...’’ देखते ही देखते कबीर अन्तर्धान हो गये।
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About Shyam Bihari Shyamal

Chief Sub-Editor at Dainik Jagaran, Poet, the writer of Agnipurush and Dhapel.
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4 comments:

  1. बड़े भाई श्यामल जी बहुत ही उम्दा व्यंग्य आलेख तबीयत प्रसन्न हो गयी |अद्भुत |बधाई और शुभकामनाएँ |

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    1. मित्रवर तुषार जी, आपकी प्रतिक्रिया से बल मिला है, आभार साथी..

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  2. भाई श्यामल जी सावन में इतना हरा -भरा व्यंग्य आपके ही वश की बात है आपकी लेखनी और अधिक धारदार -पानीदार हो |यह आलेख किसी अखबार में भेजिए |बधाई और शुभकामनाएँ |

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