नामवर जी हिन्दी साहित्य के इतिहास में ऐसे पहले व्यक्तित्व हैं जिन्होंने साहित्य के समालोचन को समय-समाज का सिंहावलोकन की वृहत्तर भूमिका प्रदान की। उन्होंने समीक्षा को सर्जनात्मक उत्पादों के धर्मकांटे की छवि से मुक्ति दिलाई और इसे संसार-समाज या मानव जाति की खैर-खबर लेने वाले निर्भीक, तटस्थ और मजबूत मंच का आकार प्रदान किया। उनका बहुपरिधि-बहुआयामी आलोचना-कर्म विराट है। नामवर-निर्मितियां बेशुमार है। विशिष्टता यह भी कि उन्होंने साहित्यिक आहाते से निकालकर आलोचना-कर्म की सीमा को निस्सीम कर दिया। तभी तो उन्हें सुनने के जिज्ञासुओं-पिपासुओं में घोर साहित्येतर नागरिकता वाले लोग भी हमेशा सामने झलक जाते रहे हैं। यहवस्तुत: इसी तथ्य की पुष्टि है कि नामवर जब बोलने लगते हैं तो उनके कंठ से घुप्पे-चुप्पे युग की वाणी फूटने लगती है। इसके साथ ही कसे-कसमसाते समय-समाज का पाताल-आलोड़न धधकती-खौलती ललौंही लावा-धार वेग-आवेग के साथ फूटने-बहने-फैलने और अंतत: संतृप्त होने लगता है। उनके आग्नेय उदभेदन-मूल्यांकन के ज्वालामुख की यह अभिव्यक्ति अपने मुरीद बढ़ाती चली जाती है ।
55सभी चित्र : गूगल से साभार
नामवर-सा नहीं कोई और
वह हमारे साहित्य
के सिरमौर
श्याम बिहारी श्यामल
नामवर जी से प्रेरितों की जनसंख्या में उनके प्रशंसकों से कहीं
ज्यादा असहमतों की आबादी है। किस शहर और खेमे-महकमे में उनके घोर निंदक नहीं हैं ! हालांकि गौर करने पर ऐसे निंदक-वीरों में अधिक संख्या प्राध्यापक संवर्ग के जीवों की ही अधिक दिखती है। संभावना यह भी कम नहीं कि एक-एककर बारीक पड़ताल हो तो अतीत में नामवर जी से ऐसे वीरों के किसी न किसी व्यक्तिगत अध्यवसायीय अपेक्षा या हित के आहत होने का भी सुबूत मिलने लगे। इस नजरिये को शिगूफा कत्तई नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि इन पंक्तियों के लेखक के सामने ऐसे कई संदर्भ आ चुके हैं जिन्हें कभी उचित समय पर सामने लाया भी जा सकता है।
वैसे, कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि नामवर-निंदा के खेल में तिनतरफा फायदे ही हुए हैं। सबसे पहले तो यही कि
नामवर जी को लोकप्रियता के शिखर पर चढ़ाने में वस्तुत: ऐसे ही निंदा-नकार का अधिक योगदान
है। दूसरे नामवर से टकराकर स्वयं निंदक भी कभी कम फायदे में नहीं रहते क्योंकि इसी बहाने उनका चेहरा भी चिन्हा जाने लगता है। सर्वाधिक और सार्वजनिक लाभ यह कि ऐसे घोर क्षरणशील बौद्धिक-काल में यह सारा उपक्रम साहित्य के प्रति साहित्येतर हलकों में भी आम जिज्ञासा का संचार कुछ न कुछ कर ही डालता है।
नामवर-निंदकों की एक विशेषता यह कि वे भी अपने निशाने की तरह कम दुर्द्धर्षता नहीं दिखाते। पत्र-पत्रिकाओं से लेकर फेसबुक-ट्विटर या ब्लॉगों के गुलजार बियाबान तक नामवर-निंदक जब पानी पी-पीकर नामवर-निंदा राग आलापना शुरू करते हैं तो समां बांध देते हैं। अब इसे क्या कहें कि ऐसे ही माहौल में यह परिदृश्य तक उपस्थित है कि आलोचना जैसी घोर शास्त्रीय या अकादमिक विधा का इलाका भी आज कहानी, कविता, उपन्यास या ललित निबंध जैसी किसी भी रसप्लावित रचनात्मक विधा से कम चकमक-चकाचक नहीं रह गई है।
हालांकि मौलिक आधार तथ्य तो यही कि नामवर जी हिन्दी साहित्य के इतिहास में ऐसे पहले व्यक्तित्व हैं जिन्होंने साहित्य के समालोचन को समय-समाज का सिंहावलोकन की वृहत्तर भूमिका प्रदान की। उन्होंने समीक्षा को सर्जनात्मक उत्पादों के धर्मकांटे की छवि से मुक्ति दी और इसे संसार-समाज या मानव जाति की खैर-खबर लेने वाले निर्भीक, तटस्थ और मजबूत मंच का आकार प्रदान किया। उनका बहुपरिधि-बहुआयामी
आलोचना-कर्म विराट है। नामवर-निर्मितियां बेशुमार है। विशिष्टता यह भी कि उन्होंने साहित्यिक आहाते से निकालकर आलोचना-कर्म की सीमा को निस्सीम कर दिया। तभी तो उन्हें सुनने के जिज्ञासुओं-पिपासुओं में घोर साहित्येतर नागरिकता वाले लोग भी हमेशा सामने झलक जाते रहे हैं।
यह वस्तुत: इसी तथ्य की पुष्टि है कि नामवर जब बोलने लगते हैं तो उनके कंठ से घुप्पे-चुप्पे युग की वाणी फूटने लगती है। इसके साथ ही कसे-कसमसाते समय-समाज का पाताल-आलोड़न धधकती-खौलती ललौंही लावा-धार वेग-आवेग के साथ फूटने-बहने-फैलने और अंतत: संतृप्त होने लगता है। उनके आग्नेय उदभेदन-मूल्यांकन के ज्वालामुख की यह अभिव्यक्ति अपने मुरीद बढ़ाती चली जाती है । इस क्रम में उनका
कार्य-परिमाण इतना प्रदीर्घ हो गया है कि महेंद्र राजा जैन जैसे विद्वान को
नामवर-कोश तैयार करने जैसी भूमिका निभाने के लिए आगे आना पड़ा। अभी एक-दो
दिन पहले ही फेसबुक पर नामवर-कोश के लोकार्पण की पूर्व निमंत्रक सूचना देखी
गई है।
संयोग यह भी कि यह पोस्ट जो अभी ( 28 जुलाई 2012, प्रात: लगभग 07 बजे ) नामवर जी को उनके जन्मदिन पर बतौर बधाई-निवेदन के लिए लिखी जा रही है, ऐन इसी समय झारखंड के हजारीबाग से भारत यायावर जी का फोन आ गया और कुछ देर के लिए यह लेखन रुका किंतु इसके बाद यहां कुछ जरूरी सूचनाएं जुड़ पा रही है। भारत ने अभी हाल ही नामवर जी की जीवनी ( नामवर होने का अर्थ, 2012, किताब घर ) लिखी है। उन्होंने अभी-अभी बताया कि नामवर जी आज वस्तुत: 85 नहीं, बल्कि 86 साल के हो गए हैं और आज उनका 87 वां जन्मदिन है। स्कूल में नामांकन के समय उनकी जन्मतिथि 01 मई 1927 दर्ज हुई थी जबकि घरेलू मूल कागजात अर्थात् जन्मपत्री में 28 जुलाई 1926 दर्ज है। चूंकि यह तथ्य उनका जीवनीकार कह रहा है, इसलिए इसे यहां दर्ज करना बेशक अनुचित नहीं होगा।
नामवर जी सदा हमारे बीच रहें और उनके रूप में हमारा साहित्य मुखरित होता रहे, इन्हीं विनम्र अनंत शुभकामनाओं के साथ उन्हें आदर सहित जन्मदिन की हार्दिक बधाइयां...
नामवर जी के 87वे जन्म दिवस पर हार्दिक बधाई और उनके दीर्घ जीवन के लिए मंगलकामनाए। उनको पढ़ते तो रहे थे देखने और सुनने का मौका गत वर्ष प्रलेस के 75 वे समारोह के दौरान लखनऊ मे उनके आगमन पर मिला था।
जवाब देंहटाएंआपने ठीक लिखा है कि उनके विरुद्ध कुछ अध्यापक अनर्गल शोर मचाते रहते हैं। इनमे एक विदेश मे बैठे पंडित अरुण प्रकाश मिश्रा जी भी हैं जो फेसबुक पर वाहियात भाषा मे उनके विरुद्ध भी विष-वामन करते रहते हैं।
आभार बंधुवर विजय राजबली माथुर जी..
हटाएंएक महान आलोचक पर उत्कृष्ट आलेख |बधाई और शुभकामनाएं |आलोचक की आलोचना करना बहुत ही आसान है ,लेकिन साहित्य की आलोचना करना बहुत कठिन है |नामवर जी बेमिसाल तो हैं ही |आभार |
जवाब देंहटाएंआभार मित्रवर तुषार जी..
जवाब देंहटाएंआदरणिय,नामवर जी के बारे मे जितना कहा जाय लिखा जाय पढ़ा जाय थोड़ा ही होगा...आपने बहुत उत्तम लिखा है..।
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