कौशल किशोर शुक्‍ला की कविताएं



कौशल किशोर शुक्‍ला की कविताओं में अपनी ही ताजगी है। किसी भी बगबगाते ब्रांड को ठेंगा दिखाता देसीपन और तमाम ऐसे-वैसे सिद्ध-प्रसिद्ध स्‍वाद-आस्‍वादों को एक-एक चटक-चटकार से उड़ाता खास खांटीपन। उनके 'कहने' में गांवी-गिरांवी ठसक-ठठा है तो 'गाने' में आंगन-दुआर से लेकर खेत-खरिहान तक के ऊपर लहराता और उन्‍हें गूंथता-सा लोक-कंठी आलाप, कभी कसक तो कभी ठनक जगाता-सा। यह सब ऐसा शायद इसलिए भी क्‍योंकि पेशे से पत्रकार और स्‍वभाव से अपने काम में डूबे रहने वाले कौशल किशोर की अभि‍व्‍यक्ति के  अंदाज और उपकरण झलकुट्टनी समकालीनता और उसके प्रचलित मुहावरों से अभी बचे हुए-से हैं। बहुस्‍वादी बतकहियों वाले उनके ब्‍लॉग 'विचार' पर विचरण के दौरान 'मेरी कविताएं' उपशीर्षक के खाने में दिखी इन रचनाओं के बारे में पता चला कि करीब तीन साल पहले की लिखी हैं। यहां इनकी पुनर्प्रस्‍तुति इसलिए ताकि हमारे साथी भी इनसे अवगत हों..

कौशल किशोर शुक्‍ला की कविताएं 


वह कवि हृदय

वक्त के झंझावातों में,
वेतन वृद्धि के फिराकों में,
पीएफ में कटौती रुकवाने के जज्बातों में,
संतति के मुंडन, जनेऊ, शादी, पढ़ाई-लिखाई के सवालातों में,
लदते जा रहे कर्ज के कागजातों में,
कहां खो गया न जाने,
वह कवि हृदय।

कल ये करूंगा, कल वो करूंगा,
टकटकी लगाये बैठे हैं कल पर,
और कल कभी आयेगा?
आ तो आज रहा, गा रहा, चला जा रहा,
और कल की मुलाकातों के ख्यालातों में,
कहां खो गया न जाने,
वह कवि हृदय।

जब दिल बीमार हो जाये तो गाते रहो,
दोस्त-दोस्त ना रहा, प्यार-प्यार ना रहा,
ऐंठन भरी आंतों में, विरह की रातों में,
दोस्तों की बातों में, दुश्मनों की करामातों में,
सभी तो इंसान हैं, कोई किसी से कम नहीं,
खाओ-पीओ, मौज उड़ाओ, मर जाओ तो गम नहीं,
कल का इंतजार, कल ये करूंगा, कल वो करूंगा,
और इंतजार के मकानातों में,
कहां खो गया न जाने,
वह कवि हृदय।

अपनों के सपनों में तड़पन है जिंदगी,
लेन-देन बाकी तो बचपन है जिंदगी,
दुनिया को देखो तो विचरन है जिंदगी,
प्रेम की कहानी में बिछुड़न है जिंदगी,
बस, कल सब ठीक हो जायेगा,
मेहनत है, हिम्मत है,
किस्मत है, मिल्लत है,
दिन-दिन भर भूखों रहने की लत है,
बच्चा भी भूखा, मैं भी हूं भूखा,
भूख के घेरे में सबकुछ है सूखा,
सूखे पड़े खेत, सूखा पड़ा खाता,
और खाता के 'खातों' में,
कहां खो गया न जाने,
वह कवि हृदय।

वह कवि हृदय,
जहां गीत उपजते थे, संगीत उपजते थे,
मीत उपजते थे, मिलन की रीत उपजते थे,
गम की न थी बात, सदा ही जीत उपजते थे,
और उन जीत के 'जातों' में,
कहां खो गया न जाने,
वह कवि हृदय, वह कवि हृदय....।


 मैंने तुम्‍हें कहीं देखा है 

मैंने तुम्हे कहीं देखा है,
सूखे पत्ते की तरह गिरते,
गिर कर भी संभलते,
संभल कर भी बहकते,
फिर भटकते,
फिर बदलते,
मैंने तुम्हे कहीं देखा है।

बदमाशों व हथियारों के साथ,
शरीफों पे दिनदहाड़े डालते हाथ,
जेबों पर दिखाते करामात,
फिर खाते मात,
फिर खाते लात,
मैंने तुम्हे कहीं देखा है।

देते भाषण,
लूटते राशन,
पीते किरासन,
लगाते आसन,
वह भी वज्रासन,
मैंने तुम्हे कहीं देखा है।

हाथ मिलाते,
हाथ छुड़ाते,
फिर मिलाते,
फिर छुड़ाते,
फिर मिलाते,
मैंने तुम्हे कहीं देखा है।

एक जंगेजां को जिंदा जलाते,
कइयों के मरने के बाद पुल को बनाते,
फिर सलामी में गोलियां दगवाते,
हंसते,
मुसकाते,
मैंने तुम्हे कहीं देखा है।

आग लगाते,
आग बुझाते,
लोगों को समझाते,
उजड़वाते,
बसवाते,
उजड़वाते,
बसवाते,
उजड़वाते,
मैंने तुम्हे कहीं देखा है।

तुम्ही तो आस हो,
तुम्ही तो पास हो,
तुम्ही तो सर्वनाश हो,
लोगों का विनाश हो,
मैंने तुम्हे ही देखा है,
कहां देखा.... कहीं देखा है।

 खामोशियों की आवाज 


मैंने सुनी है बंद कमरे और सौ वाट के प्रकाश में,
खामोशियों की आवाज,
कभी लयबद्ध तो कभी बेअंदाज,
न था कोई साजिंदा, न था कोई साज,
बस मैं था, मेरी खामोशियां थीं, और थी,
फूंक मार कर छू-मंतर कर देने वाली मेरी अपनी आवाज ।
मैं सुन ही नहीं, देख भी रहा था,
आवाज का अंदाज,
मैं देख रहा था, वह कोई और था,
जो दफ्तर में था, जो सड़क पर था,
जो खुले दरवाजे वाले कमरे में था,
जो बंद कमरे में और सौ वाट के प्रकाश में था ।
इतना वीभत्स, इतना काला कि कोयला भी शरमा जाय,
शैतानियत इतनी कि शैतान को भी बेहोशी आ जाय,
कहीं शान का गुरुर तो कहीं मोहब्बत का सुरुर,
इजहारे ईमानदारी की आड़ में, करते बेईमानी जरूर,
और सुबह जब बल्ब बुझ गया था,
फिर भी मैंने सुनी, खामोशियों की आवाज,
मगर, सिर्फ आवाज, उनमें कहीं कोई खामोशी नहीं थी,
थी हत्या, अपहरण, लूट, चोरी,
दंगा-फसाद और... और बलात्कार,
सिर्फ मजलुमों की चीखें... चीखें,
और फरियाद लगाती आवाज,
जो खामोशियों के दम पर जिंदा थी,
जिनसे खामोशियां खो चुकी थीं...... ।




कोई तुमसे भी तंगहाल

हाल ए दिमाग की बात करूं, दिल बेहाल है,
इज्जत लुटने का खतरा है, ये खयाल है।
अभी मैं आया, तुम आये और आ गये वे भी,
कसम दे-दे के वे हंसा गये, रुला गये भी,
एक बार रोया तो फिर कैसे हंसूं, ये सवाल है,
इज्जत लुटने का खतरा है, ये खयाल है।
ठीक था, तेरा हक था, जिसे फरमा गये,
मगर ये तो सोचो, हम भी तेरे पेच में आ गये,
हमें जो करना था, वो नहीं किया, ये मलाल है,
इज्जत लुटने का खतरा है, ये खयाल है।
बनेंगे मजनू, राबिनहुड, बनेंगे विक्रमादित्य, चाणक्य,
करेंगे ताल-पचीसी, कलेजा कर रहा धक-धक,
फकत दो वक्त की रोटी, फकत एक वक्त का सोना,
किस्सा जख्मे जुनून का, उसे होना या न होना,
फकत किसको ख्वाब है, फकत किसको खयाल है,
इज्जत लुटने का खतरा है, ये खयाल है।
चले थे तेज रफ्तारी, कभी ख्वाबों-खयालों में,
हकीकत बन के मुफलिसी, लटक गयी है तालों में,
खुलेगा कैसे मुकद्दर, जी का जंजाल है,
इज्जत लुटने का खतरा है, ये खयाल है।
आओ तुम्हारे जख्म पे मरहम लगा दूं मैं,
सुरों में बांधकर, साजों को, फिर से सजा दूं मैं,
तुम्हारे साथ मैं रो लूं, तुम्हारे साथ मैं हो लूं,
दुखों को भूल जाऊं मैं, सुखों की बात मैं कर लूं,
तुझे तो चाहिए इतना और तुमने पाया है इतना,
तुम्हारा नाम है इतना और देखो काम है इतना,
गुनाह माफ करो, कोई तुमसे भी तंगहाल है,
इज्जत लुटने का खतरा है, ये खयाल है।
ये खयाल है, ये खयाल है।
ये खयाल है कि हम भी हैं।
ये खयाल है कि तुम भी हो।
ये खयाल है कि इज्जत भी है।
और इसके लुटने का खतरा है, ये खयाल है।


हां भैये हां, मैं झूठ बोलता हूं 

मुकद्दस रूहों की कसम,
मैं झूठ नहीं बोलना चाहता,
झूठ बोलने वालों को फांसी होती है,
यहां न सही, वहां ही होती है, मगर
फांसी न चढ़ जाऊं, इसलिए माफ करना
मैं झूठ बोलता हूं ।
झूठ मत बोलना, कहा था मेरे बाप ने, गुरू ने,
मैंने देखा उन्हें बात-बात पर झूठ बोलते,
तो वादामाफ करना,
अनजाने में, मैं झूठ बोलता हूं ।
झूठ के दम पर टिके मीनारों की कसम,
उस चश्म, उस नज्म, उन बंजारों की कसम,
जिस नज्म में नकल की आदत शुमार है,
चंद मेहनत और पैसों की चाहत बेशुमार है,
जिसे देखने के लिए चश्मे की दरकार है,
किसी की भी हो, सरकार है, सरकार है,
जो बंजारों की बाजार है, बेकार है,
झूठ की बोली और झूठों की टोली,
सच की शान में छप्पन की गोली,
तो इंसाफ करना,
मैं झूठ बोलता हूं ।
उन ज्योतिष नजारों की कसम, मैं झूठ बोलता हूं ।
उन फिल्मी सितारों की कसम, मैं झूठ बोलता हूं ।
उन नकली हरकारों की कसम, मैं झूठ बोलता हूं ।
उन फर्जी पत्रकारों की कसम, मैं झूठ बोलता हूं ।
उन मिलावटी व्यापारों की कसम, मैं झूठ बोलता हूं ।
मकान हड़पने की चाहत लिए किरायेदारों की कसम, मैं झूठ बोलता हूं ।
अर्थेच्छु कलमकारों की कसम, मैं झूठ बोलता हूं ।
'मां' तक को नंगा करने वाले चित्रकारों की कसम, मैं झूठ बोलता हूं ।
हां भैये हां, हां, हां,
मैं झूठ बोलता हूं,
बोलता हूं मैं झूठ बोलता हूं, मैं झूठ बोलता हूं ।


मैं रात में ही मर गया

जिगर को थाम कर किस्सा सुनो, मिला मुझको जो वो हिस्सा सुनो।
सुनाऊं मैं कहानी रात की वारदात की, मुफलिस जिंदगी व बेबस हालात की।
एक दिन ऐसा हुआ, मैं सिनेमाघर गया,
देखकर के भीड़ सुनो, जोश मेरा कम हुआ।
खिड़की के ही पास खड़ा था एक मुस्टंडा,
मूंछें उसकी लंबी थीं, हाथ में था डंडा।
उसकी ये आदत थी, भीड़ को भगाता था,
थोड़ी ज्यादा दे दो तो टिकट भी कटवाता था।
हालात की ये मांग थी, मैं गया उसी के पास,
आठ के बदले साठ देकर पूरी हो गयी मेरी आस।
छह से नौ का शो था, नौ बजे टुट गया,
बाहर निकला, पता चला कि भीतर में मैं लुट गया।
हाथ डाला जेब में, तो जेब बाहर आ गयी,
भीड़ में ही मैं गया था, भीड़ ही रुला गयी।
सोचा, इसकी रपट लिखवा दूं बगल के थाने में,
दारोगा जी गायब थे, मुंशी जी थे पाखाने में।
ऐ बेहूदे, कौन है, आवाज कानों में आयी,
घूमकर देखा तो एक पुलिस नजर आयी।
गाली मैं खा चुका था, बारी फिर पिटने की थी,
एक बार मैं लुट चुका था, बारी फिर लुटने की थी।
बड़ी गरीबी से वो बोला, थाने में क्यों आये हो?
काम क्या है, पास में माल कितना लाये हो?
जब सुना कि माल क्या, एक लाल न मेरे पास था,
मारा थप्पड़, चला गया, करने वो जो खास था।
सोचा, कि जब हाल ये है एक सिपाही का ऐसा,
तो मुंशी कैसा होगा और दारोगा होगा कैसा?
ये भी यह संयोग था, सड़क पर मिल गये एसपी,
जीप रोकी पास में और बोले- तूने क्या है पी?
रात इतनी हो गयी और सड़क पर टहलते हो?
बैठ जाओ जीप में, तुम हवालात में चलते हो।
क्या करूं बातें मैं हवालात के हालात की,
कोई न वहां कमी रही, न हवा की न लात की।
सीखचों से मैंने देखा, अपने नेता आये थे,
जिनको हमने वोट दिया था, जिनको हम जीताये थे।
हाथ में गलास था और पी रहे थे थाने में,
कह रहे थे, भेज दो इसको जनाजेखाने में।
और सुनो दोस्तों, मैं रात में ही मर गया,
एक उग्रवादी सुबह को, शहर से कम कर गया।



बड़ा समझदार था


देहात का दाढ़ी वाला दरिद्र
दोशाला ओढ़े आया था शहर
लेकर आया था चाहत खटने की
सुबह शाम दोपहर
लेकिन, वह स्टेशन से ही लौट गया
बड़ा समझदार था।
दोशाला ओढ़े और भी दरिद्र थे शहर में,
जो पड़े थे उससे भी ज्यादा दरिद्रता के कहर में,
यहां दाढ़ी, नहीं गरीबी की पहचान थी,
भाई जैसे लोगों की आन बान और शान थी
सुबह से शाम तलक खटने वालों को भी
रोटी की दरकार थी,
गरीब घुट रहे थे, क्योंकि
गरीबों की सरकार थी।
इससे अच्छा तो उसका गांव था
जहां अपना कह सकने लायक
कम से कम पीपल का तो छांव था।
और वह गरीबी का गीता ज्ञान समेटे,
पुरखों का ईमान समेटे,
स्टेशन से ही लौट गया,
बड़ा समझदार था।
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About Shyam Bihari Shyamal

Chief Sub-Editor at Dainik Jagaran, Poet, the writer of Agnipurush and Dhapel.
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