जिस हिन्दी आलोचना को रुद्र काशिकेय की उपेक्षा के लिए अपराधी ठहराया जाना है उसके प्रथम पुरुष आचार्य रामचंद्र शुक्ल से लेकर आज के सर्वमान्य अग्रेता डा. नामवर सिंह तक, सभी प्रमुख नाम तो बनारस से ही ताल्लुक रखते हैं। ऐसे में क्या कहा जाए, कितना कहा जाए या किसलिए कहा जाए, कुछ समझ में नहीं आ रहा। काशी के इतिहास, भूगोल, संस्कृति और जीवन-जगत को नायकत्व देने वाला उपन्यास ' बहती गंगा ' 1952 अर्थात ' मैला आंचल ' ( फणीश्वरनाथ रेणु, 1954 ) से भी दो साल पहले छप चुका था किंतु आख्यान से धीरोदात्त नायक की विदाई का श्रेय तक इसके नाम दर्ज नहीं है। इतिहास यह भी कि ' मैला आंचल ' को इस रूप में स्थापित करने का श्रेय भी स्वयं नामवर जी के ही नाम दर्ज है, जिसके तहत उसे ' गोदान ' के बाद की सबसे महत्वपूर्ण औपन्यासिक कृति के रूप में स्वीकार किया जाता है। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि ' बहती गंगा ' को क्यों नजरंदाज किया गया ?
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रुद्र काशिकेय का शताब्दी
साल क्यों बीत गया चुपचाप
श्याम बिहारी श्यामल
आंख के रहते हुए भी अंधा बना रहता हूं
अपने पर आप ही प्रतिबंध बना रहता हूं
रुद्र हूं फूल, मगर रंग छिपाकर अपना
बाग में आपके बस गंध बना रहता हूं
शिव प्रसाद मिश्र ' रुद्र काशिकेय ' ( वाराणसी / जन्म : 27 सितंबर 1911, तिरोधान : 31 अगस्त 1970 ) की उक्त पंक्तियों को स्वयं उन्हीं के ऊपर आज चरितार्थ होते देखना वस्तुत: एक विडंबना है। हिन्दी साहित्य का सर्वथा एक त्रासद संदर्भ। यह एक तथ्य है कि उनकी रचनात्मक उपस्थिति तो सुगंध की तरह हमारे साहित्य में अवश्य विद्यमान है किंतु उन्हें याद करने को कोई आलोचक तैयार नहीं।
बार-बार संस्करित होने वाले उनके उपन्यास ' बहती गंगा ' को पाठकों की ओर से जैसी स्वीकृति मिली है, हिन्दी साहित्य के सत्ताधारियों की ओर से वैसी रुद्र काशिकेय को तो कदापि नहीं। यह बात इससे भी सिद्ध हो जाती है कि रुद्र काशिकेय का शताब्दी का पूरा साल गुजर गया किंतु समूचा हिन्दी साहित्य संसार एकदम दम साधे पड़ा रहा। बेखबर या बा-खबर, क्या माना जाए इसे ?
विडंबना यह भी कि जिस हिन्दी आलोचना को उनकी उपेक्षा के लिए अपराधी ठहराया जाना है उसके प्रथम पुरुष आचार्य रामचंद्र शुक्ल से लेकर आज के सर्वमान्य अग्रेता डा. नामवर सिंह तक, सभी प्रमुख नाम तो बनारस से ही ताल्लुक रखते हैं। ऐसे में क्या कहा जाए, कितना कहा जाए या किसलिए कहा जाए, कुछ समझ में नहीं आ रहा।
काशी के इतिहास, भूगोल, संस्कृति और जीवन-जगत को नायकत्व देने वाला उपन्यास ' बहती गंगा ' 1952 अर्थात ' मैला आंचल ' ( 1954 ) से भी दो साल पहले छप चुका था किंतु आख्यान से धीरोदात्त नायक की विदाई का श्रेय तक इसके नाम दर्ज नहीं है। इतिहास यह भी कि ' मैला आंचल ' को इस रूप में स्थापित करने का श्रेय भी स्वयं नामवर जी के ही नाम दर्ज है, जिसके तहत उसे ' गोदान ' के बाद सबसे महत्वपूर्ण औपन्यासिक कृति के रूप में स्वीकार किया जाता है।
ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि ' बहती गंगा ' को क्यों नजरंदाज किया गया ? क्या केवल इसलिए क्योंकि यह समकालीन यथार्थ के बरक्स इतिहास की पृष्ठभूमि की ओर अधिक मुखातिब है ? स्पष्ट तो यह भी किया जाना चाहिए कि क्या केवल समकालीन परिदृश्य पर लिखी रचनाएं ही साहित्य हैं ? यदि नहीं, तो क्या हिन्दी आलोचना में अभी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साहित्य के मूल्यांकन का विभाग अस्तित्व में आना बाकी है ?
बहरहाल, शताब्दी पर रुद्र काशिकेय को श्रद्धासुमन के साथ यहां उनके प्रसिद्ध उपन्यास का एक अंश :
बहती गंगा ऐसी अनूठी रचना है, जो अपने लेखक को हिन्दी साहित्य के इतिहास में अमर कर गई। ‘हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास’ में बच्चन सिंह ने इस उपन्यास का परिचय इस प्रकार दिया है : बहती गंगा अपने अनूठे प्रयोग और वस्तु, दोनों के लिए विख्यात है। इस उपन्यास में काशी के दो सौ वर्षों (1750-1950) के अविच्छिन्न जीवन-प्रवाह को अनेक तरंगों में प्रस्तुत किया गया है। प्रत्येक तरंग (कहानी) अपने-आपमें पूर्ण तथा धारा-तरंग-न्याय से दूसरी से संबद्ध भी है। इसकी कहानियों के शीर्षक हैं–गाइए गणपति जगबंदन, घोड़े पे हौदा औ हाथी पे जीन, ए ही ठैंया फुलनी हेरानी हो राम, आदि-आदि। बहती गंगा की तरह जीवन की धारा भी पवित्र है।
इसका ध्वन्यार्थ यह भी है कि अपनी तमाम विसंगतियों में भी इतिहास की धारा निरन्तर आगे की ओऱ प्रवहमान है। गंगा के इस प्रवाह में तैरती हुई काशी की मस्ती, बेफिक्री, लापरवाही, अक्खड़ता, बोली-बानी का अपना रंग है। ' बहती गंगा' अपने ढंग कर अनूठी रचना है। यह अकेली रचना इसके लेखक शिवप्रसाद मिश्र ‘रुद्र’ काशिकेय को अक्षय कीर्ति दे गई है।
भिन्न-भिन्न शीर्षकों से सत्रह अध्यायों में विभक्त यह कृति आख्यान और किंवदंतियों का एक अदभुत मिश्रण वाला उपन्यास है। अलग-अलग अध्याय अपने आप में पूर्ण एक कथा होने के साथ-साथ किसी चरित्र के माध्यम से विकसित होकर परवर्ती अध्याय की कथा से जुड़ते दिखाई पड़ते हैं।
परम्परागत अर्थों में किसी केन्द्रीय चरित्र या कथानक की जगह सारे चरित्र और सभी आख्यान बनारस की भावभूमि, उसके इतिहास, भूगोल, उसकी संस्कृति और उत्थान-पतन की महागाथा बनते हैं। अध्यायों के शीर्षक ही नहीं, भाषा, मानवीय व्यवहार और वातावरण का चित्रण बेहद सटीक और मार्मिक है। सबसे बड़ी बात यह है कि रचनाकार यथार्थ और आदर्श, दंतकथा और इतिहास मानव-मन की दुर्बलताओं और उदात्तताओं को इस तरह मिलाता है कि उससे जो तस्वीर बनती है वह एक पूरे समाज, की खरी और सच्ची कहानी कह डालती है।
बहती गंगा की एक छटा
गाइए गणपति जगबन्दन
श्रीगणेशाय नमः करते हुए ‘विनय-पत्रिका’ में जिस समय
गोस्वामी तुलसीदास ने ‘गाइए गणपति जगबन्दन’ लिखा उस
समय उन्हें यह कल्पना तक न थी कि ‘गणपति’ की यह
वन्दना किसी राजवंश के संस्थापक के यहाँ दाम्पत्य-कलह और चिर-अभिशाप का
कारण बन जाएगी।
1
गढ़ गंगापुर के परकोटे पर अपने सखा और सेनापति पांडेय बैजनाथसिंह के साथ
टहलते हुए राजा बलवन्तसिंह ने थाली बजने और ढोलक पर थाप पड़ने की आवाज़
सुनी। गानेवालियों के मुँह से ‘गाइए गणपति जगबन्दन’
का मंगलगान आरम्भ होते सुना और अनुभव किया कि पुरुष-कंठों से उठे तुमुल
कोलाहल में गीत का स्वर अधूरे में ही सहसा बन्द हो गया है। उन्होंने समझ
लिया कि रानी पन्ना ने पुत्र-प्रसव करके उन्हें निपूता कहलाने से बचा
लिया।
और यह भी जान लिया कि मेरे ‘पट्टीदारों’ ने अनुचित
हस्तक्षेप कर मंगलगान बन्द करा दिया है। उन्हें यह भी प्रतीत हुआ कि उनका
कोई चचेरा भाई काशी की गलियों में निर्द्वन्द्व विचरनेवाले साँड की तरह
चिल्ला रहा है, ‘‘ढोल-ढमामा बन्द करो। वर्ण-संकरों के
पैदा होने पर बधाई नहीं बजाई जाती।’’ उन्होंने घूमकर
कहा, ‘‘सुनते हो सिंहा यह बेहूदापन
!’’
‘‘बेहूदापन काहे का, राजा ?’’ सिंह उपाधिधारी ब्राह्मण-तनय ने व्यंग्यपूर्ण स्वर में कहा, ‘‘इन्हीं बाबूसाहब और आपके चाचा बाबू मायाराम का सिर काटकर रानी के पिता ने आपके पास भेजा था; बाबू साहब उसी का बदला ले रहे हैं।’’
राजा ने बैजनाथसिंह की ओर साश्चर्य देखकर कहा, ‘‘बदला ? वह तो तुम्हारे पराक्रम से मैं ने पूरा-पूरा चुका लिया। अब स्त्रियों से कैसा बदला ?’’
‘‘मैं क्या जानूँ, अन्नदाता ! आपने जो रास्ता दिखाया है, आपके भाई उसी पर सरपट दौड़ रहे हैं,’’ बैजनाथ ने उस उपेक्षा के भाव से कहा जो उत्सुकता उत्पन्न करती है।
‘‘कुछ सनक गए हो क्या, सिंहा ? कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हो !’’ राजा ने डाँटने का अभिनय किया।
‘‘बहकता नहीं हूँ, सरकार !’’ अनुनय-भरे स्वर में सिंहा बोला, ‘‘आप ही स्मरण कीजिए, जब डोभी के ठाकुर की गुर्ज से आपका खाँडा दो टूक हो गया था, तो मैंने धर्म-युद्ध के नियमें की परवाह न कर आपके और उसके द्वन्द्व-युद्ध में हस्तेक्षेप किया, यों कहिए कि उसे मार डाला। छत्र-भंग होते ही ठाकुर के बचे-खुचे सिपाही भाग निकले। आपने पुरुषविहीन गढ़ी में निर्बाध प्रवेश किया था, सरकार !’’
सिंहा की बोली में दर्प गूँजने लगा। राजा को चुप देखकर उसने पुनः कहा, ‘‘सामने ठाकुर की पुत्री, यही पन्ना, सिर के बाल बिखेरे, आँखों में आँसू भरे हाथ में हँसुआ लिए आपका रास्ता रोके खड़ी थी।’’
‘‘तुम भी स्मरण करो सिंहा, मुझसे आँख मिलते ही उसके हाथ से हँसुआ छूट गिरा था,’’ राजा ने कहा। जवाब में सिंहा फिर तड़पा, ‘‘मुझे स्मरण है, सरकार ! आपने उसे गिरफ़्तार करने का हुक्म दिया था। मैंने आपको रोकते हुए कहा था कि राजा, यह नारी है, इसे छोड़ दीजिए। बाबू साहब ने राजा के बेटे को वर्ण-संकर कहकर ठाकुरों को यही स्मरण कराया है, सरकार !’’ हाथ जोड़ते हुए अपनी बात समाप्त कर बैजनाथसिंह ने मूँछों पर ताव दिया और फिर उत्तर के लिए विनोदपूर्ण दृष्टि से राजा के मुख की ओऱ देखने लगा। राजा ने उसकी बात का जवाब न दे एक ठंडी साँस ली और सिर झुका लिया।
बैजनाथसिंह के अधर-प्रान्त पर वक्ररेखा-सी खिंच गई और वह पुनः धीरे से बोला, ‘‘पाप के वृक्ष में पाप का ही फल लगता है, राजा !’’
‘‘जानता हूँ। केवल यही नहीं जानता था कि विवाहित पत्नी का पुत्र भी वर्ण-संकर कहला सकता है !’’
‘‘ईश्वर की दृष्टि में नहीं, समाज की दृष्टि में !’’
‘‘अब चेत हो गया सिंहा, मैंने भारी पाप किया।’’
‘‘तो जिसके पैदा होने से चेत हो गया उसका नाम चेतसिंह रखिएगा।’’
‘‘किन्तु यह जो उलझन पैदा हुई उसे क्या करूँ ?’’
‘‘उसे तो समय ही सुलझाएगा, सरकार !’’
‘‘मैं भी प्रयत्न करूँगा,’’ राजा ने कहा और वह अठारहवीं शताब्दी की यह समस्या सुलझाते हुए अन्तःपुर की ओर चले।
‘‘बेहूदापन काहे का, राजा ?’’ सिंह उपाधिधारी ब्राह्मण-तनय ने व्यंग्यपूर्ण स्वर में कहा, ‘‘इन्हीं बाबूसाहब और आपके चाचा बाबू मायाराम का सिर काटकर रानी के पिता ने आपके पास भेजा था; बाबू साहब उसी का बदला ले रहे हैं।’’
राजा ने बैजनाथसिंह की ओर साश्चर्य देखकर कहा, ‘‘बदला ? वह तो तुम्हारे पराक्रम से मैं ने पूरा-पूरा चुका लिया। अब स्त्रियों से कैसा बदला ?’’
‘‘मैं क्या जानूँ, अन्नदाता ! आपने जो रास्ता दिखाया है, आपके भाई उसी पर सरपट दौड़ रहे हैं,’’ बैजनाथ ने उस उपेक्षा के भाव से कहा जो उत्सुकता उत्पन्न करती है।
‘‘कुछ सनक गए हो क्या, सिंहा ? कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हो !’’ राजा ने डाँटने का अभिनय किया।
‘‘बहकता नहीं हूँ, सरकार !’’ अनुनय-भरे स्वर में सिंहा बोला, ‘‘आप ही स्मरण कीजिए, जब डोभी के ठाकुर की गुर्ज से आपका खाँडा दो टूक हो गया था, तो मैंने धर्म-युद्ध के नियमें की परवाह न कर आपके और उसके द्वन्द्व-युद्ध में हस्तेक्षेप किया, यों कहिए कि उसे मार डाला। छत्र-भंग होते ही ठाकुर के बचे-खुचे सिपाही भाग निकले। आपने पुरुषविहीन गढ़ी में निर्बाध प्रवेश किया था, सरकार !’’
सिंहा की बोली में दर्प गूँजने लगा। राजा को चुप देखकर उसने पुनः कहा, ‘‘सामने ठाकुर की पुत्री, यही पन्ना, सिर के बाल बिखेरे, आँखों में आँसू भरे हाथ में हँसुआ लिए आपका रास्ता रोके खड़ी थी।’’
‘‘तुम भी स्मरण करो सिंहा, मुझसे आँख मिलते ही उसके हाथ से हँसुआ छूट गिरा था,’’ राजा ने कहा। जवाब में सिंहा फिर तड़पा, ‘‘मुझे स्मरण है, सरकार ! आपने उसे गिरफ़्तार करने का हुक्म दिया था। मैंने आपको रोकते हुए कहा था कि राजा, यह नारी है, इसे छोड़ दीजिए। बाबू साहब ने राजा के बेटे को वर्ण-संकर कहकर ठाकुरों को यही स्मरण कराया है, सरकार !’’ हाथ जोड़ते हुए अपनी बात समाप्त कर बैजनाथसिंह ने मूँछों पर ताव दिया और फिर उत्तर के लिए विनोदपूर्ण दृष्टि से राजा के मुख की ओऱ देखने लगा। राजा ने उसकी बात का जवाब न दे एक ठंडी साँस ली और सिर झुका लिया।
बैजनाथसिंह के अधर-प्रान्त पर वक्ररेखा-सी खिंच गई और वह पुनः धीरे से बोला, ‘‘पाप के वृक्ष में पाप का ही फल लगता है, राजा !’’
‘‘जानता हूँ। केवल यही नहीं जानता था कि विवाहित पत्नी का पुत्र भी वर्ण-संकर कहला सकता है !’’
‘‘ईश्वर की दृष्टि में नहीं, समाज की दृष्टि में !’’
‘‘अब चेत हो गया सिंहा, मैंने भारी पाप किया।’’
‘‘तो जिसके पैदा होने से चेत हो गया उसका नाम चेतसिंह रखिएगा।’’
‘‘किन्तु यह जो उलझन पैदा हुई उसे क्या करूँ ?’’
‘‘उसे तो समय ही सुलझाएगा, सरकार !’’
‘‘मैं भी प्रयत्न करूँगा,’’ राजा ने कहा और वह अठारहवीं शताब्दी की यह समस्या सुलझाते हुए अन्तःपुर की ओर चले।
2
अन्तःपुर में पुरुषार्थी पुरुषों की परुष हुंकार से ढोल बन्द होते ही
प्रसूति-पीडा़ से कातर रानी पन्ना के पीले मुख पर स्याही दौड़ गई। उसने
विषादपूर्ण दृष्टि से दाई की गोद में आँखें बन्द किए पड़े सद्यःजात शिशु
को देखा। उसके सूखे अधरों पर रुदनपूर्ण स्मिति क्षण-भर चमककर उसी प्रकार
तिरोहित हो गई जैसे किसी पयःस्विनि की क्षीण धारा मरुभूमि की सिकताराशि का
चुम्बन लेकर उसी में विलीन हो जाती है। उसने उठकर शिशु का रक्ताभ ललाट चूम
लिया। उसके हृदय में स्नेह की नदी उमड़ पड़ी, मस्तक में भावनाओं का तूफ़ान
बह चला और आँखों से झरने की तरह वारि-धारा फूट पड़ी।
बुद्धिमती दासी चुप रही। तूफ़ान का प्रथम वेग उसने निकल जाने दिया और तब सान्त्वना के स्वर में वह कहने लगी, ‘‘क्या करोगी रानी, मन को पीड़ा पहुँचाकर ? सोने की लंका तो दहन होती ही है। सहन करो।’’
जामुन-जैसी रस-भरी काली आँखें अपनी विश्वस्त दासी की आँखों से मिलाती हुई पन्ना बोली, ‘‘वैभव की आग में कब तक जलूँ, लाली ? कभी-कभी तो घृणा के मारे मन में आता है कि बग़ल में सोए राजा की छाती में कटार उतार दूँ, परन्तु...।’’
‘‘परन्तु...रुक क्यों जाती हो ?’’
मेरी दृष्टि के सामने वही मूर्ति आ जाती है जिसे देखकर मेरे हाथ का हँसुआ छूट गिरा था। मैं कटार रख देती हूँ। चुपचाप लेटकर आँख मूँद लेती हूँ जिससे वही मूर्ति दिखाई पड़ती रहे।’’ आँख बन्द करके कुछ देखती हुई-सी पन्ना ने कहा।
‘‘तब तो तुम सुखी हो, रानी !’’
‘‘अपमान, उपेक्षा और उत्पीड़न में क्या कम सुख है, लाली ! इन तीनों से हृदय में जो दारुण घृणा उत्पन्न होती है वह क्या परम सन्तोष की वस्तु नहीं ?’’ रानी के स्वर में तीव्रता आ गई।
श्रम से हाँफते हुए भी उसने आवेश-भरे चढे गले से कहा, ‘‘भला सोचो तो ! उस आदमी से मन-ही-मन घोर घृणा करने में कितना आनन्द आता है जो तुम्हें दबाकर, बेबस बनाकर समझता है कि उसके दबाव से तुम उसका बड़ा सम्मान करती हो, उस पर बड़ी श्रद्धा रखती हो।’’
बुद्धिमती दासी चुप रही। तूफ़ान का प्रथम वेग उसने निकल जाने दिया और तब सान्त्वना के स्वर में वह कहने लगी, ‘‘क्या करोगी रानी, मन को पीड़ा पहुँचाकर ? सोने की लंका तो दहन होती ही है। सहन करो।’’
जामुन-जैसी रस-भरी काली आँखें अपनी विश्वस्त दासी की आँखों से मिलाती हुई पन्ना बोली, ‘‘वैभव की आग में कब तक जलूँ, लाली ? कभी-कभी तो घृणा के मारे मन में आता है कि बग़ल में सोए राजा की छाती में कटार उतार दूँ, परन्तु...।’’
‘‘परन्तु...रुक क्यों जाती हो ?’’
मेरी दृष्टि के सामने वही मूर्ति आ जाती है जिसे देखकर मेरे हाथ का हँसुआ छूट गिरा था। मैं कटार रख देती हूँ। चुपचाप लेटकर आँख मूँद लेती हूँ जिससे वही मूर्ति दिखाई पड़ती रहे।’’ आँख बन्द करके कुछ देखती हुई-सी पन्ना ने कहा।
‘‘तब तो तुम सुखी हो, रानी !’’
‘‘अपमान, उपेक्षा और उत्पीड़न में क्या कम सुख है, लाली ! इन तीनों से हृदय में जो दारुण घृणा उत्पन्न होती है वह क्या परम सन्तोष की वस्तु नहीं ?’’ रानी के स्वर में तीव्रता आ गई।
श्रम से हाँफते हुए भी उसने आवेश-भरे चढे गले से कहा, ‘‘भला सोचो तो ! उस आदमी से मन-ही-मन घोर घृणा करने में कितना आनन्द आता है जो तुम्हें दबाकर, बेबस बनाकर समझता है कि उसके दबाव से तुम उसका बड़ा सम्मान करती हो, उस पर बड़ी श्रद्धा रखती हो।’’
विष-जर्जर हँसी हँसती हुई पन्ना थककर चुप हो गई और शय्या पर उसने धीरे से
अपनी शिथिल काया लुढ़का दी। रानी के मन में घृणा का यह विराट कालकूट अनुभव
करके लाली भी पीली पड़ गई। पन्ना ने लेटे-लेटे फिर कहा,
‘‘इन लोगों ने आज मेरी प्रथम सन्तान के जन्म पर
मंगलगान नहीं गाने दिया। गणेशजी की स्थापना होते ही उनकी मूर्ति उलट दी।
मैं तुमसे कहे देती हूँ लाली, कि यदि मेरे बेटे को इन लोगों ने राजा न
होने देकर मुझे मेरी आजीवन व्यथा-साधना के मूल्य से वंचित किया तो ये
वंशाभिमानी तीन पीढ़ी भी लगातार राज न कर सकेंगे। हर दूसरी पीढ़ी इन्हें
गोद लेकर वंश चलाना पड़ेगा और तीन गोद होते-होते राज्य समाप्त हो
जाएगा।’’ अपलक नेत्रों से देखती हुई आविष्ट-सी होकर
रानी ने अपना कथन समाप्त किया और तुरन्त ही राजा को सामने खड़ा देख वह
सशब्द रो पड़ी।
सूतिकागार का परदा हटाकर राजा चौखट पर खड़े थे। उन्होंने सहानुभूति और अनुनय से सम्पुटित वाणी से कहा, ‘‘शाप मत दो रानी, मेरे बाद तुम्हारा ही लड़का राजा होगा। क्लेश मत करो।’’ राजा ने रानी के प्रसूतिपांडुर मुख पर स्निग्ध दृष्टि डाली। वह यह भूल गए कि व्रण के दाह को शीतल करनेवाला घृत आग में पककर उसे और भी दहका देता है। उन्होंने भ्रमवश समझ लिया था कि रानी उनके अत्याचारों की चोट से जर्जर है। इसीलिए वह उस पर मधुर वचनों का लेप लगाने आए थे। वह नहीं जानते थे कि रानी अपमान की आग में जल रही है। अतः उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि रानी की मुख-मुद्रा सहसा सघन गगन-सी गम्भीर हो गई, मुख लाल हो उठा, आँखों से चिनगारियाँ-सी छूटीती प्रतीत हुईं। सहानुभूति के चाबुक का आघात रानी सह न सकी। उसने आवेश में कहा, ‘‘जले पर नमक न छिड़को, राजा ! जिसके जीते उसके बेटे के जन्म पर गाया जानेवाला मंगलगान लोग रोक सकते हैं वे लोग बाप के मर जानेपर बेटे को राजा न जाने कैसे बनने देंगे ! साहस हो तो अधूरी वन्दना पूरी कराओ, राजा !’’
‘‘कुटुम्बियों से ही मेरा सैनिक बल है, रानी ! राजनैतिक कारणों से...।’’
‘‘चुप रहो। देखूँ, तब तक तुम लोग राजनीति के नाम पर नारी के गौरव और हृदय की बलि चढ़ाते हों !’’
सूतिकागार का परदा हटाकर राजा चौखट पर खड़े थे। उन्होंने सहानुभूति और अनुनय से सम्पुटित वाणी से कहा, ‘‘शाप मत दो रानी, मेरे बाद तुम्हारा ही लड़का राजा होगा। क्लेश मत करो।’’ राजा ने रानी के प्रसूतिपांडुर मुख पर स्निग्ध दृष्टि डाली। वह यह भूल गए कि व्रण के दाह को शीतल करनेवाला घृत आग में पककर उसे और भी दहका देता है। उन्होंने भ्रमवश समझ लिया था कि रानी उनके अत्याचारों की चोट से जर्जर है। इसीलिए वह उस पर मधुर वचनों का लेप लगाने आए थे। वह नहीं जानते थे कि रानी अपमान की आग में जल रही है। अतः उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि रानी की मुख-मुद्रा सहसा सघन गगन-सी गम्भीर हो गई, मुख लाल हो उठा, आँखों से चिनगारियाँ-सी छूटीती प्रतीत हुईं। सहानुभूति के चाबुक का आघात रानी सह न सकी। उसने आवेश में कहा, ‘‘जले पर नमक न छिड़को, राजा ! जिसके जीते उसके बेटे के जन्म पर गाया जानेवाला मंगलगान लोग रोक सकते हैं वे लोग बाप के मर जानेपर बेटे को राजा न जाने कैसे बनने देंगे ! साहस हो तो अधूरी वन्दना पूरी कराओ, राजा !’’
‘‘कुटुम्बियों से ही मेरा सैनिक बल है, रानी ! राजनैतिक कारणों से...।’’
‘‘चुप रहो। देखूँ, तब तक तुम लोग राजनीति के नाम पर नारी के गौरव और हृदय की बलि चढ़ाते हों !’’
( साभार :http://pustak.org/home.php?bookid=7888 )
निश्चित रूप से यह एक दिल को झकझोर देने वाला आलेख है |आपका लेखक और पत्रकार मन भी आपको सोचने पर विवश कर दिया |हिंदी आलोचना का चरित्र और चिंतन भी मठाधीशी से भरा हुआ है और रहा है |इसमें बहुत निःस्वार्थ भाव से आलोचना नहीं हुई बल्कि अपने -अपने बने -बनाये खांचे में जो फिट थे उन्हीं को फिट कर दिया गया बाकी को अछूत घोषित कर दिया गया |आपके इस साहसिक आलेख पर आपको नमन |सादर
जवाब देंहटाएंबात को कहते चलना एक कार्रवाई समझता हूं मित्रवर... बस। आभार बंधुवर जयकृष्ण राय 'तुषार' जी..
हटाएंsahitya ki is mathadhishi k kam ghav nahin.aapne ek aur tir chala diye. yah daur to lala shrinivas k Pariksha guru k saath yahi kuchh hua tha.
जवाब देंहटाएं--uma
मित्रवर उमा जी.. तीर तो नहीं चलाया, अपनी बात भर कही है.. अपना पक्ष रखते चलना तो जरूरी है बंधुवर...
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