कमलेश्वर |
फेसबुक पर कुछ ही देर पहले सुभाष नीरव के स्टेटस से '' 27 अक्तूबर 12 को बनीखेत (डलहौजी) में 21वाँ अन्तर्राज्यीय लघुकथा सम्मेलन ''की सूचना मिली है। हिन्दी में लघुकथा विधा की डावांडोल दशा और गुम दिशा पर एक त्वरित टिप्पणी।
लघुकथा क्षेत्र बुद्धि वंचित बौनों
का कैसे बना अभयारण्य
श्याम बिहारी श्यामल
भारतेंदु हरिश्चंद्र |
अपने समय की सबसे महत्वपूर्ण कथा पत्रिका ( सारिका ) में तरजीह और कमलेश्वर जैसे रचनाकार व्यक्तित्व का संरक्षण पाकर लघुकथा बेशक खूब पनपी-फैली। नए-नए रचनाकार आए तो कई महत्वपूर्ण पुराने भी आकृष्ट हुए। 'सारिका' ने तब से लेकर बाद में अवध नारायण मुद्गल के संपादन-काल तक इस विधा के लिए खास तवज्जो जारी रखी। यहां लघुकथा फीलर के रूप में नहीं, बल्कि विधा के तौर पर अपने नियत
राजेंद्र यादव |
फॉर्मेट में प्रतिष्ठित तरीके से छापी जाती रही। उसके कई 'लघुकथा विशेषांक' आए जिन्होंने इसे बतौर विधा बार-बार प्रस्तावित किया। इससे अनेक लघु
पत्रिकाओं की भी दृष्टि बदली और 'लघु आघात' ( संपादक : विक्रम सोनी ), 'पुन:' ( संपादक : कृणानंद कृष्ण ), ' साम्प्रत ' व 'लघुकथा टाइम्स' ( दोनों का संपादक इन्हीं पंक्तियों का लेखक ) और 'लघुकथा साहित्य' ( प्रधान संपादक : अशोक लव, संपादक : सुरेश
अशोक लव |
अचानक देखते ही देखते संजीदा लेखकों ने 'लघुकथा' से किनाराकशी शुरू कर दी। उन्होंने इस ओर से ऐसा मुंह मोड़ा कि फिर किसी ने मुड़कर
व्रज किशोर पाठक |
पीछे ताकना तक मुनासिब नहीं समझा। क्यों ? कारण हैं इस क्षेत्र में पैठे कुछ अगंभीर तत्वों की बेजा हरकतें। 'लघुकथा' को कुछ अर्द्धार्द्ध लेखक-धंधेबाजों की नजर लग गई। एक तो उन्होंने इसे आसान विधा मानकर -लघुकथा के नाम पर ताबड़तोड़ उल्टी-उबकाई शुरू कर दी, दूसरे अपने छापने-बेचने के मंदे धंधे को गति पकड़ाने के लिए औने-पौने लेखकों से रुपये ऐंठ-ऐंठकर उनकी जैसी-तैसी रचनाएं छापने और अपना धंधा चलाने में जुट गए। इस क्रम में वे कचरे का पहाड़ खड़ा करने लगे।
जाहिरन उनकी ऐसी तिजारती और शरारती गतिविधियां सृजनधर्मिता के सामान्य मानक-मूल्यों तक की धज्जियां उड़ाने वाली थीं। साथ-साथ यह व्यक्त करने वाली भी कि ऐसे तत्व वस्तुत: कलम-कागज प्रदेश के बुद्धि-जीवी नागरिक नहीं, बल्िक हेराफरी और उलटफेर वाले इलाकों के शातिर 'बुद्धि-वंचित बौने' थे। ऐसे तत्व जिनका लक्ष्य ही था लेखन-प्रकाशन के नाम पर भोंडा आत्मरंजन और सहयोगी आधार पर प्रकाशन करने व हर साल उल्टे-सीधे दावों के साथ अंट-शंट सम्मेलन के बहाने उन्मुक्त उगाही और मुद्रामोचन। उनकी तिजारत कैसी चली या पटना-मेरठ में छापने-बेचने का उनका लड़खड़ाता धंधा किस गति को प्राप्त हुआ यह तो नहीं पता चला किंतु दशकों बाद हिन्दी के कथा-साहित्य
अशोक मिश् |
तभी से वे अपने नकार-डकार में तल्लीन हैं। तीन तिलंगे जुटकर कभी पटना में कोई 'राष्ट्रीय सम्मेलन' ठोंक देते हैं तो कभी चार चौकड़ी एकत्र हो अन्यत्र कोई 'अन्तर्राज्यीय सम्मेलन'। ऐसी हरकतों से जो हश्र स्वाभाविक है, वही सामने है। लघुकथा क्षेत्र अंतत: हिन्दी साहित्य का एक ऐसा इलाका होकर रह गया है जिसे अब 'बुद्धि वंचित बौनों का अभयारण्य' माना जाने लगा है। यहां आम तौर पर न
कोई प्रयोगधर्मी लेखन दिख रहा है, न सतत् रचनारत कोई संजीदा नाम। दो दशकों से यह विधा संदिग्ध होने का संताप झेल रही है। इस बीच हास्यास्पद ढंग से बार-बार 'सम्मेलन' की कोई न कोई निष्प्रभ सूचना अक्सर कहीं झलक
जाती है, जो वैधव्य-सिसकन जैसा आभास देती है। ले-देकर एक अकेला शख्स सुकेश साहनी है जिसके कुछ प्रयास उम्मीद की लौ को जिलाए हुए हैं। पुस्तक प्रकाशन और वेबदुनिया में 'लघुकथा डॉट कॉम' साइट के रूप में वह सतत्
अलख जलाए हुए है, किंतु वह भी करें तो क्या ! लघुकथा में ऐसा कोई लेखन प्रयास ही संभव नहीं हो पा रहा जो एक चमक-कौंध के साथ पूरे हिन्दी साहित्य का ध्यान अपनी ओर खींच और इस विधा को विश्वसनीय आधार प्रदान कर सके।
बलराम अग्रवाल |
कोई प्रयोगधर्मी लेखन दिख रहा है, न सतत् रचनारत कोई संजीदा नाम। दो दशकों से यह विधा संदिग्ध होने का संताप झेल रही है। इस बीच हास्यास्पद ढंग से बार-बार 'सम्मेलन' की कोई न कोई निष्प्रभ सूचना अक्सर कहीं झलक
कमलेश भारतीय |
सुकेश साहनी |
'बुद्धि वंचित बौनों का अभयारण्य'
जवाब देंहटाएं:)
आभार काजल जी..
हटाएंमुझे आपका यह लेख अत्यंत सारगर्भित लगा. काफी समय बाद इस तरह का लेख पढ़ने को मिला है. हालांकि मुझे लगा कि अंत अभी अधूरा है. शायद आप अभी और कुछ जोड़ सकते थे. लघुकथा पर सुकेश साहनी और हिमांशु जी तो काम कर ही रहे हैं, बलराम अग्रवाल भी अपने ब्लॉग के माध्यम से इन्टरनेट पर उपस्थित हैं. इन्टरनेट से इतर अन्य नामों को भी लिया जा सकता है. फिर भी यदि आप जैसे लेखक/समीक्षक इस ओर ध्यान देंगे तो लघुकथा की उन्नति के लिए ये सार्हक होगा.
जवाब देंहटाएंआभार बंधुवर जितेंद्र जी,आपने सही कहा सुकेश साहनी, हमांशु और बलराम अग्रवाल जैसे लोग लघुकथा में उल्लेखनीयता सक्रियता बनाए हुए हैं ।
हटाएंबहुत दिनीं के पश्चात लघुकथा पर आपकी टिप्पणी पढ़ क्र आनंद आ गया. आपने जिनका उल्लेख किया है ,अपनी पुरानी आदतों से मजबूर हैं !
जवाब देंहटाएंआभार बंधुवर अशोक लव जी.. कतिपय आत्ममुग्ध तत्वों की बेजा हरकतों ने ही तो इस संपूर्ण संभावनाशील सृजन-क्षेत्र को संदिग्ध बना दिया है.. मुझे लगा एक बार फिर चोट करनी ही चाहिए, इसलिए.. समर्थन-बल के लिए आपका पुन: आभार..
हटाएंआभार बंधुवर मयंक जी..
जवाब देंहटाएंकल 28/10/2012 को आपकी यह खूबसूरत पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
हिन्दी लघुकथाओं पर यह एक ज़रूरी और संग्रहणीय लेख है । लेखन चाहे किसी भी विधा में हो , गंभीरता मांगता है । उसे सस्ते में नहीं लिया जाना चाहिए । रचनाकारों की सजगता ही उन्हें महत्वपूर्ण और उनकी कृति को सराहनीय बनाती है । लेखन कोई हंसी खेल ठट्ठा नहीं है । लेखकों को सस्ती लोकप्रियता से भी बचना चाहिए । इसे हमें कभी नहीं भूलना चाहिए । मैं आपके विचारों से सहमत हूँ । धन्यवाद भाई श्यामल जी ।
जवाब देंहटाएंलघुकथा क्षेत्र मेँ लेखक हि पाठक है, जो एक दूसरे की निम्नस्तर कि रचना पर प्रशंसा करते रहते हैँ। सबसे बङी कमी, कोई अच्छा समीक्षक नहीँ है यहाँ। कभी कभी तो बहुत निम्नस्तर की रचनाएँ मिलती है।
जवाब देंहटाएंhttp://yuvaam.blogspot.com/p/katha.html?m=0