भारत भारद्वाज को मैं रोज याद करता हूँ और रोज फोन करके उनका हाल-समाचार लेता हूँ। कुछ भी लिखता हूँ, तो उन्हें पढ़ने भेजता हूँ। यह स्वीकार करता हूँ कि बहुत अच्छा नहीं लिख पाता, पर वे मुझे सिद्धहस्त लेखक कहकर मेरा मान और मनोबल बढ़ाते हैं। मुझे यह स्वीकार करने में जरा भी संकोच नहीं कि उन्होंने मुझे लगातार उत्साहित किया है और लिखने को प्रेरित। जब मैं नामवर सिंह पर पुस्तक लिख रहा था, तब जो भी सामग्री मैंने उनसे माँगी, उन्होंने तत्काल मुझे भेजी। अगर उनका सहयोग नहीं मिलता, तो मैं नामवर सिंह पर पुस्तक नहीं लिख पाता।
लेखक के साथ 'रेखाचित्र' के रेखांकित नायक भारत भारद्वाज ( टाई में )। |
मेरे मीता भारत भारद्वाज
रेखाचित्र 0 भारत यायावर
यह कहना तकियाकलाम हो
गया है कि, किसी व्यक्ति का उसके जीवन काल में, सही जायजा नहीं लिया जा
सकता। क्या
मृत्यु के बाद भी किसी व्यक्ति के जीवन का सही लेखा-जोखा करना संभव है?
किसी व्यक्ति के जीवन को, विभिन्न स्तरों पर, अलग-अलग दृष्टि से देखा-परखा
जा सकता है। और इस तरह देखी हुई हर तस्वीर अपने-आप में सही हो सकती है।
....- फणीश्वरनाथ रेणु
भारत भारद्वाज मुझसे बारह वर्ष बड़े हैं, किंतु देखने में मैं उनसे बारह वर्ष बड़ा लगता हूँ। भारत भारद्वाज: एक डेंटिंग-पेंटिंग किया हुआ चुस्त और दुरुस्त आदमी। सत्तर साल की उम्र में भी युवा लगते हैं।
हिंदी साहित्य में पुलिसिया व्यक्तित्व के मैं दो लोगों को जानता हूँ एक भारत भारद्वाज और दूसरे विभूति नारायण राय। ये दोनों ऊपर से कड़क हैं, पर भीतर से नरम हैं। ये दोनों नियम का पालन करते हैं और सम्यनिष्ठ हैं। इनके हृदय में छल-फरेब के लिए जगह नहीं। ये सहयोगी स्वभाव के हैं। साहित्य के प्रति इनकी गहरी निष्ठा है। साहित्य को ये सेवाभाव से लेते हैं।
भारत भारद्वाज वन-पीस आदमी हैं। दिल्ली में रहते हैं और दिल्ली में रमे हुए हैं। वे दिल्ली में चलने वाले हर खेल के खिलाड़ी हैं और मैं हजारीबाग में रहता हूँ। स्वीकार करता हूँ कि मैं हर खेल में अनाड़ी हूँ। किसी-किसी खेल का कोई-कोई गुर वे ही बताया करते हैं। हम दोनों में किसी बात का साम्य नहीं है, सिवाय ‘भारत’ के। हम दोनों भारत हैं और प्यार से हम एक-दूसरे को ‘मीता’ कहते हैं।
मैं साहित्य की दुनिया से दूर रहता हूँ। साहित्य का कारखाना दिल्ली में है। वहीं पुस्तकें छपती हैं। बड़े-बड़े सेमिनार होते हैं। लेखकों का जमावड़ा होता है। विश्व पुस्तक मेला लगता है। साहित्य में दिए जाने वाले पुरस्कार हैं। और, सबसे बढ़कर नामवर सिंह जैसे युग विधायक आलोचक और राजेन्द्र यादव जैसे संपादक की महंती दिल्ली से भी देश भर में चलती है। इसी दिल्ली में अशोक वाजपेयी रहते हैं, जिन्होंने कुछ वर्षों तक भोपाल को साहित्य का केन्द्र बना दिया था। वे रसविद और कलावंत हैं। ‘जनसत्ता’ में वर्षों से ‘कभी-कभार’ स्तम्भ को नियमित लिख रहे हैं। उदार हृदय के अशोक वाजपेयी दिल्ली में साहित्य के तीसरे पुरोधा हैं। इस दिल्ली ने हिन्दी के विभिन्न जगहों पर पैदा हुए साहित्यकारों को अपनी गोद में बिठाकर प्यार से सहलाया है और रोजी-रोटी दी है। जो लोग दिल्ली की साहित्यिक दुनिया के बाहर रहते हैं, वे भी दिल्ली में बसने के लिए लालायित रहते हैं। मैं भी लालायित रहता हूँ। पर यह लालसा कभी पूर्ण नहीं हुई। मेरा मित्र अनिल जनविजय दिल्ली से मास्को चला गया, मुझे कौन दिल्ली में बसाता। राजा खुगशाल मेरा दूसरा दोस्त है, वह दिल्ली में चालीस वर्षों से रहता हुआ भी ठीक से खुद नहीं बस पाया, मुझे क्या बसाता ? रह गये भारत भारद्वाज और विभूतिनारायण राय, जिन्होंने मुझे वर्धा में बसाने की कोशिश की, पर मैं यहाँ हजारीबाग जैसे छोटे शहर में रहकर ही संतुष्ट हूँ। यहाँ दुष्यंत कुमार की यह पंक्ति याद आ रही है - “मैं जहन्नम में बहुत खुश हूँ मेरे परवरदिगार।“
सो मैं, दिल्ली से दूर हूँ, यानी साहित्य से दूर हूँ। इसीलिए अक्सर, कहा करता हूँ कि मैं साहित्यकार नहीं हूँ। पर साहित्य के प्रति मेरा गहरा अनुराग है। इसलिए साहित्य को जानने-समझने-बुझने और सूँघने के लिए मैं साल-दो साल में दिल्ली जाता रहता हूँ। ऐसा 1980 से हो रहा है। खोजीराम हूँ - कुछ न कुछ खोजता रहता हूँ। पूरा देश मुझे इसी रूप में पहचानता है। अनवरत खोजते हुए मैं अपनी खोज-खबर नहीं रख पाया और अनेक बीमारियों से ग्रस्त हो गया और मेरा दिल्ली जाना बंद हो गया। कुछ थोड़ा बहुत कभी-कभार लिखता था वह भी बंद हो गया। मेरी स्थिति जिंदा मुर्दे की तरह हो गई। मैं अक्सर त्रिलोचन से सुनी हुई एक पंक्ति को गाता-गुनगुनाता -
एक मुर्दा गा रहा था
बैठकर अपनी चिता पर
2009 ई॰ में एक दिन नंदकिशोर नवल का फोन आया - “आप कहाँ गुम हो गए हैं ? कोई हाल-समाचार नहीं।“ मैंने बताया कि मेरी स्थिति कहीं आने-जाने, लिखने-पढ़ने की नहीं है। तब उन्होंने सही ढंग से इलाज करवाने को कहा। मैं बहुत उत्साहित हुआ और अपने मुर्दापन से बाहर आने की कोशिश करने लगा। फिर अप्रत्याशित रूप से भारत भारद्वाज का पत्र मुझे मिला और फिर फोन पर उन्होंने बताया कि वे ‘पुस्तक-वार्ता’ के संपादक हो गए हैं और मुझे उसमें लिखना है। मैं वर्षों से महावीरप्रसाद द्विवेदी, फणीश्वरनाथ रेणु और नामवर सिंह पर खोज-कार्य करता रहा हूँ। मैंने ‘आलोचना के नामवर सिंह’ - नामक लम्बा लेख उन्हें भेजा, जिसे उन्होंने ‘पुस्तक-वार्ता’ के जनवरी-फरवरी, 2010 के अंक में प्रकाशित किया। फिर विश्व पुस्तक मेला, 2010 के अवसर पर उनके बुलाने से ही दिल्ली गया। मेरे साथ मेरा छोटा बेटा अनिमेष भी था। मैं राजा खुगशाल के घर नोएडा में ठहरा और लौटने के एक दिन पहले भारत भारद्वाज के मयूर विहार में स्थित निवास पर। बहुत लम्बे समय बाद दिल्ली के अनेक साहित्यकारों से मिला। विभूति नारायण राय से पहली बार वहीं मिला। मेरा बेटा विभूति जी की लम्बी कद काठी, रौबदार व्यक्तित्व और कड़क मूँछे देखकर डर गया। मैंने उसे बताया कि वे दिखने में ऐसे हैं, पर बहुत संवेदनशील और खरे आदमी हैं। दिल्ली से लौटते वक्त मेरे बेटे ने बताया कि पापा, जितने भी दिल्ली में लोग मिले, उनमें सबसे स्मार्ट और फिट-फाट मुझे भारत भारद्वाज अंकल लगे। और सच कहूँ, उसका कहना सच था।
भारत भारद्वाज स्मार्ट ही नहीं, बेहद अध्ययनशील आदमी हैं। रोज बारह घंटे सोते हैं और बारह घंटे लिखते-पढ़ते हैं। बाकी के काम कब करते हैं, वे ही जानते हैं। उन्हें जो भी काम सौंप दिया जाए, उसे तुरंत तत्परता से करते हैं। पढ़ते-लिखते समय थोड़ा-थोड़ा पीते हैं और ‘पीने’ को ‘रस-रंजन’ कहते हैं। वे इतना रस ग्रहण करते हैं, फिर भी कठोर लगते हैं। पर मैं जानता हूँ - वे भावुक और हमदर्द इंसान हैं।
वे बिहार के वैशाली जिला के चाँदपुरा नामक गाँव के रहने वाले हैं। उनके पिताजी बाबू रामपरोहन सिंह कृष्ण के अनन्य भक्त थे। उन्होंने अपने तीनों बेटों का नाम कृष्ण पर रखा - ब्रजकिशोर, नंदकिशोर और युगल किशोर। ये तीनों के तीनों बचपन से ही साहित्य के रंग में रंगे हुए थे और जन्मजात कवि थे। युगल किशोर को घर के लोग ‘भग्गन’ कहते थे। ये सबके दुलारा थे। दिमाग बहुत तेज। स्मृति ऐसी कि बचपन की एक-एक घटना अब तक याद। आई.बी. की नौकरी में होने के कारण अपना साहित्यिक नाम भारत भारद्वाज रखा। बड़े भाई अपना नाम ब्रजकिशोर सिन्हा लिखते थे। मँझले भाई नंदकिशोर नवल में काव्य-प्रतिभा का विस्फोट स्कूल में पढ़ते वक्त ही हो गया था। वे छंद लिखने में मास्टर हो गए थे। ब्रजकिशोर सिन्हा भी कविताएँ लिखते थे और पत्र-पत्रिकाओं में छपते थे। उनके पिताजी भी इसमें रस लेते थे। तात्पर्य यह कि घर-परिवार का वातावरण साहित्यिक था। सभी पत्र-पत्रिकाएँ घर पर आती थीं। नई-नई पुस्तकें मंगवाई जाती थीं। 1951 ई॰ से मंझले भाई नंदकिशोर सिन्हा की कविताएँ छपने लग गई थीं। उन्होंने अपने नाम के साथ नवल लिखना शुरू कर दिया था। भग्गन जी अपने भाइयों को प्रभु राम की तरह हनुमान-भाव से उपासना करते थे। 1955 ई॰ में एक बार नंदकिशोर नवल ने एक छंदोबद्ध पत्र अपने बड़े भाई को लिखा था, जिसमें पता भी उसी छंद में लिखा गया था। इसकी कुछ पंक्तियाँ भग्गन जी को अब तक याद है। आप भी सुनना चाहते हैं, तो सुनिए -
चाँदपुरा से दस छह पचपन को मैं सहज सहर्ष
यह चिट्ठी लिख रहा मान्यवर भैया चरण-स्पर्श
मिले आपके पत्र न लेकिन दिया एक उत्तर भी
इसे आप चाहें तो कह लें मेरा आलसपन ही
$$$$$
भग्गन अभी यहीं ठीक है, पढ़े खूब यह मन से
पीछे तो वह स्वयं निकल जाएगा आगे दन से
पता -
पत्र मिले श्री बी.के. सिन्हा
बलराम बाबू के हेर,
बलिपुर, पी.ओ. जमालपुर
और जानें जिला मुंगेर
भग्गन जी 1955 में पाँचवीं कक्षा में पढ़ रहे थे। उनके नंदा भैया को तभी विश्वास था कि आगे वह जीवन में सफल होगा, नाम कमायेगा और भग्गनजी कोर्स की किताबों के साथ-साथ तभी से साहित्य की किताबें भी पढ़ते। 1962 ई॰ में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की। उस वर्ष उनके बगीचे में आम बहुत फला था। बनारस का एक ठेकेदार आमों को खरीद कर ले गया था, जिससे पैसे वसूलने वे बनारस पहुँचे। दैनिक ‘आज’ में उन्होंने पढ़ा कि शाम को ‘तूलिका’ नामक संस्था के तत्त्वावधान में एक गोष्ठी है, जिसमें भगवत शरण उपाध्याय एवं नामवर सिंह के व्याख्यान होंगे। वे उस गोष्ठी में नामवर सिंह को देखने-सुनने गए। तबसे नामवर सिंह को वे जानते-पहचानते हैं। 1966 ई॰ में उन्होंने इतिहास विषय लेकर पटना विश्वविद्यालय से एम.ए. किया। उनका उद्देश्य था संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा पास कर भारतीय प्रशासनिक सेवा में जाने का, किन्तु उस परीक्षा में बैठने के पूर्व ही इंटैलीजेंस व्यूरों में चले गए। माउंट आबू में ट्रेनिंग की। वहीं एक पुरानी किताब की दुकान में ‘नामवर सिंह की पहली पुस्तक ‘बकलमखुद’ उन्हें मिल गई, जिसे उन्होंने तत्काल खरीद लिया और पटने आने पर अपने अग्रज नंदकिशोर नवल को सौंप दिया। अपनी बेढंगी नौकरी में वे वर्षों पूर्वांचल में रहे। फिर 1975 ई॰ में नालंदा में उनकी पोस्टिंग हुई। वहाँ से उन्होंने एक लघु पत्रिका ‘पदक्षेप’ के दो अंक निकाले। दोनों अंक उन्होंने मुझे भेजे। तभी से उनके साथ मेरा पत्र-व्यवहार शुरू हुआ, जो आजतक जारी है। 1980 के मध्य में उनका ट्रांसफर जम्मू-कश्मीर हो गया और उनका ‘पदक्षेप’ काल-कवलित हो गया। किन्तु, उनकी कविताएँ देशभर की लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। वे कई पोस्टकार्ड प्रतिदिन मित्रों को लिखते। पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं के साथ उनके पत्र भी बहुतायत में छपते।
1986 के अगस्त महीने में उनकी पोस्टिंग दिल्ली हुई और एस-172, आरामबाग, नई दिल्ली - 55 में उन्हें सरकारी आवास मिला। दिल्ली आने पर उन्होंने मुझे पत्र द्वारा इसकी सूचना दी। मैंने उन्हें पत्र लिखा कि मैं अक्टूबर की अमुक तिथि को दिल्ली पहुँच रहा हूँ। पहुँचते ही राजकमल प्रकाशन जाऊँगा। तब राजकमल प्रकाशन 8, नेताजी सुभाष मार्ग पर हुआ करता था। वे वहीं पहुँचे और मुझे लेकर अपने आरामबाग के फ्लैट में आ गए। उनकी पत्नी गीता भाभी लक्ष्मीस्वरूपा थीं। उनके दोनों बच्चे तब छोटे थे और बहुत प्यारे लगते थे। भग्गन जी गीता भाभी के कारण घर-गृहस्थी से निश्ंिचत नौकरी करते थे और साहित्य-साधना करते थे। मैं तो मानों उनके घर का अंग ही हो गया। इतना अपनापन और स्नेह पाकर मैं धन्य हो उठा। तबसे उनकी आत्मीयता बरकरार है। अचानक 1988 ई॰ में उनका एक पोस्टकार्ड मिला -
प्रिय मीता,
गीता नहीं रही। रवि हुआ अस्त, ज्योति के पत्र पर लिखा रह गया अमर ....।
तुम्हारा
भारत भारद्वाज
गीता जन्म तिथि: 08.08.48
पुण्य तिथि: 09.09.88
यह खबर सुनकर मैं स्तब्ध रह गया। चुपचाप रोया। तड़पा। वे कितना रोये और तड़पे होंगे ! इस आपदा को कैसे सहे होंगे ! स्वाभाविक है कि गीता भाभी की आकस्मिक मृत्यु से वे टूट गये। उनका जीवन-संबल ही मानो लुप्त हो गया। उसी समय 5 अक्टूबर, 1988 ई॰ को रामविलास शर्मा ने एक पोस्टकार्ड लिखकर उनका ढाढ़स बंधाया था - “संसार में बड़ा दुख है। आसपास निगाह दौड़ाने भर की जरूरत है। कुछ दुख तो मनुष्य और प्रकृति के अन्तर्विरोध से पैदा होता है, कुछ मनुष्य-मनुष्य के अन्तर्विरोध से। इस दूसरे अन्तर्विरोध से लड़कर हम पहले अन्तर्विरोध वाले दुख को झेलने की शक्ति पाते हैं। - सप्रेम, रामविलास शर्मा।“
वे बहुत कठोर और हिम्मतवर आदमी हैं। अकेले दम पर उन्होंने अपने बच्चों की परवरिश की, पढ़ाया-बनाया और शादी की। उनकी बेटी लीना अपने पापा को अपने बहुत पास रखती है। बेटा थोड़ी दूर में रहता है और नौकरी करता है। नाती-पोते के साथ बच्चे उनसे मिलने सप्ताह में एक बार आते हैं। वे मयूर विहार में अकेले रहते हैं, एक नौकर है राजू जो उनकी देखभाल करता है। वे रात को अपनी दिवंगत पत्नी को याद करते हैं और कभी भावुकता में भरकर कविताएँ लिखते हैं।
भारत भारद्वाज को मैं रोज याद करता हूँ और रोज फोन करके उनका हाल-समाचार लेता हूँ। कुछ भी लिखता हूँ, तो उन्हें पढ़ने भेजता हूँ। यह स्वीकार करता हूँ कि बहुत अच्छा नहीं लिख पाता, पर वे मुझे सिद्धहस्त लेखक कहकर मेरा मान और मनोबल बढ़ाते हैं। मुझे यह स्वीकार करने में जरा भी संकोच नहीं कि उन्होंने मुझे लगातार उत्साहित किया है और लिखने को प्रेरित। जब मैं नामवर सिंह पर पुस्तक लिख रहा था, तब जो भी सामग्री मैंने उनसे माँगी, उन्होंने तत्काल मुझे भेजी। अगर उनका सहयोग नहीं मिलता, तो मैं नामवर सिंह पर पुस्तक नहीं लिख पाता। पुस्तक पढ़कर उन्होंने मुझे सौ में पचहत्तर अंक दिए। मैं उनकी परीक्षक दृष्टि में डिस्टिंक्शन पाने का अधिकारी हुआ। मेरी वर्षों की साधना सफल हुई। हिंदी साहित्य में इतने निर्मम और कठोर आलोचक बहुत कम हैं, पर मेरा लिखा उन्हें पसंद आता है, यह मेरे लिए एक बड़ी उपलब्धि है। मुझे और क्या चाहिए?
भारत भारद्वाज के व्यक्तित्व को याद कर रहा हूँ, तो अनेक संस्मरण याद आ रहे हैं। 1986 ई॰ में जब मैं उनके आरामबाग वाले फ्लैट में था, तब एक रविवार को केदारजी से मिलने की योजना बनी और हम दोनों उनके आवास पर पहुँचे। उन्होंने हम दोनों को एक साथ देखकर कहा - भारतौ ! एक भारत - भारतः, दो भारत - भारतौ ! और एक मीठी मुस्कान के साथ उनके मोतियों जैसे चमकीले दाँत दिखाई पड़े। केदारनाथ सिंह रससिद्ध कवि हैं। उनके साथ बतरस में अद्भुत मजा आता है। 2011 ई॰ के अक्टूबर में मैं सुबह-सवेरे भारत भारद्वाज के मयूर विहार स्थित आकाशदर्शन अपार्टमेंट्स के फ्लैट नं॰ 211 में पहुँचा और कॉलबेल दबाई। वे सोए हुए थे। उठकर दरवाजे तक आए और पूछा - कौन ? मैंने बाहर से खड़े-खड़े कहा - ‘भारतौ!“ उन्होंने मुस्कुराते हुए दरवाजा खोला - “आओ मीता, आओ !“ फिर अन्दर आने पर कहा - “तुम बैठो, ये किताबें-पत्रिकाएँ रखी हैं, इन्हें पढ़ो। मैं सो रहा हूँ। एक बजे उठूँगा।“ फिर सोने चले गए। एक घंटा बाद उनके फोन की घंटी बजी - एक मिनट बात की, फिर सो गए। मैं कुछ क्षण के लिए ही उनके साथ भारतौ रहा, फिर भारतः हो गया।
तो जब भी हम साथ-साथ होते हैं ‘भारतौ’ होते हैं। इस भारतौ के कई संस्मरण हैं। एक बार हम लोग कॉफी हाउस गए। ढेर सारे लेखक जमे थे। उनमें भगवान सिंह भी थे। फिर इतिहासकार लालबहादुर शर्मा वहाँ पधारे। वे भगवान सिंह के पुराने मित्र हैं। दोनों मिले और इतिहास की अनसुलझी गुत्थियों पर लम्बे समय तक आपस में बात करते रहे, बाकी लेखकों को भूल गए। भारत भारद्वाज ने मुझसे कहा - यार, तुम ही कुछ करो। मैंने तेज आवाज में कहा - “ये दोनों मोहनजोदड़ो-हड़प्पा के खण्डहरों में विचर रहे हैं। वर्तमान में आने में इन्हें समय लगेगा।“ अचानक दोनों की बातचीत बन्द हो गई और लोग खिलखिलाकर हँस पड़े।
एक बार भारतौ कॉफी हाउस में बैठे थे। लखनऊ से मुद्राराक्षस पधारे थे और धाराप्रवाह आक्रामक तेवर में बोलते जा रहे थे। दरअसर उन्हें किसी की सुनने की आदत नहीं। सिर्फ बोलते हैं। भारत भारद्वाज ने मेरे कान में कहा - यार सिरदर्द हो रहा है, अब इन्हें तुम ही चुप करवा सकते हो। मैंने बोलते हुए मुद्राराक्षस को हाथ पकड़ कर टोका - “मुद्राजी ! एक मिनट !“ मुद्राराक्षस ने कहा - “हाँ भारत, बोलो ! मैंने कहा - “मुद्राजी, मैं आप पर एक व्यंग्य लिखना चाहता हूँ, यदि आपकी स्वीकृति हो तो !“ मुद्राराक्षस बहुत देर तक सकपकाए-से मौन रहे, फिर कहा - “यार भारत, लिखो - लिखो ! मेरी स्वीकृति है।“ मैंने तुरत कहा - “व्यंग्य लिखने के लिए माल-मसाला दीजिए।“ सभी उपस्थित लोग मुस्कुरा पड़े।
देखता हूँ, भारत भारद्वाज के बारे में लिखने के क्रम में अपने बारे में ज्यादा कहता जा रहा हूँ। पर यह स्पष्ट कर दूँ कि अपने को बाद देकर मैं उनके बारे में कुछ भी नहीं लिख सकता। इसी क्रम में एक और प्रसंग याद आ रहा है। एक बार मैं दिल्ली गया था। तब वे बंगाली मार्केट में रहते थे। वे अपने निवास पर मुझे ले गए। उस समय उनका बहुत तीखा वाद-विवाद बनारस के शुकदेव सिंह से चल रहा था। उन्होंने वह सब मुझे पढ़ने को दिया। वह विवाद बेहद दिलचस्प था। मैंने फणीश्वरनाथ रेणु का एक संस्मरण उन्हें सुनाया। सुनकर वे हँसते-हँसते लोट-पोट हो गए। वह संस्मरण आप भी सुनिए, रेणु की जुबानी -
किसी ने दरवाजे की कुंडी खटखटाई। पूछा - कौन है ? जवाब मिला - जरा, दरवाजा खोलिए।
दरवाजा खुलते ही आगन्तुक ने सलामी दागी - नमफ्कार !
मैं मुँह देखने लगा और आगन्तुक ने कमरे में दाखिल होकर पूछा - आप ही फ्री फनीफर जी हैं ? जी, मैं फहरफा पे फीधे आपके पाफ आ रहा हूँ। फामान इफटेफन पर छोड़ आया हूँ।
मैंने अपनी हँसी को रोकते हुए पूछा - कहिए, मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?
“फेवा ?“ आगन्तुक हँसकर झोली से कुछ निकालने लगा - अरे फाहब, फेवा-फत्कार की क्या बात ? फुकदेव फिंह ने आपके लिए एक फीफी फुद्ध फहद भेज दिया है। ..... फाहब, आजकल के इफकुल इफटुडेंटो को क्या हो गया है ? फुकदेव सिंह के फाहबजादे फाहब आज फात दिन फे इफकुल फे गायब हैं। इफकुल-फीफ, फीफ-रेंट का फब पैफा .... फुटकेफ फहित ... फब फाफ !!
किसी के मुद्रादोष पर हँसना उचित नहीं। किंतु उनकी शब्द-योजना और ‘फुफकार’ की याद करके हँसी आज भी नहीं रुकती।
इसके बाद भारतौ के बीच जब भी शुकदेव सिंह का प्रसंग आया, हमें फुकदेव फिंह की याद आई। वे अब नहीं रहे, ईश्वर उनकी आत्मा को शांत रखें।
भारत भारद्वाज एक प्रसिद्ध साहित्यकार का नाम है। जब उनमें व्यवहारिकता जागरूक रहती है तब वे आई॰बी॰ के एक अफसर युगलकिशोर सिन्हा बन जाते हैं और जब बहुत भावुक हो उठते हैं तो बचपन का भोलापन लिए उनके भीतर से भग्गन जी झाँकने लगते हैं। यही उनका कवि-रूप है। एक बार मैंने रात में रेणु की प्रसिद्ध कविता ‘मेरा मीत सनीचर’ उन्हें सुनाई। वे इसे सुनकर भावविभोर हो गए। मैं दिल्ली से लौट गया और कई रात उन्होंने उस कविता का पाठ किया। अपने ‘पाखी’ के स्तम्भ में भी इसका जिक्र किया।
भारत भारद्वाज हिन्दी के स्तम्भ लेखक हैं। पहले ‘हंस’ में स्तम्भ लिखते थे। उनके स्तम्भ लिखने से कई लोगों की छाती फटती थी। लोग चिढ़ते थे, भड़कते थे। अंत में थक हारकर राजेन्द्र यादव ने उनका स्तम्भ बन्द कर दिया। स्तम्भ बन्द हो जाने से वे उद्विग्न थे। मैंने प्रेम भारद्वाज से कहा - यही मौका है, भारत भारद्वाज को अपना स्तम्भ ‘पाखी’ में लिखने के लिए आग्रह कीजिए। उन्होंने आग्रह किया और वे सहर्ष तैयार हो गए। अब उनका स्तम्भ नियमित रूप से ‘पाखी’ में छप रहा है। एक पाठकीय प्रतिक्रिया ‘पाखी’ में छपी - ‘हंस का दिल अब पाखी में’। यह भारत भारद्वाज के स्तम्भ को लेकर था।
भारत भारद्वाज इतने मितव्ययी हैं कि अपना नाम कभी-कभी भा॰भा॰ लिखते हैं। यह नामकरण नागार्जुन का किया हुआ है। उनके भा॰भा॰ को देखकर मुझे पहले झाझा की याद आती थी और अब वैज्ञानिक भाभा की। आज भा॰भा॰ में ‘भारतौ’ यानी दो भारत की ध्वनि सुनाई पड़ती है। कुबेरदत्त जब तक जीवित रहे, रात में अचानक उनका फोन आ जाता था। मृत्यु के दो-चार महीने पहले ‘पुस्तक-वार्ता’ में प्रकाशित उनका स्तम्भ - ‘समय जुलाहा’ उन्होंने प्रकाशित नहीं किया था, इस पर वे बहुत नाराज थे। मुझे फोन पर उन्होंने कहा था - भाभा बहुत चालबाज, धोखेबाज आदमी है। वह किसी का नहीं है। सिर्फ अपने नवल भैया को महत्त्व देता है। मैंने कुबेरदत्त की बातों को ध्यान से सुना और मुझे लगा कि वे मेरे विषय में ही बोल रहे हैं।
भारत भारद्वाज ‘पुस्तक-बार्ता’ का संपादन बहुत मेहनत से करते हैं, पर अपना सम्पादकीय लिखने में ध्यान नहीं देते। इस पर एक बार कृष्ण कल्पित ने दो पंक्तियाँ उन्हें लिख भेजी थीं, जिसे उन्होंने पु॰ वा॰ में प्रकाशित किया था - आप अच्छे संपादक हैं, लेकिन सम्पादकीय खराब लिखते हैं। राजेन्द्र यादव सम्पादकीय अच्छा लिखते हैं, लेकिन ‘हंस’ का सम्पादन खराब करते हैं।
भारत भारद्वाज एक आदर्श सम्पादक हैं, क्योंकि उन्होंने सम्पादन में अपना आदर्श महावीर प्रसाद द्विवेदी को बनाया है। द्विवेदी जी ने सम्पादन में चार संकल्प किए थे - (1) वक्त की पाबंदी, (2) मालिक का विश्वासपात्र बनना, (3) पाठकों के हानि-लाभ का ख्याल रखना एवं (4) न्याय-पथ से कभी न विचलित होना। यही चार संकल्प भा॰भा॰ के भी हैं। वे समय पर पत्रिका निकालते हैं। अपने मालिक विभूतिनारायण राय के विश्वासपात्र हैं। पाठकों को बहु-विध प्रकार की रचनाएँ प्रस्तुत करते हैं, देश भर के लेखकों से लिखवाते हैं। न्याय-पथ पर होने के कारण उन्हें बहुत विरोध झेलना पड़ता है।
उनके भा॰भा॰ में दो भारत हैं अर्थात् भारतौ। मैंने उनके बड़े भैया नंदकिशोर नवल से पिछले 2 सितम्बर को मंच से कहा - नवलजी के दो छोटे भाई हैं - भारत भारद्वाज और भारत यायावर। वे मेरी बात सुनकर मुस्कुराते रहे और इस बात पर अपनी मौन स्वीकृति दी।
भारत भारद्वाज सत्यनिष्ठ आदमी हैं। सत्यवक्ता होने के कारण लोग उन्हें पसंद नहीं करते। हिन्दी साहित्य में उनसे जले-भुने लोगों की संख्या बहुत है। पर मैं उनसे प्यार करता हूँ और वे श्याम कश्यप से प्यार करते हैं। वे अपने जीवन में श्याम कश्यप की सबसे ज्यादा कदर करते हैं। उन्हें एक बड़ा आलोचक मानते हैं।
मुझे भारत भारद्वाज की मीठी मुस्कान बहुत प्यारी लगती है। मैं चाहता हूँ कि वे बराबर हँसते-मुस्कुराते रहें, पीते-पिलाते रहें, लिखते-लिखाते रहे, छपते-छपाते रहें, सोते-जागते रहे। वे रहें और जमकर रहें। मेरे मीता। मेरी आत्मा के अभिन्न भारत भारद्वाज !
बहुत ही उम्दा और संग्रहणीय जानकारी से भरी पोस्ट आभार |
जवाब देंहटाएंसद्भावनाओं के लिए आभार बंधुवर तुषार जी..
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