कवि का जन्‍मदिन 
कवि ज्ञानेन्‍द्रपति से बतियाना समय समग्र से मुखातिब होना होता है। अब ( 01 जनवरी 
2012 ) से कुछ देर पहले उन्‍हें जन्‍मदिन की बधाई-शुभकामनाएं निवेदित करने के लिए 
फोन किया था। बातचीत घूमती हुई साहित्‍य से राजनीति और समाज के अनेक ताजा संदर्भों 
पर छा गई... कवि को जन्‍मदिन की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ उनकी पांच चर्चित 
रचनाएं यहां आप सबके लिए... 
ट्राम में एक याद
चेतना पारीक कैसी हो ?
पहले जैसी हो ?
कुछ-कुछ खुश
कुछ-कुछ उदास
कभी देखती तारे
कभी देखती घास
चेतना पारीक, कैसी दिखती हो ?
अब भी कविता लिखती हो ?

तुम्हे मेरी याद न होगी
लेकिन मुझे तुम नहीं भूली हो
चलती ट्राम में फिर आँखों के आगे झूली हो
तुम्हारी कद-काठी की एक
नन्ही-सी, नेक
सामने आ खड़ी है
तुम्हारी याद उमड़ी है

चेतना पारीक, कैसी हो ?
पहले जैसी हो ?
आँखों में अब भी उतरती है किताब की आग ?
नाटक में अब भी लेती हो भाग ?
छूटे नहीं हैं लाइब्रेरी के चक्कर ?
मुझ-से घुमंतू कवि से होती है टक्कर ?
अब भी गाती हो गीत, बनाती हो चित्र ?
अब भी तुम्हारे हैं बहुत-बहुत मित्र ?
अब भी बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हो ?
अब भी जिससे करती हो प्रेम उसे दाढ़ी रखाती हो ?
चेतना पारीक, अब भी तुम नन्हीं सी गेंद-सी उल्लास से भरी हो ?
उतनी ही हरी हो ?

उतना ही शोर है इस शहर में वैसा ही ट्रैफिक जाम है
भीड़-भाड़ धक्का-मुक्का ठेल-पेल ताम-झाम है
ट्यूब-रेल बन रही चल रही ट्राम है
विकल है कलकत्ता दौड़ता अनवरत अविराम है

इस महावन में फिर भी एक गौरैये की जगह खाली है
एक छोटी चिड़िया से एक नन्ही पत्ती से सूनी डाली है
महानगर के महाट्टहास में एक हँसी कम है
विराट धक-धक में एक धड़कन कम है कोरस में एक कंठ कम है
तुम्हारे दो तलवे जितनी जगह लेते हैं उतनी जगह खाली है
वहाँ उगी है घास वहाँ चुई है ओस वहाँ किसी ने निगाह तक नहीं डाली है

फिर आया हूँ इस नगर में चश्मा पोंछ-पोंछ कर देखता हूँ
आदमियों को किताबों को निरखता लेखता हूँ
रंग-बिरंगी बस-ट्राम रंग बिरंगे लोग
रोग-शोक हँसी-खुशी योग और वियोग
देखता हूँ अबके शहर में भीड़ दूनी है
देखता हूँ तुम्हारे आकार के बराबर जगह सूनी है

चेतना पारीक, कहाँ हो कैसी हो ?
बोलो, बोलो, पहले जैसी हो ?
बीज व्‍यथा 
वे बीज
जो बखारी में बन्द
कुठलों में सहेजे
हण्डियों में जुगोए
दिनोदिन सूखते देखते थे मेघ-स्वप्न
चिलकती दुपहरिया में
उठँगी देह की मूँदी आँखों से
उनींदे गेह के अनमुँद गोखों से
निकलकर
खेतों में पीली तितलियों की तरह मँडराते थे
वे बीज-अनन्य अन्नों के एकल बीज
अनादि जीवन-परम्परा के अन्तिम वंशज
भारतभूमि के अन्नमय कोश के मधुमय प्राण
तितलियों की तरह ही मार दिये गये
मरी पूरबी तितलियों की तरह ही
नायाब नमूनों की तरह जतन से सँजो रखे गये हैं वे
वहाँ-सुदूर पच्छिम के जीन-बैंक में
बीज-संग्रहालय में
सुदूर पच्छिम जो उतना दूर भी नहीं है
बस उतना ही जितना निवाले से मुँह
सुदूर पच्छिम जो पुरातन मायावी स्वर्ग का है अधुनातन प्रतिरूप
नन्दनवन अनिन्द्य
जहाँ से निकलकर
आते हैं वे पुष्ट दुष्ट संकर बीज
भारत के खेतों पर छा जाने
दुबले एकल भारतीय बीजों को बहियाकर
आते हैं वे आक्रान्ता बीज टिड्डी दलों की तरह छाते आकाश
भूमि को अँधारते
यहाँ की मिट्टी में जड़ें जमाने
फैलने-फूलने
रासायनिक खादों और कीटनाशकों के जहरीले संयंत्रों की
आयातित तकनीक आती है पीछे-पीछे
तुम्हारा घर उजाड़कर अपना घर भरनेवाली आयातित तकनीक
यहाँ के अन्न-जल में जहर भरनेवाली
जहर भरनेवाली शिशुमुख से लगी माँ की छाती के अमृतोपम दूध तक
क़हर ढानेवाली बग़ैर कुहराम
वे बीज
भारतभूमि के अद्भुत जीवन-स्फुलिंग
अन्नात्मा अनन्य
जो यहाँ बस बहुत बूढ़े किसानों की स्मृति में ही बचे हुए हैं
दिनोदिन धुँधलाते-दूर से दूरतर
खोए जाते निर्जल अतीत में
जाते-जाते हमें सजल आँखों से देखते हैं
कि हों हमारी भी आँखें सजल
कि उन्हें बस अँजुरी-भर ही जल चाहिए था जीते जी सिंचन के लिए
और अब तर्पण के लिए
बस अँजुरी-भर ही जल
वे नहीं हैं आधुनिक पुष्ट दुष्ट संकर बीज-
क्रीम-पाउडर की तरह देह में रासायनिक खाद-कीटनाशक मले
बड़े-बड़े बाँधों के डुबाँव जल के बाथ-टब में नहाते लहलहे ।


(कविता संग्रह संशयात्मा से)

निरन्‍तर निर्माण मे रत है
निरन्तर निर्माण में रत है तुम्हारा उदर
तुम्हारा रक्त, तुम्हारी मज्जा, तुम्हारा जीवन-रस
सब मिल कर जो रच रहे हैं
वह क्या है ? एक
कनखजूरा
जो अकस्मात किसी बूट के नीचे आ जायेगा।
या किसी आदमजाद को डँसने के प्रयास के अपराध में
थुरकुच कर
सफ़ाई के खयाल से सड़क पर से किनारे हटा दिया जायेगा
-वही एक
कनखजूरा ? घेर कर जिसके लिथड़े शव को
खड़े होंगे गाँव के सारे सम्भ्रान्त लोग ईश्वर को धन्यवाद देते
और यदि कोई विद्रोही कवि हुआ वहाँ ईश्वर और सफ़ाई
और स्वयं
पर थूक कर लिख देगा जिस पर एक कविता और
आकर ओढ़ चादर सो जायेगा। वही
एक कनखजूरा रच रही हो तुम ?
किसी अबोध की तरह ताकती हो मेरा प्रश्न। तुम्हें
पता नहीं अपने फूले हुए पेट में सहेजते हुए जिसको
पिला रही हो अपना रक्त, श्रम, चौकसी
वह क्या है ? मुझे है
पता
यह न हो वही कनखजूरा
पर हो जायेगा।
बनानी बनर्जी 
वह सो गयी है बनानी बनर्जी !
लम्बी रात के इस ठहरे हुए निशीथ-क्षण में
डूबी हुई अपने अस्तित्व के सघन अरण्य में एक भटकी हुई
मुस्कान खोजने
कमरे के एक कोने में टेबुल पर रखे उसके बैग में
छोटे गोल आईने कंघी और लिपिस्टिक से
लिपट कर सोयी है उसकी हँसी दिन-भर हँस कर थकी हुई
उसकी सैंडिल अपने टूटे हुए फीते को
चादर की तरह ओढ़ कर
दरवाजे के पास लम्बी पड़ी है
वह अभी कहाँ है क्यों है उसकी माँ नहीं जानती
इसके सिवा कि वह अभी सोयी है कमरे के सबसे अच्छे कोने में
वह अभी कहाँ है कैसी है उसकी चिन्तित दादी नहीं जानती
उसके सयाने हो रहे भाई नहीं जानते
उसकी नींद में वे नहीं झाँकते
अपने स्वप्न में सहमें वे देखते हैं उसे अपने स्वप्न में टहलते पशुओं को खदेड़ते
लेकिन अपने दुःस्वप्न को दुःस्वप्न की तरह झेल जाते हैं वे
उसकी नींद से अपनी नींद को बचा कर सोते हुए
उसके और उनके बीच की हाथ-भर दूरी में
रोटी, रजाई, ठण्ड और उमस है
उसकी नींद में सारी लोकल ट्रेनें स्थगित हो गयी हैं
लोहे की पटरियों पर बर्फ गिर रही है
घर के भीतर उल्लास की तरह अँगीठी जल रही है
कुहरे में डूबी-लम्बी-खाली बस को ड्राइवर गीत से भर रहा है
शरत बाबू से प्रार्थना करती है एक साँवली लड़की मुझ पर लिखो कहानी
कविता पढ़ती आँखें कहती हैं मुझ में हाँ मुझ में
सजल मेघ और उज्ज्वल रौद्र मिलते हैं
ट्राम में जगह मिल जाती है बैठने की
दो युवक खड़े हो जाते हैं
ठीक तभी दस्ताने में ढँका एक हाथ उठता है बटन दबाने को
सफेद दस्ताने में ढँका एक हाथ
वह देखती है उसे चीखती है नहीं-नहीं
आज दाँतों से वह भँभोड़ देगी उस हाथ को
आज अपने मन की करेगी
अपने स्वप्न से दबी उसकी छाती धड़कती है थोड़ी देर
उसकी छत के ऊपर चले आए हैं सप्तर्षि
उसकी लम्बी साँस रात की लय में मिल जाती है
जिन बेटों को वह जन्म देगी वे उसकी नींद में मचलते हैं।
वे दो दांत- तनिक बड़े
वे दो दाँत-तनिक बड़े
जुड़वाँ सहोदरों-से
अन्दर-नहीं, सुन्दर
पूर्णचन्द्र-से सम्पूर्ण
होंठों के बादली कपाट
जिन्हें हमेशा मूँदना चाहते
और कभी पूरा नहीं मूँद पाते
हास्य को देते उज्ज्वल आभा
मुस्कान को देते गुलाबी लज्जा
लज्जा को देते अभिनव सौन्दर्य
वह कालिदास की शिखरिदशना श्यामा नहीं-
अलकापुरीवासिनी
लेकिन हाँ, साँवली गाढ़ी
गली पिपलानी कटरा की मंजू श्रीवास्तव
हेड क्लर्क वाई. एन. श्रीवास्तव की मँझली कन्या
जिसकी एक मात्र पहचान-नहीं, मैट्रिकुलेशन का प्रमाणपत्र-नहीं
न होमसाइंस का डिप्लोमा
न सीना-पिरोना, न काढ़ना-उकेरना
न तो जिसका गाना ग़ज़लें, पढ़ना उपन्यास-
वह सब कुछ नहीं
बस, वे दो दाँत-तनिक बड़े
सदैव दुनिया को निहारते एक उजली उत्सुकता से
दृष्टि-वृष्टियों से धुँधले ससंकोच
दृष्टियाँ जो हों दुष्ट तो भी पास पहुँचकर
कौतुल में निर्मल हो आती हैं
वे दो दाँत-तनिक बड़े
डेंटिस्ट की नहीं, एक चिन्ता की रेतियों से रेते जाते हैं
एकान्त में खुद को आईने में निरखते हैं चोर नज़रों से
विचारते हैं कि वे एक साँवले चेहरे पर जड़े हैं
कि छुटकी बहन के ब्याह के रास्ते में खड़े हैं
वे काँटे हैं गोखुरू हैं, कीलें हैं
वे चाहते हैं दूध बनकर बह जायें
शिशुओं की कण्ठनलिकाओं में
वे चाहते हैं पिघल जायें,
रात छत पर सोये, तारों के चुम्बनों में
रात के डुबाँव जल में डूबे हुए
वे दो दाँत-तनिक बड़े-दो बाँहों की तरह बढ़े हुए
धरती की तरह प्रेम से और पीड़ा से
फटती छातीवाले-
जिस दृढ़-दन्त वराहावतार की प्रतीक्षा में हैं
वह कब आयेगा उबारनहार
गली पिपलानी कटरा के मकान नम्बर इकहत्तर में
शहर के बोर्डों-होर्डिंगों पोस्टरों-विज्ञापनों से पटे
भूलभुलैया पथों
और व्यस्त चौराहों और सौन्दर्य के चालू मानदण्डों को
लाँघता
आयेगा न ?
कभी तो !
Share on Google Plus

About Shyam Bihari Shyamal

Chief Sub-Editor at Dainik Jagaran, Poet, the writer of Agnipurush and Dhapel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

2 comments:

  1. ओह ..अदभुत है ज्ञानेन्द्रपति जी कि कविताएँ...बहुत आभार आपका..

    जवाब देंहटाएं
  2. बिल्‍कुल सही रामजी भाई... सद्भावनाओं के लिए आभार...

    जवाब देंहटाएं