ग़ज़ल
श्याम बिहारी श्यामल
रोशनी यह कैसी मुक़ाबिल यहाँ
पलकें उठाना भी मुश्कि़ल यहाँ
ज़मीं पर कभी-कभी नमूदार होते
हलफ़नामे में उनके सारा जहाँ
ताके तो सुब्ह आंखें मूंदते ही शब
ज़माने में मसीहा ऐसा और कहाँ
देखते ही सिहर उठा ताज़महल
कैसा आया है नया शाहजहां
श्यामल चुप रहना मुमकिन अब कहां
खिंचती ही जा रही काली रात जवां
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (29-06-2018) को "हम लेखनी से अपनी मशहूर हो रहे हैं" (चर्चा अंक-3016) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'