सवाल यह भी कि भारतीय संदर्भ को धोखे से बुदबुदाने की तरह दर्ज करने का क्या तुक? क्या तनुज सोलंकी की अंग्रेज़ी दुनिया में हमारे लिए इससे अधिक स्पेस संभव नहीं? पुराण और मिथकों से इतिहास तक, हमारे यहां युद्ध के जितने और जैसे-जैसे प्रसंग दर्ज़ हैं, ऐसा और कहां है! सागर-पार लंका की धरती पर राम-रावण युद्ध! कुरुक्षेत्र में घटित महाभारत से लेकर हल्दी घाटी की लड़ाई तक, हमारे यहां कितनी तो विश्वविश्रुत इतिहास-सिद्ध लड़ाइयां हैं, जिनमें लेखक की तात्कालिक कथाभूमि की अपेक्षा के अनुकूल ही अश्व-संदर्भों की भरमार है, फिर क्यों यह मात्र चार शब्द ? क्या यह भारतीय अंग्रेज़ी लेखन की कोई ख़ास मनोवैज्ञानिक सीमाबद्धता है? मानसिक अवगुंठन? जकड़ी हुई ग्रंथि?
इसके समानांतर हिन्दी का हमारा यह परिदृश्य! ऐसा सर्वसमाहारी कि सर्वप्रमुख वेब मंच 'समालोचन' ने तनुज सोलंकी की इस रचना को अनूदित करा इस तरह फ्लैश किया! क्या अंग्रेज़ी के ऐसे किसी मुख्य प्लेटफॉर्म पर हमारे साहित्य की भी ऐसी उल्लेखनीय प्रस्तुति संभव हो पा रही है?
सवाल यह भी कि भारतीय संदर्भ को धोखे से बुदबुदाने की तरह दर्ज करने का क्या तुक? क्या तनुज सोलंकी की अंग्रेज़ी दुनिया में हमारे लिए इससे अधिक स्पेस संभव नहीं? पुराण और मिथकों से इतिहास तक, हमारे यहां युद्ध के जितने और जैसे-जैसे प्रसंग दर्ज़ हैं, ऐसा और कहां है! सागर-पार लंका की धरती पर राम-रावण युद्ध! कुरुक्षेत्र में घटित महाभारत से लेकर हल्दी घाटी की लड़ाई तक, हमारे यहां कितनी तो विश्वविश्रुत इतिहास-सिद्ध लड़ाइयां हैं, जिनमें लेखक की तात्कालिक कथाभूमि की अपेक्षा के अनुकूल ही अश्व-संदर्भों की भरमार है, फिर क्यों यह मात्र चार शब्द ? क्या यह भारतीय अंग्रेज़ी लेखन की कोई ख़ास मनोवैज्ञानिक सीमाबद्धता है? मानसिक अवगुंठन? जकड़ी हुई ग्रंथि?
इसके समानांतर हिन्दी का हमारा यह परिदृश्य! ऐसा सर्वसमाहारी कि सर्वप्रमुख वेब मंच 'समालोचन' ने तनुज सोलंकी की इस रचना को अनूदित करा इस तरह फ्लैश किया! क्या अंग्रेज़ी के ऐसे किसी मुख्य प्लेटफॉर्म पर हमारे साहित्य की भी ऐसी उल्लेखनीय प्रस्तुति संभव हो पा रही है?
'ख़लील' कहानी पढ़ते हुए कुछ नोट्स
इक उम्र बिन आह कैसी !
- श्याम बिहारी श्यामल

आधार-भूमि का यह आयतन आवश्यकता से बड़ा दिखता ही नहीं, आगे महसूस भी होता अर्थात् चुभता है. यह इसलिए भी अधिक अखर रहा है क्योंकि इसका अंदाज़ कथात्मक न होकर संदर्भ-सूचक है. अब किसी कथा-रचना में, बल्कि उसकी शुरुआत में ही, कोई सूचना कितनी लंबी ग्राह्य हो सकती है? क्या 40-45 पंक्तियों तक? कुल दो-सवा दो हजार की शब्द-संख्या वाली रचना में चार-साढ़े चार सौ शब्दों तक में? कहना होगा कि यह सरासर अपाच्य है. यह या तो लेखकीय योजना (यदि हो तो ; वैसे लग तो ऐसा नहीं रहा ) का अतिक्रमण है अथवा रचनाकार के असंयम और असंतुलन का द्योतक.
इंट्रो में, युद्ध और अश्व के संदर्भ में एक स्थान पर चेतक का ज़िक्र आया है. यह गिनकर चार शब्दों में है! यह पूरी रचना में ऐसा इकलौता भारतीय संदर्भ है. यह अंश देखिए : '' अश्व, दरअसल, अश्वशक्ति (हार्सपावर) से हार गया और गायब हो गई उस हार के साथ उन कहानियों से उसकी वह जगह जो हम अपने आप को सुनाते थे. अब न कोई और मरेंगो होगा और न ही कोई चेतक. शक्ति और वेग और स्वामीभक्ति के प्रतीक को अलविदा, श्रेष्ठ मानवी संकल्प का उत्प्रेरक हुआ कीर्तिभूमि से बेदखल.''
सवाल यह भी कि भारतीय संदर्भ को धोखे से बुदबुदाने की तरह दर्ज़ करने का क्या तुक? क्या तनुज सोलंकी की अंग्रेज़ी दुनिया में हमारे लिए इससे अधिक स्पेस संभव नहीं? पुराण और मिथकों से इतिहास तक, हमारे यहां युद्ध के जितने और जैसे-जैसे प्रसंग दर्ज़ हैं, ऐसा और कहां है! सागर-पार लंका की धरती पर राम-रावण युद्ध! कुरुक्षेत्र में घटित महाभारत से लेकर हल्दी घाटी की लड़ाई तक, हमारे यहां कितनी तो विश्वविश्रुत इतिहास-सिद्ध लड़ाइयां हैं, जिनमें लेखक की तात्कालिक कथाभूमि की अपेक्षा के अनुकूल ही अश्व-संदर्भों की भरमार है, फिर क्यों यह मात्र चार शब्द ? क्या यह भारतीय अंग्रेज़ी लेखन की कोई ख़ास मनोवैज्ञानिक सीमाबद्धता है? मानसिक अवगुंठन? जकड़ी हुई ग्रंथि?
इसके समानांतर हिन्दी का हमारा यह परिदृश्य ! ऐसा सर्वसमाहारी कि हिन्दी के सर्वप्रमुख वेब मंच 'समालोचन' (मोडरेटर : अरुण देव) ने तनुज सोलंकी की इस रचना को अनूदित करा इस तरह फ्लैश किया ! क्या अंग्रेज़ी के ऐसे किसी मुख्य प्लेटफॉर्म पर हमारे साहित्य की भी ऐसी उल्लेखनीय प्रस्तुति संभव हो पा रही है?
जहां तक 'ख़लील' की बात है, यह वस्तुतः एक बनती हुई रचना लगी. ऐसी, जिसे अविकसित उतार लिया गया हो. बहुत जल्दबाजी में. नौ की जगह, तीसरे-चौथे या पांचवें ही महीने! कहने वाले तो अतीत में, एक-दो वाक्य के भी रचनात्मक संयोजन को कहानी कहकर निकल चुके हैं, जिसकी तार्किक संगति पर कभी अलग से बात हो सकती है, यहां फिलहाल यही कि कतिपय लोमहर्षक अनुभूतियां जगाने की क्षमता के बावजूद 'ख़लील' को कहानी स्वीकारना, इन पंक्तियों के लेखक के लिए संभव नहीं. हद से हद इसे, युद्ध (ग़ज़ा) के इस अत्यंत मौज़ू परिदृश्य में, एक जीवंत प्रतिक्रिया के रूप में देखा जा सकता है.
ऐसा भी नहीं कि यह ख़्याल किसी अन्य पाठक के मन में नहीं आया होगा. संयोग बस यह कि इस पर प्रतिक्रिया इस रूप में शुरू नहीं हुई. तुरंता के इस युग में आजकल व्यक्त किए जाने वाले विचार दो ही संवर्ग में सामने आते हैं. पहला, आंख मूंदकर वाह-वाह और दूसरा चरम विरोध! इसी में पेच यह कि शुरुआत जिस रुख से हो जाए, आगे कुछ देर या दिनों तक हवा फ़िर उसी दिशा में झरझराती रह जाती है. अर्थात्, प्रारम्भ यदि किसी ने प्रशंसा से किया है, तो आगे यही क्रम खिंचेगा. बीच में किसी ने विपरीत दम कसने की जुर्रत कर दी, तो अब आगे उससे प्रशंसक ब्रिगेड ही निबटना शुरू कर देगा. ऐसे में कैसा विमर्श संभव है, ज़ाहिर है.
चिंताजनक यह कि आंख मूंदकर तारीफ़ करने वाले ही नहीं, चीज़ों की नीर-क्षीर समझ रखने वाले कई ज्येष्ठ जन भी इस मामले में 'अति उदार' हो उठे हैं. सोशल मीडिया पर अपने कीमती कुछ मिनट वह, ज़रा भी मन मुताबिक दिख जाने पर, प्रोत्साहन-पुष्प बरसाने में खर्च कर उठ जाते हैं. लेखक को सराहना देना अच्छी बात है, इससे किसी को आपत्ति कहां! लेकिन, ऐसा तो तभी होना चाहिए जब वह इसका बाज़िब हक़दार दिखे और इससे उसे शक्ति मिलने वाली हो. तब तो कदापि नहीं, जब उसे कड़वी सलाह की आवश्यकता हो. गड्ढे के पास जा पहुंचे बेपरवाह व्यक्ति को तत्क्षण रुकने, संभलने और ठीक से निरीक्षण के लिए कहना उचित होगा या सीधे ललकार देना?
'वार एंड पीस' और टॉल्स्टॉय के पिरोए संदर्भों से, 'खलील' में युद्ध की विभीषिका का संदर्भ अवश्य सामने आया है, लेकिन अफसोस कि इसमें अनुभूति की कोई सजलता नहीं है. उल्टे, पूर्वज्ञात सूचना का सूखापन और ऊसरता इस मात्र में अधिक कि कथा-मानसिकता ही बनते-बनते रह जाती है. कहानी का असल आरंभ और उससे संवेदना-स्राव तब शुरू हुआ जब कथानक फैंटेसी में प्रविष्ट हुआ। एक पशु की बेचैनी और भावनाओं में मानवीय संवेदना का ऐसा महार्घ अंतरण और इस तरह फंतासी का प्रयोग, दोनों विरल हैं! लेखक को संभवतः भविष्य में इसे पुनः लिखना पड़े क्योंकि इसमें एक अधूरेपन की आह छुपी हुई है। यह रचना को कलात्मक मोड़ से ज़्यादा कथानक को अवगुंठन देती परिलक्षित हो रही है।
'ख़लील' के रचनात्मक आत्मसंघर्ष में एक लेखक की प्रतिभा की झलक से इनकार नहीं किया जा सकता. इसलिए रचनाकार में भविष्य में निखार संभव हो, इस उद्देश्य या कामना के साथ रचना पर बात होनी चाहिए, जो बनते-बनते रह गई है. अब प्रश्न है यह (ख़लील) ऐसी गति को क्यों प्राप्त हुई? क्या इसका कारण लेखकीय अधैर्य है? या, यह अपरिपक्वता की परिणति है?
लेखक में, नए से नए परिदृश्य और आंदोलित करते प्रकट यथार्थ पर लिखने का सर्जक आवेग स्वाभाविक है, लेकिन यही लेखक का पहला परीक्षा-द्वार है. वह स्थल, जहां उसकी विवेक-क्षमता या परिपक्वता का संकेत ग्रहण किया जा सकता है. यहीं जिज्ञासा हो सकती है कि उसका अगला कदम होता क्या है! वह तात्कालिक प्रतिक्रिया की आंधी में उड़ने का शॉर्टकट चुनता है या बवंडर के गुजर जाने और दृश्य के थिर व स्पष्ट होने तक प्रतीक्षा का रास्ता? रचनात्मक संधान का यह मार्ग ज़ाहिरन नाति दीर्घ या बहुत लम्बा भी हो सकता है, बेहद ऊबाई ! लेखक को तो यहीं अपना धैर्य दिखाना है! तुरन्त दूह कर दूध पाया जा सकता है, दही के लिए तो उसके जमने तक इंतजार करना होगा. इसका कहां विकल्प!'आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक', दूसरा कहां रास्ता?
साहित्य का सृजन निस्संदेह तुरंता उपक्रम नहीं है. वह तो सर्वोच्च बौद्धिक मानवीय प्रयास है. उसका कार्य सूचना देना नहीं, इसके लिए तो ख़बर और उनके विश्लेषण (न्यूज़ एंड व्यूज़) की एक पूरी दुनिया आबाद है, जो इस शताब्दी में कितनी विकसित स्थिति में सामने है, अलग से कहने की आवश्यकता नहीं. साहित्य का गुरुत्तर दायित्व मानव-मन को संवेदित और प्रकाशित करना है.
ज़ुल्म या युद्ध का हर सामान जैसे अपग्रेड हो क्रमशः क्रूर और घातक होता जा रहा है, साहित्य का लक्ष्य भी वैसे ही अधिकतम संवेदन-सर्जक और प्रभावोत्पादक होता चलना चाहिए। यह (प्रभाव) यदि अपने खल-लक्ष्य पर ड्रोन आक्रमण जैसा कुछ संवेदन विक्षेप संभव कर दिखाए तो क्या ही अच्छा! ● सम्पर्क 8303083684
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