Rajendra yadav :: राजेंद्र यादव का जाना विचार-प्रवाह के टूटने जैसा



 इस शख्‍स को श्रद्धांजलि नहीं बहसांजलि दीजिए
श्‍याम बिहारी श्‍यामल
      'नई कहानी' के तीसरे और अंतिम स्‍तंभ राजेंद्र यादव का निधन अपने समूचे शाब्दिक अर्थों में हिन्‍दी साहित्‍य की कभी न भरने वाली क्षति है। वह विचार को अकेले एकांत में कलम की सलाइयों पर बुनते रहने के विश्‍वासी कदापि नहीं बल्कि उसके लिए बहस-मुबाहिसों का आवां दहकाते रहने के अभ्‍यासी थे। जिससे उनकी ठनती वह उनसे चौथाई आयु का ही व्‍यक्ति क्‍यों न हो, वह उसके बराबर उतरकर दो-दो हाथ करने से भी बाज नहीं आते थे। अजब-गजब तो यह कि किसी भी कटुता को वह आपसी व्‍यवहार के धरातल पर भरसक नहीं उतरने देते थे। 
     इसमें दो राय नहीं कि 'हंस' की संपादकीय टिप्‍पणी वाले पन्‍ने अक्‍सर उनके चिनगारियां छिटकाते शब्‍द-वाक्‍यों को संभालने में जितने लड़खड़ाते दिखते,  पत्रिका के बाकी पृष्‍ठ उतने ही आजाद और हर बोलने वाले को मंच सौंपते हुए-से। यही वजह है कि पिछले ढाई दशक के दौरान हिन्‍दी साहित्‍य में जितनी भी बहसें संभव हुई हैं या सहमति-असहमति से अदबदाए हुए जितने भी विमर्श आकार ले सके हैं, प्राय: सबका श्रेय 'हंस' के नाम दर्ज है। उनका होना वस्‍तुत: विचार का धाराप्रवाह प्रवाहित होना बना रहा।
     इसलिए अब से कुछ ही देर पहले जब से फेसबुक पर भाई तेजेंद्र शर्मा के स्‍टेटस से उनके निधन की सूचना मिली है, मेरे मन में बार-बार उनसे जुड़ा एक खास प्रसंग कौंध रहा है। एक ऐसा मामला जिसका मैं स्‍वयं भागीदार भी रहा हूं और गवाह भी, जिससे यही उजागर होता रहा है कि वह कथाकर या संपादक से भी पहले मूलत: विचार की दुनिया के एक सतत प्रवहमान व्‍यक्तित्‍व रहे। इसलिए उन्‍हें विदा करते हुए श्रद्धांजलि नहीं बल्कि बहसांजलि या विचारांजलि दी जानी चाहिए। बाकायदा उनसे सहमत या असहमत होने की मौलिक स्‍वतंत्रता को टेरते हुए ही।
     यह ठीक-ठीक पता नहीं कि राजेंद्र यादव जी को किसी ने समझा दिया था या उन्‍होंने स्‍वयं ही 'अग्निपुरुष' ( मेरा दूसरा उपन्‍यास, राजकमल पेपरबैक्‍स : 2001 ) को उलट-पलट लिया था.. लेकिन इतना तय था कि उपन्‍यास के एक पात्र 'बत्‍तख' के संपादक महेंद्र महतो को स्‍वयं से जोड़कर वह काफी दु:खी हो उठे थे। 
    

इसे लेकर तरह-तरह की बातें मुझ तक पहुंच रही थीं। यथा- यादव जी बहुत खफा हैं, वह इसका बदला लेंगे, मुझे हिंदी साहित्‍य से बेदखल करा देंगे आदि-आदि। ..बहरहाल, किताब छपने के कुछ ही समय बाद उनसे साक्षात्‍कार का अवसर भी जल्‍द ही आ गया। मैं बंधुवर भारत यायावर ( रेणु रचनावली के संपादक ) के साथ दिल्‍ली पहुंचा हुआ था। 
     कई बार की तरह इस बार भी भारत जी के साथ ही दोपहर में 'हंस' कार्यालय पहुंचा। उन्‍होंने इस बार स्‍वागत के शब्‍द में मेरा खास ढंग से नामोल्‍लेख किया.. । अपनी आदत के अनुसार व्‍यंग्‍यात्‍मक शैली में कुछ-कुछ सामान्‍य कमेंट करते रहे लेकिन थोड़ी ही देर में टिफि‍न बॉक्‍स खोल सामने रख दिया। रोटी आधी थी। सब्‍जी भी बहुत थोड़ी। उन्‍होंने इसी में हमदोनों को भी शेयर करने का संकेत किया। 
     भारत जी ने अपने खास लहजे में उन्‍हें समझाया कि हमलोग तो तीन-चार रोटी की खुराक वाले है.. यादव जी हंसने लगे। उन्‍होंने दूसरे दिन का न्‍योता थमा दिया, ''..ठीक है, कल लेकर आऊंगा ..तुम दोनों का कल दोपहर का भोजन यहीं होगा..''। दूसरे दिन वह अपनी आधी के अलावा दो रोटियां ज्‍यादा लेकर आए थे। हमलोगों ने बिना किसी टीका-टिप्‍पणी के हिस्‍सा बंटा लिया। वह साहित्‍य से लेकर राजनीति तक के तमाम संदर्भों पर हमेशा की तरह बोलते रहे। 
     चलते समय राजेंद्र जी ने मुझसे 'हंस' के लिए कुछ भेजने को कहा। मैंने उनकी ओर आश्‍चर्य से देखा। बात आई-गई खत्‍म हुई। तब तो नहीं, हां कुछ साल बाद मैंने 'हंस' को पहली बार एक कहानी (कागज पर चिपका समय ) भिजवाई। 
     संजीव भाई संपादक के रूप में आ गए थे। उन्‍होंने फोन से कहानी मिलने की सूचना दी। मैं इसके बावजूद सशंकित था कि संजीव भाई का यह सकारात्‍मक रुख भी शायद ही अब आगे असर दिखा सके.. हालांकि इस बीच यादव जी का एक बार फोन भी आया जो उन्‍होंने बनारस में एक व्‍यक्तिगत प्रयोजन के निमित मुझे किया था। 
     राजेंद्र जी ने फोन पर लंबी बातचीत की। इस दौरान उन्‍होंने अपनी ओर से कहानी पर कोई चर्चा नहीं की। ...लेकिन, कुछ ही समय बाद 'हंस' (नवंबर 2008) में कहानी के आगामी अंक में छपने की घोषणा आ गई। अगले महीने वह अंक भी मेरे पास डाक से दो प्रतियों में प्राप्‍त हुआ जिसमें कहानी छप चुकी थी..     
कुल मिलाकर वह असहमति का पूरा-पूरा सम्‍मान करने-रखने वाले शख्‍स थे। विवादों से उनका चोली-दामन का रिश्‍ता रहा। उन्‍हें हिन्‍दी साहित्‍य का कभी 'डॉन' कहा गया तो कभी 'रावण'। भारत यायावर ने अपने संस्‍मरणों में एक जगह उनके लिए 'यौनाचार्य' तक की उपाधि  जारी कर दी है। 
     हाल ही फेसबुक पर एक महिला रचनाकार के साथ उन्‍हें जोड़कर सबसे ताजा विवाद तक खूब लहराया गया है। ऐसे या किसी भी वैचारिक टंटे के समय सबको यही लगता रहा कि वे और विवाद कभी खत्‍म नहीं होंगे। अश्‍वत्‍थामा और उसके मस्‍तक के जख्‍म की तरह दोनों सदा जिंदा रहेंगे। बेशक इन पंक्तियों के लेखक ने तो अब से पहले कभी यह सोचा तक न था कि एक दिन उनके 'जाने' की खबर भी सामने आ जाएगी लेकिन जैसे हर विवाद एक मीयाद के बाद क्रमश: छीजता हुआ हवा होकर ही रहता है, राजेंद्र यादव भी अब एक याद में तब्‍दील हो गए हैं। 
     राजेंद्र यादव अब भले दुनिया में नहीं रहे लेकिन उनकी जिंदादिली हमेशा हमारे बीच सांस लेती रहेगी। उनकी स्‍मृतियों को सलाम..    
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         ---- 'हंस' के दिसंबर 2008 में छपी कहानी ---------

 ‘‘ अखबारों में रोज आ रहा है कि बनारस से बुनकर पलायन कर रहे हैं... रोज एक न एक की खुदकुशी की खबर दर्दनाक तस्वीर सहित छप रही है... उन पर सूदखोरों के जुल्म की बातें भी सामने आती रहती हैं... यह भी शोर है कि बनारसी साड़ी उद्योग मर रहा है... लेकिन इसकी मार्केटिंग करने वालों के रुतबे पर तो कोई असर नहीं! इसमें तो कोई कमी नहीं दिख रही! अब इस रेवड़ी वाले को ही देखिये न! बगल का दो बिस्से पर बना-बनाया चरतल्ला मकान अभी पिछले माह ही खरीदा है! अपना यह मकान पहले से कैसा महलनुमा खड़ा किये ही हुए था! आज मामूली बर्थ डे पार्टी में उसने जैसे पानी की तरह पैसा बहाया ऐसी शाहखर्ची तो हमलोग शादी-ब्याह के मौकों पर भी नहीं कर सकेंगे! कैसी जबरदस्त गैदरिंग...! बताइये, इतनी लाइटिंग, ऐसा आर्केस्‍ट्रा और नाश्‍ते में ही कितने तरह के चाट, कैसी बड़ी-बड़ी महंगी मिठाइयां... आप क्या समझती हैं क्रीम वाली वह एक बड़ी मिठाई दस-बारह रुपये से कम की नहीं होगी... ठंडई भी बीस रुपये से कम वाली नहीं थी, आइसक्रीम, पेप्सी-कोक....’’
'हंस' के दिसंबर 2008 के अंक में छपी कहानी का प्रवेश-पृष्‍ठ
         ‘‘ अरे भाई, हरहुआ के लमही गांव से लेकर पाण्डेयपुर और बनारस मेन सिटी में इधर जगतगंज तक का इलाका ही तो मुंशी प्रेमचन्द की चौबीस घंटे सक्रियता का मूल क्षेत्र था... लमही में जन्म और जगतगंज में निधन... तो, यहां के ढेरों शोषित-दमित पात्र उनके साहित्य में अमर हैं... ऐसे पात्रों की दूसरी और तीसरी पीढ़ी के ज्यादातर लोग आज भी वैसी ही दशा में जीवन खेप रहे हैं... मैं खास तौर पर भूमिहीनों को टच करूंगा... यह कार्यक्रम कुछ खास... ’’      
 कागज पर चिपका समय
स्‍केच : गूगल से साभार

                                  कहानी  00 श्‍याम बिहारी श्‍यामल
   लिटरेचर वाले रामशंकर मिश्र जैसे दुनिया की सबसे बड़ी खबर ले आये थे, ‘‘ अरे भाई जान! गुरुआ ने तो नया किला भी फतह कर लिया! उसके कमरे में काफी देर से रीतिकाल छाया हुआ है। मैं एक बार आधा घंटा पहले टायलेट की तरफ से हो आया हूं, चलिये न एक बार उधर से और हो लिया जाये! ’’
   सिफ जानबूझकर अनजान बनने लगे, ‘‘ मैं आज बहुत परेशान हूं! खेती-किसानी के कार्यक्रम तो एकदम नाकाबिले बर्दाश्‍त हो गये हैं। पंद्रह मिनट का एक कार्यक्रम रिकार्ड कराकर लौटा हूं और सिर की हालत घूमते चाक-सी हो रही है! ’’
   ‘‘ लगता है आपने मेरी बात को सुना नहीं! मैं गुरुआ के बारे में कह रहा हूं...’’
   ‘‘ मेरी इन बातों में कोई रूचि नहीं... आप तो जानते हैं मैं ...’’ उन्होंने घंटी दबायी।
चपरासी ने गिलास का पानी बदल दिया और सामने खड़ा हो गया। रामशंकर ने चेहरा चौकोर किया,, ‘‘ क्यों जी, ‘वहां’ क्या-क्या आइटम पहुंचा चुके हो ?’’  
वह मुंह पर हाथ रखकर फिस्स-फिस्स हंसने लगा, ‘‘ दू घंटा से चल रहा है.. अभी काला जामुन और समोसे पहुंचा कर आ रहा हूं... थोड़ी देर में कॉफी लेकर जाना है... इसके पहले एक बार रसगुल्ले-आलूचॉप और दो बार कॉफी!... ’’ वह लगातार हिलता-डुलता हुआ उसी तरह उपहास उड़ाता हंसता रहा। रामशंकर भी अपनी तरह से साथ दे रहे थे।
आसिफ ने चपरासी को झिड़क दिया, ‘‘ यह क्या बेहूदगी है! वे साहब हैं, तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई इस तरह... ’’ वह सकपका गया। जैसे रंगे हाथ पकड़ लिया गया हो। चेहरे पर हवाइयां। हाथ जोड़ गिड़गिड़ाया, ‘‘नाहीं, सर! हम क्या बोलेंगे! हमारी क्या औकात! हमें हुक्म करें... चाय लेकर आयें क्या? ’’
रामशंकर भी सम्भले, सीधे बैठ गये। आसिफ ने आंखें मूंदी, ‘‘ देखो, सिर में दर्द हो रहा है, हो सके तो कड़क चाय पिलाओ! दो कप लेकर आ जाओ! ’’
वह तुरंत चला गया। उसके जाते ही रामशंकर ने अर्थपूर्ण मुस्कान छोड़ी, ‘‘ सब सिरदर्द ठीक हो जायेगा, आप जरा उधर चलें तो! ...चलिये, हम दोनों उधर टायलेट की ओर हो लेते हैं! दो मिनट में तो लौट आयेंगे यहां! चाय लेकर वह अभी तुरंत थोड़े ही आयेगा! आप जानते नहीं कि गेट के बाहर निकलकर यह कहां तक पैदल जायेगा, चाय बनवायेगा तब वहां से...’’
आसिफ ने आलमारी से कुछ फाइलें निकाल लीं। एक को खोलने लगे, ‘‘ आपको मैंने यह बात बतायी थी कि नहीं! ’’
‘‘ क्या ? ’’
‘‘ मैंने खेती-किसानी में एक बढि़या कार्यक्रम का कॉन्सेप्ट क्रियेट किया है... छुट्टी पर जाने से पहले साहब ने यह प्रोजेक्ट देख लिया है, अब वे लौट आये हैं तो यह फाइनल हो सकता है...  मैं दरअसल कुछ ऐसे भूमिहीनों को सामने लाना चाह रहा हूं जिनके बाप या दादा भी भूमिहीन और शोषित तो थे किन्तु उनमें कुछ विशिष्‍टता थी...’’
‘‘ भूमिहीनों और शोषितों में विशिष्‍टता! ...मैं कुछ समझा नहीं... ’’
‘‘ अरे भाई, हरहुआ के लमही गांव से लेकर पाण्डेयपुर और बनारस मेन सिटी में इधर जगतगंज तक का इलाका ही तो मुंशी प्रेमचन्द की चौबीस घंटे सक्रियता का मूल क्षेत्र था... लमही में जन्म और जगतगंज में निधन... तो, यहां के ढेरों शोषित-दमित पात्र उनके साहित्य में अमर हैं... ऐसे पात्रों की दूसरी और तीसरी पीढ़ी के ज्यादातर लोग आज भी वैसी ही दशा में जीवन खेप रहे हैं... मैं खास तौर पर भूमिहीनों को टच करूंगा... यह कार्यक्रम कुछ खास... ’’
‘‘ वाह! सचमुच खास! अति विशिष्‍ट होगा यह... खैर, अब उठिये... ’’ रामशंकर निर्णायक तरीके से खड़े हो गये, ‘‘ चलिये... थोड़ी देर दस-पंद्रह मिनट तफरीह हो जाये! उधर टायलेट के बहाने गुरुआ का कमरा झांका जाये! देखिये न आपका सिरदर्द कैसे हवा हो जाता है! ’’
आसिफ ने मन मसोसा, ‘‘ गजब! मिश्रा जी, आपको मैं मान गया! आप सचमुच लिटरेचर वाले ही हैं! इतनी बढि़या चर्चा हो गयी लेकिन आपकी जिद नहीं भूली...! नहीं मानेंगे तो चलिये, उठना तो पड़ेगा ही न! ’’
आगे-आगे आसिफ और पीछे रामशंकर। डिप्टी डायरेक्टर के कक्ष से थोड़ा पहले उन्होंने पीछे से हाथ पकड़कर दबा दिया। संकेत यह कि इतना तेज न चलें और हिलते पर्दे से नजारा ले लें! दरवाजे के सामने पहुंचकर आसिफ ने एक नजर कमरे के भीतर पैवस्त की फिर तुरंत सामने देखते हुए कदम तेज कर दिये। दूसरे ही क्षण दरवाजे के सामने रामशंकर। खड़ा होकर जेब टटोलते हुए हिलते पर्दे के अगल-बगल से भाले की तरह दृष्टि फेंकने लगे। मोबाइल निकाला और मिसकाल देखने का बहाना। एक हल्की नजर मोबाइल पर तो दूसरी भरपूर शिकारी दृष्टि भीतर। संयोग यह कि कूलर की सीधी हवा में उधियाता पर्दा पर्याप्त उठ-उठ जा रहा था। अचानक कुछ ज्यादा उठ गया और गिरने के क्रम में ऐंठते हुए एक तरफ थोड़ा सिमट-सा गया। भीतर का भरपूर नजारा! नयी आयी स्टेनो की पीछे से भरपूर टहक झलक मिली। कलरिंग किये हुए यू-कट बाल गोल चमकते हुए दिखे, कनपट्टी झन्न-से कर गयी। कुर्सी के दोनों ओर फर्श को छू रहा लाल दुपट्टा, भीतर के गाफिल गुलाबी माहौल की पुष्टि करता हुआ। डिप्टी डायरेक्टर टेबुल पर थोड़ा आगे बढ़कर केहुनी टिकाये, पंजे पर मुंह रखे फुसफुसाकर कुछ बोलते हुए! तभी उनका मुंह दरवाजे की ओर उठ गया। नजरों की एकदम आमने-सामने टक्कर! सकपकाकर रह गये रामशंकर। अब क्या करें! तुरंत हकलाते हुए हाथ जोड़ दिये, ‘‘ प..प..परनाम सर! परनाम!!’’
‘‘ अरे मिश्रा जी, प्रणाम-पाती तो हो ही चुकी है! सुबह-दोपहर-शाम को अलग-अलग नमस्कार की नयी प्रणाली लागू कराना चाहते हैं क्या ? वह भी दूर से नमस्कार वाली? ’’ डिप्टी डायरेक्टर के व्यंग्य-बाण की धार तेज थी। आवाज की ऐंठन में तांकझांक की इस हरकत को समझ लेने की परोक्ष धमकी के भाव भी।
रामशंकर को बात समझ में आ गयी थी। घबरा उठे, ‘‘ सर! आप हमारे बॉस हैं... बॉस को तो बार-बार प्रणाम किया ही जाता है... दूर से क्यों, मैं भीतर आ रहा हूं... आपको नजदीक से प्रणाम करके तब आगे बढ़ूंगा! ’’
वे लपककर भीतर घुसे। कोई कीमती परफ्यूम हवा के रेशे-रेशे को उग्र बना रहा था। पहली ही सांस में सुगन्ध सरसराकर जैसे दिमाग में चढ़ गयी और पूरे वजूद को अपने पंजों में दबोचे गोल-गोल उड़ने-उड़ाने लगी! नयी स्टेनो की ओर नजर उठाने की हिम्मत तो नहीं हुई लेकिन टेबुल पर दृष्टि चली गयी। एक प्लेट में सात-आठ की संख्या में बड़े-बड़े काला जामुन और एक अन्य में खूब सोंधे तले सुगंध फैला रहे इतने ही समोसे। मुंह में पानी आ गया। तुरंत नजर हटा ली, ‘‘ सर, घर की चिंता हो रही है, हमारी गइया बीमार हो गयी है न! बच्चों को समझाकर आया हूं कि कोई परेशानी बढ़े तो तुरंत कॉल करना! अभी लगा कि जेब में मोबाइल सरसरा रहा है इसलिए निकालकर देख रहा था... पता नहीं गइया का क्या हाल है... ’’
‘‘ खैर, कॉल नहीं आयी है इसका मतलब कि समाचार ठीक-ठाक ही होगा...’’ डिप्टी डायरेक्टर ने प्लेट को आगे खिसकाया, ‘‘ लीजिये, आ गये हैं तो आप भी मुंह मीठा कीजिये! ’’
‘‘ सर, मिष्‍ठान्न तो मुझे भी प्रिय है ही! मैं भी आपकी ही तरह ब्राह्मण जो ठहरा! मधुरं प्रियं... ’’ रामशंकर ने एक पीस उठाकर लप्-से मुंह में डाल लिया। जबड़े एक ही बार हिले और मुंह खाली। स्वर रसदार अपनापन से भर गया, ‘‘ ...लेकिन आप मुंह मीठा करने की बात जो बोल रहे हैं, इसका कोई खास तात्पर्य ? ’’ डिप्टी डायरेक्टर को लगा कि कोई चमकदार चाकू सीने में उतर गया है! आंखें फैलकर रह गयीं।
रामशंकर ने इसे जैसे ही महसूस किया, सिहरन हुई, ‘‘ सर! मेरे लिए चाय आसिफ साहब के कमरे में आ रही है... मैं पानी बाहर ही पी लूंगा... मुझे अब छुट्टी दीजिये, मैं बाहर चलूं...’’
वह पीछे मुड़े तो डिप्टी डायरेक्टर हल्के ठनके, ‘‘ यहां सवाल काहे छोड़ जा रहे हैं जनाब! अपने लिए एक अदद जवाब तो लेते जाइये! संजीदगी से जीने वालों के लिए जीवन का हर दिन उत्सव होता है ’’
‘‘ बिल्कुल सही! मैं अब चलूं बाहर पानी पी लूं ... प्लीज मुझे अब दीजिये छुट्टी...’’ कहते हुए वे बाहर लपके। डिप्टी डायरेक्टर ने पीछे से फिर एक तीर फेंका, ‘‘ अरे, पानी तो मैं आपको पिला ही सकता हूं और छुट्टी भी मैं ही करूंगा आपकी...’’
बाहर निकलकर उन्होने बुदबुदाते हुए रुमाल से सिर का पसीना पोंछा, ‘‘ हमको तुम क्या पानी पिलाओगे! जो रवैया अपना रहे हो इससे कहीं खुद तुम्हारी ही तगड़ी छुट्टी न हो जाये! ’’
लौटे तो आसिफ कमरे में बैठे मिले। रामशंकर ने हवा बांधी, ‘‘ अरे, गजब हो गया! मैं दरवाजे पर ज्योंही ठमका गुरुआ ने देख लिया.. नमस्ते करके मैं फंस गया.. भीतर जाना पड़ा..’’
आसिफ ने बात बीच में ही काट दी, ‘‘ अच्छा मैंने सुना कि आपलोगों ने मिर्जा गालिब के काशी प्रवास से संबंधित किसी कहानी पर कोई प्रोजेक्ट लिया है! यह टेली फिल्म होगी या... ’’
रामशंकर को यह प्रसंग-भंग बहुत नागवार गुजरा, ‘‘ आसिफ भाई, अजीब बात है! आपको मिर्जा गालिब में रूचि भी हैं और इश्‍क से परहेज भी! ’’ तभी चपरासी आ गया। उसने आसिफ की ओर तो देखा किंतु रामशंकर की ओर नजर भी नहीं उठायी। दूरी बनाता हुआ दिखा। दोनों के सामने टेबुल पर करीने से कप-प्लेट रख वह चुपचाप बाहर हो गया।
रामशंकर ने चाय की हल्की चुस्की ली, ‘‘ भई, गजब है! एकदम हद! गुरुआ के इस बेलगाम रंगीन अभियान पर कोई लगाम भी लगायेगा या अश्‍वमेध का यह घोड़ा...’’
आसिफ ने चुप्पी ओढ़ ली। चाय खत्म की और खड़े हो गये। रामशंकर चुस्कियां लेते रहे। अचकचाये, ‘‘ जा रहे हैं क्या! अरे भैया, न मेरी बात खत्म हुई है न चाय! ’’
‘‘ असल में बीवी-बच्चों के साथ रथयात्रा चैराहे जाना है। कुबेर में कुछ खरीदारी होगी, इसके बाद जायेंगे रेवड़ीतालाब .. एक रिश्‍तेदार के यहां बर्थ डे पार्टी है.. साहब से मैंने इंटरकॉम पर पूछ लिया... उन्होंने छुट्टी दे दी है, तो तुरंत निकल जाना ही ठीक है... रूकूंगा तो कोई न कोई लफड़ा आ ही जायेगा और मुझे फंस जाना पड़ेगा... मुझे तो निकलने ही दीजिये! ’’ आसिफ चल पड़े, ‘‘ यों भी मुझे क्या लेना-देना इन सबसे...किसी की यौन लिप्सा में सिर खपाना वक्त जाया करना है.. और भी गम है जमाने में मोहब्बत के सिवा... 
रात में घर लौटते-लौटते नौ बज गये। खाना खाते समय उन्होंने रुखसाना से कहा, ‘‘ मुझे एक बात समझ में नहीं आ रही है...’’
‘‘ क्या ? ’’
‘‘ अखबारों में रोज आ रहा है कि बनारस से बुनकर पलायन कर रहे हैं... रोज एक न एक की खुदकुशी की खबर दर्दनाक तस्वीर सहित छप रही है... उन पर सूदखोरों के जुल्म की बातें भी सामने आती रहती हैं... यह भी शोर है कि बनारसी साड़ी उद्योग मर रहा है... लेकिन इसकी मार्केटिंग करने वालों के रुतबे पर तो कोई असर नहीं! इसमें तो कोई कमी नहीं दिख रही! अब इस रेवड़ी वाले को ही देखिये न! बगल का दो बिस्से पर बना-बनाया चरतल्ला मकान अभी पिछले माह ही खरीदा है! अपना यह मकान पहले से कैसा महलनुमा खड़ा किये ही हुए था! आज मामूली बर्थ डे पार्टी में उसने जैसे पानी की तरह पैसा बहाया ऐसी शाहखर्ची तो हमलोग शादी-ब्याह के मौकों पर भी नहीं कर सकेंगे! कैसी जबरदस्त गैदरिंग...! बताइये, इतनी लाइटिंग, ऐसा आर्केस्‍ट्रा और नाश्‍ते में ही कितने तरह के चाट, कैसी बड़ी-बड़ी महंगी मिठाइयां... आप क्या समझती हैं क्रीम वाली वह एक बड़ी मिठाई दस-बारह रुपये से कम की नहीं होगी... ठंडई भी बीस रुपये से कम वाली नहीं थी, आइसक्रीम, पेप्सी-कोक....’’
रुखसाना महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ से जुड़कर बनारस के बुनकरों पर ही शोध कर रही हैं। उन्होंने खास तवज्जो के साथ बातें सुनी। मुस्कुरायीं, ‘‘ आपने बहुत रियायत बख्‍शी और ऐसों को बनारसी साडि़यों की मार्केटिंग करने वाला कहा, जबकि असल में तो ये दलाल ही हैं! ऐसे में... ’’ तभी लैण्ड लाइन फोन की घंटी घनघनाने लगी, बातों की कड़ी टूट गयी। रुखसाना के चेहरे पर औचक मुस्कान आ गयी, ‘‘ कई दिनों बाद आज सुनने को मिली है तो कितनी अच्छी लग रही है इसकी घंटी! ’’ वह उठकर फोन के पास गयीं।
आसिफ ने कहा, ‘‘ मोबाइल का जमाना चल-मचल रहा है! इंटरनेट का मामला नहीं होता तो हमलोग भी दो मोबाइलों के साथ इसे भी थोड़े ही ढो पाते! देखिये तो किसका कॉल है, कौन है... ’’
बतियाने के बाद उन्होंने फोन का मुंह ढंक लिया, ‘‘ ... आपके किसी दोस्त की बेटी है, गोरखपुर से आ रही है... कैण्ट रेलवे स्टेशन से बोल रही है... ’’
आसिफ लपक कर आये और फोन पकड़ लिया, ‘‘ हां, बेटा! कैसे हैं तुम्हारे पापाजी? ..अच्छा..अच्छा.... तुम्हारे पापा ने तो बताया था कि तुम सुबह मेरे से मिलोगी... क्या...? ’’ वे जैसे चिहुंक-से गये। फिर खुद को संभालते हुए कहा, ‘‘ कोई बात नहीं, सीधे यहीं आ जाओ सुबह...’’
वह रुखसाना के पास लौटे, ‘‘ मेरे पुराने दोस्त श्रीनिवास जी की बेटी है, डीडी में सेलेक्ट हुई है.. यहीं कल ज्वायन करेगी.. अभी किसी रिश्‍तेदार के साथ गोदौलिया चली गयी, सुबह आयेगी.. उसकी नौकरी का कल पहला दिन होगा! दिन में श्रीनिवास का फोन आया था... बात तो खुशी की ही है लेकिन यहां की जो भीतरी हालत है इससे चिंता भी हो रही है! ’’
‘‘ क्या ? ’’
‘‘ अरे यही कि यह दोस्त की बेटी है और यहीं आकर नौकरी शुरू करेगी! हमारे यहां जो एक खूंखार जानवर है उसकी खुराफात लगातार जारी है... आज ही आफिस में उसकी दिन भर किरकिरी होती रही.. नौ लेडी स्टाफों में दो सीनियरों को छोड़ बाकी छह को तो उसने पहले से अपने लपेटे में ले रखा था, आज दिन में एक बची हुई को भी शिकार बना लिया.. यह पिछले ही महीने पटना से तबादला होकर आयी है! उसे उसने लगातार चार घंटे तक अपने चेम्बर में बिठाये रखा... कभी रसगुल्ले, आलूचॉप आ रहे थे तो कभी काला जामुन और समोसे... कॉफी तो कई बार... ’’
‘‘ इसमें चिंता की कोई बात नहीं... वह सुबह आये तो यहीं ठीक से समझा दिया जायेगा! मेरे पास कुछ देर बैठ लेगी.. मैं उसे सब खोलकर साफ-साफ बता दूंगी कि डिप्टी डायरेक्टर एकदम जानवर है, उसी से बचकर रहना है! ’’ रुखसाना की आवाज में उबलता रोष। कुछ यों जैसे डिप्टी डायरेक्टर यहीं कहीं आसपास हो और वह उस पर वार करने जा रही हों!
आसिफ संजीदा थे, ‘‘ श्रीनिवास जी की यह बिटिया रोली शर्मा जेएनयू की प्रोडक्ट है.. स्टूडेण्ट लीडर रही है... जरुर तेज-तर्रार होगी! ’’
‘‘ हां, हां! जब डीडी में सलेक्ट हो गयी है तो टैलेण्टेड भी होगी ही! ’’
‘‘ हो सकता है वही इस जानवर को औकात बताये! जेएनयू वाले जुझारु होते हैं। ’’
‘‘ मुझे भी लग रहा है... अब शायद डिप्टी डायरेक्टर के गुनाहों का घड़ा भर गया है! ’’
‘‘ खुदा करे, ऐसा ही कुछ हो जाये! ’’ मियां-बीवी को जैसे जे.एन.यू. ने उबार दिया हो।
सुबह सात बजे ही रोली हाजिर। टाइट जींस-टॉप में छरहरी-छरकती काया। हंसमुख चेहरा। बोली-बानी में पंजाबी बांकापन। उसने आते ही रुखसाना से ऐसे मुलाकात की जैसे खास सहेली हो। पहले तो उर्दू के शब्द ठीक-ठाक उच्चारण के साथ बोलती रही किंतु जैसे ही मालूम चला कि रुखसाना काफी पढ़ी-लिखी हैं और रिसर्च कर रही हैं तो खनखनाती स्मार्ट अंग्रेजी झमकाने लगी। एकदम यूरोपियन प्रोनाउंसियेशन के साथ। वह मिठाई का पॉकेट और बच्चों के लिए अलग से टॉफी लेकर आयी थी।
आसिफ ने सामान्य औपचारिक बातों के बाद पूछा, ‘‘ गोदौलिया वाले तुम्हारे कौन हैं? ’’
‘‘ मौसी-मौसा! मैं अभी वहीं रहूंगी। उनके यहां कार-वार भी है। मुझे ऑफिस आकर छोड़ भी देंगे और समय पर आकर ले भी जायेंगे! ’’
‘‘ यहां तुम ज्वायन कर रही हो यह बहुत खुशी की बात है.. तुम कोई चिंता-फिक्र दिमाग में मत लाना.. मुझे श्रीनिवास जी से जरा भी कम मत समझना! यहां दफ्तर में लोग भी अच्छे हैं.. ’’ आसिफ बहुत इत्मीनान से उसे समझाते हुए कह रहे थे।
रुखसाना ने बीच में अपनी बात जोड़ दी, ‘‘ बस एक को छोड़कर! ’’
रोली अचकचाकर ताकने लगी। कभी रुखसाना तो कभी आसिफ की ओर। कुछ पल सभी चुप। सबकी आंखों में सरासराता हुआ मौन। अचानक आसिफ पीछे मुड़े व तेज गति के साथ बाहर की ओर निकल गये। रुखसाना ने अपनी बात आगे जारी रखी, ‘‘ यहां का डिप्टी डायरेक्टर बहुत खतरनाक है। खासकर औरतों के मामले में। तुम्हें उससे कोई मतलब भी नहीं। सबका बॉस तो डायरेक्टर है, जो अदर स्टेट के कहीं के हैं इसलिए बीच-बीच में कभी-कभी ही छुट्टी पर निकलते हैं! ऐसे में डिप्टी डायरेक्टर से क्या मतलब! ...अंकल तुम्हारे साथ हैं ही।...वैसे वह जैसा खूंखार है, एक बार गलत कोशिश जरूर करेगा! ...तुम पहली ही बार पूरी ताकत के साथ डपट देना! ...कुछ ऐसे कि उसे डर हो जाये। ...उसे यह लग जाना चाहिए कि तुम न ऐसी -वैसी हो, न छुई-मुई ! ...उसमें ऐसा डर भी जरूर जगा देना कि मौका आने पर तुम किसी के भी जबड़े तक तोड़ सकती हो! ... एक बात गांठ बांध लो... इस तरह के जो गलत लोग होते हैं वे कड़ा प्रतिरोध और सैण्डिल की बारिश से बहुत बेजोड़ डरते हैं! ... असल में उन्हें अपना भांडा फूटने का हमेशा डर जो बना रहता है! ’’
कुछ ही देर बाद आसिफ भीतर आ गये, ‘‘ अरे, इससे पूछो कि यह नाश्‍ते में क्या पसंद करती है! इसकी नौकरी का आज पहला दिन है, इसे ऐसा नाश्‍ता कराओ कि यादगार बने। ’’
रुखसाना ने हाथ लहराया, ‘‘ वो सब सम्भालने के लिए मैं यहां अभी हूं न! ...आप फिक्र नही करिये... यह यहां से हंसी-खुशी निकलेगी, यह मेरी जिम्मेवारी! आप अपनी यही जिम्मेवारी निभाइये कि ऑफिस में इसका खास ख्याल रखियेगा... उस खूंखार को तो साफ-साफ आज ही जता दीजियेगा कि यह कोई और नहीं, बल्कि आपकी बेटी है! मैं समझती हूं कि इतने के बाद वह गलती करने की हिम्मत नहीं करेगा! ’’
आसिफ ने बेफिक्री दिखायी, ‘‘ ... जहां फर्स्‍ट अफसर कड़ा होता है वहां सेकेण्ड की तो यों भी कभी कोई औकात नहीं बन पाती! ... हमारे डायरेक्टर हैं भी बहुत कड़े... गड़बड़ी एक ही है कि वे हर डेढ़-दो माह पर लम्बी छुट्टी पर निकल लेते हैं... उनकी भी मजबूरी है! यहां अकेले रहते हैं... मिसेज आईपीएस हैं, दिल्ली पुलिस में...!  तो डाइरेक्टर के छुट्टी पर निकलते ही यह डिप्टी डायरेक्टर फुल पावर में आ जाता है... इसी तरह बीच-बीच में उसका रुतबा इतना बढ़ जाता है कि छोटे-छोटे कर्मचारियों के लिए तो वह बाघ हो जाता है... वैसे डायरेक्टर साहब उसके लिए ज्यादा गुंजाइश कभी नहीं छोड़ते क्योंकि वे उसके रवैये को ठीक से जानते हैं... खैर तुमको इस मामले में कुछ सोचना ही नहीं है... मैं हूं ना! ’’
रुखसाना ने पुरियां तलीं और आलू की भुंजिया। पालक का साग और घर का लगाया आम का अचार। दही के साथ छेना के रसगुल्ले भी उसने खूब पसंद किये। कुछ ही देर में गोदौलिया वाले फिर से मारुति वान लेकर आ गये थे। रोली वहां से खूब हंसी-खुशी ऑफिस के लिए निकली। 
सिफ के ऑफिस पहुंचने में कुछ देर हो चुकी थी। वे अपने कक्ष में घुसने लगे तो दरवाजे पर ही चपरासी मिल गया, ‘‘ बडे़ साहब आपको खोज रहे थे... अभी उन्हीं के चेम्बर में हैं सभी लोग... आप भी हो आइये... आज से यहां एक नयी मैडम आयी हैं न! ’’
आसिफ भीतर घुसे। जल्दी-जल्दी आलमारी से लमही वाली फाइल निकाली और कांख में दबाये गति के साथ बाहर की ओर लपक पड़े।
भीतर आता देख डायरेक्टर दूर से हंसे, ‘‘ अरे, आइये जनाब! कहां थे! आपके बिना सब अधूरा हो जाता है! देखिये यह हमारी नयी सहयोगी हैं रोली शर्मा! ’’ रोली ने नमस्ते की, आसिफ ने सिर हिलाया। चेम्बर भरा था। अतिरिक्त कुर्सियों की तीन कतारें। प्रोग्राम एक्जक्युटिवों के अलावा इंजीनियरिंग के लोग भी थे। आसिफ का ध्यान गया, वहां डिप्टी डायरेक्टर नहीं थे! क्यों, हुआ क्या? क्या वे आज ऑफिस ही नहीं आये हैं या उन्हें साहब ने यहां बुलाया ही नहीं है! ... लेकिन ऐसा तो हो नहीं सकता कि जहां सबको बुलाया गया हो वहां किसी एक को छोड़ दिया जाये! ...
कुछ ही देर में एक-एक कर लोग खिसकने लगे। डायरेक्टर ने आसिफ से पूछा, ‘‘ क्या हुआ आपका लमही वाला प्रोजेक्ट? कहां तक पहुंचे ? आज तो उस पर डिस्कस करना था न!’’
‘‘ हां, साब! मेरा तो कांसेप्ट पूरा तैयार है... यह फाइल तो लेकर ही आया हूं! ’’
‘‘ मेरा खयाल है यह वेरी एक्सक्लुसिव कार्यक्रम होगा! प्रेमचंद की कहानियां और उपन्यास तो सबने पढ़े हैं और पढ़ रहे हैं, लेकिन उनके निधन के सात दशक बाद प्रेमचन्द साहित्य में चित्रित पात्रों की अगली पीढि़यों की क्या हालत है, यह जानना सबके लिए एक खास अनुभव होगा... ’’ इसी बीच घंटी बजने पर उन्होंने फोन उठा लिया। बातें करने लगे। बड़ों की बातें भी बड़ी और लम्बी-चौड़ी भी। उस तरफ सम्भवतः कोई बराबर का अधिकारी ही था। बातें करते हुए कुछ ही क्षणों बाद डायरेक्टर ने फाइल मोड़कर आगे कर दी। बाद में डिस्कस करने का इशारा। वे स्वीकार में सिर हिलाते फाइल उठा बाहर आ गये।
कक्ष में लौटकर उन्होंने घंटी बजायी। चपरासी तुरंत हाजिर। उसके हाथ में पानी का मग था जिसे उसने आलमारी के पास तय स्थान पर रखा और सामने आकर खड़ा हो गया। आसिफ ने गौर से ताका, ‘‘ साहब के चेम्बर में वे लोग कब पहुंचे थे ? मेरे आने से कितना पहले ? ’’
वह बताने लगा, ‘‘ बस, आप आये उसके पंद्रह-बीस मिनट पहले! ... बड़े साहब आज दस बजे ही आ गये थे.. कुछ देर चेम्बर में बैठे उसके बाद वर्मा जी को घर से बुलवा लिया.. उनके साथ मुआयना करने स्टूडियो में गये... वहां वर्मा जी पर बड़े साहब ऐसे बिगड़े कि मत पूछिये! एकदम कुत्‍ते जैसा झिड़का! उसके बाद डिप्टी साहेब को खोजवाने लगे.. वे अभी घुस ही रहे थे.. मालूम चला तो दौड़े-दौड़े पहुंचे.. फिर इंजीनियरिंग वालों को बुलावा। वे लोग दो-तीन थे, दौड़ते हुए आये... पता नहीं किस बात पर साहब खूब बिगड़ते रहे.. उसी समय नयी वाली मैडम आ गयीं। बड़े साहब उस समय डिप्टी साहब पर बिगड़ रहे थे। उसके बाद सब शांत हो गया। थोड़ी देर में डिप्टी साहब मुंह लटकाये बाहर आ गये... इसके बाद तो आप आ ही गये...’’
आसिफ की इच्छा हुई कि कुछ और पूछें किंतु इससे अधिक बतियाना सुरक्षित नहीं लगा। यों भी बात-बात में डिप्टी डायरेक्टर के प्रति उसका हल्का लहजा आफिस के अनुशासन के प्रतिकूल था। आखिर यह कोई चौपाल नहीं, डीडी का आफिस है! अनुशासन की गंगा ऊपर से चलकर ही तो नीचे पहुंचेगी! जब बड़े पदों वाले ही अनुशासन को रौंदेंगे, तो किसी छोटे कर्मी से भला क्या उम्मीद बचेगी! विचारों के बिखरे दाने समेटते हुए मुस्कुराये ‘‘ यार, हो सके तो बढि़या चाय पिलाओ! लेकिन पहले जरा देखो तो स्टूडियो में सिन्हा जी हैं कि नहीं! हों तो उन्हें कह देना, कल जो कृषि वाला प्रोग्राम शूट हुआ था उसमें कुछ टेक्स्ट चेंज है... इधर जब भी आयें, हमसे जरुर मिल लें! ’’
चपरासी जैसे ही निकलने लगा, रामशंकर घुस आये। उसे रोकते हुए हंसे, ‘‘ हें-हें... हें-हें... भाई साहब, सिर्फ तरल ही मंगा रहे हैं क्या ? अरे कुछ ठोस भी आ जाये! सबेरे ऑफिस का फोन आते ही मैं सिर पर पांव रख भागता हुआ आ गया। चाय भी नहीं पी सका था... ’’
आसिफ ने चपरासी को कुछ लाने का संकेत दे दिया। वह चला गया। रामशंकर ने टेबुल पर सिर आगे बढ़ाया, स्वर धीमा, ‘‘ कुछ पता चला कि नहीं ? ’’
आसिफ को चर्चा पसंद नहीं थी, किंतु मुंह से अनजाने निकल गया, ‘‘ कौन-सी बात? ’’
‘‘ अरे ई गुरुआ किस्मत का भी सांड़ है, एकदम सांड़! ’’
   आसिफ ने फाइल खोल ली। पलटते हुए पन्नों पर नजर गड़ा ली। रामशंकर की आवाज और अंदाज में खनक, ‘‘ ...औरों को जाल में लेने में तो उसे थोड़ी-बहुत मशक्कत भी करनी पड़ी, किंतु यह जो नयी वाली मैडम आयी है यह तो है भी एकदम फूलझड़ी और उसे एकबारगी मिल भी गयी बिन मांगी मुराद की तरह! खुले मुंह में गब्ब-से गिरे रसगुल्ले जैसी! ’’      
   रामशंकर ताड़ नहीं सके, यह अंदाज-बात आसिफ के सिर पर बिजली की तरह गिरी। भीतर ही भीतर वे जैसे आग से नहा गये हों! रामशंकर तो अपने रंग में थे, ‘‘ भाई साहब, गुरुआ के चेम्बर में कमोवेश वही नजारा है... वही रसगुल्ले-समोसे, वही झकास विदेशी सुगन्ध, वही रीतिकाल! कॉफी दूसरी बार भी पहुंच गयी है.. आज तो भीतर से खिलखिलाहटें भी बाहर आ रही हैं!...’’
   अब खुद को सम्भाले रख सकना मुश्किल हो गया था आसिफ के लिए। शरीर में जैसे चार हजार वोल्ट का करंट मचल रहा हो! माथा धधकने लगा। अचानक वे बौखलाकर उठे और चीख पड़े, ‘‘ मिश्रा जी! बंद कीजिये यह बकवास!! ...एकदम बंद!! बस, अब और नहीं! एकदम नहीं! मैं आजिज आ चुका हूं आपसे! छिः आप ऐसे घटिया सोच के आदमी हैं! बर्बर, असभ्य, जंगली! नो, प्लीज, माफ करें मुझे! ...रोज-रोज इस तरह मुझे टार्चर... ’’
   रामशंकर हक्का-बक्का। काटो तो खून नहीं। बैठे ही बैठे जैसे पत्थर! आसिफ के शब्द दहक रहे थे, ‘‘ बेचारी एक लड़की ने अभी ज्वायन भर किया है कि आप शुरू हो गये! ...पहले दिन पहले ही घंटे से गलत और गंदली गॉशिप ! ...वैरी शैड! ...शर्मनाक! ’’
अचानक तमतमाकर खड़े हो गये रामशंकर। धीमी ही आवाज में लेकिन सीधी चुनौती, ‘‘ यह मेरा सिर है और वह आपका जूता! मेरी बात गलत निकले तो आप चाहें तो जूते से पीटते हुए मेरी जान तक ले लें, मैं एक शब्द भी बोलूं तो पैदाइश का अंतर! ...आप अभी खुद जाइये! जाकर खुद देख आइये! मैं भला गॉशिप क्यों फैलाने लगा! मैं भी आप ही की तरह इन चीजों को एकदम सिरे से नापसंद करता हूं। अंतर सिर्फ यही है कि मैं गलत देखकर बेचैन हो जाता हूं जबकि आप इस पर चिंतन करने लगते हैं। ... आपके इसी गुण का तो मैं प्रशंसक रहा हूं... बल्कि यही सब तो मैं आपसे सीखने आता हूं! ’’
बहुत दुविधा में आ गये थे आसिफ। चुपचाप ताकते रहे। रामशंकर बताने लगे, ‘‘ डायरेक्टर के चेम्बर से निकलकर घंटा भर से नयी मैडम बाकायदा वहीं बैठी हुई है! आप पता तो कीजिये वह अभी भी वहीं है! ... ’’
   आसिफ जैसे बेहोशी से निकले हों। मुंह से खुद-ब-खुद निकला-सॉरी! बैठते हुए वे बहुत गौर से रामशंकर का मुंह ताकते रहे। रामशंकर के चेहरे पर अपमान बिच्छू की तरह चिपका हुआ था और डंक पर डंक चस्पां किये जा रहा था। रह-रहकर तीव्र खिंचाव उभर रहा था और त्वचा फट पड़ने की हद तक खिंच-तन जा रही थी, ‘‘ साहब के कमरे से निकलते समय नयी मैडम ने मुझी से पूछा कि डिप्टी डारेक्टर साहब का चेम्बर किधर है! मैंने उसे यहां तक समझाया कि आपको अपने सेक्‍शन में जाकर पहले अपनी कुर्सी सम्भालनी चाहिए... इस पर वह कहने लगी कि वह यहां से निकलकर सीधे डिप्टी साहब से मिलेगी इसके बाद ही कहीं जायेगी! उसके स्पष्‍ट आग्रह पर मुझे ही डिप्टी के चेम्बर तक ले जाकर उसे पहुंचाना पड़ा! ’’
   एक झटके के साथ उठ खड़े हुए आसिफ, ‘‘ चलिये तो मिश्रा जी, जरा टायलेट की ओर से हो आया जाये! ’’ रामशंकर चुपचाप बैठे रहे। तभी उधर का चपरासी आ गया, ‘‘ सर, आपको डिप्टी डायरेक्टर साहब बुला रहे हैं! ’’
‘‘ चेम्बर में और कोई है क्या? ’’
‘‘ हां, नयी वाली मैडम भी हैं! ’’ चकरा गये आसिफ। तेज गति से बाहर निकले। दिमाग जैसे एकदम चक्करघिन्नी! रोली के सामने वे इस तरह क्यों बुला रहे हैं भला! बात क्या है! इस लड़की ने ही कोई चर्चा तो नहीं कर दी! ... क्या चर्चा कर सकती है वह! वे अभी दरवाजे के पहले ही थे कि रोली भीतर से निकलती दिखी। उसने झटके से देखने के बाद नजरें नीची कर ली और बगल से ही आगे निकल गयी। ज्यों ही परदा हटाकर उन्होंने भीतर कदम बढ़ाया डिप्टी डायरेक्टर ने खास अंदाज में जोरदार स्वागत किया, ‘‘ अरे, आइये आइये जनाब! कहां रहते हैं आप, कुछ पता ही नहीं चलता! ’’
   उनके इस अचानक इतने खुले व्यवहार ने थोड़ी चिंता बढ़ायी। वे गौर करने लगे कि इसमें व्यंग्य वगैरह है या कुछ और! कुर्सी पर सामने बैठते हुए वे भरसक मुस्कुराये, ‘‘ हुक्म करें साब! मैं तो यहीं हूं.. रोज ऑफिस में ही रहता हूं.. दो महीने से कहीं बाहर भी नहीं गया... ’’
   ‘‘ बाहर जाते तब तो पता ही चल जाता न! ऑफिस में रहते हैं, इसीलिए तो भेंट नहीं हो पाती! वही तो पूछ रहा हूं कि ऑफिस में कहां किधर छुपे रह जाते हैं! भेंट का मतलब तो देखा-देखी कत्‍तई नहीं हैं.... जब तक कुछ बोलना-बतियाना, हंसना-हंसाना...’’
   आसिफ ने गौर किया, साल भर में आज यह पहला मौका है जब यह शख्स इस कदर जुड़कर बात कर रहा है! लेकिन क्यों! उन्होंने मुस्कुराने का प्रयास किया, ‘‘ हां, सर! लेकिन आपने मुझे अभी याद किया है! बताइये... क्या आदेश है... ’’
‘‘ आदेश नहीं! केवल साथ बैठकर चाय पीने के लिए बुलाया है आपको! साथ ही आपको अपना आभार भी जताना है... ’’
‘‘ आभार ! किस बात के लिए? मैं कुछ समझा नहीं! ’’
‘‘ रोली अभी यही सब बता रही थी कि यह आपकी पूर्व परिचित है और आज सुबह आप और आपकी पत्नी ने इसे मेरे बारे में सबकुछ बता-समझा दिया है... ’’
   कलेजा जैसे धक् से करके रह गया। यह क्या! यानी कि उसने वह सब इन्हें बता दिया है जो सुबह इसे समझाया गया था! लेकिन ऐसा उसने किया ही क्यों! क्या सोचकर! यह तो भलाई के बदले भाला मिलने वाली बात ही हुई न! तो, अब क्या होगा! क्या किया जाये! क्या सीधे उनका पांव पकड़कर माफी ही मांग ली जाये! तभी डिप्टी डायरेक्टर ने आगे कहा, ‘‘ मुझे आपको देखकर लगता रहा था कि आप औरों से अलग हैं! संजीदा और सलीकेदार! आखिर मेरी धारणा सही निकली... आप बिल्कुल वैसे ही साबित भी हुए... ’’ यह व्यंग्य कर रहे हैं या सचमुच इन शब्दों का वही अर्थ है जैसे कि वे सुने जा रहे हैं! आसिफ जिस बारीकी से उनके एक-एक शब्द को जौहरी की तरह पकड़-परख रहे थे उससे कहीं ज्यादा तन्मयता से उनका मुखमंडल पढ़ रहे थे।
   डिप्टी डायरेक्टर मुग्ध-मगन थे, ‘‘ रोली ने बताया कि आप दोनों पति-पत्नी ने इसे सुबह ही समझाया कि आफिस में फालतू लोगों से बचना है और केवल डायरेक्टर साहब और मुझसे मिलकर रहना है! इस क्रम में आपदोनों ने मेरी कितनी और क्या-क्या तारीफ की, रोली वह सब डिटेल बता रही थी! ...भई, ग्रेट! मैं यह सब सुनकर इतना खुश हुआ कि कुछ मत पूछिये...! वैसे मेरे बारे में आपका यह खयाल सही है कि मैं आज तक लोगों की मदद ही तो करता आया हूं... भई, बड़े होने का मतलब ही यही है कि छोटों को संरक्षण दो! मैं तो अपना हक अदा कर रहा हूं! ... मुझे आपका यह अंदाज बहुत-बहुत अच्छा लगा। ... और रोली... सी इज वेरी टैलेंटेड, स्मार्ट! ग्रेट, ग्लैमरस एंड गोल्डेन फ्यूचरेस्टिक! ’’ आसिफ के मुर्दा होते शरीर में जैसे जान वापस आ रही हो। यह विश्‍वास अब जमने लगा था कि वे कम से कम व्यंग्य तो नहीं ही कर रहे। डिप्टी डायरेक्टर आगे कह रहे थे, ‘‘...रामशंकर मिश्रा वगैरह तो टुच्चे हैं... देखियेगा, मौका मिलने पर इसको तो मैं कभी भी नाप दूंगा! ’’
   आसिफ ने हाथ जोड़ लिये, ‘‘ सर, चाय फिर कभी आकर पी लेंगे... अभी यहां से लाने जायेगा तो देर करेगा! वैसे मेरे कमरे में चाय आ चुकी होगी... मुझे जैसे ही पता चला कि आप याद कर रहे हैं तो मैं तुरंत दौड़ते हुए यहां आ गया... आप अगर इजाजत दें तो मैं... ’’
   कुर्सी से उठते हुए डिप्टी डायरेक्टर ने किसी कद्रदां की तरह हाथ मिलाकर उन्हें विदा किया। आसिफ पसीना पोंछते हुए अपने कक्ष में लौटे। रामशंकर वैसे ही चुपचाप बैठे थे। उन्होंने रामशंकर से पूछा, ‘‘ चाय-समोसे लेकर वह अब तक नहीं आया क्या? ’’
   रामशंकर ने मुंह नहीं खोला। आसिफ टेबुल पर सामने रखी फाइल उठाकर पन्ने पलटने लगे। अचानक उठकर बाहर निकल गये रामशंकर। बिना कुछ कहे। आसिफ चाहकर भी उन्हें आवाज नहीं दे सके। फाइल में वे नजरें उलझाते रहे। लग रहा था कि फड़फड़ाते पन्नों पर लिखे शब्द तेज-तेज घूम रहे हैं, लट्टू की तरह! जैसे तेज नख-दंतों वाली एक पहेली दिमाग को खूनेखून कर रही हो। ऐन इसी समय सामने से कमरे में आती दिखी रोली। नजरें नीची और सुबह का चुलबुलापन गायब। आसिफ ने उसे एक नजर देखने के बाद फाइल को उठा लिया और तीव्रता से पन्ने पलटने लगे।
   रोली ने बैठते हुए बहुत धीरे-धीरे कहना शुरू किया, ‘‘ अंकल, सुबह वहां से चलने के बाद मैं रास्ते भर सोचती हुई आयी...  हर तरह से बहुत-बहुत सोचा-समझा...  आकर यहां भी देखा कि अपने डायरेक्टर साहब तक डिप्टी डायरेक्टर से ही खौफ खा रहे हैं... यह सब देखते-समझते हुए अन्ततः मुझे यही लगा कि जिससे सब डरते हों और जो सबसे ज्यादा बड़ा खतरा हो, क्यों न सबसे पहले उसे काबू में कर लिया जाये! ’’ 
   आसिफ हक्का-बक्का उसका मुंह ताकने लगे। उसका मुखमण्डल कठपुतली के मुंह जैसा दिखा, खूब बढि़या रंगा-पुता लेकिन सख्त! वह आगे बोलती चली जा रही थी, ‘‘ मैंने उसे यही बताया कि मुझे आसिफ अंकल और आंटी ने बताया है कि आप सबसे ज्यादा मददगार और भले आदमी हैं और यह भी कि मुझे आप ही से मिलकर यहां रहना चाहिए! ’’
   आसिफ ने फाइल में ऐसा सिर गड़ाया मानो किसी गहरे-अंधेरे कुएं में उतर गये हों। दिमाग झन्-झन् कर रहा था। सब कुछ जैसे स्याह और शिथिल। पन्ने पर चिपका समय लथपथ और निरुपाय। रोली के स्वर में विजेता का उन्माद- उल्लास मचल रहा था, अंधेरा रचने वाले धूल-धुएं के पहाड़ उछालते बवंडर की तरह ‘‘ ...अंकल, आई एम वेरी लक्की! नाऊ डिप्टी डायरेक्टर मेरे क्लच में है! टोटेली कब्जे में! ...उससे मुझे अब कोई खतरा नहीं है! ’’ 
                                                                                                   ( हंस, दिसंबर 2008 में प्रकाशित )

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About Shyam Bihari Shyamal

Chief Sub-Editor at Dainik Jagaran, Poet, the writer of Agnipurush and Dhapel.
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