अलविदा मैकू दादा
सोमवार ( 25 जुलाई 2011 ) को दोपहर में दफ्तर में सविता जी का कॉल आया। पता चला कि मैकू के पुत्र कैलाश आये हैं। बात समझते देर नहीं लगी। शुक्रवार ( 22 जुलाई 2011 ) को ही आकर उन्होंने अपने पिता के गंभीर रूप से बीमार होने का समाचार दिया था। शनिवार को पांडेयपुर जाकर बीमार मैकू से मिलने का कार्यक्रम भी बना लेकिन हफ्ते भर की थकान नींद बनकर ऐसी तारी रही कि पूरा दिन उड़ गया। आज न कल चलकर देख लेंगे की बात ने बाधित रखा। बहरहाल, मैकू से लंबे समय से मिलना न हुआ था और अब तो यह पूरी तरह असंभव हो चुका है। उन्होंने हफ्ते भर की गंभीर अस्वस्थता के बाद सोमवार की सुबह तीन बजे अंतिम सांस ली। ( उनकी उम्र के बारे में कोई पुख्ता आधार नहीं किंतु परिजनों के मुताबिक वह करीब 104 साल के थे। हालांकि 2007 में इंटरव्यू के दौरान उन्होंने स्वयं इन पंक्तियों के लेखक से कहा था कि '' हमार उमिर सौ से दूइये-चार साल कम हौ '' इससे मैंने तब उनकी आयु करीब 95 साल दर्ज की थी। 1934 में प्रेमचंद से पहली भेंट के समय यदि मैकू की उम्र 25 साल भी रही हो तो यह फिलहाल 102 के आसपास मानी जा सकती है। ) सूचना मिलते ही धक्का लगा लेकिन अब तो वही किया जा सकता था जो संभव था। तत्काल फोटोग्राफर को फोन कर मैकू के घर का लोकेशन देते हुए उनकी चिरनिद्रा की तस्वीर लेने को कहा और खबर लिखने के लिए उनसे संबंधित पूर्वप्रकाशित सामग्री तलाशने में जुटने के लिए सविता जी को भी कॉलबैक किया।
दैनिक जागरण में 27 अप्रैल 2007 को प्रकाशित रिपोर्ट
शोध / श्यामबिहारी श्यामल
मैकू
कथा सम्राट प्रेमचंद का जीवित पात्र
बनारस के पाण्डेयपुर चौराहे के पास कुम्हार बस्ती में एक शतायु वृद्ध की झाग जैसी निस्तेज आंखों में आज भी कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद और उनका युग झिलमिलाते देखे जा सकते हैं। यह वयोवृद्ध व्यक्ति है मैकू प्रजापति। कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘ मैकू ’ का नायक। उम्र 95 साल से भी ज्यादा। कई वर्षों से आंखों की रोशनी गायब। लम्बा, पतला-दुबला किंतु ठोस कसा हुआ शरीर। हाथ में आदमकद पुष्ट डंडे का सहारा, लेकिन आवाज कड़क। कमर में धोती और बाकी शरीर यों ही उघार। ‘ मैकू ’ कहानी से वाकिफ व्यक्ति के लिए उसका पूरा डील-डौल देख यह अंदाजा लगाना कठिन नहीं कि यह शख्स किसी जमाने में सचमुच कसरती जवान रहा होगा। मैकू के बारे में लोगों को पिछले ही साल अचानक तब नये सिरे से पता चला जब प्रेमचंद का सवा सौवां जयंती-वर्ष का सारा आयोजन संपन्न हो जाने के बाद वाराणसी के दैनिक जागरण में ही उसके बारे में एक सूचनात्मक खबर छपी। खबर में उसने बताया कि उसके अपने पाण्डेयपुर चौराहे से लेकर लमही गांव तक प्रेमचंद की स्मृतियां संजोये जाने की सूचना से वह बहुत खुश है किंतु अफसोस कि दोनों आंखों की रोशनी गायब होने के कारण वह कुछ भी देख पाने में असमर्थ है! मैकू अपने चार बेटों के भरे-पूरे परिवार के साथ रहता है। पूरा परिवार मिट्टी के कुल्हड़ और अन्य पात्र बनाने का काम करता है। इस पंक्तियों के लेखक नेपिछले दिनों मैकू से टुकड़ों-टुकड़ों में कई मुलाकातें की और अमर कथाकार के इस कथानायक से प्रेमचंद युग की चश्मदीद जानकारी अर्जित की, जिसका संक्षिप्त विवरण यहां प्रस्तुत है
अमर कथाकार का अकेला उपलब्ध कथानायक
प्रेमचंद के निधन के सात दशक बाद ‘ मैकू ’ आज संभवतः ऐसा अकेला शख्सियत उपलब्ध है जिसे कभी कथा सम्राट का नायक बनने का सौभाग्य हासिल हुआ था। यों लमही गांव के आसपास व वाराणसी क्षेत्र में प्रेमचंद साहित्य के ज्यादातर पात्रों की दूसरी-तीसरी पीढ़ी के लोग अक्सर मिल जाया करते हैं, किंतु ऐसे अब तक तीन ही लोग ज्ञात व उपलब्ध हैं जिन्होंने प्रेमचंद के समय उनके छापेखाने में काम किया था। इनमें मैकू के अलावा दो अन्य बुजुर्ग राममूरत और रामसूरत हैं जो लमही गांव में रहते हैं। इन दोनों को प्रेमचंद के साथ काम करने का मौका भर मिला था, अहम पात्र बनकर उनकी कलम से चित्रित होने का अवसर नहीं। प्रेमचंद के सवा सौवें जयंती-वर्ष पर सारनाथ में डा नामवर सिंह की तीन दिनी उपस्थिति में एनसीआरटी के सेमिनार में राममूरत और रामसूरत बुलाये भी गये थे किंतु तब तक मैकू की जानकारी लोगों को नहीं थी। यदि मैकू को उस सेमिनार में बुलाया गया होता तो निश्चय ही देश भर से आये लेखकों के लिए अमर कथाकार के कथानायक से मिलने का यह यादगार मौका बनता। समकालीन लेखकों के लिए मैकू से मिलकर यह जानना भी जीवंत अनुभव होता कि मुंशी जी ने उसे कैसे अपनी कहानी का नायक चुना था, कैसे उस पर कहानी बुनी थी और यह भी कि कथासम्राट की रचना प्रक्रिया क्या थी!
मैकू बातचीत में अपने तरीके से मुंशी जी की रचनाप्रक्रिया, उनके बोल-व्यवहार, स्वभाव-आचरण और पूरे व्यक्तित्व के अनेक शेड्स बयान करता है। कुछ इस तरह जैसे वह अभी-अभी उनसे मिलकर आया हो! वह महान उपन्यास ‘ गोदान ’ और अमर कहानी ‘ कफन ’ समेत अनेक प्रमुख रचनाओं के लिखे जाने का संदर्भ और रचना-प्रक्रिया से लेकर प्रेमचंद की उस समय की मानसिकता आदि का जब आंखों देखा हाल उपस्थित करता है तो यह सुनना एक दुर्लभ अनुभव बन जाता है। किस तरह मुंशी जी मुफलिसी के बावजूद किताबों का प्रकाशन संभव बनाते थे, कैसे पैसा-पैसा जोड़कर कागज-स्याही का जुगाड़ करते थे, कैसे आर्थिक खस्ताहाली के बावजूद ‘ हंस ’ की गाड़ी खिंचती चल रही थी आदि-आदि जैसे प्रसंगों का साक्षी-बयान सुनना भी रोमांचकारी है। मैकू के पास मुंशीजी के निधन का प्रसंग, बाद में उनके पुत्र अमृतराय के साथ करीब तीन दशक तक इलाहाबाद में काम करने व ‘ कहानी ’ पत्रिका से जुड़े ढेरों संस्मरण हैं।
कैसे मिला मुंशीजी का साथ
यह 1934 की बात है। मैकू लमही में अपनी बहन के यहां गया था। उस समय वह युवक था और बेकार भी। रिश्तेदार उसे मुंशी जी के पास ले गये और उनसे उसे किसी काम पर लगा देने का आग्रह किया। मुंशी जी ने उसे अपने वाराणसी के रामकटोरा स्थित छापेखाने में काम पर आने को कह दिया। मैकू तभी से जुड़ा सो मुंशीजी के निधन के करीब तीन दशक बाद तक उनके परिवार से जुड़ा रहा। मुंशी जी के साथ उसे करीब दो साल ही रहने का मौका मिला, इसी दौरान वह उनका कथा नायक बन गया।
कैसे थे प्रेमचंद
मैकू की आंखों की पुतलियां उजली हो गयी हैं। एकदम जमी हुई राख जैसी। इनमें रोशनी चाहे एक कतरा भी न हो, पर पूरा प्रेमचंद युग झिममिलाता देखा जा सकता है। चर्चा करने पर वह भावुक हो उठता है और ठेठ बनारसी बोली में बताता है कि कैसे मुंशी जी उम्दा लेखक ही नहीं, बल्कि आदमी भी आला दर्जे के थे। रहमदिल व छोटे लोगों के लिए मददगार। मैकू के शब्द हैं- मुंशी जी एकदम सीधा-सादा शांत गउ रहलन। बहुत कम बोले वाला। टायर के चप्पल, मारकीन के धोती अउर आधा बांही के कुर्ता पेन्हले लमही से बनारस पैदले चल आवत रहलन!
कुल जमा छह तक पढे मैकू से आज भी कोई लगभग पूरे प्रेमचंद साहित्य पर चर्चा कर सकता है। कैसे? मैकू बताता है कि वह सरस्वती प्रेस में काम से बीच-बीच में समय निकलता रहता। इसी दौरान कभी ‘ हंस ’ पत्रिका तो कभी मुंशी जी की कोई किताब लेकर पढ़ने बैठ जाता। एक बार ऐसे ही पढ़ने के क्रम में जब मुंशी जी की लिखी कहानी ‘ मैकू ’ दिखी तो वह चौक गया।
कैसे लिखी गयी ‘ मैकू ’ कहानी
मैकू पाण्डेयपुर से वाराणसी के राम कटोरा स्थित सरस्वती प्रेस में ड्यूटी करने आता तो रास्ते में चौका घाट पर एक ताड़ीखाना था। एक बार पान खाने के लिए ताड़ीखाने के पास गुमटी पर वह रूका तो वहां एक नशेड़ी से भिड़ंत हो गयी। नशेड़ी ने मैकू पर मुक्का चलाया। जवाब में मैकू ने उस पर ऐसा जोरदार घूसा चलाया कि उसने वहीं जमीन पकड़ ली। प्रेस पहुंचकर उन्होंने मुंशी जी को पूरा प्रसंग बताया था, बस। बात आयी-गयी खत्म हो गयी। इसके काफी समय बाद ‘ मैकू ’ को अपने नाम के ही शीर्षक वाली यह कहानी पढ़ने को मिली। अचानक अपने पर लिखी कहानी पढ़ने को मिली तो कैसा लगा था? इस सवाल पर मुंशीजी का यह कथानायक सकुचाता है और वही पहली कच्ची-कुवांरी खुशी आज भी उसके चेहरे पर सरसराकर रेंगने लगती है।
क्या है इस कहानी में
प्रेमचंद की करीब तीन सौ कहानियों में एक ‘ मैकू ’ एक दुर्लभ कथा रचना है। तीन पेज व 2331 शब्दों की इस कहानी में पिछली शताब्दी के आरंभिक दशकों के समय-समाज का अद्भुत चित्रण है। ताड़ीखाने पर एक पार्टी के वालंटियर सत्याग्रह कर नशेडि़यों को भीतर जाने से रोक रहे हैं। ठेका मालिक ने सत्याग्रहियों को मार-पीटकर खदेड़ने के लिए मैकू और कादिर को बतौर लठैत बुलाया है। मैकू ताड़ीखाने के बाहर सत्याग्रहियों की भीड़ और पुलिस वालों की उपस्थिति देखकर पहले सहमता है लेकिन उसका साथी उसे आवस्त करता है-- '' पुलिस तो शह दे रही है...ठेकेदार से साल में सैकड़ों रुपये मिलते हैं... पुलिस इस वक्त उसकी मदद न करेगी तो कब करेगी...'' उसी तरह कांग्रेसियों के बारे में कादिर उसे बताता है-- '' कांग्रेस वाले किसी पर हाथ नहीं उठाते, चाहे कोई उन्हें मार ही डाले... नहीं तो उस दिन जुलूस में दस-बारह चौकीदारों की मजाल थी कि दस हजार आदमियों को पीटकर रख देते... चार तो वहां ठंडे हो गये थे मगर एक ने हाथ नहीं उठाया... इनके जो महात्मा हैं, वह बड़े भारी फकीर हैं... उनका हुक्म है कि चुपके से मार खा लो, लड़ाई मत करो....'' इसी क्रम में कादिर के साथ जैसे ही ताड़ीखाने की ओर बढ़ता है, एक सत्याग्रही हाथ जोड़कर सामने आ जाता है और भीतर न जाने का आग्रह करता है। मैकू ने उस पर हाथ चला दिया। सत्याग्रही की आंखों में खून आ गया और ' पांचों उंगलियों के रक्तमय प्रतिबिम्ब ' झलकने लगे। इसके बाद भी सत्याग्रही वहीं खड़ा रहा और जब मैकू ने उसे डांटकर हट जाने को कहा तो वह वहीं राह रोककर बैठते हुए बोला, '' जितना चाहिए मार लीजिये मगर अंदर न जाइये...''
मैकू सत्याग्रही को यह वादा करके अंदर जाता है कि वह ताड़ी नहीं पियेगा, क्योंकि यहां वह एक दूसरे काम से आया है। सत्याग्रही रास्ता छोड़ देता है और वादा निभाने का आग्रह करता है। भीतर पहुंचने पर ताड़ीखाना के ठेकेदार ने मैकू का गर्मजोशी से स्वागत करते हुए कहा, '' एक ही तमाचा लगाकर क्यों रह गये... एक तमाचे का भला इन पर क्या असर होगा... बड़े लतखोर हैं सब... कितना ही पीटो असर ही नहीं होता... बस आज सबों के हाथ-पांव तोड़ दो, फिर इधर न आयें ''। वह मैकू को मुफ्त ताड़ी पीने को देता है तो वह नकार कर देता है और उससे एक मजबूत डंडे की मांग करता है। ठेकेदार डंडा देकर सत्याग्रहियों की पिटाई देखने के लिए दरवाजे पर आ खड़ा होता है। मैकू ने एक क्षण डंडे को तौला फिर ठेकेदार पर ही हमला बोल दिया। वह वहीं दोहरा होकर गिर पड़ा। देखते ही देखते वह भीतर बैठे ताड़ी पी रहे तमाम नशेडि़यों की भी धुनाई करने लगता है। वे दरवाजे पर गिरे ठेकेदार को रौंदते हुए भागने लगते हैं। मैकू नशेडि़यों को यहां कभी नहीं आने की हिदायत देते हुए धमकाता है कि किसी को यहां अब कभी देख लेगा तो खून पी जायेगा। इसके बाद मैकू ताड़ीखाने के भीतर के तमाम बोतल-मटके तोड़ने लगता है। अपने साथी के टोकने पर वह कहता हहै, '' जो लोग दूसरों को गुनाह से बचाने के लिए अपनी जान देने को खड़े हैं, उन पर वही हाथ उठायेगा जो पाजी है, कमीना है, नामर्द है...'' यह वस्तुत: एक लठैत या बिगड़ैल व्यक्ति के हृदय-परिवर्त्तन की कहानी है, जिसमें गांधीजी के नशाविरोधी आंदोलन की ताकत और सार्थकता का भी दुर्लभ संदेश निहित है। 00
दैनिक जागरण ( वाराणसी ) में आज ( 26 जुलाई 11 ) छपी खबर
प्रेमचंद के अमर पात्र ने मूंद ली आंखें :
नही रहे मैकू / नशेड़ी से झगड़े का प्रसंग सुन 'मैकू' कहानी लिखी थी कथा सम्राट ने
वाराणसी : पाण्डेयपुर स्थित नयी बस्ती की कुम्हार पट्टी में सोमवार की सुबह कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की चर्चित कहानी मैकू के नायक मैकू ने अंतिम सांस ली। वह करीब 104 साल के थे। उन्होंने मुंशी प्रेमचंद के रामकटोरा स्थित छापेखाने में काम तो करीब दो साल ही किया किंतु इसी दौरान उनकी एक चर्चित कहानी का नायक बनने का मौका पाने वाले सौभाग्यशाली बन गये। मुंशी जी के निधन के बाद करीब तीन दशक तक मैकू ने इलाहाबाद स्थानांतरित हो चुके सरस्वती प्रेस और हंस प्रकाशन में काम किया। इसके बाद वह पाण्डेयपुर में अपने चार बेटों के संयुक्त परिवार के साथ रह रहे थे। बेटों का परिवार अपने पारंपरिक धंधे में है। सभी मिट्टी के कुल्हड़ और घड़ा आदि बनाने के काम करते हैं। उनके बड़े बेटे का निधन हो चुका है। ज्ञातव्य है कि मैकू की लंबे समय की गुमनामी करीब चार साल पहले तब टूटी जब दैनिक जागरण ने 27 अप्रैल 2007 को विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की। इसके बाद तो वह प्रेमचंद साहित्य के प्रेमियों के आकर्षण का केंद्र ही बन गये। मैकू के पुत्र कैलाश प्रजापति ने बताया कि वह लंबे समय से देख पाने में असमर्थ थे किंतु हमेशा मुंशी प्रेमचंद के बारे में बताते रहते थे। उन्हें उनकी अधिकतर कहानियां याद थीं। मैकू की प्रेमचंद से पहली मुलाकात 1934 में लमही गांव में तब हुई थी जब वह बेरोजगार युवक थे और उसी गांव में स्थित अपनी बहन की ससुराल गये थे। प्रेमचंद ने उन्हें अपने छापेखाने में काम दिया था। पाण्डेयपुर से रामकटोरा डयूटी करने आने के क्रम में ही एक बार मैकू का चौकाघाट स्थित ताड़ीखाने के पास एक नशेड़ी से झगड़ा हो गया। लठैत मैकू ने उसे धूल चटा दी। छापेखाने में आकर उन्होंने प्रेमचंद से इसकी चर्चा की। इसके कुछ समय बाद अचानक उन्हें हंस पत्रिका में अपने नाम के ही शीर्षक वाली मैकू कहानी दिख गयी। यह नशा-मुक्ति पर लिखी प्रेमचंद की एक अमर कथा-कृति है।
सोमवार ( 25 जुलाई 2011 ) को दोपहर में दफ्तर में सविता जी का कॉल आया। पता चला कि मैकू के पुत्र कैलाश आये हैं। बात समझते देर नहीं लगी। शुक्रवार ( 22 जुलाई 2011 ) को ही आकर उन्होंने अपने पिता के गंभीर रूप से बीमार होने का समाचार दिया था। शनिवार को पांडेयपुर जाकर बीमार मैकू से मिलने का कार्यक्रम भी बना लेकिन हफ्ते भर की थकान नींद बनकर ऐसी तारी रही कि पूरा दिन उड़ गया। आज न कल चलकर देख लेंगे की बात ने बाधित रखा। बहरहाल, मैकू से लंबे समय से मिलना न हुआ था और अब तो यह पूरी तरह असंभव हो चुका है। उन्होंने हफ्ते भर की गंभीर अस्वस्थता के बाद सोमवार की सुबह तीन बजे अंतिम सांस ली। ( उनकी उम्र के बारे में कोई पुख्ता आधार नहीं किंतु परिजनों के मुताबिक वह करीब 104 साल के थे। हालांकि 2007 में इंटरव्यू के दौरान उन्होंने स्वयं इन पंक्तियों के लेखक से कहा था कि '' हमार उमिर सौ से दूइये-चार साल कम हौ '' इससे मैंने तब उनकी आयु करीब 95 साल दर्ज की थी। 1934 में प्रेमचंद से पहली भेंट के समय यदि मैकू की उम्र 25 साल भी रही हो तो यह फिलहाल 102 के आसपास मानी जा सकती है। ) सूचना मिलते ही धक्का लगा लेकिन अब तो वही किया जा सकता था जो संभव था। तत्काल फोटोग्राफर को फोन कर मैकू के घर का लोकेशन देते हुए उनकी चिरनिद्रा की तस्वीर लेने को कहा और खबर लिखने के लिए उनसे संबंधित पूर्वप्रकाशित सामग्री तलाशने में जुटने के लिए सविता जी को भी कॉलबैक किया।
दैनिक जागरण में 27 अप्रैल 2007 को प्रकाशित रिपोर्ट
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मैकू : अब जिनकी स्मृतियां ही शेष ( तस्वीर 2007 की, सविता सिंह द्वारा खींची हुई ) |
शोध / श्यामबिहारी श्यामल
मैकू
कथा सम्राट प्रेमचंद का जीवित पात्र
बनारस के पाण्डेयपुर चौराहे के पास कुम्हार बस्ती में एक शतायु वृद्ध की झाग जैसी निस्तेज आंखों में आज भी कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद और उनका युग झिलमिलाते देखे जा सकते हैं। यह वयोवृद्ध व्यक्ति है मैकू प्रजापति। कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘ मैकू ’ का नायक। उम्र 95 साल से भी ज्यादा। कई वर्षों से आंखों की रोशनी गायब। लम्बा, पतला-दुबला किंतु ठोस कसा हुआ शरीर। हाथ में आदमकद पुष्ट डंडे का सहारा, लेकिन आवाज कड़क। कमर में धोती और बाकी शरीर यों ही उघार। ‘ मैकू ’ कहानी से वाकिफ व्यक्ति के लिए उसका पूरा डील-डौल देख यह अंदाजा लगाना कठिन नहीं कि यह शख्स किसी जमाने में सचमुच कसरती जवान रहा होगा। मैकू के बारे में लोगों को पिछले ही साल अचानक तब नये सिरे से पता चला जब प्रेमचंद का सवा सौवां जयंती-वर्ष का सारा आयोजन संपन्न हो जाने के बाद वाराणसी के दैनिक जागरण में ही उसके बारे में एक सूचनात्मक खबर छपी। खबर में उसने बताया कि उसके अपने पाण्डेयपुर चौराहे से लेकर लमही गांव तक प्रेमचंद की स्मृतियां संजोये जाने की सूचना से वह बहुत खुश है किंतु अफसोस कि दोनों आंखों की रोशनी गायब होने के कारण वह कुछ भी देख पाने में असमर्थ है! मैकू अपने चार बेटों के भरे-पूरे परिवार के साथ रहता है। पूरा परिवार मिट्टी के कुल्हड़ और अन्य पात्र बनाने का काम करता है। इस पंक्तियों के लेखक नेपिछले दिनों मैकू से टुकड़ों-टुकड़ों में कई मुलाकातें की और अमर कथाकार के इस कथानायक से प्रेमचंद युग की चश्मदीद जानकारी अर्जित की, जिसका संक्षिप्त विवरण यहां प्रस्तुत है
अमर कथाकार का अकेला उपलब्ध कथानायक
प्रेमचंद के निधन के सात दशक बाद ‘ मैकू ’ आज संभवतः ऐसा अकेला शख्सियत उपलब्ध है जिसे कभी कथा सम्राट का नायक बनने का सौभाग्य हासिल हुआ था। यों लमही गांव के आसपास व वाराणसी क्षेत्र में प्रेमचंद साहित्य के ज्यादातर पात्रों की दूसरी-तीसरी पीढ़ी के लोग अक्सर मिल जाया करते हैं, किंतु ऐसे अब तक तीन ही लोग ज्ञात व उपलब्ध हैं जिन्होंने प्रेमचंद के समय उनके छापेखाने में काम किया था। इनमें मैकू के अलावा दो अन्य बुजुर्ग राममूरत और रामसूरत हैं जो लमही गांव में रहते हैं। इन दोनों को प्रेमचंद के साथ काम करने का मौका भर मिला था, अहम पात्र बनकर उनकी कलम से चित्रित होने का अवसर नहीं। प्रेमचंद के सवा सौवें जयंती-वर्ष पर सारनाथ में डा नामवर सिंह की तीन दिनी उपस्थिति में एनसीआरटी के सेमिनार में राममूरत और रामसूरत बुलाये भी गये थे किंतु तब तक मैकू की जानकारी लोगों को नहीं थी। यदि मैकू को उस सेमिनार में बुलाया गया होता तो निश्चय ही देश भर से आये लेखकों के लिए अमर कथाकार के कथानायक से मिलने का यह यादगार मौका बनता। समकालीन लेखकों के लिए मैकू से मिलकर यह जानना भी जीवंत अनुभव होता कि मुंशी जी ने उसे कैसे अपनी कहानी का नायक चुना था, कैसे उस पर कहानी बुनी थी और यह भी कि कथासम्राट की रचना प्रक्रिया क्या थी!
मैकू बातचीत में अपने तरीके से मुंशी जी की रचनाप्रक्रिया, उनके बोल-व्यवहार, स्वभाव-आचरण और पूरे व्यक्तित्व के अनेक शेड्स बयान करता है। कुछ इस तरह जैसे वह अभी-अभी उनसे मिलकर आया हो! वह महान उपन्यास ‘ गोदान ’ और अमर कहानी ‘ कफन ’ समेत अनेक प्रमुख रचनाओं के लिखे जाने का संदर्भ और रचना-प्रक्रिया से लेकर प्रेमचंद की उस समय की मानसिकता आदि का जब आंखों देखा हाल उपस्थित करता है तो यह सुनना एक दुर्लभ अनुभव बन जाता है। किस तरह मुंशी जी मुफलिसी के बावजूद किताबों का प्रकाशन संभव बनाते थे, कैसे पैसा-पैसा जोड़कर कागज-स्याही का जुगाड़ करते थे, कैसे आर्थिक खस्ताहाली के बावजूद ‘ हंस ’ की गाड़ी खिंचती चल रही थी आदि-आदि जैसे प्रसंगों का साक्षी-बयान सुनना भी रोमांचकारी है। मैकू के पास मुंशीजी के निधन का प्रसंग, बाद में उनके पुत्र अमृतराय के साथ करीब तीन दशक तक इलाहाबाद में काम करने व ‘ कहानी ’ पत्रिका से जुड़े ढेरों संस्मरण हैं।
कैसे मिला मुंशीजी का साथ
यह 1934 की बात है। मैकू लमही में अपनी बहन के यहां गया था। उस समय वह युवक था और बेकार भी। रिश्तेदार उसे मुंशी जी के पास ले गये और उनसे उसे किसी काम पर लगा देने का आग्रह किया। मुंशी जी ने उसे अपने वाराणसी के रामकटोरा स्थित छापेखाने में काम पर आने को कह दिया। मैकू तभी से जुड़ा सो मुंशीजी के निधन के करीब तीन दशक बाद तक उनके परिवार से जुड़ा रहा। मुंशी जी के साथ उसे करीब दो साल ही रहने का मौका मिला, इसी दौरान वह उनका कथा नायक बन गया।
कैसे थे प्रेमचंद
मैकू की आंखों की पुतलियां उजली हो गयी हैं। एकदम जमी हुई राख जैसी। इनमें रोशनी चाहे एक कतरा भी न हो, पर पूरा प्रेमचंद युग झिममिलाता देखा जा सकता है। चर्चा करने पर वह भावुक हो उठता है और ठेठ बनारसी बोली में बताता है कि कैसे मुंशी जी उम्दा लेखक ही नहीं, बल्कि आदमी भी आला दर्जे के थे। रहमदिल व छोटे लोगों के लिए मददगार। मैकू के शब्द हैं- मुंशी जी एकदम सीधा-सादा शांत गउ रहलन। बहुत कम बोले वाला। टायर के चप्पल, मारकीन के धोती अउर आधा बांही के कुर्ता पेन्हले लमही से बनारस पैदले चल आवत रहलन!
कुल जमा छह तक पढे मैकू से आज भी कोई लगभग पूरे प्रेमचंद साहित्य पर चर्चा कर सकता है। कैसे? मैकू बताता है कि वह सरस्वती प्रेस में काम से बीच-बीच में समय निकलता रहता। इसी दौरान कभी ‘ हंस ’ पत्रिका तो कभी मुंशी जी की कोई किताब लेकर पढ़ने बैठ जाता। एक बार ऐसे ही पढ़ने के क्रम में जब मुंशी जी की लिखी कहानी ‘ मैकू ’ दिखी तो वह चौक गया।
कैसे लिखी गयी ‘ मैकू ’ कहानी
मैकू पाण्डेयपुर से वाराणसी के राम कटोरा स्थित सरस्वती प्रेस में ड्यूटी करने आता तो रास्ते में चौका घाट पर एक ताड़ीखाना था। एक बार पान खाने के लिए ताड़ीखाने के पास गुमटी पर वह रूका तो वहां एक नशेड़ी से भिड़ंत हो गयी। नशेड़ी ने मैकू पर मुक्का चलाया। जवाब में मैकू ने उस पर ऐसा जोरदार घूसा चलाया कि उसने वहीं जमीन पकड़ ली। प्रेस पहुंचकर उन्होंने मुंशी जी को पूरा प्रसंग बताया था, बस। बात आयी-गयी खत्म हो गयी। इसके काफी समय बाद ‘ मैकू ’ को अपने नाम के ही शीर्षक वाली यह कहानी पढ़ने को मिली। अचानक अपने पर लिखी कहानी पढ़ने को मिली तो कैसा लगा था? इस सवाल पर मुंशीजी का यह कथानायक सकुचाता है और वही पहली कच्ची-कुवांरी खुशी आज भी उसके चेहरे पर सरसराकर रेंगने लगती है।
क्या है इस कहानी में
प्रेमचंद की करीब तीन सौ कहानियों में एक ‘ मैकू ’ एक दुर्लभ कथा रचना है। तीन पेज व 2331 शब्दों की इस कहानी में पिछली शताब्दी के आरंभिक दशकों के समय-समाज का अद्भुत चित्रण है। ताड़ीखाने पर एक पार्टी के वालंटियर सत्याग्रह कर नशेडि़यों को भीतर जाने से रोक रहे हैं। ठेका मालिक ने सत्याग्रहियों को मार-पीटकर खदेड़ने के लिए मैकू और कादिर को बतौर लठैत बुलाया है। मैकू ताड़ीखाने के बाहर सत्याग्रहियों की भीड़ और पुलिस वालों की उपस्थिति देखकर पहले सहमता है लेकिन उसका साथी उसे आवस्त करता है-- '' पुलिस तो शह दे रही है...ठेकेदार से साल में सैकड़ों रुपये मिलते हैं... पुलिस इस वक्त उसकी मदद न करेगी तो कब करेगी...'' उसी तरह कांग्रेसियों के बारे में कादिर उसे बताता है-- '' कांग्रेस वाले किसी पर हाथ नहीं उठाते, चाहे कोई उन्हें मार ही डाले... नहीं तो उस दिन जुलूस में दस-बारह चौकीदारों की मजाल थी कि दस हजार आदमियों को पीटकर रख देते... चार तो वहां ठंडे हो गये थे मगर एक ने हाथ नहीं उठाया... इनके जो महात्मा हैं, वह बड़े भारी फकीर हैं... उनका हुक्म है कि चुपके से मार खा लो, लड़ाई मत करो....'' इसी क्रम में कादिर के साथ जैसे ही ताड़ीखाने की ओर बढ़ता है, एक सत्याग्रही हाथ जोड़कर सामने आ जाता है और भीतर न जाने का आग्रह करता है। मैकू ने उस पर हाथ चला दिया। सत्याग्रही की आंखों में खून आ गया और ' पांचों उंगलियों के रक्तमय प्रतिबिम्ब ' झलकने लगे। इसके बाद भी सत्याग्रही वहीं खड़ा रहा और जब मैकू ने उसे डांटकर हट जाने को कहा तो वह वहीं राह रोककर बैठते हुए बोला, '' जितना चाहिए मार लीजिये मगर अंदर न जाइये...''
मैकू सत्याग्रही को यह वादा करके अंदर जाता है कि वह ताड़ी नहीं पियेगा, क्योंकि यहां वह एक दूसरे काम से आया है। सत्याग्रही रास्ता छोड़ देता है और वादा निभाने का आग्रह करता है। भीतर पहुंचने पर ताड़ीखाना के ठेकेदार ने मैकू का गर्मजोशी से स्वागत करते हुए कहा, '' एक ही तमाचा लगाकर क्यों रह गये... एक तमाचे का भला इन पर क्या असर होगा... बड़े लतखोर हैं सब... कितना ही पीटो असर ही नहीं होता... बस आज सबों के हाथ-पांव तोड़ दो, फिर इधर न आयें ''। वह मैकू को मुफ्त ताड़ी पीने को देता है तो वह नकार कर देता है और उससे एक मजबूत डंडे की मांग करता है। ठेकेदार डंडा देकर सत्याग्रहियों की पिटाई देखने के लिए दरवाजे पर आ खड़ा होता है। मैकू ने एक क्षण डंडे को तौला फिर ठेकेदार पर ही हमला बोल दिया। वह वहीं दोहरा होकर गिर पड़ा। देखते ही देखते वह भीतर बैठे ताड़ी पी रहे तमाम नशेडि़यों की भी धुनाई करने लगता है। वे दरवाजे पर गिरे ठेकेदार को रौंदते हुए भागने लगते हैं। मैकू नशेडि़यों को यहां कभी नहीं आने की हिदायत देते हुए धमकाता है कि किसी को यहां अब कभी देख लेगा तो खून पी जायेगा। इसके बाद मैकू ताड़ीखाने के भीतर के तमाम बोतल-मटके तोड़ने लगता है। अपने साथी के टोकने पर वह कहता हहै, '' जो लोग दूसरों को गुनाह से बचाने के लिए अपनी जान देने को खड़े हैं, उन पर वही हाथ उठायेगा जो पाजी है, कमीना है, नामर्द है...'' यह वस्तुत: एक लठैत या बिगड़ैल व्यक्ति के हृदय-परिवर्त्तन की कहानी है, जिसमें गांधीजी के नशाविरोधी आंदोलन की ताकत और सार्थकता का भी दुर्लभ संदेश निहित है। 00
दैनिक जागरण ( वाराणसी ) में आज ( 26 जुलाई 11 ) छपी खबर
प्रेमचंद के अमर पात्र ने मूंद ली आंखें :
नही रहे मैकू / नशेड़ी से झगड़े का प्रसंग सुन 'मैकू' कहानी लिखी थी कथा सम्राट ने
वाराणसी : पाण्डेयपुर स्थित नयी बस्ती की कुम्हार पट्टी में सोमवार की सुबह कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की चर्चित कहानी मैकू के नायक मैकू ने अंतिम सांस ली। वह करीब 104 साल के थे। उन्होंने मुंशी प्रेमचंद के रामकटोरा स्थित छापेखाने में काम तो करीब दो साल ही किया किंतु इसी दौरान उनकी एक चर्चित कहानी का नायक बनने का मौका पाने वाले सौभाग्यशाली बन गये। मुंशी जी के निधन के बाद करीब तीन दशक तक मैकू ने इलाहाबाद स्थानांतरित हो चुके सरस्वती प्रेस और हंस प्रकाशन में काम किया। इसके बाद वह पाण्डेयपुर में अपने चार बेटों के संयुक्त परिवार के साथ रह रहे थे। बेटों का परिवार अपने पारंपरिक धंधे में है। सभी मिट्टी के कुल्हड़ और घड़ा आदि बनाने के काम करते हैं। उनके बड़े बेटे का निधन हो चुका है। ज्ञातव्य है कि मैकू की लंबे समय की गुमनामी करीब चार साल पहले तब टूटी जब दैनिक जागरण ने 27 अप्रैल 2007 को विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की। इसके बाद तो वह प्रेमचंद साहित्य के प्रेमियों के आकर्षण का केंद्र ही बन गये। मैकू के पुत्र कैलाश प्रजापति ने बताया कि वह लंबे समय से देख पाने में असमर्थ थे किंतु हमेशा मुंशी प्रेमचंद के बारे में बताते रहते थे। उन्हें उनकी अधिकतर कहानियां याद थीं। मैकू की प्रेमचंद से पहली मुलाकात 1934 में लमही गांव में तब हुई थी जब वह बेरोजगार युवक थे और उसी गांव में स्थित अपनी बहन की ससुराल गये थे। प्रेमचंद ने उन्हें अपने छापेखाने में काम दिया था। पाण्डेयपुर से रामकटोरा डयूटी करने आने के क्रम में ही एक बार मैकू का चौकाघाट स्थित ताड़ीखाने के पास एक नशेड़ी से झगड़ा हो गया। लठैत मैकू ने उसे धूल चटा दी। छापेखाने में आकर उन्होंने प्रेमचंद से इसकी चर्चा की। इसके कुछ समय बाद अचानक उन्हें हंस पत्रिका में अपने नाम के ही शीर्षक वाली मैकू कहानी दिख गयी। यह नशा-मुक्ति पर लिखी प्रेमचंद की एक अमर कथा-कृति है।
बेहतरीन संस्मरण. गांधी जी ने अहिंसक आंदोलन चलाकर लोगों को अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध करने के लिए घर से बाहर निकाला. उसी में से लाखों मैकू पैदा हुए... जिन्होंने अपने तरीके से प्रतिरोध करना शुरू कर दिया. शायद इसीलिए जब विश्व युद्ध से परेशान ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने गाँधी से विरोध और हो रही हिंसा को रोकने के लिए अपील करने को कहा और गाँधी ने यह कहते हुए अपील जारी करने से इनकार कर दिया कि यह अंग्रेजी शोषण का परिणाम है तो चर्चिल ने कहा कि गाँधी हिंसक...(और पता नहीं क्या-क्या कहा) हैं :)
जवाब देंहटाएंजी, सत्येन्द्र जी... गांधी जी ने इस देश को राजनीतिक रूप से जागृत तो कर ही दिया था... प्रेमचंद की 'मैकू' कहानी इसकी गवाही देती है...
जवाब देंहटाएंश्रद्धांजलि !
जवाब देंहटाएंश्यामल जी! आपकी इस पोस्ट से को पढकर आनंद आ गया। मैकू अपने पूरे परिवेश के साथ सामने खडा दिखाई देने लगा। आपके गद्य की शैली और प्रवाह लाज़वाब है। साझा करने के लिए आभार और साधुवाद! मैकू को श्रद्धांजलि
जवाब देंहटाएंआभार बंधुवर नवनीत पाण्डे जी...
जवाब देंहटाएंप्रेम्चन्द के एक प्रसिद्ध पात्र के पीछे छिपे व्यक्ति से परिचय कराने का धन्यवाद! ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे!
जवाब देंहटाएंभाई मैकू जी को विनम्र श्रद्धांजलि |इतनी महत्वपूर्ण जानकारी देने के लिए आभार
जवाब देंहटाएंआभार बंधुवर जयकृणराय तुषार जी और स्मार्ट इंडियन जी...
जवाब देंहटाएंबेहतरीन श्यामल जी, मैकू आस पास खड़ा हुआ ही महसूस हो रहा है, कथा सम्राट ने उसे व्यक्ति से व्यक्तित्त्व बनाया था, आपने उसे याद कराकर कथा जगत पर अहसान ही किया है...धन्यवाद इस पोस्ट के लिए . श्रद्धांजलि अमर पात्र को
जवाब देंहटाएंऔर हाँ एक निवेदन करना चाहूँगा अगर हो सके तो ब्लॉग कमेन्ट में से शब्द पुष्टिकरण वाला प्रोसेस हटा दें, थोडा यूजर फ्रेंडली हो जायेगा...
आभार संजीव जी, आपकी सद्भावनाएं ही मेरी ताक़त हैं मित्र...
जवाब देंहटाएंहां, मित्र ... यह शब्द-पुष्टिकरण बाधक अधिक है, इसे हटाने का प्रयास करता हूं...
आपका धन्यवाद...हम लोग तो आजतक मैकू को एक चरित्र ही मानते आये हैं...आप का आभार सचमुच के मैकू से परिचय कराने के लिए...मैकू दादा को श्रधांजलि..मुंशी जी की कलम से निकला चरित्र अब हमारे बीच नहीं रहा...विश्वास नहीं होता...बन्धु आपके और सविता जी के व्यक्तिगत और सराहनिए प्रयास के लिए बधाई..आप लोग निश्चित तौर पर सच्चे साहित्य प्रेमी हैं...
जवाब देंहटाएंबंधुवर विवेक सहाय जी, सद्भावनाओं के लिए हार्दिक आभार...
जवाब देंहटाएंप्रेमचन्द के अनेक पात्रों के बीच 'मैकू' मेरा पसंदीदा पात्र रहा है। आपके द्वारा लिखे गये इस संस्मरण ने सचमुच आँखें गीली कर दीं। प्रेमचन्द किस कदर अपने आस-पास में घुले-मिले थे और कितने समर्थ कथाकार थे, 'मैकू' इसका सजीव उदाहरण है। कथापात्र मैकू तो अमर है। देहधारी 'मैकू'को विनम्र श्रद्धांजलि।
जवाब देंहटाएंbahut sundar sansmaran hai. isase maiku ke bare main hi nahin premchand ki rachana prakriya ke bare main janane ko mila. ek kahani maiku par premchand ne likhi dusari aapane likh di .badhai.
जवाब देंहटाएंसद्भावनाओं के लिए आभार बंधुवर महेश पुनेठा जी...
जवाब देंहटाएंबंधुवर बलराम अग्रवाल जी, आपने सही कहा है... प्रेमचंद अपने परिवेश से किस क़दर घुले-मिले थे, सचमुच इसका निकट अहसास मुझे हर उस बार हुआ जब-जब मैं मैकू जी से पास पहुंचा... बनारस के पांडेयपुर की कुम्हारबस्ती में तो मुझे सर्वत्र प्रेमचंद की भाव-उपस्थिति आज भी महसूस होती है... कभी आयें तो साथ चलकर देखा-महसूसा जायेगा...
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