विचार के क्रम में पहला नाम राजकमल प्रकाशन का सामने आया और दो-चार दिनों के भीतर पांडुलिपि रवाना कर मैंने राहत की सांस ली। न कहीं कोई खास संपर्क न भाग-दौड़ की ज़रा भी गुंजाइश लेकिन सुखद आश्चर्य यह कि किताब स्वीकृत हो गयी और कुछ ही समय बाद छपकर सामने भी आ गयी। सही अर्थों में प्रकाशन... जैसे छोटे से आंगन का पुराना अंधेरा तार-तार कर प्रकाश छा गया हो... 'धपेल' की चर्चा ऐसी कि लगातार कहीं न कहीं कुछ छपने की सूचना आने लगी... 'रविवारहिन्दी' के मॉडरेटर आलोक पुतुल तब 'अक्षर पर्व' के संपादक थे, उन्होंने 'धपेल' लिखे जाने की कहानी लिखने को कहा... बड़ी दुविधा पैदा हुई लेकिन यह एक उचित अवसर भी महसूस हुआ धरती के उस खंड ( पलामू ) की व्यथा को सीधे-सीधे बयान करने का, जहां अकाल की रिपोर्टिंग करने गये एक पत्रकार की आहत संवेदना उपन्यास बनकर सामने आने को विवश हुई थी... आलोक पुतुल ने यह 'धपेल लिखने की कहानी' पुस्तक-समीक्षा के साथ ही प्रकाशित की...
एक किताब की वर्षगांठ : एक तरफ इकलौती इकाई और दूसरी ओर तीन... ऐसे में पलड़ा तो इकलौते का ही उधियायेगा न... वह इकलौता व्यक्ति भले ही मुक़ाबिल 'तीन' में से एक का पति और दो का पिता ही क्यों न हो। तो, यहां अब से कुछ देर पहले ऐसा ही घटित हुआ। घर में कई दिनों से मेरे बच्चों की मां यानि कथाकार सविता सिंह ने यह चर्चा छेड़ रखी थी कि 'धपेल' ( पलामू के अकाल पर आधारित उपन्यास : राजकमल प्रकाशन : 1998 ) के प्रकाशन की वर्षगांठ मनायी जानी चाहिए। फेसबुक के संगी ( बड़े पुत्र, कक्षा दस के छात्र ) तृषांत सिंह और मेरे ब्लॉग ( श्यामबिहारीश्यामल.ब्लॉगस्पॉट.कॉम) व साइट ( लिखंत-पढ़ंत ) के निर्माता छोटे पुत्र ( कक्षा छह के छात्र ) निरंजनदेव सिंह अचानक सुबह-सुबह उत्साह में इसलिए आ गये क्योंकि उनकी स्कूल वाली गाड़ी आज आयी नहीं। सविता जी ने मेरी लापरवाही व आलस की कथा बच्चों को सुनाई कि कैसे 'धपेल' उपन्यास धनबाद के दैनिक आवाज में करीब दो साल धारावाहिक छपने के बाद 'गायब' था। 1995 में शादी के बाद वह आयीं और खोजने लगीं तो कमरे में दो-चार अंशों के पन्ने जहां-तहां जैसे-तैसे बिखरे मिले। उन्होंने शादी से पहले कुछ अंश पढ़ रखे थे। अखबार के दफ्तर में इसे पूरा खोज पाना तत्काल संभव न था। एक दिन पड़ोस के साहित्यिक संगी ( धनबाद के तत्कालीन डिप्टी कलेक्टर ) शिवदेव सिंह के यहां जाना हुआ था। सविता जी ने अपनी यहं चिंता वहां व्यक्त की। इस पर श्रीमती सिंह ने जो सूचना दी, वह सुखद थी। शिवदेव जी के यहां सारे अंशों की कतरनों की पूरी फाइल सुरक्षित थी। अब क्या था, सविता जी ने इसे लाकर पहले पढ़ा और छपाने की धुन पकड़ ली। अख़बार के आदमी के पास समय कहां... धन भी जुगाड़ना मुश्कि़ल... अंतत: तय हुआ कि यह किसी प्रकाशक के हवाले कर दिया जाये। मुझे भी लगा कि किसी तरह यह बवाल यहां से तो टले... विचार के क्रम में पहला नाम राजकमल प्रकाशन का सामने आया और दो-चार दिनों के भीतर पांडुलिपि रवाना कर मैंने राहत की सांस ली। न कहीं कोई खास संपर्क न भाग-दौड़ की ज़रा भी गुंजाइश लेकिन सुखद आश्चर्य यह कि किताब स्वीकृत हो गयी और कुछ ही समय बाद छपकर सामने भी आ गयी। सही अर्थों में प्रकाशन... जैसे छोटे से आंगन का पुराना अंधेरा तार-तार कर प्रकाश छा गया हो... 'धपेल' की चर्चा ऐसी कि लगातार कहीं न कहीं कुछ छपने की सूचना आने लगी... 'रविवारहिन्दी' के मॉडरेटर आलोक पुतुल तब 'अक्षर पर्व' के संपादक थे, उन्होंने 'धपेल' लिखे जाने की कहानी लिखने को कहा... बड़ी दुविधा पैदा हुई लेकिन यह एक उचित अवसर भी महसूस हुआ धरती के उस खंड ( पलामू ) की व्यथा को सीधे-सीधे बयान करने का, जहां अकाल की रिपोर्टिंग करने गये एक पत्रकार की आहत संवेदना उपन्यास बनकर सामने आने को विवश हुई थी... आलोक पुतुल ने यह 'धपेल लिखने की कहानी' पुस्तक-समीक्षा के साथ ही प्रकाशित की... ज्योतिष जोशी, अरविंद त्रिपाठी ( श्रीकांत वर्मा रचनावली के संपादक ) देवशंकर नवीन और राकेश रेणु से लेकर नामवर जी ( दूरदर्शन पर ), यानि नये से लेकर पुराने तक, समीक्षकों ने इसकी खूब ख़ैर-ख़बर ली। किसी अदना-अनाम लेखक के लिए यह सब किसी कल्पित कथानक के अचानक साकार होने जैसा ही तो था... मूल बात यह कि यह सब तभी संभव हुआ जब किताब छप सकी और ज़ाहिरन यह इसीलिए मुमकिन हुआ क्योंकि घर में कथाकार सविता सिंह आयीं वरना बिखरे धपेल को खोजना-जोड़ना भला संभव कहां था...
धपेल को याद करते हुये आपने मुझे याद किया, भला लगा. असल में धपेल चौंकाने वाली किताब थी. इसलिये उस पर आपकी रचना प्रक्रिया जानना लगा था.मुझे अगर ठीक याद है, रोहिणी अग्रवाल जी ने उस पर लिखा था. है न ! उस उपन्यास की रचना प्रक्रिया को इस ब्लाग पर चस्पा करना चाहिये.
आपके लेखन की पैनी धार सचमुच सराहनीय है ,,,इसे बनाए रखे...दुनिया आज भी अच्छे लेखन की दीवानी है
जवाब देंहटाएंधपेल को याद करते हुये आपने मुझे याद किया, भला लगा. असल में धपेल चौंकाने वाली किताब थी. इसलिये उस पर आपकी रचना प्रक्रिया जानना लगा था.मुझे अगर ठीक याद है, रोहिणी अग्रवाल जी ने उस पर लिखा था. है न ! उस उपन्यास की रचना प्रक्रिया को इस ब्लाग पर चस्पा करना चाहिये.
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