चारों क्रांतिकारी भाइयों के साथ उनकी दो बहनों ने भी अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जंग में योगदान व बलिदान किया है, जो पूरी कहानी ही जैसे खून व आंसू से निर्मित हुई हो! भुजंग आरत ने यह आख्यान आज से कोई छह-सात दशक पहले अर्थात पिछली शताब्दी में पचास के दशक के काल-खंड में रचा है। आदिवासी महानायक तिलकामांझी पर राकेश कुमार सिंह का उपन्यास 'हूल पहाड़िया' यहां उल्लेखनीय है जिसका हाल ही दूसरा संस्करण (ज्ञानपीठ) आया है ।
सार्थक विचार और अभियानी सोच का सम्मान
श्याम बिहारी श्यामल
शरण कुमार लिम्बाले के लेखन ने इतिहास के उपेक्षित दलित-आदिवासी
योद्धाओं को नए सिरे से नायकत्व दिया है जिसे एक महत्वपूर्ण योगदान के रूप में स्वीकार किया जाना सुखद व स्वागतेय है! लिम्बाले के उपन्यास 'सनातन' के लिए इस वर्ष के प्रतिष्ठित सरस्वती सम्मान की घोषणा इसी बात का संकेत है कि भारतीय समाज के सांस्थानिक विचारक तबकों ने भी इस प्रयास की अहमियत को गहराई से समझना शुरू कर दिया है!
शरण कुमार लिम्बाले के लेखन ने इतिहास के उपेक्षित दलित-आदिवासी
योद्धाओं को नए सिरे से नायकत्व दिया है जिसे एक महत्वपूर्ण योगदान के रूप में स्वीकार किया जाना सुखद व स्वागतेय है! लिम्बाले के उपन्यास 'सनातन' के लिए इस वर्ष के प्रतिष्ठित सरस्वती सम्मान की घोषणा इसी बात का संकेत है कि भारतीय समाज के सांस्थानिक विचारक तबकों ने भी इस प्रयास की अहमियत को गहराई से समझना शुरू कर दिया है!
उपन्यास 'सनातन' का हिंदी अनुवाद 'वाणी' से आ चुका है लेकिन अभी तक उसे पढ़ने का मौका तो नहीं मिला लेकिन सरस्वती सम्मान की घोषणा के बाद एक न्यूज़ पोर्टल( 'जनज्वार' ) पर लिम्बाले का ताज़ा इंटरव्यू देखा। उनके कथनों से अंदाज़ा यही लगा कि 'सनातन' में उन्होंने इतिहास के दलित-आदिवासी योद्धाओं के योगदानों को केंद्रीयता के साथ चित्रित किया है और उन्हें नायकत्व प्रदान किया है!
इंटरव्यू में लिम्बाले ने कहा है कि स्वतंत्रता संग्राम के नायकों में झांसी की रानी लक्ष्मी बाई और मंगल पांडेय की तरह दलित-आदिवासी योद्धाओं को इतिहास में नायकत्व नहीं मिला है! उनका कथन मराठी भाषा-समाज के परिप्रेक्ष्य में कितना सटीक है, यह तो संबंधित जानकार ही बता सकते हैं लेकिन हिंदी या समग्र भारतीय भाषा-समाज की स्थिति एकदम ऐसी ही कदापि नहीं है।
सत्तर के दशक में तत्कालीन बिहार और अब झारखंड के ज़िले पलामू में जिलाधिकारी (उपायुक्त) बनकर पहुंचे डॉ. कुमार सुरेश सिंह ने आदिवासी योद्धा बिरसा मुंडा को लेकर दस्तावेज़ों में शोध-संधान पहली बार शुरू किया था। उनके ही प्रयासों से अंग्रेजों के ख़िलाफ़ बिरसा मुंडा के अभूतपूर्व क्रांतिकारी अभियान 'उलगुलान' का विवरण सबसे पहले सामने आया।
डॉ. सिंह के शोध ने बताया कि 'उलगुलान' आंदोलन ने तत्कालीन बंगाल के उक्त हिस्से छोटानागपुर में अंग्रेज़ों के पांव उखाड़ कर रख दिए थे! आततायी अंग्रेज़ी सत्ता ने छल-छद्म कर अंतत: बिरसा की जान ले ली। कहा जाता है, उन्हें ज़हर देकर मारा गया! डॉ. सिंह के शोध संबंधी कार्यों की इतिहास जगत में बहुत प्रतिष्ठा रही है। उनकी क़िताबें ऑक्सफ़ोर्ड से भी छपी हैं। बिरसा पर उनकी खोज ने भी इतिहास-जगत का ध्यान खींचा। इस तरह बिरसा मुंडा का योगदान दुनिया के सामने आया।
स्वतंत्रता संग्राम में महान योगदान देने वाले बिरसा ही नहीं, जतरा, नीलाम्बर-पीताम्बर आदि आदिवासी महानायक कोई आधी शताब्दी पहले से झारखंड के समाज में घर-घर पूजित हैं! बिरसा मुंडा को तो अब बा-क़ायदा 'बिरसा भगवान' की मान्यता प्राप्त है। झारखंड अलग राज्य बनने के बाद प्रदेश का शायद ही कोई ऐसा प्रमुख शहर या स्थान हो, जहां के मुख्य चौराहे पर बिरसा मुंडा की 'उलगुलान' वाली विद्रोही मुद्रा में प्रतिमा न स्थापित की गई हो!
इन आदिवासी योद्धा नायकों के महान योगदानों पर दशकों पहले बांग्ला की महाश्वेता देवी से लेकर हिंदी तक के आधा दर्जन लेखकों ने साहित्य रचा है! महाश्वेता भारतीय साहित्य के सर्वोच्च ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका हैं। उनके प्रसिद्ध उपन्यास 'जंगल के दावेदार' में बिरसा को ही अविस्मरणीय नायकत्व प्रदान किया गया है!
इस क्रम में संताल के लेखक भुजंग आरत द्वारा 1855 के 'हूल विद्रोह' पर लिखे उपन्यास 'चिनगारी' की चर्चा यहां अनिवार्य है, जो आदिवासी महानायक चार भाइयों सिदो, कानू, चांद व भैरव के महान संघर्ष-बलिदान की गाथा है। चारों क्रांतिकारी भाइयों के साथ उनकी दो बहनों ने भी अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जंग में योगदान व बलिदान किया है, जो पूरी कहानी ही जैसे खून व आंसू से निर्मित हुई हो! भुजंग आरत ने यह आख्यान आज से कोई छह-सात दशक पहले अर्थात पिछली शताब्दी में पचास के दशक के काल-खंड में रचा है।
आदिवासी महानायक तिलकामांझी पर राकेश कुमार सिंह का उपन्यास 'हूल पहाड़िया' यहां विशेष उल्लेखनीय है जिसका हाल ही दूसरा संस्करण (ज्ञानपीठ) आया है ।
तत्काल यह सारा विवरण सामने रख देने का लक्ष्य लिम्बाले के स्वर को बल ही प्रदान करना और उन्हें यह अवगत कराना भी है कि भारतीय साहित्य के हमारे अग्रज से लेकर समकालीन पीढ़ी तक के साहित्यकारों को भी यह दंश व दायित्व-बोध रहा है, जिसके परिप्रेक्ष्य में उन्होंने अपनी भूमिका का भरसक निर्वहन किया और आज भी कर रहे हैं, जो अमूल्य है!
बहरहाल, लिम्बाले को मिला यह सम्मान सम्पूर्ण साहित्य समाज के लिए गर्व और प्रसन्नता का अनुभव दे रहा है, उन्हें अनौपचारिक हार्दिक आदरपूर्ण बधाई और अशेष शुभकामनाएं। (7311192852)
( Shyambiharishyamal1965@gmail.com )
जानकारीपरक पोस्ट।
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