इसे भी एक सुखद संयोग ही कहेंगे कि बड़े पुत्र तृषांत मेरे लिए ब्लॉग बनाने के उद्यम में कई रोज से लगे थे किंतु यह ऐन नववर्ष की पूर्व संध्या पर संभव हुआ। आज वर्ष के पहले दिन इस पर लिखने की तरह लिखना संभव हो रहा है। सोने पे सुहागा वाला मुहावरा तब थोड़े बदलाव के साथ यानी ‘सुहागे पर सोना’ के रूप में सच साबित हुआ जब देरशाम छोटे पुत्र निरंजन देव सिंह अपने टेकनिकल एजुकेशनल संस्थान से गले में लाल रीबन से गोल्ड मेडल लटकाये घर लौटे। उन्होंने यह मेडल सेमिनार में अपनी वक्तृता के बल पर जीता है! तो, इस तरह नव वर्ष का सुखद आरंभ।
0 मौजूदा तकनीकी स्वर्णयुग का सुख असंख्य लोग भांति-भांति से उठा रहे होंगे। मुझे भी अपने समय-सुविधा का आभार मानना चाहिए। अखबारी नौकरी की अत्यंत ध्वस्त दिनचर्या में यह कम्प्यूटर ही है जिसके बूते मैं कुछ पंक्तियां बुन पा रहा हूं। अन्यथा बार-बार काट-कूट करने और जरा भी कटम कुट्टी होने पर पन्ना बदलने की लत ऐसी कि मेरे लिए कुछ भी लिख लेना काफी कठिन रहा है। खुद ही सोचकर आश्चर्य होता है कि अखबार में ही काम करते हुए मैंने धपेल और अग्निपुरुष उपन्यास कैसे पूरे किये! बहरहाल , कंप्यूटर-सुविधा से ही यह संभव हुआ कि महाकवि जयशंकर प्रसाद पर उपन्यास लिखने की अपनी जिद मैं पूरी कर पाया। बम्बई से छपने वाली साहित्य की पुरानी लोकप्रिय पत्रिका नवनीत में मई 2010 से शुरू होकर यह फिलहाल धारावाहिक छप रहा है। इस नाते यह तो स्पष्ट है कि यह उपन्यास बेशक पूरा हो चुका है किंतु अपनी वही जोड़-घटाव वाली बीमारी! मैं नवनीत के संपादक श्री विश्वनाथ सचदेव का यह आभार आजीवन ढोने को बाध्य हूं कि उनका जबरदस्त दबाव न होता तो कंथा को पूरा करने में मैं अभी कुछ वर्ष और सोख लेता! इसके बावजूद उनके फोन आते रहते और मैं कभी उपन्यास के आरंभ के हिस्से को दर्जनवीं बार तो कभी किसी प्रसंगविशेष के विवरण को डेढ़ दर्जनवीं बार खोदता-खुरचता रहता। तकादे का डंडा लिये एक संपादक- आलोचक यानी कथाकार सविता सिंह भी तो जाहिरन घर में हर क्षण हाजिर- ‘आप इस उपन्यास को कब तक लटकाये रखेंगे!‘ ‘’आप इसे पूरा नहीं होने देंगे!’... ‘जब सबकी जिज्ञासा समाप्त हो जायेगी तब किताब आकर क्या होगा’!... आदि-आदि वक्तव्यों के साथ। बहरहाल विश्वनाथ जी के डर ने उपन्यास को पूरा तो करा दिया। इस बीच मुझे कुछ अन्य डाक्यूमेंट एवं सूचनाओं ने मेरा काम बढ़ा दिया। इनके आधार पर इसमें जोड़-घटाव का नया अवसर हाथ आ गया। यह काम साल भर से फंसा हुआ है। नियमित तकादा ठोंकने वालों में एक नाम समकालीन हिन्दी कविता के सशक्त हस्ताक्षर संतोष कुमार चतुर्वेदी का भी है। यहां फिर तकनीक-सुख का आभार मानूं कि जेबी फोन की बदौलत संतोष से सुबह-शाम संपर्क हो ही जाता है। उनकी किसी ताजा रचना से कभी हमारा दिन शुरू होता है तो कभी शाम में रंग-स्वाद भरता है। इसे सुखद संयोग ही कहें कि विगत दो-तीन साल से मुझे संतोष की ताजा रचनाओं का प्रथम या लगभग प्रथम श्रोता होने का अवसर लगातार मिल रहा है। उनकी कविताओं पर विस्तृत चर्चा फिर कभी! बहरहाल, यहां इतना कहे बगैर तो कदापि नहीं रहा जा सकता कि संतोष कुमार चतुर्वेदी की कविताओं में समय कुछ अलग ही अंदाज में दर्ज हो रहा है। उनकी कविताओं में संकेत और व्यंजना के मुकाबले चाक्षुष दृश्य और अभिधा विवरणों की भरमार है। ऐसा उनके अन्य किसी भी समकालीन कवि में कम है। कुछ लोग भाषा की कारीगरी दिखाने में मशगूल हैं तो कुछ विमर्श और विचारों की जलेबियां छान रहे हैं! संतोष को यह किमियागिरी ज्यादा पसंद नहीं। मुझे लगता है, यह कवि की सीमा नहीं, उसकी विस्तृति है। किसी हद तक यह कविता के सरोकार को व्यापकता देने का उल्लेखनीय प्रयास भी।
नव वर्ष पर सबको बधाई और अनंत-अंतरंग शुभकामनाएं!
----- श्यामबिहारी श्यामल
01 जनवरी 2011 सुबह
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