ष्यामबिहारी ष्यामल
पता नहीं आज का हमारा नया नेटी और फेसबुकिया समाज जिसके सामने स्क्रीन पर अथाह ज्ञान-गंगा अविरल बह रही है ( और कोई भी इच्छित जानकारी एक क्लिक के साथ पलक झपकते हाजिर है या किसी भी बड़े से बड़े सख्ष से ऑनलाइन संपर्क भी चुटकी बजाते मुमकिन ) इस तथ्य को तत्कालीन समय-संदर्भ में सहजता-विष्वसनीयता से ग्रहण कर सके या नहीं! संभव है उसे अचरज-अविष्वास भी हो कि महज कोई तीन दषक पहले 1981-82 में हमारा कैषोर्य आज की पीढ़ी की तुलना में बड़ा दयनीय था। पत्रिकाएं स्टालों पर आती होंगी लेकिन हमें उपलब्ध न थीं। हमारा युवा मन कोर्स की किताबों से ही अपने भाशा-साहित्य का मानचित्र -भूगोल गढ़ रहा था। मैट्रिक में पढ़ी कविता ’मेघदूत‘ की कुछ पंक्तियों यथा ‘जनता धरती पर बैठी है नभ में मंच गड़ा है ...जो जितनी ही दूर मही से उतना वही बड़ा है’ ने तब हमें अलग से आकर्शित किया था! उसी तरह मिडिल की कक्षा में ‘जीवन का झरना’ षीर्शक कविता की ‘जीवन क्या है एक झरना है ...मस्ती ही इसका पानी है’ जैसी सहज किंतु गेय पंक्तियां भी लगातार जेहन में बनी रहीं जो आज भी कायम हैं। तो, दैनिक आर्यावर्त के साप्ताहिक परिषिश्ट के पहले ही पन्ने पर सजाकर बॉक्स में हर बार एक कविता होती। हम इसमें कोर्स की किताब में पढ़े अपने रचनाकार को व्यग्रता से खोजते। इसमें अक्सर आरसी बाबू तो दिख जाते जबकि जानकीवल्लभ षास्त्री कभी-कभार।
आरसी बाबू का हस्ताक्षर लगभग सुवाच्य होता। ‘आ’ को लपेटते और ‘र’ व ‘सी’ से गांथते-नाथते हुए बुना होने के बावजूद पूरा नाम पढ़ने में आ जाता। इसके विपरीत ‘जानकी वल्लभ षास्त्री’ हस्ताक्षर जरा-वरा नहीं, बल्कि बहुत अधिक संष्लिश्ट होता। इसे कई-कई बार पीछे लौट- लौटकर दिमाग से खोदना-खोलना पड़ता। ‘ज’ बाकायदा अर्द्धषून्य जैसा षुरू होता। इसका आकार भी ऐसा ही। बाद के सारे अक्षर और तमाम मात्राओं को भी खींचते-सोंटते हुए एकदम मनमुताबिक और कलात्मक प्रयोग। अंत में ‘षास्त्री’ की अंतिम मात्रा यानि ‘ ी’ का फणसहित उर्ध्व सर्पाकार अंकन। यह हस्ताक्षर कुछ ऐसा कि किसी को यदि उनकी संज्ञा पूर्वज्ञात न हो तो उसके लिए तत्काल यह जान पाना सर्वथा कठिन ही होता कि हस्ताक्षरित नाम है क्या! तब की हमारी सोच-समझ में दोनों की कविताओं की ग्राह्यता-बोधगम्यता का हिसाब भी कुछ इसी या ऐसे ही अनुपात-क्रम में बैठता था। आरसी बाबू की कविता पढ़कर पेपर का पेज कहीं इत्मीनान से रख दिया जाता जबकि षास्त्री जी की कविता वाला पन्ना कई दिनों तक गींजा जाता रहता। मैट्रिक में केदारनाथ मिश्र प्रभात की कविता ‘किसको नमन करूं मैं’ पढ़ी थी जबकि कॉलेज से पहले हमें नागार्जुन की कविता के दर्षन नहीं हुए थे। लिहाजा पहले तीनों नामों के प्रति गहरा आकर्शन था। मैं साहित्यकारों को खूब पत्र भेजने लगा। सबको कविता में ही लिखता। अब यह याद नहीं कि षास्त्री जी का पता कहां से मिला, एक पत्र उन्हें भी लिख भेजा छंदोबद्ध कविता में ही। उस समय आष्चर्य की सीमा नहीं रही जब उनका दो पन्ने का हस्तलिखित जवाब आ गया। अब तो उनके दर्षन की लालसा उमड़ने लगी।
हर साल गर्मियों में पिताजी के साथ डाल्टनगंज (पलामू) से गांव यानि सिताबदियारा जाना तय होता। पटना होकर छपरा और फिर रिविलगंज पहंुचकर नाव से सरयू नदी पार करके दियारा का बालुका- विस्तार नापते हुए गांव। वर्श षायद 1981 ही था। मैं 16-17 का हो रहा था। एकाध दिन आगे-पीछे गांव से मुझे अकेले पलामू लौटने की अनुमति मिल गयी थी। मैंने छपरा से पटना नहीं, मुजफ्फरपुर की बस पकड़ ली। उनका पता (एड्रेस) छोटा था किंतु ‘चतुर्भुज स्थान में निराला निकेतन’ और षास्त्री जी का नाम सुनते ही जिससे पूछा जाता, वह सजगता और सम्मान से भरकर रास्ता बताने लगता। रिक्षावाले को कोई दिक्कत नहीं हुई। वहां बड़ा-सा गेट, विस्तृत परिसर आदि देख पहले थोड़ी झिझक हुई किंतु यह कुछ ही देर में खत्म हो गयी। परिसर के किसी छात्र-निवासी ने मुझे श्रीमती छाया देवी यानि श्रीमती षास्त्री से मिलवा दिया। उन्होंने मेरा नाम-पता भीतर जाकर बताया तो षास्त्री जी ने वहीं से ऐसे हांक लगायी जैसे मुझे वर्शों से जानते-पहचानते हों। मैं सामने पहुंचा तो मेरी कृषकाया और कमउम्री देख वह चकित रह गये! सोच में पड़ गये कि मैं इतनी दूर से यहां अकेले क्यों और कैसे आ गया! वह पत्नी को ‘बड़े भाई’ कहकर संबोधित करते। बोले, ‘‘...बड़े भाई! यह बच्चा कविता-प्रेम में यहां आ तो गया अब इसे सकुषल इसके घर कैसे भिजवाऊं ? ’’ उन्होंने हंसकर ही किंतु कुछ झुंझलाहट के साथ उन्हें अनावष्यक चिंता न करने की सलाह दी और मेरे समझदार होने का भरोसा भी। यह निकेतन नाम का ही नहीं बल्कि सही अर्थों में निराला! कुते-बिल्लयों का झुंड का झुंड। मुझे तब अधिक असुविधा होने लगती जब वे एक साथ कई की संख्या में आकर सूंघने-छूने को उद्धत हो उठते। मुझे ऊपर के बड़े कमरे में स्थान मिल गया था। कुते-बिल्लियों का पूरे घर में स्वतंत्रतापूर्वक विचरण होता। षास्त्री जी की देह पर तो वे दिन-रात लोटा करते। रात में अक्सर कोई न कोई ऐसा प्रेमी-जीव ही मेरी नींद टूट जाने की भी वजह होता।
षास्त्री जी संस्कृत के आचार्य किंतु दिनचर्या सर्वथा भिन्न। कोई सख्त स्नान-ध्यान या लंबा-चौड़ा पूजा-पाठ का क्रम नहीं। सुबह-षाम परिसर में घर के सामने स्थित पितृमंदिर में पिताश्री की प्रतिमा के आगे एक दीपक रखना और निराला तथा पृथ्वीराज कपूर समेत इसी त्रिमूर्ति का स्मरण-नमन! बस! परिसर में कुते-बिल्लयों और गायों ही नहीं छोटे-बड़े पेड़-पौधों पर पक्षियों का भी एक पूरा आबाद कुनबा। परिसर में सिंचित होतीं क्यारियां, हरी-भरी और फूली-फली हुईं। सबकी महसूस होने वाली उपस्थिति, सबका बोलता-गूंजता हुआ-सा प्रभाव। और, सबकी प्रत्यक्ष दिनचर्या में षास्त्री जी की सीधी भागीदारी। ऐसा माहौल, ऐसा व्यक्तित्व और ऐसी उपस्थिति फिर कहीं और देखने को नहीं मिले।
...तो, मैं पूरी तैयारी में था। वहीं टेपरिकार्डर भी इंतजाम हो गया। एक अतिरिक्त ब्लैंककैसेट ले आने के बाद पांच-छह दिनों तक टुकड़े- टुकड़े में उनका इंटरव्यू रिकार्ड करता रहा। बीच-बीच में वह किसी सवाल पर नाराज भी हो जाते किंतु बेरुखी के साथ किसी गैर की तरह नहीं बल्कि घर के बुजुर्ग जैसे! सामने वाले के बचपना पर मुस्कुराते-झुंझलाते हुए-से। जोर से बोलते, ‘‘...बड़े भाई! ...लोग मेरे कंठ से मेरे गीत सुनने को बेचैन रहते हैं ...यह कैसा सिरफिरा बालक आ गया है जो सामने टेपरिकार्डर रख दे रहा है और उल्टे-सीधे सवाल पर सवाल दागे जा रहा है! ’’ छाया देवी सामने आ जातीं। हंसती हुईं मुझे और उन्हें ताकती रहतीं। यही इंटरव्यू बाद में विशयवार टुकड़ों में बंटकर कई पत्रिकाओं में छपा जिसका सबसे बड़ा अंष कई साल बाद ‘आजकल’ के ‘बिहार विषेशांक’ में छपा था। इससे पहले पटना में रचनाकार-साथी भगवती प्रसाद द्विवेदी के यहां एक-दो दिन के प्रवास में यह कई मित्रों के यहां धुंआधार सुना गया। षास्त्री जी का कंठ ही नहीं, बोलने का अंदाज भी ऐसा कि एक-एक षब्द का उनका उच्चारण तक मन में तरंगें भर देने वाला। सुनने वालों ने इसे खूब सराहा, आज भी सबको यह प्रसंग याद होगा। आज षास्त्री जी के निधन का समाचार जानने के बाद वह पूरा दृष्य जीवंत हो उठा है। बाद की मुलाकातों के तो कुछ-कुछ अंष ही स्मारित हो रहे हैं जबकि पता नहीं क्यों प्रथम दर्षन का वह पूरा खंड दृष्यबद्ध हो जैसे आंखों के सामने चल रहा हो! उन्हें अश्रुपूरित श्रद्धांजलि!
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