जानकीवल्लभ का मूल्यांकन करेगा समय
श्यामबिहारी श्यामल
(‘बिदेसिया’ ब्लॉग पर 23 मई 2011 को संस्मरण पढ़कर लिखी टिप्पणी जो
लंबी होने के कारण वहां ‘कमेंट’ में पूरी समा नहीं सकी )
अपनी व्यष्टि-रचना में भी वह वस्तुतः मूलतः और अंततः या पूर्णतः सिर्फ रचनाकार थे! उनके व्यक्तित्व के जितने भी पहलू समझे जा सकते थे, सब के सब सामान्य से अलग किंतु अंततः सारे रूप एक रचनाकार जैसे। उनके हर रूप के आगे ‘रचनाकार’ लगाये बिना काम चलना मुश्किल। उन्होंने जिस तरह साहित्य के चलते फैशन-फसाने को पसंद नहीं किया तो सीधे नकार कर भी दिखाया और बाकायदा अपने ही मन-मिजाज का भिन्न साहित्य रचा, यह साहस कोई आला सर्जक ही दिखा सकता था!
महाकवि जानकीवल्लभ शास्त्री का मूल्यांकन हिन्दी आलोचना पर ऐसा लम्बित ऋण है जो चक्रवृद्धि ब्याज की गति से बढ़ रहा है। उन्होंने जितना विपुल और अर्थवान साहित्य रचा है इसका समालोचन वायुयान-यात्रा के लती किसी व्यस्ततम सेलिब्रिटी, उड़ते-उधियाते और मंचों का तासीर देख रंग बदल -बदलकर भांति-भांति के स्वर निकालते या गाल बजाते धंधेबाज आलोचक के वश की बात तो कदापि नहीं। महाकवि भवभूति के विख्यात कथन के भाव उधार लेकर यही कहा जा सकता है कि कभी न कभी कोई ऐसा सामर्थ्यवान एकांत- साधक आलोचक जरूर आयेगा जो जानकीवल्लभ शास्त्री-साहित्य का मोल-मर्म समझेगा और अपना लंबा काल खंड व्यय कर इसकी समुचित व्याख्या या सम्यक् आलोचन का बड़ा कार्य सम्पन्न करेगा!
...मैं वर्षों से उनके दर्शन से वंचित था। छोटी-सी अखबारी नौकरी और रोटी की दैनंदिन लड़ाई का असीम व्यास-विस्तार। बहुत चाहने के बावजूद दो-चार दिन भी निकाल पाना मुश्किल रहता है। यहां बनारस में महाकवि जयशंकर प्रसाद के प्रपौत्र महाशंकर प्रसाद के साथ इधर दो-ढाई वर्षों से मुजफ्फरपुर चलने का कार्यक्रम भी बनता और टलता रहा। क्या कहें! यह मलाल जीवन भर सालता रहेगा कि इस बीच...!
...आपका संस्मरण और यह साक्षात्कार पढ़कर लगा जैसे जानकीवल्लभ शास्त्री सामने बैठे हुए हों और उनका मुझी से संवाद चल रहा हो! अभिभूत हूं! यह दृश्य सामने से हट ही नहीं रहा। सुबह के हिमालय जैसी उनकी वही चमकती चिरपरिचित मुस्कान-मुद्रा... वही उन्मुक्त स्वागत-स्नेह, उम्र और वरिष्ठता-कनिष्ठता को भूसे की तरह उड़ा देने वाली वही हंसी-ठिठोली, घर में जरा-सी बहक या प्रतिकूलता पर सजग-सलीकेदार बुजुर्ग जैसी वही-वही झिड़की-तुनक, समाज-साहित्य की गति पर बोलते हुए वही युग-चिंता, वही सारे संलाप...! आपने इसे लिखा भी है बहुत जीवंत, बल्कि सीधे-सीधे सवाक् और गतिपूर्ण चित्रांकन जैसा। आप अपनी तस्वीर कहीं दिखायें। इच्छा हो रही है कि उस सौभाग्यशाली व्यक्ति को यथाशीघ्र देखूं, अंतिम दिनों में महाकवि ने जिसे ‘निराला’ नाम जानकर अपना गुरु कहा था और अद्भुत किंतु कभी न भूलने वाली स्नेहसिक्त ठिठोली की थी!
किसी समय में, शायद 1982 में मैंने भी मुजफ्फरपुर पहुंचकर उनसे मुलाकात की थी। ‘निराला निकेतन’ में कई दिनों तक रुककर उनका सविस्तार साक्षात्कार लिया था। यह उन्हीें दिनों प्रमुख पत्रिकाओं में विषयवार दर्जनाधिक टुकड़ों में छपता रहा। बाद में भी उनसे मिलने पहुंचता रहा, लेकिन नौकरी में जुतने और धीरे-धीरे इसके गहरे दायित्व-जाल में पूर्णतः उलझ चुकने के बाद वर्षों पहले ही यह सिलसिला लगभग बंद हो गया! वैसे, गर्व है कि मुझे उनका अनंत स्नेह मिला। इतना कि कोई भी व्यक्ति जब भी पलामू से उनके पास पहुंचता तो वह ‘श्यामल का पलामू?’ कहकर सवाल पर सवाल करने लगते! यह कि वह मुझे जानता है या नहीं! ‘हां’ तो क्या! अथवा, यदि ‘नहीं’ तो क्यों! आदि-आदि जैसे प्रश्न और इसके बाद मेरे बारे में कुछ स्नेह-शब्द।
पिछले तीन दशकों के दौरान हिन्दी साहित्य के किस बड़े से बड़े रचनाकार से मैंने मुलाकात नहीं की किंतु उन जैसा व्यक्तित्व कहीं दूसरा नहीं दिखा। अपनी व्यष्टि-रचना में भी वह वस्तुतः मूलतः और अंततः या पूर्णतः सिर्फ रचनाकार थे! उनके व्यक्तित्व के जितने भी पहलू समझे जा सकते थे, सब के सब सामान्य से अलग किंतु अंततः सारे रूप एक रचनाकार जैसे। उनके हर रूप के आगे ‘रचनाकार’ लगाये बिना काम चलना मुश्किल। उन्होंने जिस तरह साहित्य के चलते फैशन-फसाने को पसंद नहीं किया तो सीधे नकार कर भी दिखाया और बाकायदा अपने ही मन-मिजाज का भिन्न साहित्य रचा, यह साहस कोई आला सर्जक ही दिखा सकता था! पिता ने गो-पालन करने, गाय कभी किसी को न देने और दूध कभी नहीं बेचने की जो बात कही थी, उसे ‘दशरथ- आदेश’ बनाकर आजीवन शिरोधार्य बनाये रख उन्होंने ‘जानकीवल्लभ’ नाम की भी नयी राम-मर्यादा स्थापित की और इसे अंतिम संास तक निभाया! क्या कोई ऐसा कहा-सुना हुआ भी दूसरा उदाहरण आपकी स्मृति में है कि किसी व्यक्ति ने एक गाय पाली हो छह-सात दशकों तक उसकी पूरी संतति के साथ अपने परिजन की तरह निभाता चला गया हो! मुनष्यों की तरह साथ रखने से लेकर अपने परिसर में ही उनका अंतिम संस्कार करने और उल्लेखपूर्वक उनकी समाधि बनवाने तक! ऐसा दृष्टांत-सृजन वाल्मीकि-शिष्य धारा का कोई विलक्षण रचनाकार ही तो संभव कर सकता था! मुजफ्फरपुर के चतुर्भुज स्थान की चटख चकाचौंध में भी अपने अलग और मौलिक रंग-सौरभ में डूबा रहने वाला व्यक्ति कोई बड़ा सिरजनहार नहीं तो और कौन होता!
वह सही अर्थों में अनूठे थे! ठीक वैसे ही जैसे उनका पद्य से लेकर गद्य तक अप्रतिम। यही विशिष्टता शायद ‘सरलता और सहजता’ के समकालीन डंका-शोर में उनकी कमी मान ली गयी! खीरा के बाजार में बड़े-बड़े तराजू और पंसेरी लिए बैठे कूपमंडूक कुंजड़ों द्वारा हीरा की अनजान-अनदेखी करने या उसका जोरदार मजाक उड़ाये जाने जैसे हालात। वैसे, इस हाट में अढ़तियों के बीच ही भरी-भरी टोकरी वाले कुछ ऐसे भी मंजे-मंजाये मंझोले अवश्य हैं जिन्हें वस्तुस्थिति का पूरा-पूरा भान-आभास है किंतु उनके साथ एक बड़ी दिक्कत है। वह यह कि जानकीवल्लभ शास्त्री पर चूंकि किसी ‘बड़े’ ने अभी कायदे से कुछ नहीं लिखा-पढ़ा, इसलिए पहले कंठ खोलने का जोखिम वह नहीं उठाना चाहते। समकालीन फैशनी धारा से कट जाने का खतरा जब सामने हो तो इसे अनदेखा कर कोई अपना कॅरियर भला क्यों भंवर में फंसाये! 94 साल तक जीवन जीकर विदा हो चुके शास्त्री जी पर पहली गोष्ठी साहित्य अकादेमी ने उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए ही आयोजित की। इसमें हिन्दी आलोचना के शिखर व्यक्तित्व डा. नामवर सिंह से लेकर अशोक वाजपेयी तक, सबने स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया कि जानकीवल्लभ का साहित्य मूल्यवान है जिसका ‘सम्मान के साथ मूल्यांकन’ होना चाहिए! इसी गोष्ठी में केदारनाथ सिंह जैसे अग्रणी कवि ने बिना लाग-लपेट के यह उन्मुक्त घोषणा की कि जानकीवल्लभ शास्त्री वस्तुतः रवीन्द्रनाथ टैगोर और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की परंपरा के अंतिम गीतकार थे! इन सबसे तो यही जाहिर हुआ कि अब तक मुंह सिले बैठे लोग भी चीजों से न तो अनभिज्ञ रहे हैं न अब भी सच्चाई को निगल-नकार पाने या डकार जाने की स्थिति में ही हैं।
यहां एक बार फिर मैं वही भवभूति-आशा व्यक्त करूं कि चाहे जब वह दिन आये, किंतु वह समय अवश्य आयेगा जब दूध का दूध और पानी का पानी किया जा सकेगा! उनके साहित्य से वाकिफ लोग जानते हैं कि जानकीवल्लभ शास्त्री हिन्दी साहित्य के बड़े शिखर हैं और आने वाले समय में इस रूप में उनकी विधिवत् प्राणप्रतिष्ठा भी होकर रहेगी! उनकी अक्षय स्मृति को सजल प्रणाम और अनंत श्रद्धांजलि!
अप्रतिम सर्जना के प्रतीक-पुरुष को विनीत स्मरण ! आपके इस आलेख से अभिभूत हूँ ! सहमत हूँ- "उन्होंने जितना विपुल और अर्थवान साहित्य रचा है इसका समालोचन वायुयान-यात्रा के लती किसी व्यस्ततम सेलिब्रिटी, उड़ते-उधियाते और मंचों का तासीर देख रंग बदल -बदलकर भांति-भांति के स्वर निकालते या गाल बजाते धंधेबाज आलोचक के वश की बात तो कदापि नहीं।"
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