प्रेमचन्द और परसाई की
परम्परा का अभिनन्दन
श्यामबिहारी श्यामल
अमरकान्त और श्रीलाल शुक्ल के नाम घोषित 45 वां ज्ञानपीठ पुरस्कार वस्तुत: हिन्दी साहित्य की उन दो महान परम्पराओं का सम्मान है जिसके प्रतीक-पुरुष क्रमश: कथा सम्राट प्रेमचन्द और व्यंग्य सम्राट हरिशंकर परसाई हैं। हिन्दी कथा साहित्य में अमरकान्त को प्रेमचन्द की परम्परा का ही सबसे मुखर संवाहक माना जाता है। उन्होंने भी वैसा ही निष्कंटक, निष्कलंक और निष्कलुष गद्य रचा है जैसा पिछली सदी के आरम्िभक दशकों में प्रेमचन्द ने। शैली-शिल्प की चमक-दमक के प्रति गाफिल किंतु कथ्य-तथ्य की प्रखरता सार्थकता और व्यंजकता अप्रतिम। बाह्य निखार के मुक़ाबले अन्तर्वस्तु प्रज्वलन का लेखकीय उद्यम।
चकित करने वाला तथ्य तो यह कि ' दोपहर का भोजन ' और ' डिप्टी कलक्टरी ' जैसी आरम्भिक चर्चित कहानियों के सृजन-काल से लेकर उपन्यास ' इन्हीं हथियारों से ' लिखने तक अमरकान्त अपनी सहजता-दृढ़ता पर अकम्प-अडोल कायम मिलते हैं। अडिग और अविचल। क्या यह सहजता-संयम सचमुच सरल योग है ? कदापि नहीं। सृजन-पथ के साथियों के लिए यह समझना कठिन नहीं कि सरलता सर्वथा एक विरल उद्यम है। वाष्पीकृत जल जैसा गद्य साध पाना निश्चय ही उच्च तापमान पर सृजन-मन के अधिकतम तापीकरण के बाद ही तो सम्भव है !
कहना न होगा कि पिछले सात दशकों का हिन्दी कथा साहित्य जहां प्रेमचन्द की ऐसी ही सृजन प्रभाव-आभा से जगमग है वहीं आधी सदी की व्यंग्य लेखन-धारा हरिशंकर परसाई की सुरमई परछाईं से नि:सृत-रंजित। यद्यपि हिन्दी व्यंग्य की धारा भी अन्य प्रमुख विधाओं की तरह भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की ही कलम से फूटी मानी जाती है। यही आधार-वस्तुतथ्य भी है किन्तु नये ढंग से व्याख्या हो तो समग्र भारतेन्दु-साहित्य का मूल स्वर व्यंग्य के रूप में ही रेखांकित हो सकता है। 'अंधेर नगरी ' देख लीजिये या ' देखी तुमरी कासी ' ही।
भारतेन्दु बाबू के लेखों पर नज़र डालिये या उनकी तात्कालिक समसामयिक पत्रकारी टिप्पणियों पर। यहां तक कि उनका विख्यात बलिया-व्याख्यान भी। उनकी हर अभिव्यक्ति-भंगिमा पर किसी न किसी मात्रा-रूप में व्यंग्य की सान-चमक चढ़ी-टंकी हुई है। उनके बाद के पीढ़ी-विस्तार का प्रतीक-रूप में रेखांकन-प्रयास हो तो हरिशंकर परसाई से पहले की युग-परिधि तक भी 'लतखोरी लाल' के सर्जक जीपी श्रीवास्तव से लेकर 'सनसनाते सपने' के रचनाकार राधाकृष्ण तक एकाधिक शिखर-छवि तो तत्काल सामने उपस्थित-परिलक्षित हैं। हालांकि आलोचना की चूक यहां भी मुखर है। इतनी गहरी जड़ों वाला व्यंग्य लेखन प्राय: अब तक विस्मय और उपहास की दशा को प्राप्त है तो सिर्फ इसी कारण कि हमारे साहित्य का मूल्यांकन पक्ष वस्तुत: पक्षाघात दशा को प्राप्त रहा है। बेशक यह आज भी ऐसा ही है, बल्कि क्रमश: बदतर गति-दिशा में ही अनियंत्रित ढुलकता-लुढ़कता चला जा रहा है।
श्रीलाल शुक्ल को ज्ञानपीठ दिये जाने के कदम से हिन्दी की उसी महान व्यंग्य-लेखन धारा को पहली बार बड़ी प्रतिष्ठा-स्वीकृति मिल रही है जो भारतेन्दु-लेखनी की गंगोत्री से फूटी है। उन्होंने वस्तुत: हिन्दी की इस महान व्यंग्य लेखन-धारा को महत्वपूर्ण दिशा ही नहीं प्रदान की बल्कि इसका पुनर्संस्कार भी किया है। वह व्यंग्य लेखन परम्परा के उन्नायक भी हैं और नवसंस्कारक भी। उनके व्यंग्य की मुद्रा सर्वथा मौलिक और गुरु-गम्भीर है। पेट में गुदगुदी जगाने वाली नहीं, कलेजे में खंजर उतार देने वाली शैली। मनोरंजक ही नही, बल्कि मनोद्वेलक और मनोमंथक भी। व्यंग्य की नयी शब्दावली। विधा का नव्यतम परिभाषा गढ़ने वाला सृजन-संसार। बड़े स्तर पर सर्वमान्यता प्राप्त करने वाले श्रीलाल शुक्ल अब हमारे सामने ऐसे पहले व्यंग्यकार के रूप में उपस्थित हैं।
उल्लेखनीय तथ्य यह भी कि 1965 में मलयालम के महान रचनाकार जी. शंकर कुरूप को प्रदान किये जाने से प्रारम्भ ज्ञानपीठ पुरस्कार हिन्दी के हिस्से पहली बार छायावाद के महान स्तम्भ सुमित्रानन्दन पंत के नाम आया था। इसके बाद 1972 में हिन्दी का दूसरा ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने वाले रामधारी सिंह दिनकर, 1978 में तीसरा पाने वाले अज्ञेय, 1982 मे चौथा पाने वाली महादेवी वर्मा और 1992 में पांचवां पाने वाले नरेश मेहता तक सभी पुरस्कृत रचनाकार अपने मूल रचना-स्वर से काव्य-सर्जक ही ठहरे।
1997 में निर्मल वर्मा को हिन्दी का छठा ज्ञानपीठ दिये जाने से यह प्रदीर्घ कवि-क्रम टूट गया। इस तरह वह पहले ज्ञानपीठ विजेता गद्यकार तो बने किंतु हिन्दी के व्यापक गद्य संसार में प्रभाव-अवगाहन व स्वीकृति की दृष्टि से प्रेरक-प्रतिनिधि व्यक्तित्व के तौर पर कभी स्वीकार नहीं किये गये। उनकी रचना-विचार-धारा स्थूल-पृथुल और कदाचित विवाद-पीडि़त ही मानी जाती रही। प्रभाव-विस्तार की दृष्टि से प्राय: सीमित और अनुसरण-अवगाहन के मामले में उत्तर-पीढि़यों द्वारा अपेक्षया अस्वीकृत भी।
इसके विपरीत प्रेमचन्द-परम्परा का उत्तर पीढि़यों पर व्यापक और बहुविध प्रभाव-विस्तार कभी किसी से छुपा नहीं रहा है। इसलिए ताजा ज्ञानपीठ पुरस्कार की पिछले दिनों घोषणा के बाद अमरकान्त अब हमारे सामने ऐसे पहले रचनाकार के रूप में उपस्थित हैं जिनके प्रेमचन्द परम्परा-संवाहक होने को उल्लेखनीय स्वीकृति मिल रही है।
ज्ञानपीठ की इस घोषणा ने पुरस्कृत अथवा सम्मानित किये जाने के निहित-अर्थ को अक्षुण्ण रखा है। आपने अपने लेख में विस्तार से इसकी चर्चा की है। श्रीयुत अमरकांत जी और श्रीलाल शुक्ल जी ज्ञानपीठ द्वारा सम्मानित किए जाने तथा ज्ञानपीठ को विवेकपूर्ण निर्णय लेने पर बधाई तथा यह लेख प्रेषित करने के लिए आपका आभार।
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