खाक़ जो हुए दरअसल चांदनी से जले हैं
श्याम बिहारी श्यामल
राह-ए-ज़िंदगी में मंज़र क्या-क्या चले हैं
गुल जिन्हें चुभे ताज़िंदगी नहीं संभले हैं
कांटे कहां यहां बने कभी राह के कांटे
ज़रा-सा लहू पीकर फ़ौरन बाहर निकले हैं
आग कराती रही दूर से अहसास अपना
खाक़ जो हुए दरअसल चांदनी से जले हैं
ज़रा-सी खराबी भी मशीन को नहीं बर्दाश्त
टूटे लोग कहां रुके, बिखरे चाहे भले हैं
श्यामल अश्क़ों ने थमकर बना दिया समंदर
बेचैनी बयां करती रही प्यास से छले हैं
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