रवानी-ए-खुशरंग कब से खूनी है
श्याम बिहारी श्यामल
ज़िंदगी याद कर तू मेरी ही चुनी है
अफ़सोस अब तक मेरी एक न सुनी है
इत्मीनान रहा बहुत स्याह बुनियाद में
चौंध-ए-गुंबद तकलीफ़देह दुनी है
बूत-ए-इंसाफ़ पट्टी हटा इसी वक़्त
तेरे यहाँ सभी फ़रियाद अनसुनी है
वक़्त को किसने किया बुख़ार के हवाले
हैरत क्यों तासीर-ए-ग़ज़ल गुनगुनी है
बू-ए-गुल में यहां क्यों ज़हर-सा घुल रहा
रवानी-ए-खुशरंग कब से खूनी है
श्यामल नज़र यह रवां-ए-मोहब्बत रही
पौध कहां जो हर बार मैंने बुनी है
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (14-10-2018) को "जीवन से अनुबन्ध" (चर्चा अंक-3124) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद बन्धुवर
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