ग़ज़ल
बेच रहे बचावी इंतजामात
श्याम बिहारी श्यामल
इल्म-ओ-बाज़ार की खुदा से नहीं हुई है मुलाक़ात
वरना पहुँच जाती पता नहीं कहाँ तक खुराफात
नीलाम हुए जब से तालीम-ओ-ईजाद-ओ-इल्म
बिकने लगे खुलेआम खट्टे-मीठे सारे जज्बात
जब चाहो हंसी दिखा दो या एकदम असली अश्क़
दवा हर जगह दुकान में हाज़िर है इसकी दिन-रात
आबोहवा में घोल रहे पहले अपने हाथों ज़हर
फिर ऊँची दरों पर बेच रहे बचावी इंतजामात
सियासत-ए-बाज़ार है यह या तिजारत-ए-सियासत
श्यामल अक्ल यह खेल समझने में खा रही है मात
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (10-10-2018) को "माता के नवरात्र" (चर्चा अंक-3120) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी